Friday, 28 June 2019

......और धर्म!

विचार, प्रचार, शिक्षा, संवाद, बहस, मनोरंजन 
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यह ब्लॉग मुख्य रूप से धर्म को समर्पित है ।
यह कहना अनावश्यक है कि यहाँ धर्म से मेरा तात्पर्य है; - मेरी स्वाभाविक गतिविधि ।
स्वभाव से मेरा तात्पर्य है मेरा वह स्वरूप, वह सत्यता, -जो मेरे सारे और भिन्न-भिन्न बदलते हुए रूपों / कार्यों / भावों के बीच  सतत अपरिवर्तनशील है ।
ऐसा मुझे लगता है
लगना और सोचना किसी अर्थ में एक जैसा समान और किसी दूसरे अर्थ में एक-दूसरे से बहुत अलग होता है ।
इसलिए हमारे विचार प्रकट रूप से मिलते हुए भी दिखलाई देते हों तो भी आवश्यक नहीं कि वे मूलतः भिन्न भिन्न न हों ।
इसलिए वैचारिक समानता एक विरोधाभास है ।
विचार किसी भावना / भाव का शाब्दिक आवरण होता है अर्थात् जो हमें ’लगता है’ उसे दिए जानेवाले शब्द ।
जबकि जो हमें ’लगता है’, वह शाब्दिक क़तई नहीं होता ।
इसलिए विचार उसका स्थान नहीं ले सकता जो हमें ’लगता है’...,
फिर भी हमें ’लगता है’ कि व्यावहारिक रूप से विचार जो हमें ’लगता है’, उसे व्यक्त करने का अवश्य ही सर्वाधिक सरल और उपयुक्त साधन है ।
तथ्यात्मक विषयों के अध्ययन के लिए विचार अवश्य ही सर्वथा आवश्यक और उपयोगी साधन है और विचार या विचारों का आदान-प्रदान इस दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण भी है इसमें सन्देह नहीं, किंतु बस वहीं तक विचार का महत्व और भूमिका है ।
विचार इस दृष्टि से शायद बहुत महत्वपूर्ण है कि जो हमें ’लगता है’, उसे शब्द दिए जा सकें ।
इस प्रकार से शब्द दिए जाने को ’सोचना’ कहा जाता है ।
यह भी स्पष्ट है कि सोचने के लिए शब्दों की आवश्यकता होती है और शब्दों के लिए किसी न किसी भाषा की ।
तथ्यात्मक विषयों के अध्ययन के लिए कोई भी भाषा लगभग समान रूप से उपयोगी हो सकती है इसलिए विज्ञान और गणित जैसे शुद्धतः भौतिक रूप से तथ्यात्मक विषयों का अध्ययन और अध्यापन भी किसी भी भाषा में किया जा सकता है यद्यपि यह उस भाषा में मौलिक शब्दों की उपलब्धता पर भी निर्भर होता है । और इसलिए किसी ’नए’ तथ्यात्मक विचार के आविष्कार की भाषा ही तय करती है कि कौन सी भाषा उस विषय के अध्ययन और अध्यापन के लिए सर्वाधिक उपयुक्त हो सकती है ।
भौतिक विज्ञान और गणित के अध्ययन और अध्यापन के लिए जिन ग्रीक वर्णों का बहुतायत से प्रयोग किया जाता है वह उन आविष्कारकों की ही देन है जिन्हें ग्रीक भाषा इस प्रकार के अध्ययन और अध्यापन के लिए बहुत सरल और उपयोगी प्रतीत हुई । यद्यपि उन्होंने अपनी खोज को व्यक्त करने के लिए अंग्रेज़ी, फ़्रेन्च, ग्रीक, जापानी, रूसी या जर्मन भाषाओं को चुना किन्तु ग्रीक मूल के वर्णाक्षर / letters  उन्हें सर्वाधिक उपयोगी प्रतीत हुए । इसके अपने कारण हैं । क्योंकि आधुनिक विज्ञान और गणित तर्कशास्त्र पर आधारित है और तर्कशास्त्र का सर्वाधिक विकास ग्रीक विद्वानों ने ही किया ।
इस प्रकार तथ्यात्मक विषयों के विचार और प्रचार के लिए ’मान्यता’ से बँधना किसी हद तक ज़रूरी और उपयोगी भी हो सकता है इससे असहमति नहीं, किन्तु ऐसा समस्त ज्ञान वैचारिक होने से क्षणिक और तात्कालिक होता है और केवल तभी सत्य होता है जब उस बारे में विचार किया जाता है । जिसका विचार नहीं किया जाता उसकी सत्यता भी कैसे सिद्ध / असिद्ध हो सकती है?
चूँकि तथ्यात्मक विषयों और उनके ज्ञान की सत्यता इसलिए केवल विचार तक ही सीमित होती है और विचार की क्षमता जो हमें ’लगता है’ उसे व्यक्त कर पाने में अत्यन्त अल्पप्राय होती है, इसलिए विभिन्न भावनाएँ भिन्न-भिन्न ’मान्यताओं’ या ’वैचारिक मान्यताओं’ में बदल जाती हैं इसलिए इस तरह से ’तथ्यात्मकता’ से उतनी ही दूर भी हो जाती हैं ।
किसी वस्तु के प्रति हमारी क्या दृष्टि है, कोई भावना हमें कैसी लगती है, यह व्यक्ति से व्यक्ति और वस्तु से वस्तु तक भिन्न-भिन्न होता है। विचार प्रारंभ होते ही मत और मतभेद भी पैदा होने लगते हैं । सामाजिक धरातल पर इसलिए सुचारु वैचारिक संवाद की आवश्यकता की पूर्ति हमेशा ही संभव हो यह आवश्यक नहीं ।
सुचारु संवाद का अर्थ है जो हमें ’लगता है’ उसे बातचीत के माध्यम से दूसरों तक यथासंभव यथावत पहुँचाया और दूसरों से ग्रहण किया जा सके ।
इस प्रकार सुचारु संवाद और शिक्षा परस्पर पर्याय हैं ।
किसी भी संवाद का सर्वाधिक निकृष्ट और नकारात्मक पहलू है विवाद / बहस, किन्तु राजनीतिक बहस तो उससे भी अधिक शायद सर्वाधिक भी भयावह एक पहलू है । ’बौद्धिकता’ के आवरण में लाग-लपेट और छल-प्रपंचयुक्त, मुहावरेदार भाषा से पूर्वाग्रहपूर्ण भावनात्मक आधार पर एक-दूसरे का शोषण करने की कला है - ’राजनीति’ । इसलिए ’स्वस्थ राजनीतिक बहस’ / debate एक असंभव शब्द-शिल्प है । और वह ’स्वस्थ संवाद’ की कसौटी तक पर भी खरा नहीं उतरता ।
बहस का एक और पहलू, शायद मनोरंजन के लिए बहस हो सकता है, और वह बस उसी तरह है जैसा दूसरे असंख्य रूपों में आज का मीडिया वैसे भी कर ही रहा है ।   
फिर क्या हो?
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