कितने लोक?
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हातिम ताई को उसी अचेत सी स्थिति में गरुड़ की वाणी पुनः पुनः सुनाई दे रही थी ।
"मैं समय को भी वैसे ही अपने पंजों में दबाकर यहाँ से वहाँ ले जा सकता हूँ जैसे तुम्हें उस दिन तुम्हारे घर से दबोचकर उठा लाया था और खजूर के उस पेड़ पर लाकर छोड़ दिया था । ..."
बीच-बीच में वह कहीं उसी तन्द्रा में अनेक तलों से गुज़रता रहा जिनका कोई तय धरातल नहीं था ।
"क्या गरुड़ यही वायु है जो तमाम चीजों को बिखेर देता है?"
उसका चिन्तन भी बदस्तूर जारी था ।
तब उसकी चेतना में देवलोक की संरचना के बारे में ख़याल आने लगे ।
उसे लगने लगा कि अस्तित्व का संपूर्ण ज्ञान उसमें मानों बीजरूप में अव्यक्त अप्रकट है जो समय समय पर अभिव्यक्त और पुनः अव्यक्त होता रहता है, और उसी समय को गरुड़ ने अपने पंजों में दबोच रखा है ।
क्या ऐसे अनेक समय होते हैं ?
परस्पर नितान्त अछूते किंतु फिर भी सर्वथा अपृथक् भी?
क्या समय को परिभाषित किया जा सकता है?
क्या समय एक ऐसा लोक नहीं है जिसे स्वतंत्र रूप में तो नहीं पाया जाता फिर भी सभी घटनाएँ उसी के अन्तर्गत हुआ करती हैं?
और जब मैं (?) ’इस’ लोक में होता हूँ तो शेष सब घटनाएँ कहाँ, किस लोक में होती होंगी?
हातिम ताई स्वयं किसी स्वप्न जैसे एक तन्द्रालोक में था जहाँ उसे अपने उस शरीर का भान नहीं था जिससे संसार में वह वैसे ही जागता-सोता, उठता-बैठता, खाता-पीता और तमाम वह सब किया करता है जिसे उसके जैसे असंख्य शरीर / लोग (लोक) पृथ्वीलोक में किया करते हैं ।
अवश्य ही गरुड़ वायुलोक का देवता है और वही पृथ्वीलोक में हमें गरुड़ की तरह दिखाई देता है ।
तब उसे पहली बार यह समझ में आया कि वह (गरुड़) कैसे अतीत और भविष्य को भी अपने पंजों में जकड़कर उड़ सकता है !
साथ ही हातिम ताई को यह भी समझ में आया कि कैसे हर आत्मा (मनुष्य) का अतीत और भविष्य यद्यपि पत्थर की लकीर की तरह अचल-अटल होता है फिर भी वह उनसे बँधा नहीं होता ।
तब हातिम ताई चन्द्रलोक में प्रविष्ट हुआ ।
उसे अनायास ही चान्द्र व्याकरण स्पष्ट होने लगा ।
उसे अत्यन्त कौतूहल, जिज्ञासा और आश्चर्य हुआ कि यह सारा ज्ञान अब तक कहाँ विलुप्त था और अब अचानक ही क्यों उसे सब कुछ ऐसा साफ़ दिखाई दे रहा है जैसे जमीन को खोदते समय धरती में दबा कोई स्वर्ण-मुद्राओं से भरा घड़ा बाहर निकल आए जिसमें सौ-पचास सोने की मुहरें हों, जिन्हें वह दिन की रौशनी में देख रहा हो ।
तब उसे समझ में आया कि चान्द्र व्याकरण विभिन्न वर्णों के समास और समुच्चय और वर्गीकरण का एक तरीका है और यह वैसा ही एक लोक है जैसा इन्द्र का लोक अर्थात् ऐन्द्र व्याकरण होता है ।
अब उसमें यह कौतूहल जागृत हुआ कि ऐन्द्र-व्याकरण और चान्द्र व्याकरण में क्या भिन्नता है?
और उसे ऐन्द्र-व्याकरण की बनावट भी तुरंत स्पष्ट हुई ।
यह सब सिद्धान्ततः भी सत्य था और विस्तृत प्रकट रूप से भी उतना ही सत्य था ।
जैसे उसके हाथ केवल कुञ्जी ही नहीं, कुञ्जियों की पुञ्जीभूत पूञ्जी ही लग गई हो ।
तब उसका ध्यान पुनः चान्द्र-व्याकरण की ओर गया, क्योंकि चन्द्रलोक में होने पर उसके लिए यही सर्वाधिक संभव और उचित भी था ।
तब उसे चन्द्र का रहस्य स्पष्ट हुआ ।
जैसे इन्द्र ’इ न् द् र’ इन चार वर्णों का संयोग है वैसे ही चन्द्र ’च् न् द् र’ इन चार वर्णों का ।
ये चारों वर्ण भी जब उनका उच्चारण किया जाता है, प्राणयुक्त ’देवता’ होते हैं जो समस्त लोकों रूपी भवनों / भुवनों की ईंटें (इष्टियाँ) हैं जिनका ज्ञान काल और जीवन-मृत्यु के देवता यमराज ने कठोपनिषद् में नचिकेता को दिया था ।
किन्तु इसी पृथ्वीलोक अर्थात् मृत्युलोक में तो वर्ण ’च्’ का स्वतन्त्र अर्थ यद्यपि अत्यन्त गूढ और विशद है (जैसा कि दूसरे भी प्रत्येक वर्ण और उसके देवता का होता है) तात्कालिक अर्थ तो यही है कि वह ऐसा विस्तार / आधार है, जिससे ’चम्’ (चमत्), ’चिन्’ (चित् / चिनोति), चुम्ब् (ईषत्-स्पर्श) जैसी अनेक धातुएँ बनती हैं ।
उसे ध्यान आया कि यहाँ उसे इन्हीं तीन धातुओं का विस्तार से अवलोकन करना है ।
सृष्टि और लोकसृष्टि एक चमत्कार ही है जिससे अनायास और अकारण ही एकमेव चित्-तत्व पर द्वैत आरोपित हो जाता है ।
यह वैसा ही है जैसा कि ऐन्द्र व्याकरण (स्थूल भौतिक विज्ञान) में किसी चुम्बत्व-प्रवण धातु (magnetic-metal) के एक पिण्ड (mass / body) में प्रत्येक अणुमात्र में ही उत्तरी (N) और दक्षिणी (S) ध्रुव होते हैं, किन्तु उनकी सम्पूर्ण राशि बिखरी होती है और जैसे ही वह पिण्ड किसी चुम्बकीय क्षेत्र (magnetic field) में प्रविष्ट होता है, ये सभी अणु अनायास स्वतःसमायोजित होकर उस पिण्ड को एक पूर्ण चुम्बक (magnet) बना देते हैं । ठीक इसी प्रकार प्रकृति और पुरुष दो ध्रुव हैं जो वैसे तो अस्त-व्यस्त दशा में सर्वत्र होते हैं किन्तु जब कोई जड पिण्ड किसी चेतन-क्षेत्र में प्रविष्ट होता है तो तुरंत ही परस्पर समायोजित होकर उस पिण्ड में एक पृथक् जीव-चेतना की तरह व्यक्त हो उठते हैं ।
किन्तु हातिम ताई इससे आगे कुछ सोचता इससे पहले ही उसके समय की दशा बदल गई और वह पुनः तन्द्राविष्ट हो गया ।
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हातिम ताई को उसी अचेत सी स्थिति में गरुड़ की वाणी पुनः पुनः सुनाई दे रही थी ।
"मैं समय को भी वैसे ही अपने पंजों में दबाकर यहाँ से वहाँ ले जा सकता हूँ जैसे तुम्हें उस दिन तुम्हारे घर से दबोचकर उठा लाया था और खजूर के उस पेड़ पर लाकर छोड़ दिया था । ..."
बीच-बीच में वह कहीं उसी तन्द्रा में अनेक तलों से गुज़रता रहा जिनका कोई तय धरातल नहीं था ।
"क्या गरुड़ यही वायु है जो तमाम चीजों को बिखेर देता है?"
उसका चिन्तन भी बदस्तूर जारी था ।
तब उसकी चेतना में देवलोक की संरचना के बारे में ख़याल आने लगे ।
उसे लगने लगा कि अस्तित्व का संपूर्ण ज्ञान उसमें मानों बीजरूप में अव्यक्त अप्रकट है जो समय समय पर अभिव्यक्त और पुनः अव्यक्त होता रहता है, और उसी समय को गरुड़ ने अपने पंजों में दबोच रखा है ।
क्या ऐसे अनेक समय होते हैं ?
परस्पर नितान्त अछूते किंतु फिर भी सर्वथा अपृथक् भी?
क्या समय को परिभाषित किया जा सकता है?
क्या समय एक ऐसा लोक नहीं है जिसे स्वतंत्र रूप में तो नहीं पाया जाता फिर भी सभी घटनाएँ उसी के अन्तर्गत हुआ करती हैं?
और जब मैं (?) ’इस’ लोक में होता हूँ तो शेष सब घटनाएँ कहाँ, किस लोक में होती होंगी?
हातिम ताई स्वयं किसी स्वप्न जैसे एक तन्द्रालोक में था जहाँ उसे अपने उस शरीर का भान नहीं था जिससे संसार में वह वैसे ही जागता-सोता, उठता-बैठता, खाता-पीता और तमाम वह सब किया करता है जिसे उसके जैसे असंख्य शरीर / लोग (लोक) पृथ्वीलोक में किया करते हैं ।
अवश्य ही गरुड़ वायुलोक का देवता है और वही पृथ्वीलोक में हमें गरुड़ की तरह दिखाई देता है ।
तब उसे पहली बार यह समझ में आया कि वह (गरुड़) कैसे अतीत और भविष्य को भी अपने पंजों में जकड़कर उड़ सकता है !
साथ ही हातिम ताई को यह भी समझ में आया कि कैसे हर आत्मा (मनुष्य) का अतीत और भविष्य यद्यपि पत्थर की लकीर की तरह अचल-अटल होता है फिर भी वह उनसे बँधा नहीं होता ।
तब हातिम ताई चन्द्रलोक में प्रविष्ट हुआ ।
उसे अनायास ही चान्द्र व्याकरण स्पष्ट होने लगा ।
उसे अत्यन्त कौतूहल, जिज्ञासा और आश्चर्य हुआ कि यह सारा ज्ञान अब तक कहाँ विलुप्त था और अब अचानक ही क्यों उसे सब कुछ ऐसा साफ़ दिखाई दे रहा है जैसे जमीन को खोदते समय धरती में दबा कोई स्वर्ण-मुद्राओं से भरा घड़ा बाहर निकल आए जिसमें सौ-पचास सोने की मुहरें हों, जिन्हें वह दिन की रौशनी में देख रहा हो ।
तब उसे समझ में आया कि चान्द्र व्याकरण विभिन्न वर्णों के समास और समुच्चय और वर्गीकरण का एक तरीका है और यह वैसा ही एक लोक है जैसा इन्द्र का लोक अर्थात् ऐन्द्र व्याकरण होता है ।
अब उसमें यह कौतूहल जागृत हुआ कि ऐन्द्र-व्याकरण और चान्द्र व्याकरण में क्या भिन्नता है?
और उसे ऐन्द्र-व्याकरण की बनावट भी तुरंत स्पष्ट हुई ।
यह सब सिद्धान्ततः भी सत्य था और विस्तृत प्रकट रूप से भी उतना ही सत्य था ।
जैसे उसके हाथ केवल कुञ्जी ही नहीं, कुञ्जियों की पुञ्जीभूत पूञ्जी ही लग गई हो ।
तब उसका ध्यान पुनः चान्द्र-व्याकरण की ओर गया, क्योंकि चन्द्रलोक में होने पर उसके लिए यही सर्वाधिक संभव और उचित भी था ।
तब उसे चन्द्र का रहस्य स्पष्ट हुआ ।
जैसे इन्द्र ’इ न् द् र’ इन चार वर्णों का संयोग है वैसे ही चन्द्र ’च् न् द् र’ इन चार वर्णों का ।
ये चारों वर्ण भी जब उनका उच्चारण किया जाता है, प्राणयुक्त ’देवता’ होते हैं जो समस्त लोकों रूपी भवनों / भुवनों की ईंटें (इष्टियाँ) हैं जिनका ज्ञान काल और जीवन-मृत्यु के देवता यमराज ने कठोपनिषद् में नचिकेता को दिया था ।
किन्तु इसी पृथ्वीलोक अर्थात् मृत्युलोक में तो वर्ण ’च्’ का स्वतन्त्र अर्थ यद्यपि अत्यन्त गूढ और विशद है (जैसा कि दूसरे भी प्रत्येक वर्ण और उसके देवता का होता है) तात्कालिक अर्थ तो यही है कि वह ऐसा विस्तार / आधार है, जिससे ’चम्’ (चमत्), ’चिन्’ (चित् / चिनोति), चुम्ब् (ईषत्-स्पर्श) जैसी अनेक धातुएँ बनती हैं ।
उसे ध्यान आया कि यहाँ उसे इन्हीं तीन धातुओं का विस्तार से अवलोकन करना है ।
सृष्टि और लोकसृष्टि एक चमत्कार ही है जिससे अनायास और अकारण ही एकमेव चित्-तत्व पर द्वैत आरोपित हो जाता है ।
यह वैसा ही है जैसा कि ऐन्द्र व्याकरण (स्थूल भौतिक विज्ञान) में किसी चुम्बत्व-प्रवण धातु (magnetic-metal) के एक पिण्ड (mass / body) में प्रत्येक अणुमात्र में ही उत्तरी (N) और दक्षिणी (S) ध्रुव होते हैं, किन्तु उनकी सम्पूर्ण राशि बिखरी होती है और जैसे ही वह पिण्ड किसी चुम्बकीय क्षेत्र (magnetic field) में प्रविष्ट होता है, ये सभी अणु अनायास स्वतःसमायोजित होकर उस पिण्ड को एक पूर्ण चुम्बक (magnet) बना देते हैं । ठीक इसी प्रकार प्रकृति और पुरुष दो ध्रुव हैं जो वैसे तो अस्त-व्यस्त दशा में सर्वत्र होते हैं किन्तु जब कोई जड पिण्ड किसी चेतन-क्षेत्र में प्रविष्ट होता है तो तुरंत ही परस्पर समायोजित होकर उस पिण्ड में एक पृथक् जीव-चेतना की तरह व्यक्त हो उठते हैं ।
किन्तु हातिम ताई इससे आगे कुछ सोचता इससे पहले ही उसके समय की दशा बदल गई और वह पुनः तन्द्राविष्ट हो गया ।
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व्याकरण, ऐन्द्र और चान्द्र,
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