ज्ञान / ज्ञात की मृत्यु
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कठोपनिषद् को सर्वथा नये सिरे से पढ़ना प्रारंभ किया।
कठोपनिषद् में कथा का नायक वाजश्रवा का पुत्र, आरुणि है। उसका एक नाम उशना है, जिसका उल्लेख गीता अध्याय १० के इस श्लोक में भी है :
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जय।।
मुनीनामप्यहं व्यासः कवीनामुशना कवि।।३७।।
वैसे गीता में उक्त श्लोक में वर्णित उशना कवि, दैत्यों के आचार्य शुक्र भी हैं, जिनका नाम भृगु या गौतम है, और जिन्हें परशुराम के रूप में भी जाना जाता है।
छमा बड़न को चाहिए, छोटन को उत्पात।
का रहीम हरि को घट्यौ, जो भृगु मारी लात।।
किसी पुराकल्प में एक बार इन्द्र और देवताओं से डरकर दैत्यों ने रक्षा के लिए उनके आचार्य शुक्र, भृगु के आश्रम में शरण ली। उस समय भृगु महर्षि अपने किसी कार्य से आश्रम से बाहर गए हुए थे। उनकी पत्नी आश्रम में थी, जिसने दैत्यों को आश्रम में छिपने और सुरक्षित रहने में सहायता की। तब भगवान् विष्णु ने चक्र से उसका सिर काट दिया। इस पर भृगु क्रुद्ध हो उठे और उन्होंने भगवान् विष्णु की छाती पर लात मारकर उन्हें यह शाप दिया कि त्रेतायुग में उन्हें भी पत्नी से दूर होने का अत्यन्त कष्ट भोगना होगा। त्रेतायुग आने पर भगवान् विष्णु (हरि) का राम के रूप में अवतार हुआ। रावण उनकी पत्नी को हर ले गया।
उपनिषदों और पुराणों में, यहाँ तक कि वेदों में भी ऋषियों और देवताओं को उनके कुल-नाम से जाना जाता है, इसलिए कभी कभी उनकी कथाओं को समझने में भूल हो जाना स्वाभाविक ही है।
ऋषि उशना ने सर्ववेदस् यज्ञ किया, जिसमें सब कुछ त्याग दिया जाता है। सब कुछ का यहाँ अर्थ है स्वामित्व की भावना को ही त्याग दिया जाना। प्रयोजन है अहंकार का निवारण करना, जैसे भी हो सके। स्वाभाविक ही है कि अहंकार स्वयं अपना निवारण / विनाश नहीं कर सकता। वैसे तो वह स्वयंभू है, किन्तु उसे यह नहीं पता, और न वह इसका अनुमान या कल्पना ही कर सकता है, कि जिससे या जहाँ से उसका उद्भव हुआ, उस मूल तत्व का अस्तित्व यद्यपि असंदिग्ध और स्वप्रमाणित है, किन्तु स्वरूप क्या है, इस विषय में भी उसे कुछ नहीं पता। अपने बारे में उसे यह तो पता है कि वह नित्य है, किन्तु उसे इस बारे में कुछ नहीं पता कि मृत्यु क्या होती है। और मृत्यु हो जाने के बाद वह रहेगा या नहीं, पुनः किसी लोक में उसका नये रूप में नया जन्म होगा या क्या वह स्वर्ग या नरक आदि किसी लोक में जा पहुँचेगा, क्या वह मनुष्य, पशु-पक्षी या किसी अन्य लौकिक प्राणी के रूप में रहेगा, या प्रेत-योनि को प्राप्त होगा। मृत्यु में सब कुछ समाप्त हो जाता हो, तो इसका प्रमाण कौन, किसे दे सकता है। और अगर मृत्यु हो जाने पर भी ऐसा कुछ रहता है जिसकी मृत्यु नहीं होती, तो क्या ऐसे परिवर्तन को मृत्यु कहा जा सकता है?
यह तो स्पष्ट है कि अहंकार की ही तरह अस्तित्व भी स्वयंभू है क्योंकि उसका उद्भव किससे और कहाँ से हुआ, इसे कोई नहीं जानता। पुनः, अस्तित्व के भी दो पक्ष - अहंकार और संसार हैं, संसार का प्रमाण तो अहंकार है, किन्तु अहंकार का प्रमाण वह स्वयं है, न कि संसार या कोई और। इस प्रकार अहंकार चेतन है जबकि संसार या कोई भी अन्य वस्तु जड है। अहंकार दृष्टा है, जबकि अन्य सब दृष्ट या दृश्य है।
इस अहंकार में दृष्ट या दृश्य ही ज्ञात है, और जिस मूल तत्त्व से अहंकार की उत्पत्ति होती है वह अज्ञात है। किन्तु अहंकार यह भी जानता है कि ऐसी किसी वस्तु का अस्तित्व अकाट्य और असंदिग्ध सत्य है। अहंकार, इस सत्य को भी समझ सकता है कि उसका उद्भव उसी 'अज्ञात' से ही हुआ है। तब वह या तो अपने आपको उसके प्रति समर्पित कर दे, जिसके बारे में उसे बस यही पता है कि उसका अस्तित्व है, किन्तु जिसके स्वरूप के बारे में वह कुछ नहीं जानता, या उसे जानने का यत्न करे।
उसे जानने के यत्न का अर्थ हुआ 'आत्मानुसन्धान' करना। इस प्रकार के आत्मानुसन्धान के यत्न में अहंकार को समस्त 'ज्ञात' को त्याग देना होगा। उशना के द्वारा जिस विश्वजित् नामक यज्ञ का अनुष्ठान किया जा रहा था, उसके माध्यम से उसने अपने स्वामित्व की सभी वस्तुओं को अर्थात् सर्ववेदस् को त्याग दिया।
उसका नचिकेता नामक एक पुत्र था, पुत्र और आत्मज का अर्थ समान है। आत्मज अर्थात् जिसकी उत्पत्ति स्वयं से होती है। इस का दूसरा अर्थ 'मन' हुआ । मन की उत्पत्ति भी अपने आप से ही से होती है। इसलिए 'मन' भी आत्मज है ।
अब हम महर्षि श्री रमण विरचित 'सद्दर्शनम्' ग्रन्थ के प्रारंभिक दोनों पदों का तात्पर्य समझ सकते हैं :
सत्प्रत्ययाः किं नु विहाय सन्तं
हृद्येष चिन्तारहितो हृदाख्यः।।
कथं स्मरामस्तममेयमेकम्
तस्य स्मृतिस्तत्र दृढैव निष्ठा।।१।।
मृत्युञ्जयं मृत्युभियाश्रिताना
महंमतिर्मृत्युमुपैति पूर्वम्।।
अथ स्वभावादमृतेषु तेषु
कथं पुनर्मृत्युधियोऽवकाशः।।२।।
उशना ने सर्वस्व दान कर दिया किन्तु दान करनेवाले अहंकार अर्थात् मन रूपी आत्मज का दान वह न कर सका। तब उसके मन ही ने उससे प्रश्न किया :
"पिताजी, यदि आप अपना सब कुछ ही दान कर रहे हैं तो आप मुझे भी तो किसी न किसी के लिए दान में देंगे ही! वह कौन है जिसके लिए आप मेरा दान कर देंगे?"
दो तीन बार ऐसा पूछे जाने पर उशना ने कहा :
"मैं मृत्यु के लिए तुम्हारा दान करता हूँ!"
तात्पर्य यही कि मन को मृत्यु प्राप्त हो जाए।
उपरोक्त श्लोक २ में इसे ही अक्षरशः
"अहंमतिर्मृत्युमुपैति"
के द्वारा व्यक्त किया गया है।
आत्मा / परमात्मा की प्राप्ति / खोज के दो ही उपायों (निष्ठाओं) का वर्णन गीता में प्राप्त होता है :
लोकेऽस्मिन्द्विविधानिष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।३।।
(अध्याय ३)
तथा,
साङ्ख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः।।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्।।४।।
यत्साङ्ख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।।
एकं साङ्ख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति।।५।।
(अध्याय ५)
इन्हीं दो निष्ठाओं का उल्लेख गीता के द्वितीय अध्याय में तथा बाद के अन्य सभी अध्यायों में क्रमशः किया गया है।
'सद्दर्शनम्' से उद्धृत उपरोक्त दोनों श्लोक भी क्रमशः इन्हीं दोनों उपायों / निष्ठाओं के द्योतक हैं।
अहंकार (ego) का निवारण (elimination) ही समस्त ज्ञान / ज्ञात से मुक्ति का द्योतक है।
यही मृत्यु का ज्ञान और ज्ञान / ज्ञात की मृत्यु भी है।
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