ब्रह्मा के चार नाम
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अदिति को स्थूल देवताओं ने अपने तेज से आधिभौतिक रूप में दक्ष प्रजापति की पुत्री के रूप में रचा ।
अदिति का भौतिक स्वरूप इसलिए एक बालिका की तरह था, जो दक्षकन्या थी। दक्ष का अर्थ है निष्णात, निपुण, ...। इसी अदिति ने बाद में तप किया और दक्ष के द्वारा किए जा रहे यज्ञ में अपने पति भगवान शंकर को न बुलाए जाने पर योगाग्नि प्रज्वलित कर अपने उस जीवन का अंत कर दिया। अदिति वही सती थी जिसने बाद में हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया और जिसका नाम उमा हुआ, किन्तु उसकी तप साधना अपूर्ण रह जाने से अभी भगवान् शंकर से उसका सारूप्य नहीं हुआ था। यद्यपि पूर्वजन्म में विवाह के बाद उसे उनका सामीप्य और सालोक्य और सायुज्य अवश्य प्राप्त हुआ था। सायुज्य इस अर्थ में कि वह उनसे जुड़ी थी, लेकिन युगल-मूर्ति की तरह। सारूप्य इस अर्थ में कि वह उनसे आत्मवत एकाकार नहीं हुई थी।
जब देवताओं ने अपने तेज से उसकी रचना की, तो वे ही देवता जो वर्णरूपी मुख या मुण्डमात्र थे, पुनः उस तेज से युक्त दक्षकन्यारूपी अदिति के समीप पहुँचे और उसके स्वरूप की जिज्ञासा की।
तब अदिति ने अपने तत्व का वर्णन उनसे किया।
इस वर्णन को सुनने पर उन वाचिक-वर्ण रूपी देवताओं का यज्ञोपवीत संस्कार हुआ जिससे सभी वर्ण, जो सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा के मुख से उद्गार के रूप में व्यक्त हुए थे, ब्राह्मण-वर्ण के अर्थात् वेदतत्व के रूप में पुनः अभिव्यक्त हुए।
(देवी-अथर्व-शीर्ष)
ऋषि जब उन देवताओं के तत्व को जानने के लिए उत्कंठित हुए तो अदिति ने उन देवताओं के मुण्डों की माला गूँथकर उसे भगवान् शंकर के गले में पहना दिया। तब से भगवान् शंकर महादेव और मुण्डमालाधारी हो गए। तब उन्होंने उल्लासपूर्वक नृत्य करते हुए अपना डमरू उठाया और उसे 14 बार भिन्न भिन्न रीति से बजाया जिससे उठे स्वरों को ऋषियों ने अक्षर-समाम्नाय के रूप में ग्रहण किया।
वेदाङ्ग के रूप में माहेश्वर अक्षर-समाम्नाय से ही व्याकरण का जन्म हुआ।
ब्रह्मा के मन में जब सृष्टि की रचना का संकल्प उठा, तो उनके मुख से उसी वेद-विद्या ने पुनः जन्म लिया जिस पर वे काम-मोहित हो उठे। इस प्रकार के अनाचार पर क्रुद्ध होकर भगवान् शंकर ने उनके पाँच मस्तकों में से एक को काट दिया। वही मस्तक ....
तब ब्रह्मा के मन में अपने इस कर्म के लिए अपराध-बोध हुआ, उन्होंने क्षमायाचनापूर्वक भगवान् शंकर की स्तुति की। तब अश्विनीकुमारों ने आकर उनके कटे हुए मस्तक को पुनः उनके धड़ पर प्रत्यारोपित कर दिया।
ब्रह्मा के द्वारा की गयी स्तुति से संतुष्ट होकर भगवान् शंकर ने उन्हें वरदान दिया :
"सुरेश्वर! तुम्हारे द्वारा किए गए अपराध को यद्यपि मैंने क्षमा कर दिया, किन्तु इसीलिए संसार में कोई तुम्हारी कोई पूजा नहीं करेगा। यद्यपि पुष्कर तीर्थ में जो तुम्हारी पूजा करेगा उसे अवश्य संसार की समस्त धन-संपत्ति तथा दीर्घ आयु भी अवश्य प्राप्त होगी।
तुम्हारा यश संसार में और तुम्हारी सृष्टि में भी, तब भी चार रूपों में नित्य बना रहेगा।
तुम्हारे चार नाम तुम्हारे यश का कीर्तिगान करेंगे।
तुम्हारा प्रथम नाम 'अहम्' होगा जिसे समस्त भूत अनायास और सदा जानेंगे।
('अहम् नाम अभवत्' -बृहदारण्यक उपनिषद्; अहं ब्रह्मास्मि (महावाक्य), I AM THAT I AM, Jehovah,)
[D.: What is this Self again?
M.: The Self is known to everyone but not clearly. You always exist. The Be-ing is the Self.
‘I am’ is the name of God.
Of all the definitions of God, none is indeed so well put as the Biblical statement :
“I AM THAT I AM” in EXODUS (Chap. 3). There are other statements, such as
Brahmaivaham, (ब्रह्मैवाहम्)
Aham Brahmasmi (अहं ब्रह्मास्मि)
and So'ham (सोऽहं).
But none is so direct as the name JEHOVAH = I AM.
The Absolute Being is what is - It is the Self. It is God. Knowing the Self, God is known.
In fact God is none other than the Self.]
(श्री रमण महर्षि से बातचीत 106, 110)
तुम्हारा दूसरा नाम वाजश्रवा होगा क्योंकि तुम धन-संपदा और लौकिक समृद्धि के लिए प्रयत्नशील रहोगे, लेकिन अंत में तुममें वैराग्य प्रकट होने पर विश्वजित नामक सर्ववेदस् यज्ञ कर तुम अपना सब धन-वैभव दान कर दोगे। यहाँ तक कि अपने सर्वोत्तम पुत्र को भी मृत्यु को दान कर दोगे।
(वाजश्रवा - कठोपनिषद्)
तुम्हारा यश इतना विस्तीर्ण होगा कि हर कोई बारंबार इसका वर्णन करेगा, इसलिए तुम्हारा तीसरा नाम भूरिश्रवा (महाभारत) होगा।
और चूँकि तुम स्वयं ही सृष्टिकर्ता हो, इसलिए जो भी पराक्रमी जैसे एक सौ अश्वमेध कर लेने पर कोई इंद्र के पद को प्राप्त होकर वृद्धश्रवा कहलाता है, वैसे ही तुम्हारा चौथा नाम वृद्धश्रवा ही होगा।
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(कल्पित)
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अदिति को स्थूल देवताओं ने अपने तेज से आधिभौतिक रूप में दक्ष प्रजापति की पुत्री के रूप में रचा ।
अदिति का भौतिक स्वरूप इसलिए एक बालिका की तरह था, जो दक्षकन्या थी। दक्ष का अर्थ है निष्णात, निपुण, ...। इसी अदिति ने बाद में तप किया और दक्ष के द्वारा किए जा रहे यज्ञ में अपने पति भगवान शंकर को न बुलाए जाने पर योगाग्नि प्रज्वलित कर अपने उस जीवन का अंत कर दिया। अदिति वही सती थी जिसने बाद में हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया और जिसका नाम उमा हुआ, किन्तु उसकी तप साधना अपूर्ण रह जाने से अभी भगवान् शंकर से उसका सारूप्य नहीं हुआ था। यद्यपि पूर्वजन्म में विवाह के बाद उसे उनका सामीप्य और सालोक्य और सायुज्य अवश्य प्राप्त हुआ था। सायुज्य इस अर्थ में कि वह उनसे जुड़ी थी, लेकिन युगल-मूर्ति की तरह। सारूप्य इस अर्थ में कि वह उनसे आत्मवत एकाकार नहीं हुई थी।
जब देवताओं ने अपने तेज से उसकी रचना की, तो वे ही देवता जो वर्णरूपी मुख या मुण्डमात्र थे, पुनः उस तेज से युक्त दक्षकन्यारूपी अदिति के समीप पहुँचे और उसके स्वरूप की जिज्ञासा की।
तब अदिति ने अपने तत्व का वर्णन उनसे किया।
इस वर्णन को सुनने पर उन वाचिक-वर्ण रूपी देवताओं का यज्ञोपवीत संस्कार हुआ जिससे सभी वर्ण, जो सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा के मुख से उद्गार के रूप में व्यक्त हुए थे, ब्राह्मण-वर्ण के अर्थात् वेदतत्व के रूप में पुनः अभिव्यक्त हुए।
(देवी-अथर्व-शीर्ष)
ऋषि जब उन देवताओं के तत्व को जानने के लिए उत्कंठित हुए तो अदिति ने उन देवताओं के मुण्डों की माला गूँथकर उसे भगवान् शंकर के गले में पहना दिया। तब से भगवान् शंकर महादेव और मुण्डमालाधारी हो गए। तब उन्होंने उल्लासपूर्वक नृत्य करते हुए अपना डमरू उठाया और उसे 14 बार भिन्न भिन्न रीति से बजाया जिससे उठे स्वरों को ऋषियों ने अक्षर-समाम्नाय के रूप में ग्रहण किया।
वेदाङ्ग के रूप में माहेश्वर अक्षर-समाम्नाय से ही व्याकरण का जन्म हुआ।
ब्रह्मा के मन में जब सृष्टि की रचना का संकल्प उठा, तो उनके मुख से उसी वेद-विद्या ने पुनः जन्म लिया जिस पर वे काम-मोहित हो उठे। इस प्रकार के अनाचार पर क्रुद्ध होकर भगवान् शंकर ने उनके पाँच मस्तकों में से एक को काट दिया। वही मस्तक ....
तब ब्रह्मा के मन में अपने इस कर्म के लिए अपराध-बोध हुआ, उन्होंने क्षमायाचनापूर्वक भगवान् शंकर की स्तुति की। तब अश्विनीकुमारों ने आकर उनके कटे हुए मस्तक को पुनः उनके धड़ पर प्रत्यारोपित कर दिया।
ब्रह्मा के द्वारा की गयी स्तुति से संतुष्ट होकर भगवान् शंकर ने उन्हें वरदान दिया :
"सुरेश्वर! तुम्हारे द्वारा किए गए अपराध को यद्यपि मैंने क्षमा कर दिया, किन्तु इसीलिए संसार में कोई तुम्हारी कोई पूजा नहीं करेगा। यद्यपि पुष्कर तीर्थ में जो तुम्हारी पूजा करेगा उसे अवश्य संसार की समस्त धन-संपत्ति तथा दीर्घ आयु भी अवश्य प्राप्त होगी।
तुम्हारा यश संसार में और तुम्हारी सृष्टि में भी, तब भी चार रूपों में नित्य बना रहेगा।
तुम्हारे चार नाम तुम्हारे यश का कीर्तिगान करेंगे।
तुम्हारा प्रथम नाम 'अहम्' होगा जिसे समस्त भूत अनायास और सदा जानेंगे।
('अहम् नाम अभवत्' -बृहदारण्यक उपनिषद्; अहं ब्रह्मास्मि (महावाक्य), I AM THAT I AM, Jehovah,)
[D.: What is this Self again?
M.: The Self is known to everyone but not clearly. You always exist. The Be-ing is the Self.
‘I am’ is the name of God.
Of all the definitions of God, none is indeed so well put as the Biblical statement :
“I AM THAT I AM” in EXODUS (Chap. 3). There are other statements, such as
Brahmaivaham, (ब्रह्मैवाहम्)
Aham Brahmasmi (अहं ब्रह्मास्मि)
and So'ham (सोऽहं).
But none is so direct as the name JEHOVAH = I AM.
The Absolute Being is what is - It is the Self. It is God. Knowing the Self, God is known.
In fact God is none other than the Self.]
(श्री रमण महर्षि से बातचीत 106, 110)
तुम्हारा दूसरा नाम वाजश्रवा होगा क्योंकि तुम धन-संपदा और लौकिक समृद्धि के लिए प्रयत्नशील रहोगे, लेकिन अंत में तुममें वैराग्य प्रकट होने पर विश्वजित नामक सर्ववेदस् यज्ञ कर तुम अपना सब धन-वैभव दान कर दोगे। यहाँ तक कि अपने सर्वोत्तम पुत्र को भी मृत्यु को दान कर दोगे।
(वाजश्रवा - कठोपनिषद्)
तुम्हारा यश इतना विस्तीर्ण होगा कि हर कोई बारंबार इसका वर्णन करेगा, इसलिए तुम्हारा तीसरा नाम भूरिश्रवा (महाभारत) होगा।
और चूँकि तुम स्वयं ही सृष्टिकर्ता हो, इसलिए जो भी पराक्रमी जैसे एक सौ अश्वमेध कर लेने पर कोई इंद्र के पद को प्राप्त होकर वृद्धश्रवा कहलाता है, वैसे ही तुम्हारा चौथा नाम वृद्धश्रवा ही होगा।
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(कल्पित)
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