'मैं', 'मन' और विचार
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अतीत और स्मृति क्या दो अलग अलग वस्तुएंँ हैं?
अतीत स्मृति है, और स्मृति ही अतीत है।
किन्तु विचार ही वह सूत्र है जिसका एक सिरा अतीत, तो दूसरा सिरा स्मृति है। क्या विचार के सक्रिय होते ही स्मृति का कार्य प्रारंभ नहीं हो जाता? और क्या स्मृति के सक्रिय होते ही विचार का कार्य प्रारंभ नहीं हो जाता? क्या किसी तथाकथित अतीत के अभाव में इनमें से किसी का भी कार्य हो पाना संभव है?
किन्तु अतीत का विचार, 'समय' नामक जिस आभासी सत्यता को अस्तित्व प्रदान करता है, क्या ऐसी किसी वस्तु का स्वतंत्र अस्तित्व होता भी है?
फिर भी यह तो मानना ही होगा और इसमें सन्देह भी नहीं है कि विचार का एक तात्कालिक और शाब्दिक अस्तित्व तो होता ही है। इस प्रकार, विचार के होने में जो समय व्यतीत होता है, उस समय की भौतिक सत्यता से इनकार नहीं किया जा सकता। इस समय को क्षणों, पलों, मिनटों आदि में मापा जा सकता है, और इसलिए कोई विचार अल्पकालिक और कोई अपेक्षतया दीर्घकालिक भी हो सकता है। क्या समय का यह छोटा या बड़ा प्रकार घटना के रूप में ही नहीं होता?
किन्तु अतीत को स्मरण करते समय क्या समय इस प्रकार से छोटा या बड़ा अनुभव होता है?
शायद यह कहा जा सकता है कि समय की यह लंबाई, या यह अंतराल, वस्तुतः काल्पनिक ही होता है।
इसकी तुलना में विचार द्वारा लिया जानेवाला समय काल्पनिक न होकर भौतिक पैमाने पर मापनीय एक अन्तराल होता है।
'मन', 'मैं' और 'विचार'
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'मन', 'मैं' और 'विचार' क्या भिन्न भिन्न और / या एक दूसरे पर निर्भर, और / या एक दूसरे से स्वतंत्र वस्तुएँ हैं? जैसे शरीर को 'मेरा' कहा जाता है, उसी प्रकार जाने-अनजाने ही 'मन' को भी कभी कभी 'मैं' और कभी कभी 'मेरा' नहीं कहा जाता? किन्तु स्मृति या विचार, भावना या बुद्धि के बारे में ऐसी कोई दुविधा नहीं होती। उन्हें हमेशा ही 'मेरा' ही कहा जाता है, 'मैं' नहीं! 'मन' नामक वस्तु क्या स्मृति या विचार, भावना या बुद्धि ही नहीं होती? स्पष्ट है, यद्यपि 'मन' को भी कभी कभी 'मेरा' कहा जाता है, किन्तु कभी कभी 'मैं' को 'मन' या / और 'मन' को 'मैं' भी कह दिया जाता है। जब 'मन' को अतीत या स्मृति से संबंधित कर लिया जाता है, तब कहा जाता है : 'मन' चिन्तित, प्रसन्न, दुःखी या सुखी था। किन्तु जब 'मन' को इस क्षण या वर्तमान से जोड़कर देखा जाता है तो उसे 'मैं' कहा जाता है। 'मन' के साथ यह दोहरा व्यवहार ही 'मैं' नामक वस्तु की पहचान में त्रुटि पैदा होने का कारण होता है।
क्या 'मन', 'मैं' है?
और, क्या 'मैं', 'मन' है?
दो महान गणितज्ञों, देकार्त (Descartes) की स्थापनाओं और कुर्ट गॉडेल (Kurt Godel) की विवेचनाओं (deduction) में इसलिए परस्पर विसंगति है। किन्तु दोनों ही वैचारिकता और बौद्धिकता तक सीमित हैं।
देकार्त के अनुसार :
मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ। यह आभासी सत्य है। वास्तव में मैं हूँ, इसलिए मैं सोचता / नहीं सोचता हूँ।
इसमें एक विसंगति यह भी है कि 'मैं' नामक वस्तु का सोचने या विचार से कोई संबंध ही नहीं हो सकता। सोचना अर्थात् विचार करना 'मन' का कार्य है, न कि 'मैं' के द्वारा किया जानेवाला / होनेवाला कोई कार्य ।
कुर्ट गॉडेल के अनुसार :
कोई भी और प्रत्येक ही स्व-सापेक्ष वक्तव्य अधूरा और आंशिक होता है।
वैसे भी 'मन' की योग्यता भी नहीं, और उसे अधिकार भी नहीं कि वह 'मैं' शब्द का प्रयोग करे।
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