शहर (शं हर)
हातिम ताई जब उनके साथ था, तो जिस ऊँटवाले के ऊँट पर वह सीढ़ी से उतरा था उसे उसने अपना धर्मपिता मान लिया ।
उस धर्मपिता ने उससे पूछा :
"अगर तुम्हें खजूर के झाड़ से उतरने का तरीका नहीं आता था तो तुम खजूर के उस झाड़ (पेड़) पर चढ़े ही क्यों थे?"
तब हातिम ताई ने कहा :
"मैं संपूर्ण भूमि के नृप (सोलोमन / सुलेमान) सौरमान राजा इल के साम्राज्य के एक छोटे से राज्य के सुमेरु पर्वत की तलहटी से सहस्र कोस दूर रहता था । मेरे माता-पिता सुमेरियन हैं ।
जब मैं बहुत छोटा था और एक दिन अपने घर से बाहर अकेला ही खेल रहा था तभी आसमान से एक बड़ा पक्षी आया और उसने मुझे अपने पंजों से पकड़ लिया । वह मुझे लेकर आकाश में उड़ गया । बहुत देर तक उड़ते रहने के बाद उसने मुझे इस खजूर पर छोड़ दिया । फिर मैं इस खजूर पर अटका हुआ अपने माता-पिता को याद करता और रोता रहा । लेकिन ताज्जुब की बात कि तब तक मैं इतना बड़ा हो गया कि जैसे बीस-पच्चीस साल गुज़र गए हों ।"
"तुम्हारी कहानी पर मुझे यक़ीन नहीं होता, लेकिन राजा इल का नाम तो सभी जानते हैं इसलिए मैं तुम्हारी गबाही (गवाक्षीय) को मिथ्या नहीं मानता ।"
(टिप्पणी : उस जमाने (युग) में गाय को न सिर्फ़ माता, बल्कि देवी माना जाता था जिसकी मौन भाषा को समझनेवाले कुछ लोगों को गवाक्षी कहा जाता था अर्थात् वन में विचरती गाय (गौ) ने अपनी आँखों (अक्षि) से जो देखा और जिसे अपनी आँखों से मौन भाषा में वह कह सकती थी वह भाषा ही गवाक्षि / गवाक्षी के नाम से जानी जाती थी । उसे ही वे लोग प्रचलित भाषा में एक-दूसरे से सत्य के प्रमाण के तौर पर मान्य करते थे ।)
तब उसने हातिम ताई से उसके माता पिता का नाम पूछा ।
हातिम ताई बोला :
"मेरे पिता का नाम ’आत्मन्’ और माता का नाम ’ईरा’ है । अब मुझे नहीं पता, कि मैं उनसे पुनः कब और कैसे मिल सकूँगा ।"
तब उस क़ाफ़िले के उस आदमी ने कहा :
"हमें इतना ही हुक़्म (रुक्म / रक़म) मिला था कि इस रेगिस्तान में एक आदमी खजूर के झाड़ पर अटका हुआ है, उसे सही-सलामत धरती पर उतारो और लौट जाओ । अब हम तुम्हारा क्या करें ।"
"अभी तो मैंने आपको धर्मपिता मान लिया है इसलिए आप जैसा कहेंगे मैं वही करूँगा ।"
हातिम ताई बोला ।
तब उस आदमी को हातिम ताई पर दया आ गई और उसने उसे अपने साथ रख लिया ।
तब हातिम उस क़ाफ़िले (क़बीले) के साथ रहने लगा ।
वे लोग कापालिक थे जिसका मतलब था कि वे भगवान् शिव के कपाल की लिङ्ग-स्वरूप में पूजा करते थे और उसे ही एकमात्र परमेश्वर अर्थात् ’इल’ का प्रतीक समझते थे । उन्हें बचपन से ही यह बतलाया गया था कि राजा इल जो इस पूरी पृथ्वी का एकमात्र ईश्वर है हम सब मनुष्यों का राजा है उसके अलावा दूसरा कोई ईश्वर नहीं है। इसीलिए हम उसकी प्रतिमा के रूप में इस शिवलिङ्ग -राजा इल के मस्तक / कपाल की पूजा करते हैं और अपने को कापालिक कहते हैं।
(सन्दर्भ : इस विषय में इल-आख्यान के अन्तर्गत वाल्मीकि-रामायण में वर्णित और यहाँ उद्धृत प्रकरण इसी ब्लॉग में अन्यत्र देखे जा सकते हैं। )
तब पहली बार उस क़बीले के लोगों (कापालिकों) का परिचय हातिम (आत्मीय) से हुआ जो आत्मन् (आत्मा जो सर्वत्र और सब कुछ है, जिससे यह संसार प्रकट, व्यक्त और अव्यक्त होता रहता है ।) और ईरा (अर्थात् स्थूल प्रकृति, संक्षेप में यह संपूर्ण पृथ्वी) का पुत्र था ।
वे लोग तब हातिम (आत्मीयः) को 'आदमी', उसके माता पिता को 'आदम और ईव' कहने लगे।
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ऊँट पर बैठकर यात्रा करते हुए कई दिन गुज़र जाने के बाद हातिम ताई जब रास्ते के किसी पड़ाव पर रात को सो जाने के बाद सुबह सोकर उठा तो उसे यह देखकर अचरज हुआ कि वहाँ से बहुत दूर एक शहर दिखाई दे रहा था जहाँ वे थोड़ी देर में पहुँच सकते थे ।
"इसे शहर कहते हैं ।
उसके धर्मपिता ने उसे बताया ।
जब क़ाफ़िला क़रीब घंटे भर चलकर वहाँ पहुँचा तो वहाँ एक बहुत बड़ा नगर उसकी आँखों के सामने था ।
लगभग वैसा ही जैसा कि वह नगर था जहाँ से उसे कोई पक्षी उठा लाया था ।
"क्या यही वो जगह है जहाँ उसके माता-पिता रहते हैं?"
-उसने अपने धर्मपिता से पूछा ।
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शमन धर्म को माननेवाले उस कापालिकों के शहर में रहते हुए हातिम ताई ने क़बीले की एक कन्या से विवाह किया और उनके अनेक पुत्र हुए । शमन लोग प्रायः भगवान शिव की पूजा करते थे और हर हर महादेव कहा करते थे। उसे नहीं पता था कि उनकी ऐसी बस्ती को शहर कहा जाता था।
वहीं उसे स्पष्ट हुआ कि यद्यपि वह अपने माता-पिता से बहुत दूर था लेकिन उनका आत्मीयः होने से आत्मीव भी था ।
गरुड़-स्तम्भ
प्रायः बीस वर्ष तक वहाँ रहते हुए वह उनके उस विशाल मन्दिर में प्रायः आता जाता रहता था जहाँ ज्योतिष-दर्शन सीखा और सिखाया जाता था । यद्यपि उस मन्दिर में तीन सौ साठ मूर्तियाँ थी जिनमें से प्रत्येक ही समस्त दिशाओं का एक अंश अर्थात् दिगन्त थी, किन्तु उनमें से प्रत्येक की पूजा एक विशिष्ट चान्द्र-तिथि को तथा उसी विशिष्ट सौर-तिथि को की जाती थी । हर तिथि का अपना वैदिक नाम था, जो काल के उस अयनान्त का द्योतक भी था । यह सब बहुत रोचक था । उसी मन्दिर में एक विशाल और ऊँचा स्तंभ था, जिस पर वही पक्षी प्रायः आकर बैठ जाया करता था जिसने उसे खजूर के उस पेड़ पर ला छोड़ा था । यह देखकर उसे हैरत होती थी कि उसी स्तंभ के पास ही ठीक वैसी ही आकृति का एक और विशाल स्तंभ भी खड़ा था जिस पर उसी पक्षी की आकृति का एक पक्षी इस प्रकार से स्थिर और निश्चल था मानों बस अभी कहीं से उड़कर आया हो या बस अब उड़ने ही वाला हो ।
ऐसे ही दो स्तंभ और भी बने थे जहाँ हर शरद और वसन्त की ऋतु के कुछ समय बाद शारदीय पूर्णिमा के बाद और होली पूर्णिमा से पहले कोई उत्सव मनाया जाता था और अमावस की रात सैकड़ों दीप जलाए जाते थे ।
उसे यह भी समझ में आया कि यह पक्षी वही था जिसे ये लोग तार्क्ष्य अर्थात् गरुड़ या गरुत्मान् कहा करते थे । उन दो स्तंभों के ठीक सामने एक मन्दिर और था जहाँ भगवान् विष्णु की एक विशाल प्रतिमा थी । चूँकि वह सुमेरियन था इसलिए उसे यह देखकर तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ कि भगवान् विष्णु की यह प्रतिमा उसी स्वर्ण की बनी थी जो सुमेरु पर्वत पर पाया जाता था । सुमेरु पर्वत अत्यन्त दुर्गम एक द्वीप पर स्थित था जिसके चारों ओर के विशाल सागर में भयंकर हिंस्र जलचर जन्तु रहते थे इसलिए उसे यह कौतूहल अवश्य था कि इतने दुर्गम स्थान से यह स्वर्ण कैसे लाया गया होगा, -जिससे यह प्रतिमा बनाई गई होगी ! किंतु वह इस पर और अधिक कुछ नहीं सोच पाता था ।
उसके धर्मपिता, जितना भी उन्हें मालूम था उसे प्रायः इतना कुछ बतला चुके थे कि अब आगे का ज्ञान उसे स्वयं ही प्राप्त करना होगा यह भी उसे लगने लगा था ।
उसे उस मन्दिर में स्थित गरुड़ की उस प्रतिमा से और उसके पास के स्तंभ पर प्रतिदिन आकर बैठनेवाले उस गरुड़ से डर भी बहुत लगता था (जिसका प्रत्यक्ष कारण तो यही था कि उसने या उसकी जाति के ही किसी पक्षी ने उसका अपहरण कर लिया था और उसे खजूर पर सही-सलामत (!) छोड़ गया था) ।
उस घटना से पहले भी उसे अपने हृदयाकाश में कुछ आवाजें अकसर सुनाई देतीं थीं किन्तु उसे उस समय यह अनुमान नहीं था कि वे आवाजें सिर्फ़ उसे ही सुनाई देती हैं । उसे यही लगता था कि वे आवाजें उसके आसपास के दूसरे लोगों को भी सुनाई देती होंगी । धीरे-धीरे उसे विश्वास हो गया कि जिस आकाश में उसे ये आवाजें सुनाई देती हैं वह आकाश दूसरों को न तो दिखाई देता है और न जिसकी ध्वनियाँ ही उन्हें सुनाई देती हैं ।
और तब उसे स्पष्ट हुआ कि ऐसे अनेक आकाश इसी एक आकाश / स्थान में हैं जो परस्पर एक दूसरे से नितान्त पृथक् हैं । उसने इसकी तुलना उन आकाशों से की जिन्हें वह अपनी जागृति, स्वप्न या गहरी स्वप्न रहित निद्रा में अनुभव किया करता था, जहाँ दूसरे लोग या संसार अदृश्य होता था ।
चूँकि उसी आकाश में उसने खजूर के उस पेड़ पर वह आवाज भी सुनी थी जिसने उसे खाने के लिए फल दिए थे इसलिए वह उसे ईश्वरीय अवश्य समझता था। इसकी तुलना में जागृति, स्वप्न या गहरी निद्रा में अनुभव किए जानेवाले आकाश उसके लिए 'दुनियावी' / 'मायावी' थे।
और गहरी निद्रा में यद्यपि वहाँ का आकाश अत्यन्त घना अन्धेरा मात्र होता था किन्तु उसमें भी अपने अस्तित्व का भान कभी खोता नहीं था । बाद में इसकी धुँधली स्मृति अपने स्वप्नों की स्मृति की ही तरह उसे जागते हुए भी कभी-कभी कौंध जाती थी ।
पहले उसे यह समझने में कठिनाई होती थी कि जब गरुड़ ने उसे खजूर के पेड़ पर ला छोड़ा था तब केवल तीन चार वर्ष की आयु का था, लेकिन उसके घर से गरुड़ द्वारा उसे उठाये जाने के बाद और खजूर के पेड़ पर उसे छोड़ने के बीच का समय क्या इतना लंबा था कि वह अचानक जवान हो गया?
फिर कभी इसी गरुड़-स्तम्भ को देखते-देखते उसे वही आवाज सुनाई दी जिसे दूसरे नहीं सुन सकते थे।
गरुड़-स्तम्भ पर स्थित गरुड़ की प्रतिमा से ही वह आवाज आ रही थी।
"जैसे मैं पृथ्वी के एक स्थान से दूसरे स्थान तक पल भर में जा सकता हूँ वैसे ही समय के एक हिस्से से दूसरे तक भी जा सकता हूँ और समय को वैसे ही अपने पंजों में दबोच सकता हूँ जैसे तुम्हें उस दिन दबोचा था "
हातिम ताई सुनकर स्तब्ध रह गया किन्तु गरुड़ से उसका भय उसी दिन दूर हो गया था।
और इसके कुछ ही दिनों बाद एक दिन उस मन्दिर के प्राङ्गण में जब वह पहुँचा, तो उसे कल्पना तक न थी कि आज यहाँ उसका यह आखिरी दिन होगा ।
अभी वह वहाँ से गुज़र ही रहा था कि वह विशाल पक्षी उछलकर स्तंभ से उड़ा और उसने झपटकर उसे निमिषार्ध (पलक झपकने से भी कम समय) में अपने पजों में दबोच लिया ।
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हातिम ताई जब उनके साथ था, तो जिस ऊँटवाले के ऊँट पर वह सीढ़ी से उतरा था उसे उसने अपना धर्मपिता मान लिया ।
उस धर्मपिता ने उससे पूछा :
"अगर तुम्हें खजूर के झाड़ से उतरने का तरीका नहीं आता था तो तुम खजूर के उस झाड़ (पेड़) पर चढ़े ही क्यों थे?"
तब हातिम ताई ने कहा :
"मैं संपूर्ण भूमि के नृप (सोलोमन / सुलेमान) सौरमान राजा इल के साम्राज्य के एक छोटे से राज्य के सुमेरु पर्वत की तलहटी से सहस्र कोस दूर रहता था । मेरे माता-पिता सुमेरियन हैं ।
जब मैं बहुत छोटा था और एक दिन अपने घर से बाहर अकेला ही खेल रहा था तभी आसमान से एक बड़ा पक्षी आया और उसने मुझे अपने पंजों से पकड़ लिया । वह मुझे लेकर आकाश में उड़ गया । बहुत देर तक उड़ते रहने के बाद उसने मुझे इस खजूर पर छोड़ दिया । फिर मैं इस खजूर पर अटका हुआ अपने माता-पिता को याद करता और रोता रहा । लेकिन ताज्जुब की बात कि तब तक मैं इतना बड़ा हो गया कि जैसे बीस-पच्चीस साल गुज़र गए हों ।"
"तुम्हारी कहानी पर मुझे यक़ीन नहीं होता, लेकिन राजा इल का नाम तो सभी जानते हैं इसलिए मैं तुम्हारी गबाही (गवाक्षीय) को मिथ्या नहीं मानता ।"
(टिप्पणी : उस जमाने (युग) में गाय को न सिर्फ़ माता, बल्कि देवी माना जाता था जिसकी मौन भाषा को समझनेवाले कुछ लोगों को गवाक्षी कहा जाता था अर्थात् वन में विचरती गाय (गौ) ने अपनी आँखों (अक्षि) से जो देखा और जिसे अपनी आँखों से मौन भाषा में वह कह सकती थी वह भाषा ही गवाक्षि / गवाक्षी के नाम से जानी जाती थी । उसे ही वे लोग प्रचलित भाषा में एक-दूसरे से सत्य के प्रमाण के तौर पर मान्य करते थे ।)
तब उसने हातिम ताई से उसके माता पिता का नाम पूछा ।
हातिम ताई बोला :
"मेरे पिता का नाम ’आत्मन्’ और माता का नाम ’ईरा’ है । अब मुझे नहीं पता, कि मैं उनसे पुनः कब और कैसे मिल सकूँगा ।"
तब उस क़ाफ़िले के उस आदमी ने कहा :
"हमें इतना ही हुक़्म (रुक्म / रक़म) मिला था कि इस रेगिस्तान में एक आदमी खजूर के झाड़ पर अटका हुआ है, उसे सही-सलामत धरती पर उतारो और लौट जाओ । अब हम तुम्हारा क्या करें ।"
"अभी तो मैंने आपको धर्मपिता मान लिया है इसलिए आप जैसा कहेंगे मैं वही करूँगा ।"
हातिम ताई बोला ।
तब उस आदमी को हातिम ताई पर दया आ गई और उसने उसे अपने साथ रख लिया ।
तब हातिम उस क़ाफ़िले (क़बीले) के साथ रहने लगा ।
वे लोग कापालिक थे जिसका मतलब था कि वे भगवान् शिव के कपाल की लिङ्ग-स्वरूप में पूजा करते थे और उसे ही एकमात्र परमेश्वर अर्थात् ’इल’ का प्रतीक समझते थे । उन्हें बचपन से ही यह बतलाया गया था कि राजा इल जो इस पूरी पृथ्वी का एकमात्र ईश्वर है हम सब मनुष्यों का राजा है उसके अलावा दूसरा कोई ईश्वर नहीं है। इसीलिए हम उसकी प्रतिमा के रूप में इस शिवलिङ्ग -राजा इल के मस्तक / कपाल की पूजा करते हैं और अपने को कापालिक कहते हैं।
(सन्दर्भ : इस विषय में इल-आख्यान के अन्तर्गत वाल्मीकि-रामायण में वर्णित और यहाँ उद्धृत प्रकरण इसी ब्लॉग में अन्यत्र देखे जा सकते हैं। )
तब पहली बार उस क़बीले के लोगों (कापालिकों) का परिचय हातिम (आत्मीय) से हुआ जो आत्मन् (आत्मा जो सर्वत्र और सब कुछ है, जिससे यह संसार प्रकट, व्यक्त और अव्यक्त होता रहता है ।) और ईरा (अर्थात् स्थूल प्रकृति, संक्षेप में यह संपूर्ण पृथ्वी) का पुत्र था ।
वे लोग तब हातिम (आत्मीयः) को 'आदमी', उसके माता पिता को 'आदम और ईव' कहने लगे।
--
ऊँट पर बैठकर यात्रा करते हुए कई दिन गुज़र जाने के बाद हातिम ताई जब रास्ते के किसी पड़ाव पर रात को सो जाने के बाद सुबह सोकर उठा तो उसे यह देखकर अचरज हुआ कि वहाँ से बहुत दूर एक शहर दिखाई दे रहा था जहाँ वे थोड़ी देर में पहुँच सकते थे ।
"इसे शहर कहते हैं ।
उसके धर्मपिता ने उसे बताया ।
जब क़ाफ़िला क़रीब घंटे भर चलकर वहाँ पहुँचा तो वहाँ एक बहुत बड़ा नगर उसकी आँखों के सामने था ।
लगभग वैसा ही जैसा कि वह नगर था जहाँ से उसे कोई पक्षी उठा लाया था ।
"क्या यही वो जगह है जहाँ उसके माता-पिता रहते हैं?"
-उसने अपने धर्मपिता से पूछा ।
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शमन धर्म को माननेवाले उस कापालिकों के शहर में रहते हुए हातिम ताई ने क़बीले की एक कन्या से विवाह किया और उनके अनेक पुत्र हुए । शमन लोग प्रायः भगवान शिव की पूजा करते थे और हर हर महादेव कहा करते थे। उसे नहीं पता था कि उनकी ऐसी बस्ती को शहर कहा जाता था।
वहीं उसे स्पष्ट हुआ कि यद्यपि वह अपने माता-पिता से बहुत दूर था लेकिन उनका आत्मीयः होने से आत्मीव भी था ।
गरुड़-स्तम्भ
प्रायः बीस वर्ष तक वहाँ रहते हुए वह उनके उस विशाल मन्दिर में प्रायः आता जाता रहता था जहाँ ज्योतिष-दर्शन सीखा और सिखाया जाता था । यद्यपि उस मन्दिर में तीन सौ साठ मूर्तियाँ थी जिनमें से प्रत्येक ही समस्त दिशाओं का एक अंश अर्थात् दिगन्त थी, किन्तु उनमें से प्रत्येक की पूजा एक विशिष्ट चान्द्र-तिथि को तथा उसी विशिष्ट सौर-तिथि को की जाती थी । हर तिथि का अपना वैदिक नाम था, जो काल के उस अयनान्त का द्योतक भी था । यह सब बहुत रोचक था । उसी मन्दिर में एक विशाल और ऊँचा स्तंभ था, जिस पर वही पक्षी प्रायः आकर बैठ जाया करता था जिसने उसे खजूर के उस पेड़ पर ला छोड़ा था । यह देखकर उसे हैरत होती थी कि उसी स्तंभ के पास ही ठीक वैसी ही आकृति का एक और विशाल स्तंभ भी खड़ा था जिस पर उसी पक्षी की आकृति का एक पक्षी इस प्रकार से स्थिर और निश्चल था मानों बस अभी कहीं से उड़कर आया हो या बस अब उड़ने ही वाला हो ।
ऐसे ही दो स्तंभ और भी बने थे जहाँ हर शरद और वसन्त की ऋतु के कुछ समय बाद शारदीय पूर्णिमा के बाद और होली पूर्णिमा से पहले कोई उत्सव मनाया जाता था और अमावस की रात सैकड़ों दीप जलाए जाते थे ।
उसे यह भी समझ में आया कि यह पक्षी वही था जिसे ये लोग तार्क्ष्य अर्थात् गरुड़ या गरुत्मान् कहा करते थे । उन दो स्तंभों के ठीक सामने एक मन्दिर और था जहाँ भगवान् विष्णु की एक विशाल प्रतिमा थी । चूँकि वह सुमेरियन था इसलिए उसे यह देखकर तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ कि भगवान् विष्णु की यह प्रतिमा उसी स्वर्ण की बनी थी जो सुमेरु पर्वत पर पाया जाता था । सुमेरु पर्वत अत्यन्त दुर्गम एक द्वीप पर स्थित था जिसके चारों ओर के विशाल सागर में भयंकर हिंस्र जलचर जन्तु रहते थे इसलिए उसे यह कौतूहल अवश्य था कि इतने दुर्गम स्थान से यह स्वर्ण कैसे लाया गया होगा, -जिससे यह प्रतिमा बनाई गई होगी ! किंतु वह इस पर और अधिक कुछ नहीं सोच पाता था ।
उसके धर्मपिता, जितना भी उन्हें मालूम था उसे प्रायः इतना कुछ बतला चुके थे कि अब आगे का ज्ञान उसे स्वयं ही प्राप्त करना होगा यह भी उसे लगने लगा था ।
उसे उस मन्दिर में स्थित गरुड़ की उस प्रतिमा से और उसके पास के स्तंभ पर प्रतिदिन आकर बैठनेवाले उस गरुड़ से डर भी बहुत लगता था (जिसका प्रत्यक्ष कारण तो यही था कि उसने या उसकी जाति के ही किसी पक्षी ने उसका अपहरण कर लिया था और उसे खजूर पर सही-सलामत (!) छोड़ गया था) ।
उस घटना से पहले भी उसे अपने हृदयाकाश में कुछ आवाजें अकसर सुनाई देतीं थीं किन्तु उसे उस समय यह अनुमान नहीं था कि वे आवाजें सिर्फ़ उसे ही सुनाई देती हैं । उसे यही लगता था कि वे आवाजें उसके आसपास के दूसरे लोगों को भी सुनाई देती होंगी । धीरे-धीरे उसे विश्वास हो गया कि जिस आकाश में उसे ये आवाजें सुनाई देती हैं वह आकाश दूसरों को न तो दिखाई देता है और न जिसकी ध्वनियाँ ही उन्हें सुनाई देती हैं ।
और तब उसे स्पष्ट हुआ कि ऐसे अनेक आकाश इसी एक आकाश / स्थान में हैं जो परस्पर एक दूसरे से नितान्त पृथक् हैं । उसने इसकी तुलना उन आकाशों से की जिन्हें वह अपनी जागृति, स्वप्न या गहरी स्वप्न रहित निद्रा में अनुभव किया करता था, जहाँ दूसरे लोग या संसार अदृश्य होता था ।
चूँकि उसी आकाश में उसने खजूर के उस पेड़ पर वह आवाज भी सुनी थी जिसने उसे खाने के लिए फल दिए थे इसलिए वह उसे ईश्वरीय अवश्य समझता था। इसकी तुलना में जागृति, स्वप्न या गहरी निद्रा में अनुभव किए जानेवाले आकाश उसके लिए 'दुनियावी' / 'मायावी' थे।
और गहरी निद्रा में यद्यपि वहाँ का आकाश अत्यन्त घना अन्धेरा मात्र होता था किन्तु उसमें भी अपने अस्तित्व का भान कभी खोता नहीं था । बाद में इसकी धुँधली स्मृति अपने स्वप्नों की स्मृति की ही तरह उसे जागते हुए भी कभी-कभी कौंध जाती थी ।
पहले उसे यह समझने में कठिनाई होती थी कि जब गरुड़ ने उसे खजूर के पेड़ पर ला छोड़ा था तब केवल तीन चार वर्ष की आयु का था, लेकिन उसके घर से गरुड़ द्वारा उसे उठाये जाने के बाद और खजूर के पेड़ पर उसे छोड़ने के बीच का समय क्या इतना लंबा था कि वह अचानक जवान हो गया?
फिर कभी इसी गरुड़-स्तम्भ को देखते-देखते उसे वही आवाज सुनाई दी जिसे दूसरे नहीं सुन सकते थे।
गरुड़-स्तम्भ पर स्थित गरुड़ की प्रतिमा से ही वह आवाज आ रही थी।
"जैसे मैं पृथ्वी के एक स्थान से दूसरे स्थान तक पल भर में जा सकता हूँ वैसे ही समय के एक हिस्से से दूसरे तक भी जा सकता हूँ और समय को वैसे ही अपने पंजों में दबोच सकता हूँ जैसे तुम्हें उस दिन दबोचा था "
हातिम ताई सुनकर स्तब्ध रह गया किन्तु गरुड़ से उसका भय उसी दिन दूर हो गया था।
और इसके कुछ ही दिनों बाद एक दिन उस मन्दिर के प्राङ्गण में जब वह पहुँचा, तो उसे कल्पना तक न थी कि आज यहाँ उसका यह आखिरी दिन होगा ।
अभी वह वहाँ से गुज़र ही रहा था कि वह विशाल पक्षी उछलकर स्तंभ से उड़ा और उसने झपटकर उसे निमिषार्ध (पलक झपकने से भी कम समय) में अपने पजों में दबोच लिया ।
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