जेहाद या जहाति ?
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पिछले पोस्ट में मैंने उल्लेख किया था कि पूरी पृथ्वी पर दो ही मुल्क (मूलकः) हैं, दो ही वतन (वसं / वसन्) हैं, और मनुष्य के भविष्य के लिए सर्वाधिक बड़ी चुनौती यह है कि इन दोनों के बीच सामञ्जस्य कैसे स्थापित किया जाए ।
किसी भी शास्त्र के अध्ययन और वास्तविक तात्पर्य के लिए पहली आवश्यकता है ’पात्रता’
विद्या ददाति विनयं विनयेनायाति पात्रता ।
पात्रत्वेन धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततो सुखम् ॥
विद्या ही शास्त्र का सार होता है । विद्या भी पुनः अपरा और परा होती है ।
मुण्डकोपनिषद् प्रथम मुण्डक के प्रथम खण्ड का आरंभ इस प्रकार से होता है :
ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता ।
स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह ॥१॥
अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्माथर्वा तां पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम् ।
स भारद्वाजाय सत्यवहाय प्राह भारद्वाजोऽङ्गिरसे परावराम् ॥२॥
शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ ।
कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति ॥३॥
तस्मै स होवाच । द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च ॥४॥
तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति ।
अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते ॥५॥
यहाँ केवल अपरा-विद्या के बारे में ।
जैसे कठोपनिषद् में यमराज द्वारा नचिकेता के पिता, वाजश्रवस् के पुत्र उद्दालक के लिए ’गौतम’ शब्द से संबोधित किया गया है, क्योंकि वे ऋषि गौतम के कुल में उत्पन्न हुए थे, उसी उदाहरण से इस पोस्ट को लिखनेवाला स्वयं को ’भारद्वाज’ मान्य करता है ।
उपरोक्त जानकारी अपनी प्रशंसा के लिए नहीं बल्कि इस हेतु से है कि उपरोक्त उपनिषद्-मन्त्रों में ’भारद्वाज’ ऋषि का उल्लेख है ।
पुनः ’अङ्गिरा’ / ’अङ्गिरस्’ इन नामों का संबंध उन आर्ष-ऋषियों से है, जिनका उल्लेख भी ऊपर प्रथम मन्त्र में किया गया है ।
पिछले पोस्ट्स में लिख चुका हूँ कि किस प्रकार ’आर्च-एन्जिल’(Arch-Angel) ’आर्ष-अङ्गिरा’ का ही सज्ञात (cognate) है ।
इसी प्रकार मॆकॉले (Macaulay) भी महाशालः का ही सज्ञात (cognate) है । वैसे इसे ’महाकाली’ से भी व्युत्पन्न किया जा सकता है ।
(संक्षेप में महा / मघा / मघवा / आदि से ’मॆक् / ’मेगा’ (Max / Mc / Mega)’ आदि जैसे अनेक prefix-युक्त शब्द / नाम विभिन्न यूरोपीय भाषाओं में पाए जाते हैं । जिनका अर्थ भी यही; -बड़ा, विशाल आदि होता है ।)
अब गीता में पाए जानेवाले ५ श्लोक जो इस प्रकार से हैं :
अध्याय २
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥५०॥
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥५५॥
अध्याय ३
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनं ॥४१॥
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥४३॥
अध्याय ११
द्रोणं च भीष्मं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् ।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥३४॥
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सामञ्जस्य / गीतार्थ हा (छोड़ना) हन् (मारना / मिटा देना), जहदजहत् (जहत्-अजहत् लक्षणा),
जिहाद
जहातीह -- जहाति इह -- यहाँ (संसार में) जो मनुष्य बुद्धियुक्त होकर पाप-पुण्य दोनों को त्याग देता है और इस प्रकार योगबुद्धि में प्रतिष्ठित हो जाता है उसे बुद्धियोग प्राप्त हुआ ऐसा समझो ! योग का अर्थ है कुशलतापूर्वक प्राप्त हुए कर्तव्य कर्म का राग-द्वेषरहित होकर कामनारहित होकर आचरण करना।
प्रजहाति -- जब पूरी तरह से त्याग देता है -- हे पार्थ ! जब ऐसा योगयुक्त मनुष्य मनोगत सभी कामनाओं को त्यागकर अपनी आत्मा ही में आत्मा ही से संतुष्ट हुआ -अर्थात् संसार की किसी भी अन्य वस्तु की कामना छोड़ देता है, तब उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।
प्रजहि -- हे अर्जुन ! अतः तुम इन्द्रियों आदि पर नियंत्रण रखते हुए ज्ञान तथा विज्ञान का नाश करनेवाले इस पापी (काम एवं क्रोध) को मार डालो।
जहि --और इस प्रकार हे महाबाहु ! बुद्धि से परे के उस अध्यात्म तत्व को जानकर उसमें मन-बुद्धिपूर्वक अच्छी तरह स्थिर होकर कामरूपी दुराचारी असत्स्वरूप इस शत्रु को मार डालो !
जहि -- द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह, कर्ण तथा दूसरे भी अन्य वीर योद्धाओं को तुम मार डालो, और चूँकि वे सभी पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं, इसलिए तुम यह सोचकर कि तुम इन्हें मारने जा रहे हो,व्यथित मत होओ, इन शत्रुओं को मारकर तुम रण में विजय प्राप्त करोगे।
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पिछले पोस्ट में मैंने उल्लेख किया था कि पूरी पृथ्वी पर दो ही मुल्क (मूलकः) हैं, दो ही वतन (वसं / वसन्) हैं, और मनुष्य के भविष्य के लिए सर्वाधिक बड़ी चुनौती यह है कि इन दोनों के बीच सामञ्जस्य कैसे स्थापित किया जाए ।
किसी भी शास्त्र के अध्ययन और वास्तविक तात्पर्य के लिए पहली आवश्यकता है ’पात्रता’
विद्या ददाति विनयं विनयेनायाति पात्रता ।
पात्रत्वेन धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततो सुखम् ॥
विद्या ही शास्त्र का सार होता है । विद्या भी पुनः अपरा और परा होती है ।
मुण्डकोपनिषद् प्रथम मुण्डक के प्रथम खण्ड का आरंभ इस प्रकार से होता है :
ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता ।
स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह ॥१॥
अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्माथर्वा तां पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम् ।
स भारद्वाजाय सत्यवहाय प्राह भारद्वाजोऽङ्गिरसे परावराम् ॥२॥
शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ ।
कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति ॥३॥
तस्मै स होवाच । द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च ॥४॥
तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति ।
अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते ॥५॥
यहाँ केवल अपरा-विद्या के बारे में ।
जैसे कठोपनिषद् में यमराज द्वारा नचिकेता के पिता, वाजश्रवस् के पुत्र उद्दालक के लिए ’गौतम’ शब्द से संबोधित किया गया है, क्योंकि वे ऋषि गौतम के कुल में उत्पन्न हुए थे, उसी उदाहरण से इस पोस्ट को लिखनेवाला स्वयं को ’भारद्वाज’ मान्य करता है ।
उपरोक्त जानकारी अपनी प्रशंसा के लिए नहीं बल्कि इस हेतु से है कि उपरोक्त उपनिषद्-मन्त्रों में ’भारद्वाज’ ऋषि का उल्लेख है ।
पुनः ’अङ्गिरा’ / ’अङ्गिरस्’ इन नामों का संबंध उन आर्ष-ऋषियों से है, जिनका उल्लेख भी ऊपर प्रथम मन्त्र में किया गया है ।
पिछले पोस्ट्स में लिख चुका हूँ कि किस प्रकार ’आर्च-एन्जिल’(Arch-Angel) ’आर्ष-अङ्गिरा’ का ही सज्ञात (cognate) है ।
इसी प्रकार मॆकॉले (Macaulay) भी महाशालः का ही सज्ञात (cognate) है । वैसे इसे ’महाकाली’ से भी व्युत्पन्न किया जा सकता है ।
(संक्षेप में महा / मघा / मघवा / आदि से ’मॆक् / ’मेगा’ (Max / Mc / Mega)’ आदि जैसे अनेक prefix-युक्त शब्द / नाम विभिन्न यूरोपीय भाषाओं में पाए जाते हैं । जिनका अर्थ भी यही; -बड़ा, विशाल आदि होता है ।)
अब गीता में पाए जानेवाले ५ श्लोक जो इस प्रकार से हैं :
अध्याय २
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥५०॥
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥५५॥
अध्याय ३
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनं ॥४१॥
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥४३॥
अध्याय ११
द्रोणं च भीष्मं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् ।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥३४॥
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सामञ्जस्य / गीतार्थ हा (छोड़ना) हन् (मारना / मिटा देना), जहदजहत् (जहत्-अजहत् लक्षणा),
जिहाद
जहातीह -- जहाति इह -- यहाँ (संसार में) जो मनुष्य बुद्धियुक्त होकर पाप-पुण्य दोनों को त्याग देता है और इस प्रकार योगबुद्धि में प्रतिष्ठित हो जाता है उसे बुद्धियोग प्राप्त हुआ ऐसा समझो ! योग का अर्थ है कुशलतापूर्वक प्राप्त हुए कर्तव्य कर्म का राग-द्वेषरहित होकर कामनारहित होकर आचरण करना।
प्रजहाति -- जब पूरी तरह से त्याग देता है -- हे पार्थ ! जब ऐसा योगयुक्त मनुष्य मनोगत सभी कामनाओं को त्यागकर अपनी आत्मा ही में आत्मा ही से संतुष्ट हुआ -अर्थात् संसार की किसी भी अन्य वस्तु की कामना छोड़ देता है, तब उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।
प्रजहि -- हे अर्जुन ! अतः तुम इन्द्रियों आदि पर नियंत्रण रखते हुए ज्ञान तथा विज्ञान का नाश करनेवाले इस पापी (काम एवं क्रोध) को मार डालो।
जहि --और इस प्रकार हे महाबाहु ! बुद्धि से परे के उस अध्यात्म तत्व को जानकर उसमें मन-बुद्धिपूर्वक अच्छी तरह स्थिर होकर कामरूपी दुराचारी असत्स्वरूप इस शत्रु को मार डालो !
जहि -- द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह, कर्ण तथा दूसरे भी अन्य वीर योद्धाओं को तुम मार डालो, और चूँकि वे सभी पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं, इसलिए तुम यह सोचकर कि तुम इन्हें मारने जा रहे हो,व्यथित मत होओ, इन शत्रुओं को मारकर तुम रण में विजय प्राप्त करोगे।
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हन् (मार डालना) --अदादिगण परस्मैपदी धातु है, जिसका लोट् लकार मध्यम पुरुष एकवचन रूप 'जहि' होता है। अर्थात् : 'मार डालो'
हां (छोड़ना) --जुहोत्यादिगण परस्मैपदी धातु है, जिसका लट् लकार प्रथम पुरुष एकवचन रूप 'जहाति' होता है। अर्थात् : (वह, जो) त्याग देता है।
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भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया उसका सन्दर्भ मुख्यतः आध्यात्मिक और गौणतः तात्कालिक युद्ध-प्रसंग था जिसमें अर्जुन को युद्ध करने के लिए बाध्य होना पड़ा। हमारे समय में युद्ध कोई बाध्यता कहाँ है? लेकिन हम धर्मग्रन्थ का मनमाना अर्थ और व्याख्या कर युद्धोन्माद पैदा करें तो यह अवश्य ही हमारा बहुत बड़ा दुर्भाग्य ही है।
कुछ लोग जेहाद का ऐसा ही अर्थ और व्याख्या कर रहे हैं और आतंकवाद के माध्यम से इसका राजनीतिक लाभ लेने का प्रयास कर रहे हैं। ज़ाहिर सी बात है कि उन्हें विश्वशांति से कुछ नहीं लेना देना। क्या मानवता के हितैषी इस सच्चाई से आँखें बंद कर सकते हैं?
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