एकमेव और अद्वितीय सृष्टिकर्त्ता
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फेसबुक पर एक नये मित्र बने।
उनके पोस्ट्स देखते-देखते एक वीडियो से सामना हुआ। एक सुप्रसिद्घ अभिनेता ने एक सुप्रसिद्घ आध्यात्मिक मार्गदर्शक से प्रश्न पूछा :
"आपको कभी अकेलापन / loneliness महसूस हुआ है?"
"हाँ, लेकिन जब ऐसा हुआ तब मैंने सोचा कि संसार की सृष्टि किसने की होगी! आपने तो नहीं की न!"
किसी कारण से उस समय इस वीडियो को और आगे देख पाना मेरे लिए संभव न हुआ। इसके कुछ समय बाद मुझे याद आया, लेकिन फिर सोचा कि बाद में, आराम से देखूँगा।
इस ब्लॉग के इससे पहले के पोस्ट में मैंने ऋषि, कवि, वैज्ञानिक और गणितज्ञ के बारे में लिखा है।
इस वीडियो को देखते हुए मुझे याद आया कि इसे वेदान्त की भाषा में अनवस्था-दोष (absurdity ad-infinitum) कहा जाता है। एक उदाहरण यह है : पहले अंडा हुआ या मुर्ग़ी?
मुझे लगता है, कि उपरोक्त वीडियो में उन मार्गदर्शक ने इसके आगे शायद ऐसा कुछ कहा होगा :
"तब मैंने सोचा कि जिसने संसार को बनाया, मुझे भी उसने ही तो बनाया होगा!
इसलिए वह मेरे और इस संसार के बारे में भी मुझसे तो अधिक और बेहतर ही जानता है! और इसलिए वह हमेशा ही मेरे साथ है, भले ही मुझे यह पता हो या कि न हो, याद रहे या कि न रहे! और इसलिए मुझे कभी अकेलापन महसूस नहीं होता है।"
चूँकि अभी तक मैंने उस वीडियो को आगे नहीं देखा है, इसलिए उन्होंने क्या कहा होगा इस बारे में केवल अनुमान लगा रहा हूँ, कुछ और कहना अभी न्यायसंगत नहीं होगा।
कोई व्यक्ति इतने ही उत्तर से संतुष्ट हो सकता है और उसमें उस सृष्टिकर्ता के बारे में और अधिक जानने की उत्सुकता पैदा नहीं होती होगी। जबकि दूसरा कोई 'बुद्धिवादी' तर्क कर सकता है : "फिर उस सृष्टिकर्त्ता की सृष्टि भी तो किसी ने की होगी!"
दूसरा कोई व्यक्ति ऐसे किसी सृष्टिकर्त्ता के अस्तित्व के विचार से अभिभूत होकर उसे ही ईश्वर या परमेश्वर मान लेता है, और वह भी संतुष्ट हो सकता है।
तीसरा कोई व्यक्ति इस पूरे तर्क-वितर्क को शब्दाडम्बर समझ लेता है, और इस चर्चा से उदासीन हो जाता है।
चौथा ऐसा ही कोई उस ईश्वर के बारे में और भी अधिक जानने, और उसके प्रत्यक्ष दर्शन करने के लिए उत्कंठित हो सकता है।
शायद कोई बिरला ही उस सत्य की खोज में संलग्न होकर इस पर ध्यान दे सकता है, कि क्या सृष्टि का विचार ही सृष्टि नहीं है? क्या यह विचार आने के बाद ही यह प्रश्न नहीं उठता है कि सृष्टि कब हुई होगी, किसने इस संसार की सृष्टि की होगी!
और किसी इससे भी अत्यन्त ही बिरले ही मनुष्य का ध्यान इस
पर जा पाता होगा कि 'सृष्टि कब हुई होगी!' यह प्रश्न तो अभी, -इसी क्षण ही तो मन में आया है, और 'कब' के प्रश्न के माध्यम से समय को अनायास, अनवधानता (in-attention) से एक ऐसी वस्तु मान लिया गया है, जो कि कभी था, अभी है, और भविष्य में भी होगा! इस प्रकार की भूल को ही प्रमाद (in-attention) कहा जाता है। इसी प्रकार से इस संसार को भी स्वयं से स्वतंत्र एक ऐसी वस्तु मान लिया जाता है, जिसमें मेरा जन्म हुआ। इसी प्रकार से, शरीर को ही भूल से मैं मान लिया जाता है, जबकि एक बच्चा भी स्वाभाविक रूप से यही जानता है कि शरीर उसका है, न कि शरीर वह स्वयं है!
फिर भी कोई इस बारे में और अधिक ध्यान देकर यह भी कह सकता है कि मैं शरीर नहीं, मन हूँ। किन्तु कोई उससे अधिक विवेकशील व्यक्ति पूछ सकता है, कि मन तो अपना रूप सतत बदलता रहता है, इसलिए मैं, जो हमेशा एक जैसा हूँ, मन नहीं हो सकता। वह इस निष्कर्ष पर पहुँच सकता है, कि यद्यपि मैं शरीर, मन नहीं हूँ, और केवल वह भान या चेतना हूँ, जिसमें कि यह सब, - शरीर, मन तथा संसार पुनः पुनः प्रकट और अप्रकट होते रहते हैं।
इस प्रकार अंततः उसे यह स्पष्ट हो जाता है कि वह जो है, उसे यद्यपि अपने से भिन्न की तरह नहीं जाना जा सकता, क्योंकि तर्क की दृष्टि से भी, जाननेवाला (विषय), जाननेवाले (विषयी) से पृथक् ही होता है; फिर भी उसे इस बारे में कोई संदेह, संशय या अज्ञान भी नहीं होता कि यह "मैं" व्यावहारिक, अनित्य और उससे परे के नित्य वर्तमान रूप में क्या है। चूँकि वह जड नहीं, चेतन है, इसलिए जो भी वह है, उसे 'क्या' न कहकर 'कौन' ही कहना उपयुक्त होगा। क्योंकि 'क्या' सर्वनाम, निर्जीव और जड वस्तुओं के संबंध में प्रयुक्त किया जाता है, और 'कौन' सर्वनाम किसी जीव के संबंध में।
ऐसे व्यक्ति के लिए 'सृष्टि' शब्द ही किसी अभिप्राय का सूचक नहीं होता, और सृष्टि किसने की, और कब की होगी जैसे प्रश्नों की तो कल्पना भी वह नहीं कर सकता।
फिर भी वह तत्त्वदर्शी होता है क्योंकि नित्य-अनित्य का भेद उसे नितान्त स्पष्ट होता है। और वह इस दृष्टि से रहस्यदर्शी भी कहा जा सकता है कि यद्यपि वह सत्य और आत्मा, परमात्मा के स्वरूप को भलीभाँति जानता है, किन्तु उसे वाणी से प्रकट करने में असमर्थता अनुभव करता है।
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