सत्ता का धर्म
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अस्तित्व और शक्ति किसी भी प्रकार की सत्ता के दो अनिवार्य पक्ष होते हैं।
अस्तित्व मात्र शक्ति है और शक्ति मात्र अस्तित्व।
मूलतः असीमित समष्टिरूप में, इन दोनों में कोई संघर्ष या द्वंद्व तक नहीं है, लेकिन इनके किसी अंश की तरह से व्यक्त रूप लेते ही, वह व्यक्त-अस्तित्व समष्टि का एक सीमित टुकड़ा होकर रह जाता है।
वह टुकड़ा सजीव-सचेतन हो सकता है जो अपने ही जैसे अन्य टुकड़ों के भी सजीव-सचेतन या निर्जीव-जड (चेतनारहित) होने का अनुमान कर सकता है। मूलतः वह कोई ऐसी जैव-प्रणाली होता है जो द्रव्य और ऊर्जा (matter and energy) से बना एक पिंड ही होता है जिसमें दृष्टा-दृश्य का विभाजन पैदा हो जाता है जिसमें उस पिंड को अपने आप की तरह और उससे भिन्न प्रतीत होनेवाले चतुर्दिक् संसार (जो कि वस्तुतः उस पिंड में भी व्याप्त है), के क्रमशः दृष्टा और दृश्य होने का अनुमान पैदा होता है।
इसा प्रकार समष्टि अस्तित्व और शक्ति (अर्थात् सत्ता) असंख्य जीवों के, तथा जड-चेतन, निर्जीव-सजीव पिंडों के रूप में व्यक्त संसार की तरह पाया जाता है। कोई सचेतन सजीव पिंड और उसके द्वारा अनुभव / अनुमानित किया जानेवाला संसार भी, दोनों ही परस्पर सापेक्ष और अन्योन्याश्रित होते हैं। इसलिए जितने पिंड हैं उनमें से प्रत्येक का अपना एक विशिष्ट दृश्य संसार होता है जिसमें दृष्टा व्यक्ति / व्यष्टि नितान्त अकेला, एकाकी होता है। चूँकि ऐसे असंख्य व्यक्ति इस प्रकार व्यक्त होते हैं इसलिए उनमें से प्रत्येक ही अस्तित्व और शक्ति का एक अनोखा (unique) उदाहरण होता है।
द्वितीयाद्वै भयम्।
दूसरे के होने की, -'अस्तित्व की'- प्रतीति ही भय है।
The other is hell!
क्योंकि तब अपने अस्तित्व के नष्ट होने की आशंका पैदा हो जाती है।
वह 'दूसरा' ही भय है।
वह अज्ञात और अपरिचित है।
अपने अस्तित्व को बनाए रखने की चिंता और प्रयत्न ही व्यक्ति को विभिन्न प्रकार के समस्त उपभोगों (भोगों) की और आकर्षित करता है। और कुछ विचित्र बात यह है कि कोई न कोई 'दूसरा' ही उस भोग का साधन हो सकता है। इस प्रकार भोग / उपभोग के हर साधन से :
love-hate-relationship
पैदा हो जाती है।
गीता अध्याय 7 श्लोक 27 के अनुसार :
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।
इस प्रकार प्राणीमात्र जन्म से ही इच्छा (आकर्षण, राग) तथा द्वेष (विकर्षण) से युक्त होता है।
यह है किसी भी relationship का सारतत्व।
भर्तृहरि अपने वैराग्यशतक में कहते हैं :
भोगे रोग-भयं कुले च्युति-भयं वित्ते नृपालाद्भयम्
माने दैन्य-भयं बले रिपुभयं रूपे जरायाभयम्।
शास्त्रे वादि-भयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयम्
सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्।। 31
भोग (करने) में रोग होने का, उच्च कुल में पैदा होने से कुल की मर्यादा से च्युत हो जाने का, धन-संपत्ति होने पर राजा का, प्रतिष्ठा-सम्मान होने पर भविष्य में उसके समाप्त होने से दीन हो जाने का, बल होने पर शत्रु / प्रतिस्पर्धी का, और रूपयौवन-संपन्न होने पर बूढ़े हो जाने का डर लगा रहता है।
शास्त्र के ज्ञाता होने पर दूसरे शास्त्रवेत्ताओं से वाद-विवाद तथा हार का, गुण होने पर दुष्टों द्वारा गुण का दुरुपयोग किये जाने का, शरीर के रहने तक यमराज (मृत्यु होने) का डर होता है।
संसार की हर वस्तु मनुष्य के लिए भय से पूर्ण है, केवल वैराग्य ही अभय है।
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यदि वैराग्य ही अभय है तो ऐसा वैराग्य कैसे उत्पन्न किया जा सकता है ?
अपने अस्तित्व और शक्ति का भान / प्रतीति तीन स्तरों पर हो सकती है :
व्यक्ति के स्तर पर, समूह के स्तर पर, और समष्टि के स्तर पर।
व्यक्ति के रूप में मनुष्य भी शरीर के स्तर से तो पशु ही है, क्योंकि वह भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, जागृति-निद्रा, रोग-व्याधि, जीवन-मृत्यु के पाश में बँधा है।
मन के स्तर पर मनुष्य (का मन) ईर्ष्या-द्वेष, राग-भय, काम-क्रोध, हर्ष-विषाद आदि के पाश में बँधा है।
इसी का विस्तार सामूहिक स्तर तक होने से मनुष्य दूसरे पशुओं की तरह, अपने समूह के लिए चिंतित होता है। अर्थात् वह समूह के भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, जागृति-निद्रा, रोग-व्याधि, जीवन-मृत्यु, ईर्ष्या-द्वेष, राग-भय, काम-क्रोध, हर्ष-विषाद आदि से प्रेरित हुआ समूह के दृष्टिकोण को महत्त्व देता हुआ तदनुसार आचरण करता है। समूह के लिए प्राण तक न्यौछावर करना उसका आदर्श हो सकता है।
यहीं से मनुष्य में राजनीति पैदा होती है।
मनुष्य की राजनीति के दो प्रकार हो सकते हैं :
पहला, समूह के सापेक्ष अपने अस्तित्व और शक्ति अर्थात् 'सत्ता' के संरक्षण और संवर्धन का प्रयास, जो व्यक्ति और समूह में उसकी स्थिति पर निर्भर होता है।
समूह व्यक्ति का तथा व्यक्ति समूह का शोषण करता है। न सिर्फ यह, बल्कि विभिन्न समूह भी एक-दूसरे का शोषण करते हैं।
दूसरा, समष्टि-धर्म के अनुसार अपने, समूह के और राष्ट्र / संसार के संरक्षण और संवर्धन के लिए जो किया जाना उचित है वैसा आचरण करना।
इस प्रकार राष्ट्र (राज् - राजति, राजते - जो चमकता है अर्थात् स्वयं ही दूसरों को दिखाई पड़ता है, - इति राष्ट्रः) अर्थात् सारे संसार का जिससे कल्याण हो उस प्रकार से कार्य करना। 'राज् - राजति, राजते' से ही एक अन्य संज्ञा बनती है राज्य, जो शासन के अर्थ में पृथ्वी के एक हिस्से पर लागू होता है, जिस पर कोई राजा शासन करता है। वैदिक सनातन धर्म में इसे ही क्षत्रियवर्ण कहा गया है। यहाँ उल्लेखनीय है कि मनुष्य स्वयं ही जीवों की एक 'जाति' है, इसलिए सनातन धर्म के अनुसार सभी वर्ण मनुष्य के हैं और इस मनुष्य के वर्ण होते हैं, जिसमें कोई 'जाति' नहीं हो सकती। 'जाति' शब्द का प्रयोग वर्ण से जुड़े पैतृक परंपरा से प्राप्त व्यवसाय या आजीविका के लिए भी गौण अर्थ में किया जाता है, किन्तु वह 'जाति' वैसी कोई भेदमूलक व्यवस्था नहीं है, जैसी कि 'वर्ण' है।
गीता अध्याय 4 का श्लोक 13 में इसे और स्पष्ट किया गया है :
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धि विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।
"मनुष्य-जाति में भी मनुष्यों में विद्यमान उनके गुणों और कर्मों को प्रेरित करनेवाली उनकी अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार, उनके ये चार वर्ण मेरे ही द्वारा सृजित किये गए हैं। उस चातुर्वर्ण्यता का कर्ता (करनेवाला) भी मुझे ही जानो, और साथ ही उसे भी जानो, जो यह सब करता हुआ भी वस्तुतः अकर्ता एवं अविनाशी (जन्म-मृत्युरहित) है।"
राज्य के शासन की नीति ही राजनीति का दूसरा प्रकार है। ऐसा राजा स्वयं भी धर्म से शासित होता है। इसी प्रकार, ब्राह्मण, वैश्य तथा शूद्र वर्णों को भी धर्म के शासन में रहने के लिए सनातन धर्म के शास्त्र शिक्षा देते हैं। शिक्ष् (सीखना) और शास् (सिखाना) दोनों ही शिक्षा के समानार्थी हैं।
इस प्रकार से 'शासन' का अर्थ हुआ शिक्षा की व्यवस्था।
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अस्तित्व और शक्ति किसी भी प्रकार की सत्ता के दो अनिवार्य पक्ष होते हैं।
अस्तित्व मात्र शक्ति है और शक्ति मात्र अस्तित्व।
मूलतः असीमित समष्टिरूप में, इन दोनों में कोई संघर्ष या द्वंद्व तक नहीं है, लेकिन इनके किसी अंश की तरह से व्यक्त रूप लेते ही, वह व्यक्त-अस्तित्व समष्टि का एक सीमित टुकड़ा होकर रह जाता है।
वह टुकड़ा सजीव-सचेतन हो सकता है जो अपने ही जैसे अन्य टुकड़ों के भी सजीव-सचेतन या निर्जीव-जड (चेतनारहित) होने का अनुमान कर सकता है। मूलतः वह कोई ऐसी जैव-प्रणाली होता है जो द्रव्य और ऊर्जा (matter and energy) से बना एक पिंड ही होता है जिसमें दृष्टा-दृश्य का विभाजन पैदा हो जाता है जिसमें उस पिंड को अपने आप की तरह और उससे भिन्न प्रतीत होनेवाले चतुर्दिक् संसार (जो कि वस्तुतः उस पिंड में भी व्याप्त है), के क्रमशः दृष्टा और दृश्य होने का अनुमान पैदा होता है।
इसा प्रकार समष्टि अस्तित्व और शक्ति (अर्थात् सत्ता) असंख्य जीवों के, तथा जड-चेतन, निर्जीव-सजीव पिंडों के रूप में व्यक्त संसार की तरह पाया जाता है। कोई सचेतन सजीव पिंड और उसके द्वारा अनुभव / अनुमानित किया जानेवाला संसार भी, दोनों ही परस्पर सापेक्ष और अन्योन्याश्रित होते हैं। इसलिए जितने पिंड हैं उनमें से प्रत्येक का अपना एक विशिष्ट दृश्य संसार होता है जिसमें दृष्टा व्यक्ति / व्यष्टि नितान्त अकेला, एकाकी होता है। चूँकि ऐसे असंख्य व्यक्ति इस प्रकार व्यक्त होते हैं इसलिए उनमें से प्रत्येक ही अस्तित्व और शक्ति का एक अनोखा (unique) उदाहरण होता है।
द्वितीयाद्वै भयम्।
दूसरे के होने की, -'अस्तित्व की'- प्रतीति ही भय है।
The other is hell!
क्योंकि तब अपने अस्तित्व के नष्ट होने की आशंका पैदा हो जाती है।
वह 'दूसरा' ही भय है।
वह अज्ञात और अपरिचित है।
अपने अस्तित्व को बनाए रखने की चिंता और प्रयत्न ही व्यक्ति को विभिन्न प्रकार के समस्त उपभोगों (भोगों) की और आकर्षित करता है। और कुछ विचित्र बात यह है कि कोई न कोई 'दूसरा' ही उस भोग का साधन हो सकता है। इस प्रकार भोग / उपभोग के हर साधन से :
love-hate-relationship
पैदा हो जाती है।
गीता अध्याय 7 श्लोक 27 के अनुसार :
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।
इस प्रकार प्राणीमात्र जन्म से ही इच्छा (आकर्षण, राग) तथा द्वेष (विकर्षण) से युक्त होता है।
यह है किसी भी relationship का सारतत्व।
भर्तृहरि अपने वैराग्यशतक में कहते हैं :
भोगे रोग-भयं कुले च्युति-भयं वित्ते नृपालाद्भयम्
माने दैन्य-भयं बले रिपुभयं रूपे जरायाभयम्।
शास्त्रे वादि-भयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयम्
सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्।। 31
भोग (करने) में रोग होने का, उच्च कुल में पैदा होने से कुल की मर्यादा से च्युत हो जाने का, धन-संपत्ति होने पर राजा का, प्रतिष्ठा-सम्मान होने पर भविष्य में उसके समाप्त होने से दीन हो जाने का, बल होने पर शत्रु / प्रतिस्पर्धी का, और रूपयौवन-संपन्न होने पर बूढ़े हो जाने का डर लगा रहता है।
शास्त्र के ज्ञाता होने पर दूसरे शास्त्रवेत्ताओं से वाद-विवाद तथा हार का, गुण होने पर दुष्टों द्वारा गुण का दुरुपयोग किये जाने का, शरीर के रहने तक यमराज (मृत्यु होने) का डर होता है।
संसार की हर वस्तु मनुष्य के लिए भय से पूर्ण है, केवल वैराग्य ही अभय है।
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यदि वैराग्य ही अभय है तो ऐसा वैराग्य कैसे उत्पन्न किया जा सकता है ?
अपने अस्तित्व और शक्ति का भान / प्रतीति तीन स्तरों पर हो सकती है :
व्यक्ति के स्तर पर, समूह के स्तर पर, और समष्टि के स्तर पर।
व्यक्ति के रूप में मनुष्य भी शरीर के स्तर से तो पशु ही है, क्योंकि वह भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, जागृति-निद्रा, रोग-व्याधि, जीवन-मृत्यु के पाश में बँधा है।
मन के स्तर पर मनुष्य (का मन) ईर्ष्या-द्वेष, राग-भय, काम-क्रोध, हर्ष-विषाद आदि के पाश में बँधा है।
इसी का विस्तार सामूहिक स्तर तक होने से मनुष्य दूसरे पशुओं की तरह, अपने समूह के लिए चिंतित होता है। अर्थात् वह समूह के भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, जागृति-निद्रा, रोग-व्याधि, जीवन-मृत्यु, ईर्ष्या-द्वेष, राग-भय, काम-क्रोध, हर्ष-विषाद आदि से प्रेरित हुआ समूह के दृष्टिकोण को महत्त्व देता हुआ तदनुसार आचरण करता है। समूह के लिए प्राण तक न्यौछावर करना उसका आदर्श हो सकता है।
यहीं से मनुष्य में राजनीति पैदा होती है।
मनुष्य की राजनीति के दो प्रकार हो सकते हैं :
पहला, समूह के सापेक्ष अपने अस्तित्व और शक्ति अर्थात् 'सत्ता' के संरक्षण और संवर्धन का प्रयास, जो व्यक्ति और समूह में उसकी स्थिति पर निर्भर होता है।
समूह व्यक्ति का तथा व्यक्ति समूह का शोषण करता है। न सिर्फ यह, बल्कि विभिन्न समूह भी एक-दूसरे का शोषण करते हैं।
दूसरा, समष्टि-धर्म के अनुसार अपने, समूह के और राष्ट्र / संसार के संरक्षण और संवर्धन के लिए जो किया जाना उचित है वैसा आचरण करना।
इस प्रकार राष्ट्र (राज् - राजति, राजते - जो चमकता है अर्थात् स्वयं ही दूसरों को दिखाई पड़ता है, - इति राष्ट्रः) अर्थात् सारे संसार का जिससे कल्याण हो उस प्रकार से कार्य करना। 'राज् - राजति, राजते' से ही एक अन्य संज्ञा बनती है राज्य, जो शासन के अर्थ में पृथ्वी के एक हिस्से पर लागू होता है, जिस पर कोई राजा शासन करता है। वैदिक सनातन धर्म में इसे ही क्षत्रियवर्ण कहा गया है। यहाँ उल्लेखनीय है कि मनुष्य स्वयं ही जीवों की एक 'जाति' है, इसलिए सनातन धर्म के अनुसार सभी वर्ण मनुष्य के हैं और इस मनुष्य के वर्ण होते हैं, जिसमें कोई 'जाति' नहीं हो सकती। 'जाति' शब्द का प्रयोग वर्ण से जुड़े पैतृक परंपरा से प्राप्त व्यवसाय या आजीविका के लिए भी गौण अर्थ में किया जाता है, किन्तु वह 'जाति' वैसी कोई भेदमूलक व्यवस्था नहीं है, जैसी कि 'वर्ण' है।
गीता अध्याय 4 का श्लोक 13 में इसे और स्पष्ट किया गया है :
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धि विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।
"मनुष्य-जाति में भी मनुष्यों में विद्यमान उनके गुणों और कर्मों को प्रेरित करनेवाली उनकी अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार, उनके ये चार वर्ण मेरे ही द्वारा सृजित किये गए हैं। उस चातुर्वर्ण्यता का कर्ता (करनेवाला) भी मुझे ही जानो, और साथ ही उसे भी जानो, जो यह सब करता हुआ भी वस्तुतः अकर्ता एवं अविनाशी (जन्म-मृत्युरहित) है।"
राज्य के शासन की नीति ही राजनीति का दूसरा प्रकार है। ऐसा राजा स्वयं भी धर्म से शासित होता है। इसी प्रकार, ब्राह्मण, वैश्य तथा शूद्र वर्णों को भी धर्म के शासन में रहने के लिए सनातन धर्म के शास्त्र शिक्षा देते हैं। शिक्ष् (सीखना) और शास् (सिखाना) दोनों ही शिक्षा के समानार्थी हैं।
इस प्रकार से 'शासन' का अर्थ हुआ शिक्षा की व्यवस्था।
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