एक गंभीर भूल
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विगत सदियों में सनातन धर्म के अनेक देशी-विदेशी विचारकों, अध्ययनकर्ताओं, शोधकर्ताओं ने किसी भी बहाने से संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन और उनके अनुवाद अंग्रेज़ी तथा दूसरी यूरोपीय भाषाओं में किए। और चूँकि यह तो बिलकुल स्वाभाविक भी था, कि संस्कृत भाषा के अनेक शब्दों के लिए उन्हें उन विभिन्न भाषाओं में ऐसे शब्द ही नहीं मिले जो मूल संस्कृत शब्द के तात्पर्य को यथावत व्यक्त कर सकते थे। क्योंकि उन भाषाओं में वेद तथा वैदिक विषयों के बारे में न तो कभी चिंतन किया गया न खोज ही की गयी।
इसलिए धर्म, संप्रदाय, अहं, अहंकार, चित्त, वृत्ति, संस्कार, मोक्ष, विवेक, मुमुक्षा, भक्ति, साधना, आत्मा, ध्यान, धारणा, तप, ब्रह्म, ब्रह्मचर्य, वैराग्य जैसे शब्दों के लिए उन्होंने क्रमशः
religion, sect / cult, ego, Self, mind, tendencies / impressions, liberation, discrimination, earnestness / urge for liberation, spiritual-practice, self / Self, meditation, fixing of the mind, penance / austerities, Ultimate / Totality / Reality / Supreme, celibacy, dispassion ...
जैसे शब्दों को चुना।
दूसरी ओर तमाम (तं आम्) भारतीय भाषाएँ मूलतः वेद तथा वैदिक-ज्ञान से अविच्छिन्नतः जुडी हैं इसलिए उनमें शब्द-बाहुल्य इतना ही समृद्ध और विपुल था जैसा कि संस्कृत भाषा में है। सबसे बड़ी विशेषता यह कि जैसे संस्कृत भाषा में नए शब्द गढ़ने / रचने के लिए अपार सामर्थ्य और संभावनाएँ हैं उसी तरह लगभग सभी भारतीय भाषाओं में भी हैं। चाहे गोस्वामी तुलसीदास जी का 'श्रीरामचरितमानस' हो, समर्थ रामदास का 'दासबोध' या संत ज्ञानेश्वर महाराज का 'अमृतानुभव' ग्रन्थ, सभी में संस्कृत का लोकभाषा में विवर्तन ऐसा स्वाभाविक है कि पाठक बस मंत्रमुग्ध होकर रह जाता है। बाँग्ला, असमिया, यहाँ तक कि अवधी, भोजपुरी, ब्रजभाषा में भी कई ऐसे शब्द पाए जाते हैं जिन्हें देखकर लगता है जैसे ठेठ संस्कृत से चले आए हों - बेहिचक, अधिकार-पूर्वक, बेरोकटोक।
अपने अध्ययन के दौरान मैंने अनुभव किया कि उर्दू (व अरबी एवं फारसी) के भी ऐसे ढेरों शब्द हैं जिन्हें सीधे संस्कृत से प्राप्त किया जा सकता है। श्री आर. एस. एन सिंह के अनुसार उर्दू के सभी शब्द और खासकर क्रियाएँ सीधे संस्कृत की मूल क्रियाओं का अपभ्रंश हैं। एक छोटा सा उदाहरण है 'पानी', जो हमें संस्कृत या हिंदी का नहीं प्रतीत होता। लेकिन संस्कृत की 'पा' (पीना) धातु से पेयं, और पानं तथा पानं से पानीय, फिर पानीय होकर पानी तक पहुँचना लोकभाषा की ही देन है।
इतना ही नहीं फ़ारसी तथा अरबी भाषा की संरचना को समझें तो स्पष्ट हो जाता है कि व्याकरण मूलतः दो प्रकार का होता है :
पहला है वाणी का व्याकरण,
दूसरा है भाषा का व्याकरण।
जैसा कि व्युत्पत्ति (वि आ कृ) से भी स्पष्ट है कि व्याकरण वह विद्या है जो उन शब्दों के उद्भव के बारे में कहता है जिनसे किसी भाषा का निर्माण हुआ होता है।
श्रीदेवी-अथर्वशीर्षं को प्रमाण के लिए आधार बनाएँ तो इस बारे में अपने ब्लॉग्स में मैंने अनेक पोस्ट्स में स्पष्ट किया है कि किस प्रकार वाणी (voice) से वर्णों (sounds) की उत्पत्ति होने के बाद वे वर्ण (जो आधिदैविक दृष्टि से देवता-तत्व हैं) वाणी की अधिष्ठात्री अदिति के समक्ष प्रस्तुत हुए और उन्होंने उससे उसके तत्व को जानने के लिए जिज्ञासा / प्रार्थना की। यह जानना भी रोचक है कि इससे पहले उन्हीं वर्णरूपी देवताओं ने अपने तेज से ही अदिति की सृष्टि की थी। तब अदिति ने उन्हें अपने स्वयं के तत्व का दर्शन देते हुए उनका 'संस्कार' किया।
वे ही देवता अदिति के पिता प्रजापति दक्ष से कहते हैं :
(ते देवा अब्रुवन्) --नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्।। 8
तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम्।
दुर्गां देवीं शरणं प्रपद्यामहेऽसुरान्नाशयित्र्यै ते नमः।।9
देवीं वाचमजनयन्तं देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।
(देवताओं ने उस वाणी को जन्म दिया जिसका प्रयोग (समस्त) पशु करते हैं -- अर्थात् वह वाणी जिसकी कोई भाषा-विशेष नहीं बनी है।)
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु।।10
(वह वाणी जो धेनु (गौ) की तरह पूरी पृथ्वी पर सर्वत्र विचरण करती है, उसकी हमने इस प्रकार स्तुति की। )
और उसने हमें (वर्णों के रूप में) धीमी गति से चलनेवाली वाणी प्रदान की (जिसे मनुष्य बोलने लगे)।
कालरात्रीं ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम्।
सरस्वतीमदितिं दक्षदुहितरं नमामः पावनां शिवाम्।।11
(यहाँ देवी के आधिदैविक स्वरूप का वर्णन है। )
महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धीमहि।
तन्नो ------- देवी --------------प्रचोदयात्।।12
अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव।
तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः।।13
(इस मन्त्र में देवता दक्ष प्रजापति से कहते हैं :
जिन देवताओं ने पहले (अपने तेज से) अदिति की आधिभौतिक रूप में सृष्टि की,
हे दक्ष ! उसी तुम्हारी पुत्री अदिति ने पुनः उन देवताओं को आधिदैविक स्वरूप में जन्म दिया।
और वे देवता इस प्रकार परस्पर शुभ अमृतबन्धु हुए।
यह उन वर्णों का वर्णन है जिन्हें अक्षरसमाम्नाय अर्थात् माहेश्वर वर्णसमाम्नाय कहा जाता है।
इन वर्णों के द्वारा भगवान शिव ने ऋषियों को वैदिक व्याकरण की शिक्षा / उपदेश किया।
यही भाषा 'संस्कारित होने से' 'संस्कृत' नाम से विख्यात हुई।
मन्त्र 8 में अदिति को ही भद्रा तथा प्रकृति, नियता कहकर संबोधित किया गया है, जो प्राकृत भाषा हुई।
इसलिए मानव द्वारा बोली जानेवाली सभी भाषाओं का प्राकृत स्वरूप में भिन्न भिन्न स्थानों पर भिन्न भिन्न रूपों में प्राकट्य / उद्भव हुआ जिनकी रचना पारस्परिक प्रभावों से सतत बदलती रही।
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अब हम उदाहरण के लिए कुछ हिंदी / उर्दू शब्दों पर ध्यान दें :
नमाज़ - जिसे आपका प्रचलित हिंदी शब्दकोश फ़ारसी से आया हुआ बतलाता है।
संस्कृत से खोजें तो यह अर्थसाम्य के आधार पर भी 'नम् यजन / यज्न' अर्थात् प्रार्थना के अर्थ में प्रयुक्त होता है। अरबी भाषा में नमाज़ को 'सला' कहा जाता है।
'ईद' जो ईश्वरीय आराधना और पूजा का उल्लास है संस्कृत की 'ईड्' धातु से बना है जिसका प्रयोग ऋग्वेद के प्रथम मंडल के पहले ही मन्त्र 'अग्निमीडे' में पाया जाता है।
'ईदगाह' स्पष्टतः 'ईडागृह' का सज्ञाति / cognate है, जिसका अर्थ है पूजास्थल ।
जैसे आग़ाह / निग़ाह का मूल आग्रह / निग्रह में है, वैसे ही 'मुल्क' का 'मूलकः' तथा 'वतन' का 'वसं' में है।
इस प्रकार से 'दो मुल्कों' का सिद्धांत वस्तुतः इस रूप में ग्राह्य है कि धरती पर मनुष्यों में भी दो सभ्यताएँ भौतिकवादी और सनातन धर्मवादी हमेशा अस्तित्व में रहेंगी। उनके बीच संघर्ष भी होगा ही। किन्तु समग्रतः प्रबुद्ध मनुष्य उनमें सामंजस्य भी स्थापित कर सकता है। या फिर पूरी मानव-जाति का ही विनाश होना है।
'वसति' (संज्ञा) से बना है बस्ती।
सत् से बना है सद् -- सादा, सादिक, सूद, मसूद, असद, सौदा, मसौदा।
ये वे कुछ उदाहरण हैं जिनसे किस प्रकार अरबी तथा फ़ारसी एवं हिंदी / उर्दू के वर्तमान में प्रचलित शब्द बने।
मनुष्यों द्वारा बोली जानेवाली किसी भी भाषा के विभिन्न रूप मौखिक तथा लिपिबद्ध रूपों में परंपरा से एक से दूसरी पीढ़ियों तक प्रचलित होते रहे। जबकि संस्कृत भाषा देवभाषा / अमरभाषा होने से उसी प्रकार अजर अमर और शाश्वत सनातन स्वरूप की है जैसे विज्ञान के वे नियम जिन्हें यदि शाब्दिक रूप न भी दिया जाए तो भी वे अपना अपना कार्य तो करते ही हैं। क्या विज्ञान के नियम अजर अमर और शाश्वत सनातन नहीं हैं ?
वाणी वैसे भी अग्नि अर्थात् ऊर्जा है जिसका चेतना से संयोग (कर्मफलेषु जुष्टाम् --- मन्त्र 9) होने से ही देवता जीवन की तरह जगत का कार्य करते हैं।
वाणी वैसे भी किसी देह-यंत्र का सर्वाधिक श्रेष्ठ उपकरण है।
देवता वर्णस्वरूप हैं और प्रत्येक वर्ण ही देवता है। इस प्रकार विभिन्न वर्णों के समुदाय से बने शब्द अर्थात् मन्त्र भी देवता-विशेष हैं जिनका आवाहन मन्त्रों से ही किया जाता है। यह अवश्य ही एक अत्यंत गूढ़ सत्य है जिसे नकारकर या जिसका विरोधकर हम अपने ही पाँवों पर कुल्हाड़ी मारते हैं।
यदि किसी को वेद और वैदिक धर्म पर संशय है तो उसे या तो वेद को समझना चाहिए या बस इस बारे में मौन रहना चाहिए। किसी के द्वारा केवल हठधर्मी से किए गए उग्र विरोध और निंदा या खिल्ली उड़ाने से उसका अंततः अपना भी अत्यंत अनिष्ट होता है।
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विगत सदियों में सनातन धर्म के अनेक देशी-विदेशी विचारकों, अध्ययनकर्ताओं, शोधकर्ताओं ने किसी भी बहाने से संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन और उनके अनुवाद अंग्रेज़ी तथा दूसरी यूरोपीय भाषाओं में किए। और चूँकि यह तो बिलकुल स्वाभाविक भी था, कि संस्कृत भाषा के अनेक शब्दों के लिए उन्हें उन विभिन्न भाषाओं में ऐसे शब्द ही नहीं मिले जो मूल संस्कृत शब्द के तात्पर्य को यथावत व्यक्त कर सकते थे। क्योंकि उन भाषाओं में वेद तथा वैदिक विषयों के बारे में न तो कभी चिंतन किया गया न खोज ही की गयी।
इसलिए धर्म, संप्रदाय, अहं, अहंकार, चित्त, वृत्ति, संस्कार, मोक्ष, विवेक, मुमुक्षा, भक्ति, साधना, आत्मा, ध्यान, धारणा, तप, ब्रह्म, ब्रह्मचर्य, वैराग्य जैसे शब्दों के लिए उन्होंने क्रमशः
religion, sect / cult, ego, Self, mind, tendencies / impressions, liberation, discrimination, earnestness / urge for liberation, spiritual-practice, self / Self, meditation, fixing of the mind, penance / austerities, Ultimate / Totality / Reality / Supreme, celibacy, dispassion ...
जैसे शब्दों को चुना।
दूसरी ओर तमाम (तं आम्) भारतीय भाषाएँ मूलतः वेद तथा वैदिक-ज्ञान से अविच्छिन्नतः जुडी हैं इसलिए उनमें शब्द-बाहुल्य इतना ही समृद्ध और विपुल था जैसा कि संस्कृत भाषा में है। सबसे बड़ी विशेषता यह कि जैसे संस्कृत भाषा में नए शब्द गढ़ने / रचने के लिए अपार सामर्थ्य और संभावनाएँ हैं उसी तरह लगभग सभी भारतीय भाषाओं में भी हैं। चाहे गोस्वामी तुलसीदास जी का 'श्रीरामचरितमानस' हो, समर्थ रामदास का 'दासबोध' या संत ज्ञानेश्वर महाराज का 'अमृतानुभव' ग्रन्थ, सभी में संस्कृत का लोकभाषा में विवर्तन ऐसा स्वाभाविक है कि पाठक बस मंत्रमुग्ध होकर रह जाता है। बाँग्ला, असमिया, यहाँ तक कि अवधी, भोजपुरी, ब्रजभाषा में भी कई ऐसे शब्द पाए जाते हैं जिन्हें देखकर लगता है जैसे ठेठ संस्कृत से चले आए हों - बेहिचक, अधिकार-पूर्वक, बेरोकटोक।
अपने अध्ययन के दौरान मैंने अनुभव किया कि उर्दू (व अरबी एवं फारसी) के भी ऐसे ढेरों शब्द हैं जिन्हें सीधे संस्कृत से प्राप्त किया जा सकता है। श्री आर. एस. एन सिंह के अनुसार उर्दू के सभी शब्द और खासकर क्रियाएँ सीधे संस्कृत की मूल क्रियाओं का अपभ्रंश हैं। एक छोटा सा उदाहरण है 'पानी', जो हमें संस्कृत या हिंदी का नहीं प्रतीत होता। लेकिन संस्कृत की 'पा' (पीना) धातु से पेयं, और पानं तथा पानं से पानीय, फिर पानीय होकर पानी तक पहुँचना लोकभाषा की ही देन है।
इतना ही नहीं फ़ारसी तथा अरबी भाषा की संरचना को समझें तो स्पष्ट हो जाता है कि व्याकरण मूलतः दो प्रकार का होता है :
पहला है वाणी का व्याकरण,
दूसरा है भाषा का व्याकरण।
जैसा कि व्युत्पत्ति (वि आ कृ) से भी स्पष्ट है कि व्याकरण वह विद्या है जो उन शब्दों के उद्भव के बारे में कहता है जिनसे किसी भाषा का निर्माण हुआ होता है।
श्रीदेवी-अथर्वशीर्षं को प्रमाण के लिए आधार बनाएँ तो इस बारे में अपने ब्लॉग्स में मैंने अनेक पोस्ट्स में स्पष्ट किया है कि किस प्रकार वाणी (voice) से वर्णों (sounds) की उत्पत्ति होने के बाद वे वर्ण (जो आधिदैविक दृष्टि से देवता-तत्व हैं) वाणी की अधिष्ठात्री अदिति के समक्ष प्रस्तुत हुए और उन्होंने उससे उसके तत्व को जानने के लिए जिज्ञासा / प्रार्थना की। यह जानना भी रोचक है कि इससे पहले उन्हीं वर्णरूपी देवताओं ने अपने तेज से ही अदिति की सृष्टि की थी। तब अदिति ने उन्हें अपने स्वयं के तत्व का दर्शन देते हुए उनका 'संस्कार' किया।
वे ही देवता अदिति के पिता प्रजापति दक्ष से कहते हैं :
(ते देवा अब्रुवन्) --नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्।। 8
तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम्।
दुर्गां देवीं शरणं प्रपद्यामहेऽसुरान्नाशयित्र्यै ते नमः।।9
देवीं वाचमजनयन्तं देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।
(देवताओं ने उस वाणी को जन्म दिया जिसका प्रयोग (समस्त) पशु करते हैं -- अर्थात् वह वाणी जिसकी कोई भाषा-विशेष नहीं बनी है।)
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु।।10
(वह वाणी जो धेनु (गौ) की तरह पूरी पृथ्वी पर सर्वत्र विचरण करती है, उसकी हमने इस प्रकार स्तुति की। )
और उसने हमें (वर्णों के रूप में) धीमी गति से चलनेवाली वाणी प्रदान की (जिसे मनुष्य बोलने लगे)।
कालरात्रीं ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम्।
सरस्वतीमदितिं दक्षदुहितरं नमामः पावनां शिवाम्।।11
(यहाँ देवी के आधिदैविक स्वरूप का वर्णन है। )
महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धीमहि।
तन्नो ------- देवी --------------प्रचोदयात्।।12
अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव।
तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः।।13
(इस मन्त्र में देवता दक्ष प्रजापति से कहते हैं :
जिन देवताओं ने पहले (अपने तेज से) अदिति की आधिभौतिक रूप में सृष्टि की,
हे दक्ष ! उसी तुम्हारी पुत्री अदिति ने पुनः उन देवताओं को आधिदैविक स्वरूप में जन्म दिया।
और वे देवता इस प्रकार परस्पर शुभ अमृतबन्धु हुए।
यह उन वर्णों का वर्णन है जिन्हें अक्षरसमाम्नाय अर्थात् माहेश्वर वर्णसमाम्नाय कहा जाता है।
इन वर्णों के द्वारा भगवान शिव ने ऋषियों को वैदिक व्याकरण की शिक्षा / उपदेश किया।
यही भाषा 'संस्कारित होने से' 'संस्कृत' नाम से विख्यात हुई।
मन्त्र 8 में अदिति को ही भद्रा तथा प्रकृति, नियता कहकर संबोधित किया गया है, जो प्राकृत भाषा हुई।
इसलिए मानव द्वारा बोली जानेवाली सभी भाषाओं का प्राकृत स्वरूप में भिन्न भिन्न स्थानों पर भिन्न भिन्न रूपों में प्राकट्य / उद्भव हुआ जिनकी रचना पारस्परिक प्रभावों से सतत बदलती रही।
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अब हम उदाहरण के लिए कुछ हिंदी / उर्दू शब्दों पर ध्यान दें :
नमाज़ - जिसे आपका प्रचलित हिंदी शब्दकोश फ़ारसी से आया हुआ बतलाता है।
संस्कृत से खोजें तो यह अर्थसाम्य के आधार पर भी 'नम् यजन / यज्न' अर्थात् प्रार्थना के अर्थ में प्रयुक्त होता है। अरबी भाषा में नमाज़ को 'सला' कहा जाता है।
'ईद' जो ईश्वरीय आराधना और पूजा का उल्लास है संस्कृत की 'ईड्' धातु से बना है जिसका प्रयोग ऋग्वेद के प्रथम मंडल के पहले ही मन्त्र 'अग्निमीडे' में पाया जाता है।
'ईदगाह' स्पष्टतः 'ईडागृह' का सज्ञाति / cognate है, जिसका अर्थ है पूजास्थल ।
जैसे आग़ाह / निग़ाह का मूल आग्रह / निग्रह में है, वैसे ही 'मुल्क' का 'मूलकः' तथा 'वतन' का 'वसं' में है।
इस प्रकार से 'दो मुल्कों' का सिद्धांत वस्तुतः इस रूप में ग्राह्य है कि धरती पर मनुष्यों में भी दो सभ्यताएँ भौतिकवादी और सनातन धर्मवादी हमेशा अस्तित्व में रहेंगी। उनके बीच संघर्ष भी होगा ही। किन्तु समग्रतः प्रबुद्ध मनुष्य उनमें सामंजस्य भी स्थापित कर सकता है। या फिर पूरी मानव-जाति का ही विनाश होना है।
'वसति' (संज्ञा) से बना है बस्ती।
सत् से बना है सद् -- सादा, सादिक, सूद, मसूद, असद, सौदा, मसौदा।
ये वे कुछ उदाहरण हैं जिनसे किस प्रकार अरबी तथा फ़ारसी एवं हिंदी / उर्दू के वर्तमान में प्रचलित शब्द बने।
मनुष्यों द्वारा बोली जानेवाली किसी भी भाषा के विभिन्न रूप मौखिक तथा लिपिबद्ध रूपों में परंपरा से एक से दूसरी पीढ़ियों तक प्रचलित होते रहे। जबकि संस्कृत भाषा देवभाषा / अमरभाषा होने से उसी प्रकार अजर अमर और शाश्वत सनातन स्वरूप की है जैसे विज्ञान के वे नियम जिन्हें यदि शाब्दिक रूप न भी दिया जाए तो भी वे अपना अपना कार्य तो करते ही हैं। क्या विज्ञान के नियम अजर अमर और शाश्वत सनातन नहीं हैं ?
वाणी वैसे भी अग्नि अर्थात् ऊर्जा है जिसका चेतना से संयोग (कर्मफलेषु जुष्टाम् --- मन्त्र 9) होने से ही देवता जीवन की तरह जगत का कार्य करते हैं।
वाणी वैसे भी किसी देह-यंत्र का सर्वाधिक श्रेष्ठ उपकरण है।
देवता वर्णस्वरूप हैं और प्रत्येक वर्ण ही देवता है। इस प्रकार विभिन्न वर्णों के समुदाय से बने शब्द अर्थात् मन्त्र भी देवता-विशेष हैं जिनका आवाहन मन्त्रों से ही किया जाता है। यह अवश्य ही एक अत्यंत गूढ़ सत्य है जिसे नकारकर या जिसका विरोधकर हम अपने ही पाँवों पर कुल्हाड़ी मारते हैं।
यदि किसी को वेद और वैदिक धर्म पर संशय है तो उसे या तो वेद को समझना चाहिए या बस इस बारे में मौन रहना चाहिए। किसी के द्वारा केवल हठधर्मी से किए गए उग्र विरोध और निंदा या खिल्ली उड़ाने से उसका अंततः अपना भी अत्यंत अनिष्ट होता है।
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