Wednesday, 3 August 2022

ज्ञानी, कवि, गणितज्ञ और वैज्ञानिक

कर्म, अकर्म और विकर्म 

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किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः।। 

तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्।।१६।।

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः।।

अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः।।१७।।

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।।

स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।१८।।

(श्रीमद्भगवद्गीता - अध्याय ४)

अथातो कर्मजिज्ञासा :

किं कर्तव्यमकर्तव्यं किं कर्म च कः कर्ता।।

कथमेतद्विजानीयात् तेषामपि किं तत्त्वम्।।

किं प्रत्यक्षं किमानुमानं कः आगमः प्रमाणं किम्।।

कस्मिन्काले च ज्ञातव्यं यस्मिन्मोहं तु निवर्तयेत्।।

कथमेतद्विजानीयात् कालस्य स्वरूपं किम्।

कथमेतद्भवेत्कालं यस्मिन् पूर्वापरं न चेत्।।

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अंतिम तीनों श्लोक स्वरचित हैं।

कथ्यते अतः --

अक्षरात्संजायते कालः कालाद् व्यापकः उच्यते।।

(शिव-अथर्वशीर्ष)

उपरोक्त श्लोकों में कर्म के स्वरूप की विवेचना की गई है। 

यह विवेचना ज्ञानी, कवि, वैज्ञानिक और गणितज्ञ की दृष्टि से भी की जा सकती है। ज्ञानी अर्थात् तत्त्वविद् को इस विषय में संशय नहीं होता कि किसी भी प्रकार का कर्म सदैव काल-स्थान के सन्दर्भ में ही हो सकता है। कवि की बुद्धि इस विषय में मोह से युक्त भी हो सकती है, और यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक ही कवि मोहित-बुद्धि होता हो, क्योंकि कवियों में से भी कोई, ज्ञानी तत्त्वदर्शी ऋषि हो सकता है, जबकि कुछ दूसरों को सत्य का आभास किसी कौंध जैसा होकर पुनः विलीन हो सकता है।

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तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।।

प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः।।१७।।

उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।।

आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवनुत्तमां गतिम्।।१८।।

(अध्याय ७)

पुरातन / पुराने का विचार, नवीन / नये के आभास से, और उस आभास की सत्यता के विचार से ही उत्पन्न होता है, इसलिए इस प्रकार से जिस काल का अनुमान किया जाता है, वह अतीत की स्मृति या भविष्य की कल्पना का कारण होता है, जबकि न तो ऐसा काल, अतीत या भविष्य कोई वास्तविकता है। इसी अतीत को अनादि समझा जाता है और फिर किसी आरंभरहित समय का अनुमान किया जाता है, जबकि अनादि का एक आशय यह भी है जिसका आरंभ है ही नहीं। इसी प्रकार भविष्य को अनन्त कहे जाने का एक आशय यह है कि यह सतत और अन्तरहित है, तो अन्य आशय यह भी हो सकता है कि अभी भी विद्यमान  न होने से भविष्य में इसका अन्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता।

चूँकि काल इस प्रकार से, पञ्च महाभूतों में से कोई तत्त्व नहीं है, यह तो स्पष्ट ही है, फिर काल को क्या गुण कहा जा सकता है? यह जानना रोचक हो सकता है कि काल को न तो उत्पन्न किया जा सकता है, और न उसे नष्ट किया जा सकता है, फिर भी गुण के रूप में काल का संचय अवश्य किया जा सकता है। जैसे किसी औषधि / रसायन आदि को कुछ समय तक संचित कर रखने पर उसका प्रभाव भिन्न होता है, और उस समय का किसी स्वीकृत  पैमाने / प्रमाण से मापन भी किया जा सकता है, उसी आधार पर काल का इस रूप में भौतिक सत्यापन भी किया ही जाता है।

यह हुआ काल के स्वरूप का वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन।

किन्तु इस सतत चलनशील काल की पृष्ठभूमि में काल-निरपेक्ष जो अविकारी अपरिवर्तनशील वर्तमान है, क्या गणना या गणित के माध्यम से उसका आकलन किया जा सकना संभव है? 

यद्यपि यह वर्तमान ही चलनशील काल की धुरी है, किन्तु इसके स्वरूप को जान सकना असंभव है क्योंकि हम स्वयं ही वह हैं।

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः।।

न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्।।१२।।

(अध्याय २)

स्पष्ट है कि स्वरूपतः तो आत्मा ही वह अविकारी अविनाशी अक्षर तत्त्व है जो स्वरूपतः हम हैं। जबकि यह आभासी काल जिसका आकलन और कलन कवि, वैज्ञानिक और गणितज्ञों के द्वारा किया जाता है, उसका सतत चलनशील बाह्य प्रकार है।

काल का यह बाह्य प्रकार ही सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण है, जो पुनः प्रकाश, क्रिया और स्थिति के रूप में नित्य वर्तमान वास्तविकता (ever present, ever-abiding Reality)  है, जिसका अध्ययन भौतिकशास्त्र के विज्ञान का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक (Physicists) भी काल को :

light, momentum, और inertia

की तरह से परिभाषित कर किया करते हैं।

और इसी काल की उपासना पुनः दशमहाविद्याओं में से ही एक  रूप महाकाली के रूप में भी की जाती है।

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