Monday, 24 June 2019

प्रेम, उन्माद और काम

दैत्यगुरु भृगु शुक्राचार्य
--
हातिम ताई उसके पंजों में जकड़ा हुआ था लेकिन उसे कोई खरोंच तक नहीं आई थी । जैसे बिल्ली अपने बच्चों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक दाँतों में दबाकर ले जाती है, कुछ इसी तरह गरुड़ उसे अपने पंजों में दबाए हुए था । बहुत वेग से उड़ता हुआ गरुड़ उसे लेकर रक्त सागर (लाल सागर) को पार कर वहाँ, उस देश में ले गया जहाँ गरुड़ की राजधानी थी । गरुत्मान् की वह राजधानी गिरीश कही जाती थी क्योंकि वहाँ अनेक पहाड़ियों झरनों, कल-कल बहती नदियों के बीच गिरीश (ग्रीक) साम्राज्य अपनी कला और वैभव की ऊँचाइयों पर वैभव और समृद्धि से पूर्ण था ।
दैत्यराज राजा Dietrich (दैत्यऋक्ष) की राजधानी यद्यपि वहाँ से दूर थी, किंतु उसकी सेना और ग्रीक सेना के बीच अकसर युद्ध होते रहते थे ।
दैत्यगुरु भृगु अर्थात् शुक्राचार्य प्रायः वहाँ आश्रम बनाकर निवास करते थे । उनकी परंपरा के मूल पुरुष तो इन्दोनेशिया के बाली द्वीप से आए थे जहाँ राजा बलि ने जब उस यज्ञ का संकल्प लिया था जिसमें सर्वस्व दान कर दिया जाता है, तो उन्होंने ही उसे तब रोका था जब स्वयं भगवान् विष्णु ने वामन का वेष धरकर साढ़े तीन डग भूमि उससे दान में माँगी थी । महर्षि भृगु के कुल की ही सन्तान के रूप में शुक्राचार्य (यह दैत्यों के गुरु की उपाधि है, जिसकी अपनी  कुल-परंपरा है,) ने तब बलि को पहले तो रोका किन्तु जब वह नहीं रुका तो उस पात्र के भीतर वहाँ जाकर उन्होंने उसके उस जलमार्ग को अवरुद्ध कर दिया जिससे संकल्प करते समय जल छोड़ा जाता है । तब ब्राह्मण-वेशधारी ने बलि से कहा था :
राजन् ! जल के मार्ग में कोई अवरोध है कृपया इस तिनके से उसे हटा दीजिये नहीं तो आपका संकल्प अपूर्ण रह जाएगा ।
तब बलि ने उनके हाथ से तिनका लेकर उससे उस अवरोध को हटाने का यत्न किया । वही तिनका शुक्राचार्य की एक आँख में जा घुसा और वे तड़पकर वहाँ से हट गए । वामन को तीन डग धरती मिली तो पहले डग में समूची धरती को और दूसरे में स्वर्ग को तथा तीसरे में अन्तरिक्ष को भी नाप लिया । फिर पूछा :
"आधा डग कहाँ रखूँ ?"
तब राजा बलि ने अपना मस्तक झुकाकर कहा :
"प्रभु मेरे इस मस्तक पर रख दीजिए ! मैं जानता हूँ कि ब्राह्मण के वेष में आप स्वयं भगवान् नारायण मेरे समक्ष खड़े हैं इससे बढ़कर मेरे लिए और क्या सौभाग्य होगा ?"
तब वामन-वेषधारी भगवान् श्रीहरि ने झुककर अपने घुटने से राजा बलि के मस्तक को दबाया और वह पाताल चला गया ।
यह पाताल बलि की धरती के दूसरे सिरे पर स्थित था जहाँ दैत्यराज का कुल फल-फूल और पनप रहा था ।
यही शुक्राचार्य जिन्होंने श्री हरि को इस छल के लिए क्रोधवश उनके सीने पर पादाघात किया था तो श्री हरि ने मुस्कुराकर ऋषि भृगु से पूछा था :
"भगवान् ! मेरा वक्ष तो वज्र सा कठोर है, आपके चरण-कमल पर कोई चोट तो नहीं लगी?"
तब ऋषि ने उनके प्रश्न को सुना-अनसुना कर दिया किन्तु तब भी ऋषि की परंपरा में दैत्यों के लिए सहानुभूति और श्री हरि के प्रति कुछ द्वेष अवश्य बना रहा ।
जब गरुड़ हातिम ताई को लेकर वहाँ पहुँचा तो एक सुन्दर झील के किनारे शुक्राचार्य के आश्रम के निकट उसे छोड़ दिया ।
महर्षि भृगु के कुल के किसी अगली पीढ़ी के वंशज तब दैत्य-गुरु थे ।
जब हातिम ताई वहाँ पहुँचा तो पहले तो उसे नींद आ गई । वन में फूलों फलों से लदे वृक्ष और उनसे संलग्न मधुछत्रों से च्यवित हो रहा मधुरस पीकर  उसे बहुत प्रसन्नता हुई । तब वह पथहीन वन में कुछ दूर स्थित उस आश्रम की ओर बढ़ चला जहाँ ऋषि भृगु अपने गुरुकुल में शिष्यों को कृष्ण-यजुर्वेद की शिक्षा देते थे ।
हातिम ताई संस्कृत और वेद से तो सर्वथा अनभिज्ञ था किन्तु उसे यह अवश्य लगा कि महात्मा गरुड़ उसके हितैषी हैं और ईश्वर के दूत हैं ।
--
पुनः गरुड़ के पंजों में दबा वह प्रायः अचेत हो चुका था । इस बीच तन्द्रा जैसी स्थिति में वह पुनः स्वप्नावस्था जैसी मनःस्थिति में उन घटनाओं को जी रहा था जो उसके उस शहर में रहते हुए उसके साथ हुई थीं । वहाँ उसे आए हुए अभी एक-दो साल ही हुए थे कि उसके धर्मपिता ने क़बीले की एक लड़की से उसका विवाह तय किया । वह तो धर्मपिता की आज्ञा में बँधा था इसलिए उसई इच्छा पूछने का प्रश्न ही कहाँ था ?
विवाह हो जाने पर उसकी पत्नी उसके साथ रहने लगी ।
उसे पत्नी बहुत अच्छी लगती थी इसलिए उससे उसका प्रेम निरंतर बढ़ने लगा ।
इसी प्रेम के आवेश में उसमें कामोन्माद उठने लगा और वह सोचने लगा कि यह उन्माद कैसा है? क्या यह कोई रोग या मनोविकार है? उसने पशुओं को तो काम-क्रीड़ा करते देखा था और पक्षियों आदि को भी किंतु उसे यह नहीं पता था कि मनुष्यों में भी ऐसा होता है ।
तब उसने अपने धर्मपिता से इस विषय मे प्रश्न किया ।
धर्मपिता ने कहा यह उन्माद (नशा) प्रकृति से ही प्राप्त होता है किंतु केवल मनुष्य ही इस विकार से मुक्त रह सकता है । पशुओं के लिए यह असंभव है कि वे इसके पाश से मुक्त हो सकें । लेकिन पशु और दूसरे जंतु भी इस उन्माद के वैसे अभ्यस्त नहीं होते जैसा कि प्रायः अविवेकी और प्रमादयुक्त मनुष्य अपनी असावधानी से हो जाया करता है।  
"क्या मनुष्य के लिए यह संभव है?"
"मनुष्यों में जो पशु हैं उनके लिए तो संभव नहीं है, किंतु जो वास्तव में मनुष्य हैं या धर्म के अनुसार जिनका आचरण है उनके लिए यह अवश्य संभव है ।"
"मनुष्य कौन हैं और मनुष्यों में वास्तविक पशु कौन और वास्तविक मनुष्य कौन हैं?"
"देखो प्रकृति में - जो कि माता और बीजीय है, यह उन्माद / विकार नहीं है किंतु मनुष्य में यह उन्माद विकार हो सकता है ।"
धर्मपिता की बात सुनकर हातिम ताई को कुछ स्पष्ट नहीं हुआ ।
"ऐसा कैसे हो सकता है?"
"देखो, जब अपनी पत्नी के प्रति यह उन्माद उठता है तो पत्नी से आत्मीयता होती है, -उसके साथ प्रेम जुड़ा होता है और तब जो संतान पत्नी से पैदा होती है वह भी वास्तविक मनुष्य या ईश्वर-पुत्र होती है । जबकि जब पशुओं की तरह केवल इस उन्माद, इसकी उत्तेजना और उपभोग के और इसकी निवृत्ति के सुख के लिए पुरुष द्वारा किसी भी स्त्री से, या स्त्री द्वारा किसी भी पुरुष से जो काम-व्यवहार किया जाता है, वह पशुता है ।"
तब हातिम ताई के मन में प्रश्न उठा कि क्या इस उन्माद का सन्तान की उत्पत्ति से कोई संबंध है?
उसने अपने धर्मपिता से यही प्रश्न पूछा ।
"हाँ कुछ लोग ऐसा ही समझते हैं ।"
"क्या इसीलिए विवाह नामक रस्म शुरु हुई?"
"नहीं ! इस उन्माद का सन्तान की उत्पत्ति से कोई संबंध नहीं है और स्त्री चूँकि माता है, इसलिए वही मनुष्य का बीज है जिसमें से पुनः स्त्री या पुरुष जैसी सन्तानें जन्म लेती हैं । जैसे किसी वृक्ष के बीज से वही वृक्ष पुनः पैदा (प्रदाय) होता है, वैसे ही नारी से पुनः मनुष्य पैदा होता है, और संतान के जन्म का इस उन्माद से वस्तुतः तब कोई संबंध नहीं होता जब नारी के प्रति पुरुष में प्रेम और आदर होता है ।"
"तो क्या एक ही पुरुष एक से अधिक स्त्रियों से, या एक ही स्त्री एक से ज़्यादा पुरुषों से विवाह कर सकते हैं?"
"वैसा प्रायः न तो संभव है, न आवश्यक क्योंकि यदि प्रेम है तो यह समाज की व्यवस्था पर और समाज में स्त्रियों और पुरुषों की संख्या पर भी  निर्भर होता है । इसलिए इस बारे में कुछ तय नहीं किया जा सकता । किंतु परिवार और वंश चलाने के लिए यही सबसे अच्छा तरीका है कि एक पुरुष एक ही स्त्री से, और एक स्त्री एक ही पुरुष से निष्ठापूर्वक प्रेम और आदरसहित प्रसन्नतापूर्वक काम-व्यवहार करे, न कि इसका उपयोग नशे के तरह करे ।"
तब उसे याद आया उसके पिता उसकी माता को ’बी’ या ’बीजी’ क्यों कहते थे ! उसके समाज में ही स्त्री-मात्र को प्रायः ’बी’ कहकर आदर और सम्मान दिया जाता था ।
(इसी ’बी’ से अंग्रेज़ी का विमिन / women और वुमन / वुमन तथा वाइव्ज़ wives / वाइफ़ / wife बने हैं । इसी प्रकार से womb शब्द भी बना है जिसका प्रयोग 'गर्भ' के अर्थ में किया जाता है।  हिंदी और दूसरी भाषाओं में 'बाई' भी इसी से प्रचलित हुआ शब्द है। और इसी प्रकार से ’मादा’ भी ’माता’ का ही अपभ्रंश है ।)
धर्मपिता की शिक्षा से उसका भ्रम दूर हो गया और उसे स्पष्ट हुआ कि पुरुष के लिए स्त्री और स्त्री के लिए पुरुष, उपभोग का साधन नहीं बल्कि परस्पर आदर, प्रीति और सम्मान के लिए होते हैं ।
-- 

No comments:

Post a Comment