Being Transplanted.
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Consciousness -- चैतन्य-ब्रह्म :
और,
consciousness -- चेतना
का वही परस्पर संबंध है जो सूर्य और उसकी किरणों का है।
किरणें जिस वस्तु पर पड़ती हैं, उसे आलोकित करती हैं, यह स्थूल भौतिक प्रकाश का स्वभाव है। आलोकित वस्तु को जो नेत्र देखते हैं वे स्थूल ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, न कि स्वयं यह चेतना: - जो उनके माध्यम से आलोकित वस्तु में प्रकाश के माध्यम से वस्तु की पहचान करती है। स्थूल ज्ञानेन्द्रियों और उनसे संबद्ध सूक्ष्म ज्ञानेन्द्रियों में व्याप्त चेतना भी तत्वतः तो वही है जो कि सर्वत्र विद्यमान चैतन्य ब्रह्म है। किन्तु पञ्चतत्वों से बने विभिन्न शरीरों / जीवनरूपी जीवपिण्डों में इन्द्रिय-ज्ञान से उत्पन्न हुई स्मृति के कारण ऐसे प्रत्येक शरीर में अपना स्वतंत्र और संसार से भिन्न एक अस्तित्व होने की भावना जन्म लेती है, और यही व्यक्तित्व विशेष होता है, जिसकी अपनी औपचारिक सत्यता है, जो कि पूर्णतः व्यावहारिक यथार्थ भी है।
"सत्यता व्यावहारिक यथार्थ है।"
इसका तात्पर्य यह है कि व्यावहारिक सत्य (वैज्ञानिक आधार) के रूप में उस सत्यता को सभी अनायास अनुभव और स्वीकार भी करते और कर सकते हैं, और इस बारे में कोई शंका नहीं है। अतः प्रत्येक ही चेतन पिण्ड-शरीर में यह चैतन्य जागृत होता है, और उस शरीर में उसका वह चेतना-रूपी प्रकाश व्याप्त होता है, जो उसमें उसके अपने एक स्वतंत्र अस्तित्व होने की भावना का एकमात्र कारण है। यह चैतन्य और इससे फलित होनेवाली प्रतिबिम्बित चेतना के बीच परस्पर वैसा ही संबंध है, जैसा सूर्य और उसकी किरणों से आलोकित किसी वस्तु के बीच होता है।
चैतन्य स्वयं ज्ञान ही है, जबकि शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धि आदि में व्याप्त चेतना उसकी शक्ति तथा प्रकाश है। चैतन्य तो केवल ज्ञान ही है, जबकि चेतना ज्ञान, शक्ति और कार्य भी है, जिसे कि क्रमशः ज्ञान-शक्ति और क्रिया-शक्ति कह सकते हैं।
पुनः मुण्डकोपनिषद् :
शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ।
कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति।।३।।
समस्त विद्याओं का स्रोत / अधिष्ठान तो ब्रह्मविद्या है, यह स्पष्ट करने के बाद उस ब्रह्मविद्या से उत्पन्न और फलित जो असंख्य विद्याएँ हैं, वे ज्ञान नहीं, ज्ञान प्रतीत होनेवाला ज्ञान का आभास मात्र है। शौनक नामक ऋषि, - महाशाल किसी महाशाला के अधिष्ठाता थे, जिनके बहुत बड़े विशाल महाविद्यालय में उनके अनेक शिष्य विद्याध्ययन किया करते थे।
उन्होंने अनुभव किया कि समस्त ज्ञान और विद्याओं में निष्णात हो जाने पर भी
'यह सब क्या है!',
इस प्रश्न का उत्तर नहीं प्राप्त हो पाता। इसी जिज्ञासा से वे प्रेरित हुए, और इसका समाधान पाने के उद्देश्य से वे महर्षि अङ्गिरस् के समीप पहुँचे और इसका समाधान प्राप्त करने के लिए उनसे विधिपूर्वक दीक्षा ग्रहण की, और फिर उनसे प्रश्न किया --
"भगवन्! वह क्या है, जिसे जान लिए जाने पर :
'यह सब क्या है?'
इसे, अर्थात् इस सबको जान लिया जाता है?"
तस्मै स होवाच। द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च।।४।।
"शौनक! ब्रह्मविद कहते हैं : जानने योग्य विद्याएँ तो दो ही हैं - परा एवं अपरा।"
तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति। अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते।।५।।
"शौनक! उन दोनों प्रकार की विद्याओं में से एक तो वह अपरा विद्या है, जिसके माध्यम से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष को जाना जाता है, तो परा विद्या इनसे भिन्न वह विद्या है, जिससे उस अक्षर अविनाशी को जाना जाता है।"
इस प्रकार ज्ञान, बुद्धि और विद्या का जो क्रम है, वह उत्तरोत्तर अक्षर से सूक्ष्म, सूक्ष्म से अव्यक्त-व्यक्त, अव्यक्त-व्यक्त से स्थूल मन, बुद्धि, और फिर और भी अधिक स्थूल इन्द्रिय-गोचर ज्ञान तथा फिर संसार का ज्ञान और स्मृति का रूप ग्रहण करता है। बुद्धि क्षण क्षण प्रकट और क्षण क्षण अप्रकट होते रहनेवाला तत्व (principle) है, जबकि विचार उसकी तुलना में काल से जुड़ी गतिविधि है, और इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं हो सकता है, कि बुद्धि का उन्मेष काल से होता है, या काल की कल्पना का बुद्धि से। किन्तु फिर भी बुद्धि, काल से सीमित नहीं होती और उसका स्रोत काल से परे (Time-less / beyond time) है। इसी प्रकार काल बुद्धिगम्य होते हुए भी, बुद्धिग्राह्य नहीं हो सकता, और इसीलिए काल के रहस्य को आज तक के वैज्ञानिक नहीं खोल सके। यह समझना कठिन नहीं है कि काल केवल कल्पना / अनुमान और विचार की गतिविधि मात्र है, न कि कोई विद्यमान भौतिक वस्तु या तत्व।
अब विद्या के बारे में यह स्पष्ट ही है कि विद्या के स्रोत दो ही हो सकते हैं : अभ्यास और बुद्धि। अभ्यास करते करते अभ्यास हो जाता है, जिसे फिर कौशल कहा जाता है। सभी विद्याएँ निरंतर अभ्यास से प्राप्त की जाती हैं, इसलिए विद्या और काल का एक दूसरे से गहरा संबंध है। यद्यपि काल विद्या का अतिक्रमण कर सकता है, किन्तु विद्या काल का अतिक्रमण नहीं कर सकती।
विचार (thought) ही विद्या की मर्यादा (limit) है, इसलिए विचार कर सकना अभ्यास है और इसका कितना भी अभ्यास कर लिया जाए, इससे बुद्धि उत्पन्न नहीं होती । जबकि बुद्धि के कौंधते ही उसे शब्दों और भाषा के माध्यम से व्यक्त कर किसी विचार के रूप में प्रकट और अभिव्यक्त भी किया जा सकता है। रोचक सत्य यह भी है कि विचार के माध्यम से यदि किसी सत्य को व्यक्त कर भी दिया जाए तो भी यह आवश्यक नहीं, कि उस विचार को पढ़ने या सुनने वाला उस सत्य को ग्रहण कर ही ले। अतः शास्त्र अन्य किसी रीति से उस सत्य की प्राप्ति करने के लिए, उसको जानने के उपाय को इंगित करते हैं, क्योंकि यदि वह सत्य जो कि बुद्धि से भी परे है, और यदि उसे बुद्धि से भी नहीं पाया जा सकता, तो विचार या विद्या से उसे प्राप्त करने की तो कल्पना तक भी नहीं की जा सकती।
ब्रह्मविद्या भी इसीलिए ब्रह्म के अर्थात् आत्मा, या परमात्मा के साक्षात्कार का प्रत्यक्ष / अपरोक्ष उपाय नहीं, किन्तु इंगितमात्र तो अवश्य ही हो सकता है।
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