विप्रतिषेधे परं कार्यम्।।
(अष्टाध्यायी १/४/२)
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तुल्यबलविरोधे(*१) परं कार्यं स्यात। इति लोपे प्राप्ते पूर्वत्रासिद्धमिति।
रोरीत्यस्यासिद्धत्वादुत्वमेव(*२)। मनोरथः।।
(ढ्रलोपेपूर्वस्य दीर्घोऽणः ६/३/१११)
*१ अत्रपूर्वग्रहणमुत्तरपदाधिकारनिवृत्त्यर्थमत एव व्यस्तप्रयोगं उदाहरति -- 'पुना रमते' इत्यादि
*२ प्रकृते 'पुना रमते' इत्यत्र 'रो रि' ८/३/१४, इत्यस्य 'शिवो वन्द्यः' इत्यत्र 'हशि च' ६/१/११४ इत्यस्य लब्धावकाशतया 'मनोरथः' इत्येकस्मिँलक्ष्ये द्वयोः प्राप्तिरतो विप्रतिषेधः।। इस प्रकार इस सूत्र में कहीं कोई विसंगति या विरोधाभास तक नहीं है। ऋषि राजपोपट ने 'गुरुणा' (*३) पद की सिद्धि के लिए इस सूत्र को मनमाने तरीके से तोड़मरोड़कर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि उसने 2500 वर्ष पुरानी समस्या का हल खोज लिया है! और स्पष्ट है कि यह सब इसलिए किया गया है कि पाणिनी, कात्यायन और पतञ्जलि के द्वारा की गई विवेचना त्रुटिपूर्ण है यह प्रतीत हो।
*३ इसी प्रकार से 'गुरुणा' पद की सिद्धि के लिए :
"स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम् भिस् ङे ..." ४/१/२ का प्रयोग पूरी तरह से अनावश्यक है। इस प्रकार से अनावश्यक विवाद पैदा करना इनके उद्देश्य को दर्शाता है। और इस पद 'गुरुणा' की सिद्धि में "विप्रतिषेधे परं कार्यं" लागू ही नहीं होता।
यह सिद्ध करने के लिए बहुत सी बातें लिखी जा सकती हैं, कि किस प्रकार से यह सब एक षड्यन्त्र के तहत किया जा रहा है।
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