Friday, 21 June 2019

खजूर में अटके लोग

आसमान और खजूर में अटके लोग
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कहावत है :
आसमान से गिरे और खजूर में अटके ।
यह कहावत न सिर्फ़ इस्लाम बल्कि उन सभी सामाजिक व्यवस्थाओं पर सच साबित होती है (चाहे वह हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, यहूदी या कोई और हो जिन्हें राजनीति ने कामचलाऊ रीति से या अपने स्वार्थों के लिए ’धर्म’ का नाम दिया है,) और जो खजूर से उतरने के लिए ही राज़ी नहीं होती क्योंकि खजूर से उतरना भी आसान नहीं, बहुत मुश्किल है । लेकिन जब कोई खजूर में अटक ही जाए तो यह प्रश्न गौण महत्व रखता है कि खजूर से  उतरना आसान है या मुश्किल ? तब अधिक महत्वपूर्ण यह है कि उसे खुद को ही यह समझ में आ जाए कि यदि कोई उसे उतारने में उसकी मदद करता है तो वह उसकी मदद को कृतज्ञतापूर्वक या कृतघ्नतापूर्वक ही सही, स्वीकार कर ले ।
इतनी संवेदनशीलता और दूसरे पर विश्वास करना तो पशुओं या पक्षियों में भी देखा जाता है कि अपनी जान पर बन आने पर मज़बूरी में ही सही, बचानेवाले की मदद लेने से वे इंकार नहीं करते । मान लीजिए हवाई-जहाज के दुर्घटनाग्रस्त होने पर पैराशूट से उतरे उस यात्री का पैराशूट किसी बहुत ऊँचे खजूर पर अटक जाता है और कुछ लोग बहुत लंबी और मजबूत सीढ़ी लाकर उसे उतारने में उसकी मदद करें तो क्या वह उनकी मदद नहीं लेगा? या, क्या इससे उसके स्वाभिमान को ठेस लगती है इसलिए वह मदद लेने से इंकार कर देगा ? अब मान लीजिए कि उसी दुर्घटनाग्रस्त जहाज में उसी आदमी के साथ उसका पालतू कुत्ता भी था जिसे बचाने के लिए उस आदमी ने उसे यह सोचकर जहाज से फेंक दिया था कि शायद इस तरह उसकी जान बचाई जा सके! और वह स्वयं पैराशूट की सहायता से धरती पर उसी खजूर के पास सही सलामत उतर आया, जहाँ खजूर के उस बहुत ऊँचे पेड़ पर उसका कुत्ता गिरकर अटक गया था । क्या वह आदमी अपने कुत्ते की मदद के लिए सीढ़ी लानेवाले लोगों से मदद नहीं लेगा?
आसमान से आई एक किताब को माननेवालों का दावा है कि उनकी किताब किसी खजूर में नहीं अटकी और उस किताब का एक एक लफ़्ज़ बलफ़्ज़ दुरुस्त है जिसमें किसी फ़ेरबदल के बारे में सोचना तक गुस्ताख़ी और गुनाह है ।
’लफ़्ज़’ से याद आया संस्कृत में फ़ेफ़ड़े को ’फुफ्फुस’ कहा जाता है । वाणी के व्याकरण (स्वनिम व्युत्पत्ति) के आधार पर इसे फ्-उ-फ्-उ-ह् के रूप में समझा जा सकता है । आयुर्वेद के किसी ग्रन्थ में संभवतः इसकी पुष्टि भी पाई जा सकती है । यह फ्-उ-फ्-उ-ह् शब्द ’फ्’ अर्थात् प्-ह्, अर्थात् प्राणयुक्त ’अ’ है क्योंकि ’ह्’ वर्ण विसर्गसूचक और ’अ’ सर्गसूचक है जिनसे मिलकर ’अहं’ प्रत्यय या ’अह्’ प्रत्याहार बनता है जो आत्मा का पर्याय है । (और यद्यपि ’अह्’ प्रत्याहार पाणिनी के द्वारा प्रयुक्त ४२ प्रत्याहारों में नहीं प्राप्त होता क्योंकि वहाँ इसे ’अल्’ प्रत्याहार के अन्तर्गत देखा जा सकता है ) । ’उ’ उत्सर्गसूचक है । प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य (पातञ्जल योगसूत्र समाधिपाद ३४) के तारतम्य में ’अ’ ’उ’ और ’ह्’ प्राण के सर्ग, उत्सर्ग तथा विसर्ग के द्योतक हैं । आधिभौतिक (स्थूल देह के) स्तर पर यही प्रच्छर्दन (श्वासोच्छ्वास) तथा विधारणा दोनों हैं । इसे और आगे विवेचित किया जा सकता है जिसे विद्वानों के लिए छोड़ दिया है । आदिदैविक स्तर पर यही अ-उ-म् अर्थात् ॐ या प्रणव मन्त्र है । क्योंकि यह मन में होते हुए भी इसका सृजन (सर्ग) उत्सर्ग या विसर्जन (विसर्ग) संभव नहीं । वास्तव में मन स्वयं ही इसका अभिव्यक्त प्रकार है ।
अंग्रेज़ी भाषा में फुफ्फुस की ध्वनि को ’dub-lub’ से व्यक्त किया जाता है । वाणी के व्याकरण से इसकी विवेचना करें तो इसमें विद्यमान वर्ण ’ड्’, ’व्’ (अर्थात् ’उ’) तथा ’ब्’ एवं 'ल्' भी ’फुफ्फुस’ के ही तुल्य / समान समझे जा सकते हैं ।
फ़ेफ़ड़ों का कार्य है रक्त को सतत शुद्ध करते रहना ।
हृदय जो फ़ेफ़ड़ों के साथ साथ भावनाओं का भी अधिष्ठान है, स्थूल दैहिक के साथ साथ सूक्ष्म मानसिक संवेदनशीलता का भी आश्रय है ।
मनुष्य या किसी भी जीवित प्राणी के जीवन में ’धर्म’ का वही महत्व है जो शरीर में रक्त का होता है ।
यदि शरीर में रक्त निरंतर स्वच्छ न होता रहे तो शीघ्र ही मृत्यु हो जाती है ।
फ़ेफ़ड़े यही कार्य करते हैं जो शारीरिक स्तर पर ज़रूरी है ।
संवेदनशीलता वही, जीवन के प्रति जागृति (चेतना) का ही नाम है ।
एक अविभाजित जीवन जो व्यक्ति और उसके समुदाय का रूप ग्रहण करता है ।
समुदाय की सामूहिक गतिविधियाँ ’सामाजिक अभियांत्रिकी’ (social engineering ) हैं, जो धर्म / संवेदनशीलता के अभाव में राजनीतिक विचार (Political thought / ideology) तक सीमित और कुंठित होकर रह जाते हैं ।
’अहिंसा परमो धर्मः’ का सिद्धान्त एक प्रेरणा या विचारमात्र हो सकता है ।
’प्रेरणा’ की तरह यह संवेदनशीलता का पर्याय है और इसीलिए हिंसा के निषेध का आग्रह करता है ।
’विचार’ की तरह यह इस नए प्रश्न को जन्म देता है :
"अहिंसा क्या है?"
तब हमारा ध्यान इस पर आता है कि वैचारिक मल्लों (विचारमल्लों, मुल्लों या कठमुल्लों) के लिए किसी धर्म की शिक्षा देना, वहीं तक, केवल किसी ऐसी  कार्यपद्धति के पालन और अनुशासन तक ही संभव है, जिस पर यंत्रवत उसका आचरण वे कर सकें । कोई कितना भी यंत्रवत क्यों न हो उसमें यदि जीवन है तो संवेदनशीलता भी अवश्य होगी और इसका विलोम भी इतना ही सत्य है (-अनुलोम विलोम प्राणायाम?)
जैन धर्म के सन्दर्भ में इस विषय की विवेचना करने पर यह समझा जा सकता है कि जैन-मुनि मुख पर कपड़ा इसीलिए बाँधते हैं ताकि श्वास के साथ आनेवाले सूक्ष्म जीवों की हत्या न हो । सिद्धान्त जो भी हो, इसके दो पक्ष हैं । यदि ’अहिंसा’ को केवल विचार और आचरण तक समझा जाए तो यह भी उपयोगी है । यदि ’अहिंसा’ का आग्रह संवेदनशीलता के कारण है तो इसका उपयोग मन को अधिक संवेदनशील और इसलिए धर्म के लिए अधिक अनुकूल बनाने के लिए भी हो सकता है ।
रीति-रिवाज, रूढ़ियाँ, परंपराएँ आदि सामाजिक-अभियांत्रिकी (social engineering) प्राथमिक रूप से उपयोगी अवश्य हैं किंतु वहीं अटक जाना वैसा ही है जैसे फ़ेफ़ड़े रक्त को शुद्ध करने का काम बंद कर दें और रक्त क्रमशः अशुद्ध होते हुए अंततः मृत्यु हो जाए ।
श्री पुष्पेन्द्र कुलश्रेष्ठ जी के वीडिओ में सुना कि कुरान के ३० आयतें ऐसी हैं जिनमें ३४ बार ’जेहाद’ का उल्लेख है ।
और इस बारे में स्पष्ट आदेश भी है कि इसलाम को माननेवाले प्रत्येक के लिए ज़रूरी है कि वह इसलाम के न माननेवाले किसी भी व्यक्ति को पहले तो समझा-बुझा कर उसे इसलाम में धर्मान्तरित करे और यदि वह इसलाम में धर्मान्तरित होने से इंकार करता है तो उसे क़त्ल कर दे । ऐसा क़त्ल भी इसलाम की राह में किया गया एक पुण्यकार्य है जिससे उसे जन्नत मिलेगी ।
खजूर में अटका हुआ आदमी सहानुभूति और करुणा का पात्र तो अवश्य है, लेकिन किसी बाध्यता या ज़रूरत के कारण खजूर पर चढ़ा हुआ आदमी अगर उतरना चाहता भी हो लेकिन किसी की मदद लेने में अपनी हेठी महसूस करता हो तो उसे कौन (उ)तारे?
और इस पर तुर्रा यह कि उतरने के बाद वह उन सभी बाक़ी लोगों को खजूर पर चढ़ने के लिए बलपूर्वक बाध्य करे कि जब तक धरती के सारे मनुष्य खजूर पर न चढ़ जाएँ तब तक उसका धर्म अधूरा है ।
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