वाल्मीकि रामायण,
अरण्यकाण्ड,
एकादश सर्ग
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जब भगवान् श्रीराम महर्षि अगस्त्य की प्रशंसा करते हुए अपने छोटे प्रिय भाई लक्ष्मण से इल्वल और वातापि की कथा कह चुके, तो श्री लक्ष्मण ने मुस्कुराते हुए उनसे निवेदन किया :
भैया, महर्षि अगस्त्य और इल्वल तथा वातापि कथा इतनी ही है, या उसमें कुछ गूढ तत्व भी छिपा है, जिसे मैं ग्रहण नहीं कर पा रहा हूँ ? यदि मेरी जिज्ञासा अतिप्रश्न न हो तो कृपा कर इस विषय में मुझसे कहें ।
तब भगवान् श्रीराम ने मन्द स्मितपूर्वक उनसे कहा :
"लक्ष्मण ! तुम संकेत से भी सत्य का ग्रहण कर लेते हो, -लक्षण से भी त्याज्य और अत्यज्य की विवेचना कर लेते हो । यह विवेचना ही विवेक है जिसे नित्य-अनित्य के बारे में जिज्ञासापूर्वक किए जाने पर मनुष्य परम श्रेयस् की प्राप्ति कर लेता है । किन्तु वह ज्ञान का मार्ग है और तुम्हारी वर्तमान की जिज्ञासा से प्रत्यक्षतः संबंध नहीं रखता ।
तुम्हारी बुद्धि के अनुकूल मैं तुम्हारी जिज्ञासा का समाधान करने का यत्न करूँगा, जिससे तुम्हें उसी श्रेयस् की प्राप्ति इसी क्षण हो जाएगी जिसके लिए मनुष्य, तपस्वी, ऋषि अनेक जन्मों तक कठिन तप और स्वाध्याय आदि करते हुए सहस्रों वर्षों में दुर्लभता से प्राप्त करते हैं ।
सुनो! इल्वल मनुष्य की बुद्धि है, वातापि विचार है, महर्षि अगस्त्य गुरु हैं और ब्राह्मण लौकिक ज्ञानी हैं जिन्हें, कर्मकाण्ड आदि से इस लोक और परलोक के बारे में बहुत ज्ञान होता है, किन्तु वे न तो आत्मज्ञानी, न ब्रह्मज्ञानी, न मुक्त और न मुमुक्षु ही होते हैं । हाँ वे श्राद्ध संकल्प आदि कर्मकाण्ड में भी पारंगत हो सकते हैं । विषय मेष-शाक है, जो अचर वनस्पति भी हो सकता है, या सजीव और चर मृग आदि प्राणी भी । इसलिए ऐसे ब्राह्मण भी विषयों के उपभोग के आकर्षण से बच नहीं पाते ।
और भी सुनो !
मन, चित्त तथा अहंकार, ये तीनों बुद्धि के ही पर्याय हैं । बुद्धि ही विचार के माध्यम से ’विषयों’ को आहार बनाकर स्वयं का श्राद्ध करती है । यही विचार पुनः बुद्धि को पुष्ट करते हैं । यह प्रक्रिया ही इल्वल और वातापि के माध्यम से कही गई है । तुम्हारे जैसे लक्षण-शास्त्र के विद्वानों के लिए ही यह संभव है कि लक्षणों में से जहत्-अजहत्-लक्षणा से विवेकपूर्वक त्याज्य और अत्याज्य लक्षणों को समझ लो । इतना ही पर्याप्त है ।
जिन्हें कर्मकाण्ड में पारंगत ब्राह्मण नहीं पचा सकते थे और जो उन ब्राह्मणों के पेट विदीर्ण कर उन्हें ही अपना आहार बना लिया करते थे, महर्षि अगस्त्य ने मेष-शाक रूपी उन विचारों (अहं-प्रत्ययों) का आहार कर लिया और उन्हें पचा भी लिया । इसके बाद उन्होंने (ज्ञान की) दृष्टि-मात्र से ही इल्वल का भी संहार कर दिया ।
यही इस कथा की फलश्रुति भी है ।"
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(कल्पित) अगस्त्य-क्रान्ति, अहंकार-चतुष्टय
अरण्यकाण्ड,
एकादश सर्ग
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जब भगवान् श्रीराम महर्षि अगस्त्य की प्रशंसा करते हुए अपने छोटे प्रिय भाई लक्ष्मण से इल्वल और वातापि की कथा कह चुके, तो श्री लक्ष्मण ने मुस्कुराते हुए उनसे निवेदन किया :
भैया, महर्षि अगस्त्य और इल्वल तथा वातापि कथा इतनी ही है, या उसमें कुछ गूढ तत्व भी छिपा है, जिसे मैं ग्रहण नहीं कर पा रहा हूँ ? यदि मेरी जिज्ञासा अतिप्रश्न न हो तो कृपा कर इस विषय में मुझसे कहें ।
तब भगवान् श्रीराम ने मन्द स्मितपूर्वक उनसे कहा :
"लक्ष्मण ! तुम संकेत से भी सत्य का ग्रहण कर लेते हो, -लक्षण से भी त्याज्य और अत्यज्य की विवेचना कर लेते हो । यह विवेचना ही विवेक है जिसे नित्य-अनित्य के बारे में जिज्ञासापूर्वक किए जाने पर मनुष्य परम श्रेयस् की प्राप्ति कर लेता है । किन्तु वह ज्ञान का मार्ग है और तुम्हारी वर्तमान की जिज्ञासा से प्रत्यक्षतः संबंध नहीं रखता ।
तुम्हारी बुद्धि के अनुकूल मैं तुम्हारी जिज्ञासा का समाधान करने का यत्न करूँगा, जिससे तुम्हें उसी श्रेयस् की प्राप्ति इसी क्षण हो जाएगी जिसके लिए मनुष्य, तपस्वी, ऋषि अनेक जन्मों तक कठिन तप और स्वाध्याय आदि करते हुए सहस्रों वर्षों में दुर्लभता से प्राप्त करते हैं ।
सुनो! इल्वल मनुष्य की बुद्धि है, वातापि विचार है, महर्षि अगस्त्य गुरु हैं और ब्राह्मण लौकिक ज्ञानी हैं जिन्हें, कर्मकाण्ड आदि से इस लोक और परलोक के बारे में बहुत ज्ञान होता है, किन्तु वे न तो आत्मज्ञानी, न ब्रह्मज्ञानी, न मुक्त और न मुमुक्षु ही होते हैं । हाँ वे श्राद्ध संकल्प आदि कर्मकाण्ड में भी पारंगत हो सकते हैं । विषय मेष-शाक है, जो अचर वनस्पति भी हो सकता है, या सजीव और चर मृग आदि प्राणी भी । इसलिए ऐसे ब्राह्मण भी विषयों के उपभोग के आकर्षण से बच नहीं पाते ।
और भी सुनो !
मन, चित्त तथा अहंकार, ये तीनों बुद्धि के ही पर्याय हैं । बुद्धि ही विचार के माध्यम से ’विषयों’ को आहार बनाकर स्वयं का श्राद्ध करती है । यही विचार पुनः बुद्धि को पुष्ट करते हैं । यह प्रक्रिया ही इल्वल और वातापि के माध्यम से कही गई है । तुम्हारे जैसे लक्षण-शास्त्र के विद्वानों के लिए ही यह संभव है कि लक्षणों में से जहत्-अजहत्-लक्षणा से विवेकपूर्वक त्याज्य और अत्याज्य लक्षणों को समझ लो । इतना ही पर्याप्त है ।
जिन्हें कर्मकाण्ड में पारंगत ब्राह्मण नहीं पचा सकते थे और जो उन ब्राह्मणों के पेट विदीर्ण कर उन्हें ही अपना आहार बना लिया करते थे, महर्षि अगस्त्य ने मेष-शाक रूपी उन विचारों (अहं-प्रत्ययों) का आहार कर लिया और उन्हें पचा भी लिया । इसके बाद उन्होंने (ज्ञान की) दृष्टि-मात्र से ही इल्वल का भी संहार कर दिया ।
यही इस कथा की फलश्रुति भी है ।"
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(कल्पित) अगस्त्य-क्रान्ति, अहंकार-चतुष्टय
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