उपसंहार
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गिरीश (ग्रीस) देश में भृगु शुक्राचार्य, उशना के उस वन-मंडल में स्थित ऋषि अंगिरा के गुरुकुल में जब वह पहुँचा तो अनेक पक्षियों की चहचहाहट उसके कानों पर पड़ी । भ्रमरों की गुंजार और वेदमन्त्रों के उच्चार के बीच उसकी मनःस्थिति इतनी ताजा हो गई कि वह विस्मित हो उठा ।
तभी दो तीन बालक सामने से आते हुए उसे दिखाई पड़े ।
वे परस्पर उसकी ओर इशारा करते हुए एक-दूसरे से कुछ कह रहे थे ।
जब वे निकट पहुँचे तो उन्होंने हाथ जोड़कर उसे प्रणाम किया और आश्रम की ओर संकेत किया । उन्होंने अपनी तरफ़ भी इंगित किया और पुनः उस आश्रम की ओर भी । उनका अनुमान था कि आगन्तुक उनकी भाषा नहीं समझ सकेगा और न वे उसकी भाषा समझ सकेंगे । अतः वे संकेत से काम चला रहे थे ।
वह उनके साथ आगे गया तो कुछ व्यक्ति जो दालान में बैठे थे उसकी ओर देखकर मुस्कुराने लगे ।
उन्हें वैसे उसकी भाषा आती थी परन्तु जब वह उनके सामने ही आसन पर आराम से बैठ चुका, तो पहले उन्होंने उससे संस्कृत में एक प्रश्न पूछा :
"ईराकोऽसि"
हातिम ताई चौंक उठा । वह अचंभित होकर कुछ कहता उससे पूर्व ही वे एक-दूसरे को देखकर हँसने लगे ।
"मुझे बहुत दिनों बाद किसी ने इस नाम से बुलाया है कापालिकों के शहर में कभी किसी ने मुझे इस नाम से नहीं बुलाया था ।"
कापालिक भाषा में ही हातिम ताई बोला, क्योंकि उसे पता नहीं था कि वे कौन सी भाषा बोलते थे ।
वैसे वे परस्पर व्यवहार में प्रायः संस्कृत या अन्य देशीय लोगों से प्राकृत भाषा में भी बोलते थे किन्तु हातिम ताई को देखकर उन्हें उसकी वेशभूषा से भी पता था कि वह कापालिक होगा । सबसे बड़ी बात यह कि गरुड़ पहले ही उनसे सब कह चुका था और वही उनके आदेश से उस देश से हातिम ताई को अपहृत कर वहाँ छोड़ गया था । अलबत्ता (अल् बत् आ) हातिम ताई इस सबसे बिल्कुल अनभिज्ञ था ।
ऋषि भृगु के उस गुरुकुल में उसे अभी कुछ दिन ही बीते थे किन्तु इस बीच सभी उससे अच्छी तरह घुल-मिल गए थे ।
प्रायः ऋषिगण प्रतिदिन सुबह दोपहर तथा सन्ध्या के समय प्रातः माध्यन्दिन और आह्निक होम हवन तथा वेदविहित ब्राह्मकर्म किया करते थे ।
उसके लिए यह सब बहुत रोचक और आश्चर्यपूर्ण भी था ।
तब उसने आचार्य से प्रार्थना की कि वे उसे भी इन अनुष्ठानों में शामिल करें ।
तब ऋषियों ने परस्पर मन्त्रणा कि की और एक उचित तथा शुभ मुहूर्त में उसे यज्ञोपवीत प्रदान किया ।
उसके सिर को इस प्रकार मुण्डित किया गया ताकि शिखा के केश बने रहें ।
वे लगभग आठ अंगुल लम्बाई के थे किन्तु उन्हें थोड़ा छोटा कर दिया गया फिर भी वे इतने लंबे थे कि शिखा को आसानी से छोटी में बाँधा जा सके ।
"इसे शिखाग्रन्थि कहते हैं । अब तुम द्विज हो ।" "
- आचार्य ने उससे कहा ।
आचार्य ने उससे उसके पूर्व जीवन के बारे में कभी कुछ नहीं पूछा यह सोचकर उसे थोड़ा आश्चर्य हुआ ।
त्रिकाल सन्ध्या सीखने के बाद जब उसे रुद्र सिखाया जाने लगा तो तुरंत ही उसे स्पष्ट हुआ कि यह तो वही है जिसे कापालिक भी करते थे !
कापालिकों के साथ रहते हुए उसने कभी यह सीखने का यत्न नहीं किया था ।
ॐ उशन् ह वै वाजश्रवसः सर्ववेदसं ददौ ।
तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस ॥१॥
तम् ह कुमारम् सन्तं दक्षिणासु नीयमानासु श्रद्धाऽऽविवेश सोऽअमन्यत् ॥२॥
पीतोदका जग्धतृणा दुग्धदोहा निरीन्द्रियाः।
अनन्दा नाम ते लोकास्तान् स गच्छति ता ददत्।।३।।
स होवाच पितरं तत कस्मै मां दास्यमिति।
द्वितीयं तृतीयं तं होवाच मृत्यवे त्वा ददामीति ॥४॥
(कठोपनिषद् १/१/१-४)
ऋषि उशन् (उशा अथवा उषा) वाजश्रवा के पुत्र थे । उनका एक पुत्र था जिसका नाम नचिकेता था । अभी वह १२-१३ वर्ष की आयु का बालक ही था कि उसने उन गौओं को दान के लिए ले जाते हुए देखा जो बूढ़ी हो चुकी थीं, न तो बछड़े दे सकती थीं न दूध, जो इतनी दुर्बल थीं कि उन्होंने चारा पानी इत्यादि का सेवन भी बहुत कम कर दिया था। तब उसने मन में प्रश्न उठा कि जो ऐसी गायें दान करता है उसे आनंदशून्य जीवन की प्राप्ति होती है। (चूँकि इस यज्ञ में सर्वस्व दिया जाता है तब तो आप मुझे भी दान में दे देंगे, यह सोचते हुए) उसने पिता से प्रश्न किया :
"... तो आप मेरा दान किसे करेंगे?"
दूसरी बार, और तीसरी बार भी जब उसने पिता से पूछा तो वे क्रुद्ध हुए और बोले :
"तुझे मैं मृत्यु को दान में देता हूँ।"
ऋषि उशन् वही हैं जिनके बारे में गीता अध्याय १० में कहा है :
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः।
मुनिनामप्यहं व्यासः कवीनामुशनाकविः।।३७।।
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उक्त श्लोक की व्याख्या अनेक प्रकार से की जा सकती है 'अहं / अहम्' नाम चूँकि उसी परमेश्वर का है जो जगत तथा समस्त भूतमात्र के रूप में सनातन रूप से व्यक्त है, इसलिए वे ही ऋषि उशन् के रूप में कवि हैं, और वे ही वासुदेव श्रीकृष्ण, धनञ्जय (अर्जुन) महर्षि वेदव्यास हैं।
इस प्रकार उशना कवि जो भृगु अर्थात् शुक्राचार्य हैं का ही उल्लेख यहाँ है।
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कठोलिकों की साम्प्रदायिक परम्परा इन्हीं उशना कवि से शुरू होती है इसलिए 'कथोपनिषद्' उनका मूल ग्रन्थ अर्थात् वेद है। इसलिए वेद के अंतर्गत 'यह्व' भी समझा जाना चाहिए। जाबालि ऋषि यद्यपि वैदिक ऋषि हैं किन्तु वे शैव मत के ऋषि होने से कापालिक भी हैं। इसी प्रकार ऋषि भृगु कठोलिक भी हैं।
उपरोक्त विवेचना इसलिए की जा रही है कि ग्रीस (गिरीश) के इतिहास को तारतम्य से समझा जा सके।
सारे कथासूत्र इस तथा हातिम ताई के माध्यम से यहाँ संकेत रूप में प्रस्तुत किए जा चुके हैं।
अलं विस्तरेण ।
(यह 'अलं' अरबी 'ल' या 'ला' की तरह नकारार्थक या 'बिना' के प्रयुक्त होता है। यही 'ल' या 'ला' 'lest', 'less' तथा 'les' के रूप में तमाम यूरोपीय भाषाओं में प्राप्त होता है। अलं से उद्भूत 'अल्' जो all का व्यञ्जक भी है अरबी और दूसरी भाषाओं में बहुतायत से पाया जाता है। संस्कृत में इसका तुल्य शब्द है 'पूर्ण' अर्थात् समष्टि)
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हातिम ताई का क़िस्सा भी यहाँ पूरा होता है। इसमें जिन पात्रों / चरित्रों का उल्लेख है उनके बारे में इसी ब्लॉग की अन्य पोस्ट्स में बहुत कुछ लिखा जा चुका है। इसलिए पाठक उन सूत्रों को अपनी रुचि और आवश्यकता के अनुसार क्रमबद्ध कर सकता है।
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हातिम ताई का क़िस्सा भी यहाँ पूरा होता है।
।। इति शं ।।
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गिरीश (ग्रीस) देश में भृगु शुक्राचार्य, उशना के उस वन-मंडल में स्थित ऋषि अंगिरा के गुरुकुल में जब वह पहुँचा तो अनेक पक्षियों की चहचहाहट उसके कानों पर पड़ी । भ्रमरों की गुंजार और वेदमन्त्रों के उच्चार के बीच उसकी मनःस्थिति इतनी ताजा हो गई कि वह विस्मित हो उठा ।
तभी दो तीन बालक सामने से आते हुए उसे दिखाई पड़े ।
वे परस्पर उसकी ओर इशारा करते हुए एक-दूसरे से कुछ कह रहे थे ।
जब वे निकट पहुँचे तो उन्होंने हाथ जोड़कर उसे प्रणाम किया और आश्रम की ओर संकेत किया । उन्होंने अपनी तरफ़ भी इंगित किया और पुनः उस आश्रम की ओर भी । उनका अनुमान था कि आगन्तुक उनकी भाषा नहीं समझ सकेगा और न वे उसकी भाषा समझ सकेंगे । अतः वे संकेत से काम चला रहे थे ।
वह उनके साथ आगे गया तो कुछ व्यक्ति जो दालान में बैठे थे उसकी ओर देखकर मुस्कुराने लगे ।
उन्हें वैसे उसकी भाषा आती थी परन्तु जब वह उनके सामने ही आसन पर आराम से बैठ चुका, तो पहले उन्होंने उससे संस्कृत में एक प्रश्न पूछा :
"ईराकोऽसि"
हातिम ताई चौंक उठा । वह अचंभित होकर कुछ कहता उससे पूर्व ही वे एक-दूसरे को देखकर हँसने लगे ।
"मुझे बहुत दिनों बाद किसी ने इस नाम से बुलाया है कापालिकों के शहर में कभी किसी ने मुझे इस नाम से नहीं बुलाया था ।"
कापालिक भाषा में ही हातिम ताई बोला, क्योंकि उसे पता नहीं था कि वे कौन सी भाषा बोलते थे ।
वैसे वे परस्पर व्यवहार में प्रायः संस्कृत या अन्य देशीय लोगों से प्राकृत भाषा में भी बोलते थे किन्तु हातिम ताई को देखकर उन्हें उसकी वेशभूषा से भी पता था कि वह कापालिक होगा । सबसे बड़ी बात यह कि गरुड़ पहले ही उनसे सब कह चुका था और वही उनके आदेश से उस देश से हातिम ताई को अपहृत कर वहाँ छोड़ गया था । अलबत्ता (अल् बत् आ) हातिम ताई इस सबसे बिल्कुल अनभिज्ञ था ।
ऋषि भृगु के उस गुरुकुल में उसे अभी कुछ दिन ही बीते थे किन्तु इस बीच सभी उससे अच्छी तरह घुल-मिल गए थे ।
प्रायः ऋषिगण प्रतिदिन सुबह दोपहर तथा सन्ध्या के समय प्रातः माध्यन्दिन और आह्निक होम हवन तथा वेदविहित ब्राह्मकर्म किया करते थे ।
उसके लिए यह सब बहुत रोचक और आश्चर्यपूर्ण भी था ।
तब उसने आचार्य से प्रार्थना की कि वे उसे भी इन अनुष्ठानों में शामिल करें ।
तब ऋषियों ने परस्पर मन्त्रणा कि की और एक उचित तथा शुभ मुहूर्त में उसे यज्ञोपवीत प्रदान किया ।
उसके सिर को इस प्रकार मुण्डित किया गया ताकि शिखा के केश बने रहें ।
वे लगभग आठ अंगुल लम्बाई के थे किन्तु उन्हें थोड़ा छोटा कर दिया गया फिर भी वे इतने लंबे थे कि शिखा को आसानी से छोटी में बाँधा जा सके ।
"इसे शिखाग्रन्थि कहते हैं । अब तुम द्विज हो ।" "
- आचार्य ने उससे कहा ।
आचार्य ने उससे उसके पूर्व जीवन के बारे में कभी कुछ नहीं पूछा यह सोचकर उसे थोड़ा आश्चर्य हुआ ।
त्रिकाल सन्ध्या सीखने के बाद जब उसे रुद्र सिखाया जाने लगा तो तुरंत ही उसे स्पष्ट हुआ कि यह तो वही है जिसे कापालिक भी करते थे !
कापालिकों के साथ रहते हुए उसने कभी यह सीखने का यत्न नहीं किया था ।
ॐ उशन् ह वै वाजश्रवसः सर्ववेदसं ददौ ।
तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस ॥१॥
तम् ह कुमारम् सन्तं दक्षिणासु नीयमानासु श्रद्धाऽऽविवेश सोऽअमन्यत् ॥२॥
पीतोदका जग्धतृणा दुग्धदोहा निरीन्द्रियाः।
अनन्दा नाम ते लोकास्तान् स गच्छति ता ददत्।।३।।
स होवाच पितरं तत कस्मै मां दास्यमिति।
द्वितीयं तृतीयं तं होवाच मृत्यवे त्वा ददामीति ॥४॥
(कठोपनिषद् १/१/१-४)
ऋषि उशन् (उशा अथवा उषा) वाजश्रवा के पुत्र थे । उनका एक पुत्र था जिसका नाम नचिकेता था । अभी वह १२-१३ वर्ष की आयु का बालक ही था कि उसने उन गौओं को दान के लिए ले जाते हुए देखा जो बूढ़ी हो चुकी थीं, न तो बछड़े दे सकती थीं न दूध, जो इतनी दुर्बल थीं कि उन्होंने चारा पानी इत्यादि का सेवन भी बहुत कम कर दिया था। तब उसने मन में प्रश्न उठा कि जो ऐसी गायें दान करता है उसे आनंदशून्य जीवन की प्राप्ति होती है। (चूँकि इस यज्ञ में सर्वस्व दिया जाता है तब तो आप मुझे भी दान में दे देंगे, यह सोचते हुए) उसने पिता से प्रश्न किया :
"... तो आप मेरा दान किसे करेंगे?"
दूसरी बार, और तीसरी बार भी जब उसने पिता से पूछा तो वे क्रुद्ध हुए और बोले :
"तुझे मैं मृत्यु को दान में देता हूँ।"
ऋषि उशन् वही हैं जिनके बारे में गीता अध्याय १० में कहा है :
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः।
मुनिनामप्यहं व्यासः कवीनामुशनाकविः।।३७।।
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उक्त श्लोक की व्याख्या अनेक प्रकार से की जा सकती है 'अहं / अहम्' नाम चूँकि उसी परमेश्वर का है जो जगत तथा समस्त भूतमात्र के रूप में सनातन रूप से व्यक्त है, इसलिए वे ही ऋषि उशन् के रूप में कवि हैं, और वे ही वासुदेव श्रीकृष्ण, धनञ्जय (अर्जुन) महर्षि वेदव्यास हैं।
इस प्रकार उशना कवि जो भृगु अर्थात् शुक्राचार्य हैं का ही उल्लेख यहाँ है।
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कठोलिकों की साम्प्रदायिक परम्परा इन्हीं उशना कवि से शुरू होती है इसलिए 'कथोपनिषद्' उनका मूल ग्रन्थ अर्थात् वेद है। इसलिए वेद के अंतर्गत 'यह्व' भी समझा जाना चाहिए। जाबालि ऋषि यद्यपि वैदिक ऋषि हैं किन्तु वे शैव मत के ऋषि होने से कापालिक भी हैं। इसी प्रकार ऋषि भृगु कठोलिक भी हैं।
उपरोक्त विवेचना इसलिए की जा रही है कि ग्रीस (गिरीश) के इतिहास को तारतम्य से समझा जा सके।
सारे कथासूत्र इस तथा हातिम ताई के माध्यम से यहाँ संकेत रूप में प्रस्तुत किए जा चुके हैं।
अलं विस्तरेण ।
(यह 'अलं' अरबी 'ल' या 'ला' की तरह नकारार्थक या 'बिना' के प्रयुक्त होता है। यही 'ल' या 'ला' 'lest', 'less' तथा 'les' के रूप में तमाम यूरोपीय भाषाओं में प्राप्त होता है। अलं से उद्भूत 'अल्' जो all का व्यञ्जक भी है अरबी और दूसरी भाषाओं में बहुतायत से पाया जाता है। संस्कृत में इसका तुल्य शब्द है 'पूर्ण' अर्थात् समष्टि)
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हातिम ताई का क़िस्सा भी यहाँ पूरा होता है। इसमें जिन पात्रों / चरित्रों का उल्लेख है उनके बारे में इसी ब्लॉग की अन्य पोस्ट्स में बहुत कुछ लिखा जा चुका है। इसलिए पाठक उन सूत्रों को अपनी रुचि और आवश्यकता के अनुसार क्रमबद्ध कर सकता है।
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हातिम ताई का क़िस्सा भी यहाँ पूरा होता है।
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