सनातन-सत्य
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ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्याम् जगत् ।।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्य स्विद्धनम् ।।१।।
(ईशावास्योपनिषद्)
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ।।१७।।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २)
उपरोक्त दोनों उद्धरणों से इस तथ्य पर हमारा ध्यान जा सकता है कि इन्हें केवल शाब्दिक विचार की तरह ग्रहण किया जाता है, या ये दोनों वक्तव्य जिस सत्य को इंगित करते हैं, उस सत्य को ग्रहण किया जाता है।
क्या सत्य एक है? या सत्य अनेक हैं? या, क्या सत्य को 'एक' अथवा 'अनेक' की कोटि में रखा भी जा सकता है?
'विचार', बुद्धि को इसी प्रकार मोहित करता है।
'विचार' के द्वारा जिस तथ्य को कहा जाता है, एवं बाद में पुनः सुना और शब्दार्थ तथा भावार्थ के रूप में ग्रहण किया जाता है, बुद्धि उस तात्पर्य की व्याख्या पुनः किसी 'विचार' के रूप में कर सकती है, और इस प्रकार उस तत्व सत्य पर ध्यान ही नहीं जा पाता, जिसे 'विचार' के माध्यम से प्रकट किया गया था।
सत्य या ईश्वर, आत्मा, मन, स्थान और समय आदि ऐसे ही शब्द हैं, जिन्हें सुनकर यह भ्रम पैदा हो जाता है कि ऐसी किसी वस्तु का अस्तित्व है, और तब उस वस्तु पर 'एक' अथवा 'अनेक' का विशेषण आरोपित कर लिया जाता है।
किसी भौतिक और इन्द्रियग्राह्य वस्तु को शायद 'एक', 'अनेक' आदि कहा जा सकता है, किन्तु हवा, पानी, वायु, गरमी, शीत, भूख या प्यास, प्रेम, आदि वस्तुओं को 'एक' या 'अनेक' कहना क्या संभव, या उचित भी है?
क्या सत्य या ईश्वर, आत्मा, मन, स्थान और समय ऐसे ही शब्द नहीं हैं, जिनकी वास्तविकता से अनभिज्ञ होते हुए भी, हम उन पर 'एक' या 'अनेक' का विशेषण आरोपित कर देते हैं?
क्या 'हम', 'व्यवस्था', परिस्थिति, ऐसे ही और शब्द नहीं हैं?
अतः इस प्रकार से कहा और सुना गया कोई भी वक्तव्य, शब्द या तो शब्दों का समूह मात्र हो सकता है, या किसी इन्द्रियग्राह्य तथ्य का द्योतक भी हो सकता है।
किन्तु जब ऐसा कोई तथ्य केवल कोई कल्पना, भावनात्मक या केवल मानसिक अनुभूति हो, तो ऐसा आवश्यक तो नहीं है कि वह इन्द्रियग्राह्य भी हो ही!
इसीलिए भावग्राह्य, मनोगम्य, कल्पनाजनित, या भावनात्मक अनुभूति के तथ्यों को जिस प्रकार शब्दों के माध्यम से वक्तव्य का रूप दिया जाता है वैसा करना तथ्य को न केवल विरूपित कर सकता है, बल्कि उन्हें एक बिल्कुल भिन्न आवरण के भीतर छिपा भी सकता है।
किन्तु अगर भाषा के माध्यम का प्रयोग न किया जाए, तब भी क्या भावनात्मक वस्तुओं के बारे में, उन मानसिक अनुभूतियों का संप्रेषण किया जाना संभव है? जैसे सुख-दुःख, हर्ष-विषाद, चिन्ता-निश्चिन्तता, सुरक्षा-असुरक्षा, भय-लोभ, मोह-द्वन्द्व, राग-विराग, आसक्ति-अनासक्ति, वैराग्य इस प्रकार की भावनात्मक स्थितियों को व्यक्त करने के लिए क्या कोई और साधन हमारे पास है? भाषा से 'विचार' का जन्म होता है और संप्रेषण के लिए विचार अवश्य ही एकमात्र उपलब्ध साधन भी है। यद्यपि विचार की अपनी सीमितता / सीमा होती है, और विचार प्रायः अनेक अर्थों का सूचक भी हो सकता है । पुनः ये विभिन्न अर्थ भी परस्पर विसंगतिपूर्ण हो सकते हैं। यही है विचार की सीमा।
किन्तु विचार की इस सारी गतिविधि में वह सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य ही, आँखों से ओझल और दृष्टि से परे हो जाता है जिसे कि विचार आवरित कर लेता है। वह तथ्य है विचार की वह पृष्ठभूमि जो प्रकाश / चेतना की तरह से विचार और उसके तात्पर्य को आलोकित करते हुए भी स्वयं विचार और उसके शाब्दिक अर्थ से परे होती है।
चिन्ता, वैचारिक चिन्तन, तथा चिन्ता का दूर हो जाना, यह सभी यद्यपि विचार की ही गतिविधि है, किन्तु विचार की पृष्ठभूमि इस सब से सर्वथा अछूती, वह निर्विचार ज्योति है जिसे विचार के झोंके स्पर्श तक नहीं कर पाते।
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