विषय, ’स्व’, ’चैतन्य-परब्रह्म’,
विषयीकरण और तादात्म्य
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श्री निसर्गदत्त महाराज कहते हैं :
"सबसे पहले तो तुम्हारा ध्यान (अटेन्शन attention) विषयों (objects) से हटाकर विषयी (subject) पर लाया जाना ज़रूरी है । इसके बाद तुम्हें विषयी पर दृढ़तापूर्वक आरूढ़ (abide) रहना होगा । इस प्रकार ’विषय-चेतना’ का लय ’स्व-चेतना’ (self-consciousness) में होता है । तब स्वचेतना में सतत स्थिर रहने पर ’स्व’ भी विशुद्ध चेतना में लीन हो जाता है । वहाँ पर यद्यपि तुम अनंत काल तक रुके रह सकते हो, किन्तु वहाँ तुम्हें रुकना नहीं है । क्योंकि तुम वह परम तत्व (Absolute) है, जिसमें, और जिससे यह चेतना (consciousness) प्रकट और विलीन, -व्यक्त और अव्यक्त होती रहती है । वास्तविक सत्ता Reality / ब्रह्म तो चेतना से भी परे है ।"
हमें पहले विषय और विषयी क्या है यह समझना होगा । मन, बुद्धि और इन्द्रियों के सक्रिय होने के बाद ही भीतर-बाहर रूपी द्वैत प्रकट होता है । प्रथमतः तो यह प्रतीत होता है कि यह स्थूल शरीर और उससे जुड़ा बाह्य संसार दो भिन्न वस्तुएँ हैं । फिर भिन्न-भिन्न इन्द्रियों के भिन्न-भिन्न प्रकार के संवेदनों से संसार में स्थित असंख्य वस्तुओं के रूप में इन्द्रियों द्वारा उन्हें ’विषयों’ की तरह ग्रहण किया जाता है । इस प्रकार की भिन्नता आभासी है और इन्द्रियों की सीमित क्षमता के ही कारण वे विभिन्न विषय अनेक और असंख्य प्रतीत होते हैं । किन्तु चूँकि जिन मूल तत्वों से संसार बना है, उन्हीं से हमारा शरीर भी बना है इसलिए मूलतः भी संसार न तो हमसे पृथक् है, न भिन्न ।
इन बाह्य प्रतीत होनेवाले विषयों से ध्यान हटाकर स्वयं पर लाते ही उन विषयों से जुड़े प्रत्यय (विचार, स्मृति, भाव, भावनाएँ, भावुकताएँ) भी विलीन हो जाते हैं और पुनः तभी ’अनुभव’ होते हैं जब ध्यान उन पर लाया जाता है ।
ऐसे ही समस्त ’अनुभव’ मिलकर एक ’स्व’ का आभास पैदा करते हैं जो संसार के उन असंख्य ’विषयों’ के बीच एकमात्र ’विषयी’ होता है । तुम न तो 'अनुभव' और न 'अनुभवकर्ता (स्व)' हो।
जब इस ’स्व’ के बारे में कुछ सोचा या कहा जाता है जब कभी भी स्वयं को किसी विषय की तरह इंगित किया जाना होता है, तो निर्णय / न्याय की भूल अर्थात् ’error of judgment के कारण स्वयं को भी संसार के ही उन असंख्य विषयों में से ही एक मान लिया जाता है । व्यावहारिक रूप से ऐसा करना स्वाभाविक तो है, किन्तु ऐसी भूल का एकमात्र कारण भी यही होता है ।
इस प्रकार ’विषयीकरण’(objectification) दो प्रकार से हो सकता है :
एक है किसी वस्तु को इन्द्रियों, मन, बुद्धि आदि का ’विषय’ (object) बनाना ।
दूसरा है स्वयं (subject) को ऐसा कोई ’विषय’ (object) मान लेना । ’विषयीकरण’ Identification को ही ’प्रत्यय’ (प्रतीति, पहचान) भी कहा जाता है । अंग्रेज़ी में इसे ’ऑब्जेक्टिफ़िकेशन’'objectification कहेंगे ।
अंग्रेज़ी में ’विषय’ को ’ऑब्जेक्ट’'object' तथा ’विषयी’ को ’सब्जेक्ट’ 'subject' कहेंगे । इस प्रकार ’सब्जेक्ट’ 'subject' को 'object’ तथा ’ओब्जेक्ट’'object' को ’सब्जेक्ट’ 'subject' बना या समझ बैठना ही तादात्म्य / ’आइडेन्टिफ़िकेशन’ 'identification' है ।
चूँकि चेतना में ही जागृत दशा waking state में शरीर और संसार परस्पर भिन्न दो सत्ताओं entities की तरह प्रतीत होते हैं, और स्वयं जागृत दशा भी एक अस्थायी दशा की तरह आती और जाती रहती है इसलिए इस जागृति की दशा का एक ऐसा अधिष्ठान substratum मानना ही होगा जिसके परिप्रेक्ष्य में ऐसा होता है । इसी प्रकार स्वप्न तथा स्वप्न से रहित गहरी निद्रा की दशा को भी अस्थायी दशा माना जा सकता है ।
इन्हीं तीन दशाओं में ’स्व’ self नामक आभासी सत्ता पुनः पुनः व्यक्त और लीन होती रहती है । किन्तु कभी कभी अन्यमनस्कता absentmindedness जैसी स्थिति में जागृति की दशा में भी यह देखा जाता है कि ’स्व’ की यह आभासी सत्ता नहीं होती (अर्थात् उसे किसी विषय-विशेष की तरह इंगित नहीं किया जा सकता), स्पष्ट है कि ऐसा बोध किसी चेतन-अवस्था में ही हो सकता है जो केवल ’भान’ awareness अर्थात् विशुद्ध विषयरहित अवस्था होती है ।
किन्तु अन्यमनस्कता absentmindedness / distraction / inattention में भी ध्यान अर्थात् अटेन्शन attention सतत, अखण्डित होता है ।
इस ध्यान को ही अवधान कहा जाता है ।
यह ध्यान (अवधान) यद्यपि पुनः पुनः तादात्म्य का आधार बन सकता है किन्तु वैसा होना केवल औपचारिक / व्यावहारिक तथ्य है ।
जब एक बार स्वरूप का उद्घाटन हो जाता है तो उसके बाद समस्त संशयों की निवृत्ति हो जाती है ।
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विषयीकरण और तादात्म्य
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श्री निसर्गदत्त महाराज कहते हैं :
"सबसे पहले तो तुम्हारा ध्यान (अटेन्शन attention) विषयों (objects) से हटाकर विषयी (subject) पर लाया जाना ज़रूरी है । इसके बाद तुम्हें विषयी पर दृढ़तापूर्वक आरूढ़ (abide) रहना होगा । इस प्रकार ’विषय-चेतना’ का लय ’स्व-चेतना’ (self-consciousness) में होता है । तब स्वचेतना में सतत स्थिर रहने पर ’स्व’ भी विशुद्ध चेतना में लीन हो जाता है । वहाँ पर यद्यपि तुम अनंत काल तक रुके रह सकते हो, किन्तु वहाँ तुम्हें रुकना नहीं है । क्योंकि तुम वह परम तत्व (Absolute) है, जिसमें, और जिससे यह चेतना (consciousness) प्रकट और विलीन, -व्यक्त और अव्यक्त होती रहती है । वास्तविक सत्ता Reality / ब्रह्म तो चेतना से भी परे है ।"
हमें पहले विषय और विषयी क्या है यह समझना होगा । मन, बुद्धि और इन्द्रियों के सक्रिय होने के बाद ही भीतर-बाहर रूपी द्वैत प्रकट होता है । प्रथमतः तो यह प्रतीत होता है कि यह स्थूल शरीर और उससे जुड़ा बाह्य संसार दो भिन्न वस्तुएँ हैं । फिर भिन्न-भिन्न इन्द्रियों के भिन्न-भिन्न प्रकार के संवेदनों से संसार में स्थित असंख्य वस्तुओं के रूप में इन्द्रियों द्वारा उन्हें ’विषयों’ की तरह ग्रहण किया जाता है । इस प्रकार की भिन्नता आभासी है और इन्द्रियों की सीमित क्षमता के ही कारण वे विभिन्न विषय अनेक और असंख्य प्रतीत होते हैं । किन्तु चूँकि जिन मूल तत्वों से संसार बना है, उन्हीं से हमारा शरीर भी बना है इसलिए मूलतः भी संसार न तो हमसे पृथक् है, न भिन्न ।
इन बाह्य प्रतीत होनेवाले विषयों से ध्यान हटाकर स्वयं पर लाते ही उन विषयों से जुड़े प्रत्यय (विचार, स्मृति, भाव, भावनाएँ, भावुकताएँ) भी विलीन हो जाते हैं और पुनः तभी ’अनुभव’ होते हैं जब ध्यान उन पर लाया जाता है ।
ऐसे ही समस्त ’अनुभव’ मिलकर एक ’स्व’ का आभास पैदा करते हैं जो संसार के उन असंख्य ’विषयों’ के बीच एकमात्र ’विषयी’ होता है । तुम न तो 'अनुभव' और न 'अनुभवकर्ता (स्व)' हो।
जब इस ’स्व’ के बारे में कुछ सोचा या कहा जाता है जब कभी भी स्वयं को किसी विषय की तरह इंगित किया जाना होता है, तो निर्णय / न्याय की भूल अर्थात् ’error of judgment के कारण स्वयं को भी संसार के ही उन असंख्य विषयों में से ही एक मान लिया जाता है । व्यावहारिक रूप से ऐसा करना स्वाभाविक तो है, किन्तु ऐसी भूल का एकमात्र कारण भी यही होता है ।
इस प्रकार ’विषयीकरण’(objectification) दो प्रकार से हो सकता है :
एक है किसी वस्तु को इन्द्रियों, मन, बुद्धि आदि का ’विषय’ (object) बनाना ।
दूसरा है स्वयं (subject) को ऐसा कोई ’विषय’ (object) मान लेना । ’विषयीकरण’ Identification को ही ’प्रत्यय’ (प्रतीति, पहचान) भी कहा जाता है । अंग्रेज़ी में इसे ’ऑब्जेक्टिफ़िकेशन’'objectification कहेंगे ।
अंग्रेज़ी में ’विषय’ को ’ऑब्जेक्ट’'object' तथा ’विषयी’ को ’सब्जेक्ट’ 'subject' कहेंगे । इस प्रकार ’सब्जेक्ट’ 'subject' को 'object’ तथा ’ओब्जेक्ट’'object' को ’सब्जेक्ट’ 'subject' बना या समझ बैठना ही तादात्म्य / ’आइडेन्टिफ़िकेशन’ 'identification' है ।
चूँकि चेतना में ही जागृत दशा waking state में शरीर और संसार परस्पर भिन्न दो सत्ताओं entities की तरह प्रतीत होते हैं, और स्वयं जागृत दशा भी एक अस्थायी दशा की तरह आती और जाती रहती है इसलिए इस जागृति की दशा का एक ऐसा अधिष्ठान substratum मानना ही होगा जिसके परिप्रेक्ष्य में ऐसा होता है । इसी प्रकार स्वप्न तथा स्वप्न से रहित गहरी निद्रा की दशा को भी अस्थायी दशा माना जा सकता है ।
इन्हीं तीन दशाओं में ’स्व’ self नामक आभासी सत्ता पुनः पुनः व्यक्त और लीन होती रहती है । किन्तु कभी कभी अन्यमनस्कता absentmindedness जैसी स्थिति में जागृति की दशा में भी यह देखा जाता है कि ’स्व’ की यह आभासी सत्ता नहीं होती (अर्थात् उसे किसी विषय-विशेष की तरह इंगित नहीं किया जा सकता), स्पष्ट है कि ऐसा बोध किसी चेतन-अवस्था में ही हो सकता है जो केवल ’भान’ awareness अर्थात् विशुद्ध विषयरहित अवस्था होती है ।
किन्तु अन्यमनस्कता absentmindedness / distraction / inattention में भी ध्यान अर्थात् अटेन्शन attention सतत, अखण्डित होता है ।
इस ध्यान को ही अवधान कहा जाता है ।
यह ध्यान (अवधान) यद्यपि पुनः पुनः तादात्म्य का आधार बन सकता है किन्तु वैसा होना केवल औपचारिक / व्यावहारिक तथ्य है ।
जब एक बार स्वरूप का उद्घाटन हो जाता है तो उसके बाद समस्त संशयों की निवृत्ति हो जाती है ।
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