धर्म-आधारित विचार और विचार-आधारित धर्म
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यहाँ थोड़ा स्पष्टीकरण ज़रूरी है।
जैसा कि पिछले किसी पोस्ट में लिखा जा चुका है;
जिसे Religion के नाम से 'धर्म' का पर्याय मान लिया गया है वह 'धर्म' relegated to relics है।
विदेशियों ने पूर्वाग्रहग्रस्त मानसिकता से जानबूझकर या बौद्धिकता के दम्भ से भारतीय सनातन धर्म, संस्कृति दर्शन, विचार और वैदिक-पौराणिक सन्दर्भों को अत्याचार और अन्यायपूर्वक, छल-प्रपंच से इतना अधिक विकृत कर प्रस्तुत किया है, कि आज हम विदेशी रीति-रिवाजों, परंपराओं, रूढ़ियों को 'धर्म' का कोई भिन्न प्रकार मानने लगे हैं। और अपने इस भ्रम की ओर हमारा ध्यान तक नहीं जाता।
इसी प्रकार हम यह भी मान चुके हैं, कि 'विचार' का अनुवाद 'thought' या 'thought' का अनुवाद 'विचार' है।
इसा प्रकार एक रोचक बौद्धिक भूलभुलैया में हम सतत घूम रहे हैं।
ज्ञान की भारतीय सनातन धर्म की परंपरा में 'धर्म' को अविनश्वर / अविनाशी वैश्विक गतिविधि के रूप में मान्य किया जाता है। वह इस अर्थ में अनादि और अनंत है कि जिस भौतिक समय को हम केवल विचार ही विचार में कल्पित कर उसे अतीत में अनादि और भविष्य में अनंत समझते हैं वैसा न तो कोई अतीत और न कोई भविष्य परिभाषित ही किया जा सकता है। जिसे वैयक्तिक अतीत और भविष्य कहा जाता है और जिसे समूह का अतीत और भविष्य कहा जाता है, वैश्विक तल पर काल की विराट समष्टि में वैसा कोई अतीत या भविष्य नहीं होता। क्योंकि उस विराट काल का सन्दर्भ-बिन्दु (point of reference) सदैव मनुष्य ही होता है। शुद्ध भौतिक विज्ञान पर आधारित संकल्पनाओं से हम स्थूलतम आधार पर द्रव्य, ऊर्जा और इनके बीच के क्रिया-कलापों के लिए कोई तथाकथित गणितीय और वैज्ञानिक नियम अवश्य ही खोज सकते हैं, और खोजते ही रहते हैं, लेकिन वे स्थूल तल पर ही तभी तक 'सत्य' होते हैं जब तक कि उनका विचार किया जाता है। विचार का यह प्रकार शब्दों को दिए गए उनके अर्थ-विशेष पर निर्भर होता है। यह भी सच है कि स्थूल स्तर पर अतीत की घटनाओं की पुनरावृत्ति की प्रयोग से पुनः पुनः परीक्षा और पुष्टि कर हम अपने विचार और विचारों को सुगठित स्वरूप दे देते हैं, किन्तु इससे उन नियमों की वैश्विक सत्यता है यह सिद्ध नहीं होता। संक्षेप में वे सब नियम जटिल और गणितीय सिद्धांत भी हमारी जागृत अवस्था में ही, और वह भी जब वे हमारे चिंतन का विषय होते हैं शायद अटल सत्य होते हों। वह विषय-निरपेक्ष अकाट्य सत्य जिसे विवेचनात्मक विचार से ग्रहण किया जा सके, न तो सिद्धांत में ढाला जा सकता है, न प्रयोग से सिद्ध किया जा सकता है। यूँ कहें कि बुद्धि (अर्थात् तर्क) ही किसी सत्य का आधार और आश्रय होता है, किन्तु स्वयं बुद्धि और तर्क भी सूचनापरक ज्ञान से सीमित होता है। लेकिन ऐसा सत्य है ही नहीं, यह कहना जल्दबाज़ी और अधीरता होगा।
फिर भी यह अकाट्य / अटल सत्य वैयक्तिक, सामूहिक और समष्टि के तल पर समस्त बुद्धियों का स्रोत / मूल उद्गम है इसमें संदेह नहीं।
कभी-कभी हमारी बुद्धि अत्यंत स्तब्ध और निर्विचार होते हुए हमें एकाएक उस प्रज्ञा की एक झलक मिल जाया करती है, जो अनुभवगम्य न होते हुए भी जिसका बोध असंदिग्ध और निर्विवाद रूप से होता है। जहाँ अस्तित्व ही बोध तथा बोध ही अस्तित्व होता है। जहाँ व्यक्तित्व तथा उसकी पहचान (स्मृति) तक विदा हो जाती है, इसलिए संसार और विचार भी खो जाता है। क्योंकि 'पहचान' ही 'स्मृति' और 'स्मृति' ही पहचान है, और ये दोनों एक ही प्रतीति के दो पहलू हैं। एक के अभाव में दूसरा नहीं हो सकता। इसलिए सरल स्वाभाविक बोध किसी पहचान की अपेक्षा नहीं रखता और जब हम वस्तुतः उत्सुक और जागरूक, और संसार या संसार से जुडी किसी भी वस्तु को बेहिचक भूल जाने के लिए खुशी खुशी राज़ी भी होते हैं, तो अनायास ही उसका दर्शन हो जाता है। पर तब हम मृत, मूर्च्छित या पत्थर की तरह असंवेदनशील भी कदापि नहीं होते। तब हमारा 'धर्म' अनायास किसी दुर्लभ पुष्प की भाँति उमगकर खिल उठता है, जिसमें सृष्टि से अपनी एकाकारिता में तन्मय होकर हमें किसी ऐसे तत्व का साक्षात्कार होता है जो विचार की उपज नहीं होता। बाद में हम उस साक्षात्कार (revelation) को विचार में ढाल सकते हैं लेकिन तब वह गूँगे का गुड़ होता है।
दूसरी ओर कभी कभी कोई घटना हमें इस तरह झकझोर भी सकती है कि हम बस असहाय और किंकर्तव्य-विमूढ़ हो जाते हैं। 'सकते में, 'shocked' 'stunned' शायद इसे 'stoned' भी कह सकते हैं। ऐसा नहीं कि तब हमारे प्राण जड हो जाते हों और हम शारीरिक हलचल या कार्य तक न कर सकते हों, लेकिन मन के स्तर पर हम इतने ठिठक जाते हैं कि कोई भावना, विचार या प्रतिक्रिया पैदा तक नहीं होती। यूँ कहें कि बुद्धि बिलकुल कुंठित हो जाती है। शायद हम बस 'सहम' भर जाते हैं । किसी तरह एक असह्य दीर्घकाल तक उसमें पड़े रहने के बाद ही हम कुछ सोच पाने में सक्षम हो पाते हैं। और कुछ दिन या महीने बीत जाने के बाद हम उसे शायद भूल जाते हैं।
मनःस्थिति और परिस्थिति इन दो आधारों पर हमारा 'धर्म' बनता / बिगड़ता और बदलता रहता है। यह मनःस्थिति और परिस्थिति दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं और हमारा 'विचार' उस दलदल में केंचुए सा रेंगता रहता है।
विचारजनित परंपराओं, विश्वासों, आग्रहों और रूढ़ियों, आस्थाओं आदि की पुनरावृत्ति से एक संमोहन पैदा होता है, और हम 'धर्म' को एक संकीर्ण और प्रायः कट्टर सोच तक सीमित कर लेते हैं। ऐसे 'धर्मों' में परस्पर अविश्वास, भय और कठोरता, वैमनस्य, शत्रुता और क्रूरता भी अपरिहार्यतः होती ही है।
किन्तु मनुष्य इतना भी पशु नहीं है कि कठोरता, क्रूरता और आग्रह में निहित अधर्म को पहचान तक न सके।
लेकिन जब ऐसे उदाहरण सामने आते हैं जब कोई तथाकथित 'धर्म' और उसकी किताब या संस्थापक ही परंपराओं, विश्वासों, आग्रहों और रूढ़ियों, आस्थाओं आदि को बलपूर्वक लादते हैं, तब उन अधर्मयुक्त धर्मों के औचित्य और प्रामाणिकता पर प्रश्न उठाना ही सर्वाधिक ज़रूरी कर्तव्य है।
क्या उनसे युद्ध ही एकमात्र श्रेयस्कर कर्तव्य हो सकता है?
या क्या अहिंसक प्रतिरोध भी उनका हृदय-परिवर्तन घटित कर सकता है?
पिछले बीस तीस सालों में तिब्बत के बौद्धों ने चीनी साम्राज्य के क्रूर और कठोर शासन के विरोध में इस प्रकार से अहिंसक प्रतिरोध किया है जिसमें बौद्ध भिक्षुओं ने आत्म-दाह तक किया है। हालाँकि साम्यवाद तो धर्म को ही अफ़ीम कहता है।
क्या भारत में भी अब वैसा ही समय नहीं आ गया है?
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यहाँ थोड़ा स्पष्टीकरण ज़रूरी है।
जैसा कि पिछले किसी पोस्ट में लिखा जा चुका है;
जिसे Religion के नाम से 'धर्म' का पर्याय मान लिया गया है वह 'धर्म' relegated to relics है।
विदेशियों ने पूर्वाग्रहग्रस्त मानसिकता से जानबूझकर या बौद्धिकता के दम्भ से भारतीय सनातन धर्म, संस्कृति दर्शन, विचार और वैदिक-पौराणिक सन्दर्भों को अत्याचार और अन्यायपूर्वक, छल-प्रपंच से इतना अधिक विकृत कर प्रस्तुत किया है, कि आज हम विदेशी रीति-रिवाजों, परंपराओं, रूढ़ियों को 'धर्म' का कोई भिन्न प्रकार मानने लगे हैं। और अपने इस भ्रम की ओर हमारा ध्यान तक नहीं जाता।
इसी प्रकार हम यह भी मान चुके हैं, कि 'विचार' का अनुवाद 'thought' या 'thought' का अनुवाद 'विचार' है।
इसा प्रकार एक रोचक बौद्धिक भूलभुलैया में हम सतत घूम रहे हैं।
ज्ञान की भारतीय सनातन धर्म की परंपरा में 'धर्म' को अविनश्वर / अविनाशी वैश्विक गतिविधि के रूप में मान्य किया जाता है। वह इस अर्थ में अनादि और अनंत है कि जिस भौतिक समय को हम केवल विचार ही विचार में कल्पित कर उसे अतीत में अनादि और भविष्य में अनंत समझते हैं वैसा न तो कोई अतीत और न कोई भविष्य परिभाषित ही किया जा सकता है। जिसे वैयक्तिक अतीत और भविष्य कहा जाता है और जिसे समूह का अतीत और भविष्य कहा जाता है, वैश्विक तल पर काल की विराट समष्टि में वैसा कोई अतीत या भविष्य नहीं होता। क्योंकि उस विराट काल का सन्दर्भ-बिन्दु (point of reference) सदैव मनुष्य ही होता है। शुद्ध भौतिक विज्ञान पर आधारित संकल्पनाओं से हम स्थूलतम आधार पर द्रव्य, ऊर्जा और इनके बीच के क्रिया-कलापों के लिए कोई तथाकथित गणितीय और वैज्ञानिक नियम अवश्य ही खोज सकते हैं, और खोजते ही रहते हैं, लेकिन वे स्थूल तल पर ही तभी तक 'सत्य' होते हैं जब तक कि उनका विचार किया जाता है। विचार का यह प्रकार शब्दों को दिए गए उनके अर्थ-विशेष पर निर्भर होता है। यह भी सच है कि स्थूल स्तर पर अतीत की घटनाओं की पुनरावृत्ति की प्रयोग से पुनः पुनः परीक्षा और पुष्टि कर हम अपने विचार और विचारों को सुगठित स्वरूप दे देते हैं, किन्तु इससे उन नियमों की वैश्विक सत्यता है यह सिद्ध नहीं होता। संक्षेप में वे सब नियम जटिल और गणितीय सिद्धांत भी हमारी जागृत अवस्था में ही, और वह भी जब वे हमारे चिंतन का विषय होते हैं शायद अटल सत्य होते हों। वह विषय-निरपेक्ष अकाट्य सत्य जिसे विवेचनात्मक विचार से ग्रहण किया जा सके, न तो सिद्धांत में ढाला जा सकता है, न प्रयोग से सिद्ध किया जा सकता है। यूँ कहें कि बुद्धि (अर्थात् तर्क) ही किसी सत्य का आधार और आश्रय होता है, किन्तु स्वयं बुद्धि और तर्क भी सूचनापरक ज्ञान से सीमित होता है। लेकिन ऐसा सत्य है ही नहीं, यह कहना जल्दबाज़ी और अधीरता होगा।
फिर भी यह अकाट्य / अटल सत्य वैयक्तिक, सामूहिक और समष्टि के तल पर समस्त बुद्धियों का स्रोत / मूल उद्गम है इसमें संदेह नहीं।
कभी-कभी हमारी बुद्धि अत्यंत स्तब्ध और निर्विचार होते हुए हमें एकाएक उस प्रज्ञा की एक झलक मिल जाया करती है, जो अनुभवगम्य न होते हुए भी जिसका बोध असंदिग्ध और निर्विवाद रूप से होता है। जहाँ अस्तित्व ही बोध तथा बोध ही अस्तित्व होता है। जहाँ व्यक्तित्व तथा उसकी पहचान (स्मृति) तक विदा हो जाती है, इसलिए संसार और विचार भी खो जाता है। क्योंकि 'पहचान' ही 'स्मृति' और 'स्मृति' ही पहचान है, और ये दोनों एक ही प्रतीति के दो पहलू हैं। एक के अभाव में दूसरा नहीं हो सकता। इसलिए सरल स्वाभाविक बोध किसी पहचान की अपेक्षा नहीं रखता और जब हम वस्तुतः उत्सुक और जागरूक, और संसार या संसार से जुडी किसी भी वस्तु को बेहिचक भूल जाने के लिए खुशी खुशी राज़ी भी होते हैं, तो अनायास ही उसका दर्शन हो जाता है। पर तब हम मृत, मूर्च्छित या पत्थर की तरह असंवेदनशील भी कदापि नहीं होते। तब हमारा 'धर्म' अनायास किसी दुर्लभ पुष्प की भाँति उमगकर खिल उठता है, जिसमें सृष्टि से अपनी एकाकारिता में तन्मय होकर हमें किसी ऐसे तत्व का साक्षात्कार होता है जो विचार की उपज नहीं होता। बाद में हम उस साक्षात्कार (revelation) को विचार में ढाल सकते हैं लेकिन तब वह गूँगे का गुड़ होता है।
दूसरी ओर कभी कभी कोई घटना हमें इस तरह झकझोर भी सकती है कि हम बस असहाय और किंकर्तव्य-विमूढ़ हो जाते हैं। 'सकते में, 'shocked' 'stunned' शायद इसे 'stoned' भी कह सकते हैं। ऐसा नहीं कि तब हमारे प्राण जड हो जाते हों और हम शारीरिक हलचल या कार्य तक न कर सकते हों, लेकिन मन के स्तर पर हम इतने ठिठक जाते हैं कि कोई भावना, विचार या प्रतिक्रिया पैदा तक नहीं होती। यूँ कहें कि बुद्धि बिलकुल कुंठित हो जाती है। शायद हम बस 'सहम' भर जाते हैं । किसी तरह एक असह्य दीर्घकाल तक उसमें पड़े रहने के बाद ही हम कुछ सोच पाने में सक्षम हो पाते हैं। और कुछ दिन या महीने बीत जाने के बाद हम उसे शायद भूल जाते हैं।
मनःस्थिति और परिस्थिति इन दो आधारों पर हमारा 'धर्म' बनता / बिगड़ता और बदलता रहता है। यह मनःस्थिति और परिस्थिति दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं और हमारा 'विचार' उस दलदल में केंचुए सा रेंगता रहता है।
विचारजनित परंपराओं, विश्वासों, आग्रहों और रूढ़ियों, आस्थाओं आदि की पुनरावृत्ति से एक संमोहन पैदा होता है, और हम 'धर्म' को एक संकीर्ण और प्रायः कट्टर सोच तक सीमित कर लेते हैं। ऐसे 'धर्मों' में परस्पर अविश्वास, भय और कठोरता, वैमनस्य, शत्रुता और क्रूरता भी अपरिहार्यतः होती ही है।
किन्तु मनुष्य इतना भी पशु नहीं है कि कठोरता, क्रूरता और आग्रह में निहित अधर्म को पहचान तक न सके।
लेकिन जब ऐसे उदाहरण सामने आते हैं जब कोई तथाकथित 'धर्म' और उसकी किताब या संस्थापक ही परंपराओं, विश्वासों, आग्रहों और रूढ़ियों, आस्थाओं आदि को बलपूर्वक लादते हैं, तब उन अधर्मयुक्त धर्मों के औचित्य और प्रामाणिकता पर प्रश्न उठाना ही सर्वाधिक ज़रूरी कर्तव्य है।
क्या उनसे युद्ध ही एकमात्र श्रेयस्कर कर्तव्य हो सकता है?
या क्या अहिंसक प्रतिरोध भी उनका हृदय-परिवर्तन घटित कर सकता है?
पिछले बीस तीस सालों में तिब्बत के बौद्धों ने चीनी साम्राज्य के क्रूर और कठोर शासन के विरोध में इस प्रकार से अहिंसक प्रतिरोध किया है जिसमें बौद्ध भिक्षुओं ने आत्म-दाह तक किया है। हालाँकि साम्यवाद तो धर्म को ही अफ़ीम कहता है।
क्या भारत में भी अब वैसा ही समय नहीं आ गया है?
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