The Secular Hindu
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1976 के बाद किसी समय जब भारत के संविधान में संशोधन कर भारत को "समाजवादी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र" घोषित किया गया तब इस पर शायद ही किसी का ध्यान गया होगा कि "रिलीजन" के अर्थ में "हिन्दू" भारतीयों का धर्म नहीं है। 'हिन्दू' / 'हिन्दुत्व' यह शब्द भारतीय समाज के इतिहास, अतीत और, सांस्कृतिक विरासत का वर्तमान सामाजिक यथार्थ तो अवश्य ही है, किन्तु यह शब्द सनातन-धर्म के किसी भी ग्रन्थ में नहीं मिलता।
भारतीय और धर्म को सनातन-सत्य के अर्थ में ग्रहण करने वाले सभी लोग इस बारे में पूर्णतया सहमत हैं कि वेद, उपनिषद् तथा पुराणों के ही साथ, या शायद उनसे भी बढ़कर, श्रीमद्भगवद्गीता ही एकमात्र ग्रन्थ है जिसे कि सबके लिए प्रामाणिक मार्गदर्शक धर्मग्रन्थ कहा जा सकता है।
इस ग्रन्थ का प्रारंभ ही :
"धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः"
(गीता - श्लोक 1,अध्याय 1)
से होता है।
यहाँ धर्म का अर्थ है पारंपरिक-लौकिक (secular) सामाजिक अनुष्ठान - इसे नैतिकता (ethics) और सामाजिक सदाचरण (morality) भी कहा जा सकता है।
पुनः अध्याय 4 में संसार के ईश्वर, या ईश्वर का अवतार स्वीकार किए जानेवाले भगवान् श्रीकृष्ण के वचन के अनुसार :
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ...
(श्लोक 7)
जब जब यह सनातन धर्म अर्थात् मनुष्य का आचार-विचार और व्यवहार अपने सनातन सत्य के मूल स्वरूप से हटकर विरूपित और दूषित हो जाता है, तब तब इस सनातन सत्य के स्वरूप से सुसंगत धर्म की स्थापना के प्रयोजन से "मैं" अवतरित होता हूँ।
इस ग्रन्थ के निष्कर्ष के रूप में भी अन्ततः भगवान् श्रीकृष्ण के द्वारा हमें सचेत करते हुए हमसे कहा जाता है :
"सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज"
(अध्याय 18,श्लोक 66)
जो अवश्य ही इसी तात्पर्य की पुष्टि करता है कि सभी मतवादों को छोड़कर एकमात्र अपनी / ईश्वर की शरण में आ जाओ।
इसका यह तात्पर्य भी ग्रहण किया जा सकता है कि अपने ही उस विवेक की शरण लो जिसकी शिक्षा विस्तार से इस ग्रन्थ में दी गई है।
किन्तु, क्या सभी धर्मों का परित्याग करने का सरल और सीधा सा अर्थ, धर्म-निरपेक्ष होना ही नहीं हुआ? यहाँ यह भी समझा जा सकता है, कि इस प्रकार इसका अर्थ यह भी हुआ कि राष्ट्र और समाज के सन्दर्भ में किसी भी धर्म / रिलीजन को उसे न माननेवाले अन्य लोगों पर थोपा न जाए!
सनातन-धर्म का मूल सिद्धान्त यही तो है।
सनातन-धर्म के रूप में अपने मत को स्वीकार करनेवाले सभी मनुष्य निर्विवाद रूप से "अहिंसा" को ही धर्म, तथा हिंसा को, (प्राणि-मात्र से वैर) को ही अधर्म की तरह परिभाषित करते हैं। इस दृष्टि से भी समाज या राष्ट्र किसी भी नागरिक को किसी विशेष धर्म / रिलीजन का पालन करने के लिए बाध्य नहीं कर सकते। समस्या यह है कि कुछ रिलीजन / कल्चर्स ऐसे भी हैं जो केवल अपने ही रिलीजन / कल्चर / मत को ही सभी के लिए आचरण करने के लिए अपरिहार्यतः एकमात्र आवश्यक और सर्वोच्च ईश्वरीय आदेश की तरह मानने के लिए बाध्य करते हैं। इस प्रकार के भिन्न भिन्न राजनीति-परक लक्ष्यों (political ideologies) से प्रेरित भिन्न भिन्न कल्चर्स / रिलीजन्स का परस्पर शान्तिपूर्ण सह-अस्तित्व संभव है?
हिन्दू संस्कृति, समाज या हिन्दुत्व इस अर्थ में अवश्य ही वस्तुतः धर्मनिरपेक्ष है कि वह किसी विशेष मत / सिद्धान्त को किसी भी मनुष्य पर बलपूर्वक आरोपित करने के विरुद्ध है।
(यह केवल एक दृष्टिकोण और सोचने का एक और तरीका भी हो सकता है, न कि कोई अंतिम निष्कर्ष)
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