Sunday, 30 June 2019

Autopsy and Biopsy.

Potential of the Past :
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What is known as the past is always :
Of a person; -the personal,
Of a society / civilization; -the collective.
Of the facts; -the events / the history.
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The word 'Autopsy' could be viewed as a cognate of the Sanskrit word :
'आत्म-पश्य' ; that means :
looking into the body (self) of a living or a dead one.
Likewise, the word 'Biopsy' could be viewed as a cognate of the Sanskrit word :
'बीजीय-पश्य' or 'जीवीय-पश्य'
Both the words in Sanskrit mean :
looking into the source of a living object (creature or being, organ or organism).
All Past is but memory and the recognition of the memory.
The memory assumes equivalence of truth when brought into present by means of knowledge or thought.
Thus past whether the personal, the collective or the history is but contained in knowledge only.
All memory, recognition and thought is always a constantly changing movement that is focused in the moment / the time-span of a fraction of 'now'.
The truth that abides and stays as the support and substratum of all this happening has three perspectives namely the personal, the collective and the historical.
This truth could be realized only when it is perceived in all the three aspects as noted above, and that too at the same time, without dividing them into the three. Though for the right perception this may help to see the three aspects at three different levels as well, and afterwards we could again unify them.
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At the personal level the memory, the knowledge, the recognition revolve around the sense of  'I' / 'me'. Thus the trio itself projects a sense of 'I' / 'me' in every individual organism. The whole life of this individual is seen vis-à-vis the world that is basically made of the same core elements it is itself (the physical body / the organism) is made of, yet seen as a different and distinct entity.
This memory, the knowledge, the recognition fades away as soon as the consciousness of the surrounding world is lost, as in sleep, absent-mindedness or in swoon or sleep.
It is noteworthy this 'I'-sense though goes dismal in that state of mind, it soon rejuvenates, becomes alive on waking up from the same.
This 'I'-sense has therefore no memory, the knowledge, the recognition or history to claim as its own, it survives as long (at least) as the organism is intact and alive. This is also trough because this 'I'-sense is in fact a result of the memory, the knowledge, the recognition of the individual only.
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At the collective level, the infinitely many individual entities, living or non-living are classified in a group and there is again an infinity of such various groups, each of which assumes reality when thought of only. Humans and non-humans, sex, castes, tribes, civilizations, cultures, religions, faiths, traditions, rituals and customs are all parts and constituents of the collective memory; -that too only when thought about by an individual.
This collective memory is the potential latent that has no roots but the branches, buds, flowers and fruits only. Examining and investigating into its truth is like trying to find out the waters in a mirage.
Still there is a way it holds the path to find out the essential truth or the Reality that holds this whole bouquet in its invisible hands.
In a way we can dissect this potential memory either as a biopsy or an autopsy is done.
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The third and the last perspective / aspect is the 'history' which is so full of ambiguity and ridden with doubt, it could never undergo an autopsy or a biopsy.
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Saturday, 29 June 2019

In Greece and Iraq

उपसंहार
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गिरीश (ग्रीस) देश में भृगु शुक्राचार्य, उशना के उस वन-मंडल में स्थित ऋषि अंगिरा के गुरुकुल में जब वह पहुँचा तो अनेक पक्षियों की चहचहाहट उसके कानों पर पड़ी । भ्रमरों की गुंजार और वेदमन्त्रों के उच्चार के बीच उसकी मनःस्थिति इतनी ताजा हो गई कि वह विस्मित हो उठा ।
तभी दो तीन बालक सामने से आते हुए उसे दिखाई पड़े ।
वे परस्पर उसकी ओर इशारा करते हुए एक-दूसरे से कुछ कह रहे थे ।
जब वे निकट पहुँचे तो उन्होंने हाथ जोड़कर उसे प्रणाम किया और आश्रम की ओर संकेत किया । उन्होंने अपनी तरफ़ भी इंगित किया और पुनः उस आश्रम की ओर भी । उनका अनुमान था कि आगन्तुक उनकी भाषा नहीं समझ सकेगा और न वे उसकी भाषा समझ सकेंगे । अतः वे संकेत से काम चला रहे थे ।
वह उनके साथ आगे गया तो कुछ व्यक्ति जो दालान में बैठे थे उसकी ओर देखकर मुस्कुराने लगे ।
उन्हें वैसे उसकी भाषा आती थी परन्तु जब वह उनके सामने ही आसन पर आराम से बैठ चुका, तो पहले उन्होंने उससे संस्कृत में एक प्रश्न पूछा :
"ईराकोऽसि"
हातिम ताई चौंक उठा । वह अचंभित होकर कुछ कहता उससे पूर्व ही वे एक-दूसरे को देखकर हँसने लगे ।
"मुझे बहुत दिनों बाद किसी ने इस नाम से बुलाया है कापालिकों के शहर में कभी किसी ने मुझे इस नाम से नहीं बुलाया था ।"
कापालिक भाषा में ही हातिम ताई बोला, क्योंकि उसे पता नहीं था कि वे कौन सी भाषा बोलते थे ।
वैसे वे परस्पर व्यवहार में प्रायः संस्कृत या अन्य देशीय लोगों से प्राकृत भाषा में भी बोलते थे किन्तु हातिम ताई को देखकर उन्हें उसकी वेशभूषा से भी पता था कि वह कापालिक होगा । सबसे बड़ी बात यह कि गरुड़ पहले ही उनसे सब कह चुका था और वही उनके आदेश से उस देश से हातिम ताई को अपहृत कर वहाँ छोड़ गया था । अलबत्ता (अल् बत् आ) हातिम ताई इस सबसे बिल्कुल अनभिज्ञ था ।
ऋषि भृगु के उस गुरुकुल में उसे अभी कुछ दिन ही बीते थे किन्तु इस बीच सभी उससे अच्छी तरह घुल-मिल गए थे ।
प्रायः ऋषिगण प्रतिदिन सुबह दोपहर तथा सन्ध्या के समय प्रातः माध्यन्दिन और आह्निक होम हवन तथा वेदविहित ब्राह्मकर्म किया करते थे ।
उसके लिए यह सब बहुत रोचक और आश्चर्यपूर्ण भी था ।
तब उसने आचार्य से प्रार्थना की कि वे उसे भी इन अनुष्ठानों में शामिल करें ।
तब ऋषियों ने परस्पर मन्त्रणा कि की और एक उचित तथा शुभ मुहूर्त में उसे यज्ञोपवीत प्रदान किया ।
उसके सिर को इस प्रकार मुण्डित किया गया ताकि शिखा के केश बने रहें ।
वे लगभग आठ अंगुल लम्बाई के थे किन्तु उन्हें थोड़ा छोटा कर दिया गया फिर भी वे इतने लंबे थे कि शिखा को आसानी से छोटी में बाँधा जा सके ।
"इसे शिखाग्रन्थि कहते हैं । अब तुम द्विज हो ।"                               "
- आचार्य ने उससे कहा ।
आचार्य ने उससे उसके पूर्व जीवन के बारे में कभी कुछ नहीं पूछा यह सोचकर उसे थोड़ा आश्चर्य हुआ ।
त्रिकाल सन्ध्या सीखने के बाद जब उसे रुद्र सिखाया जाने लगा तो तुरंत ही उसे स्पष्ट हुआ कि यह तो वही है जिसे कापालिक भी करते थे !
कापालिकों के साथ रहते हुए उसने कभी यह सीखने का यत्न नहीं किया था ।
ॐ उशन् ह वै वाजश्रवसः सर्ववेदसं ददौ ।
तस्य ह नचिकेता नाम पुत्र आस ॥१॥
तम् ह कुमारम् सन्तं दक्षिणासु नीयमानासु श्रद्धाऽऽविवेश सोऽअमन्यत् ॥२॥
पीतोदका जग्धतृणा दुग्धदोहा निरीन्द्रियाः।
अनन्दा नाम ते लोकास्तान् स गच्छति ता ददत्।।३।।   
स होवाच पितरं तत कस्मै मां दास्यमिति।
द्वितीयं तृतीयं तं होवाच मृत्यवे त्वा ददामीति ॥४॥
(कठोपनिषद् १/१/१-४)
ऋषि उशन् (उशा अथवा उषा) वाजश्रवा के पुत्र थे । उनका एक पुत्र था जिसका नाम नचिकेता था । अभी वह १२-१३ वर्ष की आयु का बालक ही था कि उसने उन गौओं को दान के लिए ले जाते हुए देखा जो बूढ़ी हो चुकी थीं, न तो बछड़े दे सकती थीं न दूध, जो इतनी दुर्बल थीं कि उन्होंने चारा पानी इत्यादि का सेवन भी बहुत कम कर दिया था।  तब उसने मन में प्रश्न उठा कि जो ऐसी गायें दान करता है उसे आनंदशून्य जीवन की प्राप्ति होती है। (चूँकि इस यज्ञ में सर्वस्व दिया जाता है तब तो आप मुझे भी दान में दे देंगे, यह सोचते हुए) उसने पिता से प्रश्न किया :
"... तो आप मेरा दान किसे करेंगे?"
दूसरी बार, और तीसरी बार भी जब उसने पिता से पूछा तो वे क्रुद्ध हुए और बोले :
"तुझे मैं मृत्यु को दान में देता हूँ।"
ऋषि उशन् वही हैं जिनके बारे में गीता अध्याय १० में कहा है :
वृष्णीनां वासुदेवोऽस्मि पाण्डवानां धनञ्जयः।
मुनिनामप्यहं व्यासः कवीनामुशनाकविः।।३७।।
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उक्त श्लोक की व्याख्या अनेक प्रकार से की जा सकती है 'अहं / अहम्' नाम चूँकि उसी परमेश्वर का है जो जगत तथा समस्त भूतमात्र के रूप में सनातन रूप से व्यक्त है, इसलिए वे ही ऋषि उशन् के रूप में कवि हैं, और वे ही वासुदेव श्रीकृष्ण, धनञ्जय (अर्जुन) महर्षि वेदव्यास हैं।
इस प्रकार उशना कवि जो भृगु अर्थात् शुक्राचार्य हैं का ही उल्लेख यहाँ है।
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कठोलिकों की साम्प्रदायिक परम्परा इन्हीं उशना कवि से शुरू होती है इसलिए 'कथोपनिषद्' उनका मूल ग्रन्थ अर्थात् वेद है। इसलिए वेद के अंतर्गत 'यह्व' भी समझा जाना चाहिए।  जाबालि ऋषि यद्यपि वैदिक ऋषि हैं किन्तु वे शैव मत के ऋषि होने से कापालिक भी हैं।  इसी प्रकार ऋषि भृगु कठोलिक भी हैं।
उपरोक्त विवेचना इसलिए की जा रही है कि ग्रीस (गिरीश) के इतिहास को तारतम्य से समझा जा सके।
सारे कथासूत्र इस तथा हातिम ताई के माध्यम से यहाँ संकेत रूप में प्रस्तुत किए जा चुके हैं।
अलं विस्तरेण ।
(यह 'अलं' अरबी 'ल' या 'ला' की तरह नकारार्थक या 'बिना' के  प्रयुक्त होता है। यही 'ल' या 'ला' 'lest', 'less' तथा 'les' के रूप में तमाम यूरोपीय भाषाओं में प्राप्त होता है। अलं से उद्भूत 'अल्' जो all का व्यञ्जक भी है अरबी और दूसरी भाषाओं में बहुतायत से पाया जाता है।  संस्कृत में इसका तुल्य शब्द है 'पूर्ण' अर्थात् समष्टि)
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हातिम ताई का क़िस्सा भी यहाँ पूरा होता है। इसमें जिन पात्रों / चरित्रों का उल्लेख है उनके बारे में इसी ब्लॉग की अन्य पोस्ट्स में बहुत कुछ लिखा जा चुका है। इसलिए पाठक उन सूत्रों को अपनी रुचि और आवश्यकता के अनुसार क्रमबद्ध कर सकता है।   
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 हातिम ताई का क़िस्सा भी यहाँ पूरा होता है। 
 ।। इति शं ।।      
 
       

             


Friday, 28 June 2019

Object, Subject, Identification.

विषय, ’स्व’, ’चैतन्य-परब्रह्म’,
विषयीकरण और तादात्म्य
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श्री निसर्गदत्त महाराज कहते हैं :
"सबसे पहले तो तुम्हारा ध्यान (अटेन्शन attention) विषयों (objects) से हटाकर विषयी (subject) पर लाया जाना ज़रूरी है । इसके बाद तुम्हें विषयी पर दृढ़तापूर्वक आरूढ़ (abide) रहना होगा । इस प्रकार ’विषय-चेतना’ का लय ’स्व-चेतना’ (self-consciousness) में होता है । तब स्वचेतना में सतत स्थिर रहने पर ’स्व’ भी विशुद्ध चेतना में लीन हो जाता है । वहाँ पर यद्यपि तुम अनंत काल तक रुके रह सकते हो, किन्तु वहाँ तुम्हें रुकना नहीं है । क्योंकि तुम वह परम तत्व (Absolute) है, जिसमें, और जिससे यह चेतना (consciousness) प्रकट और विलीन, -व्यक्त और अव्यक्त होती रहती है । वास्तविक सत्ता Reality / ब्रह्म तो चेतना से भी परे है ।"
हमें पहले विषय और विषयी क्या है यह समझना होगा । मन, बुद्धि और इन्द्रियों के सक्रिय होने के बाद ही भीतर-बाहर रूपी द्वैत प्रकट होता है । प्रथमतः तो यह प्रतीत होता है कि यह स्थूल शरीर और उससे जुड़ा बाह्य संसार दो भिन्न वस्तुएँ हैं । फिर भिन्न-भिन्न इन्द्रियों के भिन्न-भिन्न प्रकार के संवेदनों से संसार में स्थित असंख्य वस्तुओं के रूप में इन्द्रियों द्वारा उन्हें ’विषयों’ की तरह ग्रहण किया जाता है । इस प्रकार की भिन्नता आभासी है और इन्द्रियों की सीमित क्षमता के ही कारण  वे विभिन्न विषय अनेक और असंख्य प्रतीत होते हैं । किन्तु चूँकि जिन मूल तत्वों से संसार बना है, उन्हीं से हमारा शरीर भी बना है इसलिए मूलतः भी संसार न तो हमसे पृथक् है, न भिन्न ।
इन बाह्य प्रतीत होनेवाले विषयों से ध्यान हटाकर स्वयं पर लाते ही उन विषयों से जुड़े प्रत्यय (विचार, स्मृति, भाव, भावनाएँ, भावुकताएँ) भी विलीन हो जाते हैं और पुनः तभी ’अनुभव’ होते हैं जब ध्यान उन पर लाया जाता है ।
ऐसे ही समस्त ’अनुभव’ मिलकर एक ’स्व’ का आभास पैदा करते हैं जो संसार के उन असंख्य ’विषयों’ के बीच एकमात्र ’विषयी’ होता है । तुम न तो 'अनुभव' और न 'अनुभवकर्ता (स्व)' हो। 
जब इस ’स्व’ के बारे में कुछ सोचा या कहा जाता है जब कभी भी स्वयं को किसी विषय की तरह इंगित किया जाना होता है, तो निर्णय / न्याय की भूल अर्थात् ’error of judgment के कारण स्वयं को भी संसार के ही उन असंख्य विषयों में से ही एक मान लिया जाता है । व्यावहारिक रूप से ऐसा करना स्वाभाविक तो है, किन्तु ऐसी भूल का एकमात्र कारण भी यही होता है ।
इस प्रकार ’विषयीकरण’(objectification) दो प्रकार से हो सकता है :
एक है किसी वस्तु को इन्द्रियों, मन, बुद्धि आदि का ’विषय’ (object) बनाना ।
दूसरा है स्वयं (subject) को ऐसा कोई ’विषय’ (object) मान लेना । ’विषयीकरण’ Identification को ही ’प्रत्यय’ (प्रतीति, पहचान) भी कहा जाता है । अंग्रेज़ी में इसे ’ऑब्जेक्टिफ़िकेशन’'objectification कहेंगे ।
अंग्रेज़ी में ’विषय’ को ’ऑब्जेक्ट’'object'  तथा ’विषयी’ को ’सब्जेक्ट’ 'subject'  कहेंगे । इस प्रकार ’सब्जेक्ट’ 'subject'  को 'object’ तथा ’ओब्जेक्ट’'object' को ’सब्जेक्ट’ 'subject' बना या समझ बैठना ही तादात्म्य / ’आइडेन्टिफ़िकेशन’ 'identification' है ।
चूँकि चेतना में ही जागृत दशा waking state में शरीर और संसार परस्पर भिन्न दो सत्ताओं entities की तरह प्रतीत होते हैं, और स्वयं जागृत दशा भी एक अस्थायी दशा की तरह आती और जाती रहती है इसलिए इस जागृति की दशा का एक ऐसा अधिष्ठान substratum मानना ही होगा जिसके परिप्रेक्ष्य में ऐसा होता है । इसी प्रकार स्वप्न तथा स्वप्न से रहित गहरी निद्रा की दशा को भी अस्थायी दशा माना जा सकता है ।
इन्हीं तीन दशाओं में ’स्व’ self  नामक आभासी सत्ता पुनः पुनः व्यक्त और लीन होती रहती है । किन्तु कभी कभी अन्यमनस्कता absentmindedness जैसी स्थिति में जागृति की दशा में भी यह देखा जाता है कि ’स्व’ की यह आभासी सत्ता नहीं होती (अर्थात् उसे किसी विषय-विशेष की तरह इंगित नहीं किया जा सकता), स्पष्ट है कि ऐसा बोध किसी चेतन-अवस्था में ही हो सकता है जो केवल ’भान’ awareness अर्थात् विशुद्ध विषयरहित अवस्था होती है ।
किन्तु अन्यमनस्कता absentmindedness / distraction / inattention में भी ध्यान अर्थात् अटेन्शन attention सतत, अखण्डित होता है ।
इस ध्यान को ही अवधान कहा जाता है ।
यह ध्यान (अवधान) यद्यपि पुनः पुनः तादात्म्य का आधार बन सकता है किन्तु वैसा होना केवल औपचारिक / व्यावहारिक तथ्य है ।
जब एक बार स्वरूप का उद्घाटन हो जाता है तो उसके बाद समस्त संशयों की निवृत्ति हो जाती है ।
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......और धर्म!

विचार, प्रचार, शिक्षा, संवाद, बहस, मनोरंजन 
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यह ब्लॉग मुख्य रूप से धर्म को समर्पित है ।
यह कहना अनावश्यक है कि यहाँ धर्म से मेरा तात्पर्य है; - मेरी स्वाभाविक गतिविधि ।
स्वभाव से मेरा तात्पर्य है मेरा वह स्वरूप, वह सत्यता, -जो मेरे सारे और भिन्न-भिन्न बदलते हुए रूपों / कार्यों / भावों के बीच  सतत अपरिवर्तनशील है ।
ऐसा मुझे लगता है
लगना और सोचना किसी अर्थ में एक जैसा समान और किसी दूसरे अर्थ में एक-दूसरे से बहुत अलग होता है ।
इसलिए हमारे विचार प्रकट रूप से मिलते हुए भी दिखलाई देते हों तो भी आवश्यक नहीं कि वे मूलतः भिन्न भिन्न न हों ।
इसलिए वैचारिक समानता एक विरोधाभास है ।
विचार किसी भावना / भाव का शाब्दिक आवरण होता है अर्थात् जो हमें ’लगता है’ उसे दिए जानेवाले शब्द ।
जबकि जो हमें ’लगता है’, वह शाब्दिक क़तई नहीं होता ।
इसलिए विचार उसका स्थान नहीं ले सकता जो हमें ’लगता है’...,
फिर भी हमें ’लगता है’ कि व्यावहारिक रूप से विचार जो हमें ’लगता है’, उसे व्यक्त करने का अवश्य ही सर्वाधिक सरल और उपयुक्त साधन है ।
तथ्यात्मक विषयों के अध्ययन के लिए विचार अवश्य ही सर्वथा आवश्यक और उपयोगी साधन है और विचार या विचारों का आदान-प्रदान इस दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण भी है इसमें सन्देह नहीं, किंतु बस वहीं तक विचार का महत्व और भूमिका है ।
विचार इस दृष्टि से शायद बहुत महत्वपूर्ण है कि जो हमें ’लगता है’, उसे शब्द दिए जा सकें ।
इस प्रकार से शब्द दिए जाने को ’सोचना’ कहा जाता है ।
यह भी स्पष्ट है कि सोचने के लिए शब्दों की आवश्यकता होती है और शब्दों के लिए किसी न किसी भाषा की ।
तथ्यात्मक विषयों के अध्ययन के लिए कोई भी भाषा लगभग समान रूप से उपयोगी हो सकती है इसलिए विज्ञान और गणित जैसे शुद्धतः भौतिक रूप से तथ्यात्मक विषयों का अध्ययन और अध्यापन भी किसी भी भाषा में किया जा सकता है यद्यपि यह उस भाषा में मौलिक शब्दों की उपलब्धता पर भी निर्भर होता है । और इसलिए किसी ’नए’ तथ्यात्मक विचार के आविष्कार की भाषा ही तय करती है कि कौन सी भाषा उस विषय के अध्ययन और अध्यापन के लिए सर्वाधिक उपयुक्त हो सकती है ।
भौतिक विज्ञान और गणित के अध्ययन और अध्यापन के लिए जिन ग्रीक वर्णों का बहुतायत से प्रयोग किया जाता है वह उन आविष्कारकों की ही देन है जिन्हें ग्रीक भाषा इस प्रकार के अध्ययन और अध्यापन के लिए बहुत सरल और उपयोगी प्रतीत हुई । यद्यपि उन्होंने अपनी खोज को व्यक्त करने के लिए अंग्रेज़ी, फ़्रेन्च, ग्रीक, जापानी, रूसी या जर्मन भाषाओं को चुना किन्तु ग्रीक मूल के वर्णाक्षर / letters  उन्हें सर्वाधिक उपयोगी प्रतीत हुए । इसके अपने कारण हैं । क्योंकि आधुनिक विज्ञान और गणित तर्कशास्त्र पर आधारित है और तर्कशास्त्र का सर्वाधिक विकास ग्रीक विद्वानों ने ही किया ।
इस प्रकार तथ्यात्मक विषयों के विचार और प्रचार के लिए ’मान्यता’ से बँधना किसी हद तक ज़रूरी और उपयोगी भी हो सकता है इससे असहमति नहीं, किन्तु ऐसा समस्त ज्ञान वैचारिक होने से क्षणिक और तात्कालिक होता है और केवल तभी सत्य होता है जब उस बारे में विचार किया जाता है । जिसका विचार नहीं किया जाता उसकी सत्यता भी कैसे सिद्ध / असिद्ध हो सकती है?
चूँकि तथ्यात्मक विषयों और उनके ज्ञान की सत्यता इसलिए केवल विचार तक ही सीमित होती है और विचार की क्षमता जो हमें ’लगता है’ उसे व्यक्त कर पाने में अत्यन्त अल्पप्राय होती है, इसलिए विभिन्न भावनाएँ भिन्न-भिन्न ’मान्यताओं’ या ’वैचारिक मान्यताओं’ में बदल जाती हैं इसलिए इस तरह से ’तथ्यात्मकता’ से उतनी ही दूर भी हो जाती हैं ।
किसी वस्तु के प्रति हमारी क्या दृष्टि है, कोई भावना हमें कैसी लगती है, यह व्यक्ति से व्यक्ति और वस्तु से वस्तु तक भिन्न-भिन्न होता है। विचार प्रारंभ होते ही मत और मतभेद भी पैदा होने लगते हैं । सामाजिक धरातल पर इसलिए सुचारु वैचारिक संवाद की आवश्यकता की पूर्ति हमेशा ही संभव हो यह आवश्यक नहीं ।
सुचारु संवाद का अर्थ है जो हमें ’लगता है’ उसे बातचीत के माध्यम से दूसरों तक यथासंभव यथावत पहुँचाया और दूसरों से ग्रहण किया जा सके ।
इस प्रकार सुचारु संवाद और शिक्षा परस्पर पर्याय हैं ।
किसी भी संवाद का सर्वाधिक निकृष्ट और नकारात्मक पहलू है विवाद / बहस, किन्तु राजनीतिक बहस तो उससे भी अधिक शायद सर्वाधिक भी भयावह एक पहलू है । ’बौद्धिकता’ के आवरण में लाग-लपेट और छल-प्रपंचयुक्त, मुहावरेदार भाषा से पूर्वाग्रहपूर्ण भावनात्मक आधार पर एक-दूसरे का शोषण करने की कला है - ’राजनीति’ । इसलिए ’स्वस्थ राजनीतिक बहस’ / debate एक असंभव शब्द-शिल्प है । और वह ’स्वस्थ संवाद’ की कसौटी तक पर भी खरा नहीं उतरता ।
बहस का एक और पहलू, शायद मनोरंजन के लिए बहस हो सकता है, और वह बस उसी तरह है जैसा दूसरे असंख्य रूपों में आज का मीडिया वैसे भी कर ही रहा है ।   
फिर क्या हो?
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Wednesday, 26 June 2019

The illusion of Logic

The logic of illusion.
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The movement of Intellect begins with Logic.
What we know; - in terms of thesis, antithesis and synthesis.
All logic needs intellectual presupposition.
And all presuppositions are verbal formulations which we accept and believe as 'concepts'.
Logic may be invalid or perfectly valid.
The logic is a verbal structure which conveys many different and varied meanings.
A meaning is basically again a word-structure or a set of words interwoven in a way that makes sense because of the conventions and rules of the Grammar.
Thus we go on from meaning to meaning and the sense is lost.
Though at the very practical level where the Logic adheres strictly to scientific and mathematical approach, it is almost invincible and could not be denied as illusion.
At the same time however, when we apply the logic over a group of individuals and their behavior-patterns, when we 'name' a group, section or 'class' we are inevitably trapped into the illusion of Logic or the Logic of illusion; -that is the Logic; -elusive and illusory.
This is what all Political Thought is about.
For example when we start a discussion about some situation or state of affairs, though we may be honest in our approach, usually we begin with saying :
"Politics is the multifaceted variety of activities of a Government ...."
This drives away our attention from the fact how the word 'Politics' was formed in the first place.
If you ask :
"What is the origin of the word 'Politics'?"
They would tell you something like this about the origin of this word :
late Middle English: from Old French politique ‘political’, via Latin from Greek politikos, from politēs ‘citizen’, from polis ‘city’.
This is really not a right way of answering the question.
Because it at once prevents our attention from looking into the alternative possibilities.
Though we could be prompted to think in yet another way by the above explanation.
And presently my own approach would be like this :
The Sanskrit word for 'many' is :
'बहु' / 'बहुल' / 'बहुली' / 'बहुलीय' [bahu, bahul, bahulI, bahulIya ],
and I do think this is the prototype of 'Poly'.
The same was made into the prefix 'Poli' which denotes multiplicity.
I'm not an advocate for Sanskrit (as the only origin of all other languages) and basically suspect if the origin of different languages lies in one or two specific languages as is the accepted norm prevails in the present day Linguistics / Philology. 
The very premise that various languages are derived from a single or more than one primitive languages is untenable.
The common sense suggests that all languages reached the present state of their structure from their beginning were / are the voice-patterns adopted by the humans in different places. The core basics is that initially, a sound (that man can speak) was associated with an object (may be a thing or again a feeling, experience or emotion), and then as a word accepted for conveying a meaning which denoted the thing (or a feeling, experience or emotion).
So in all possibility there could be no one common or more than one primitive language(s) that could be ascertained as their origin.
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Tuesday, 25 June 2019

ऐन्द्र और चान्द्र

कितने लोक?
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हातिम ताई को उसी अचेत सी स्थिति में गरुड़ की वाणी पुनः पुनः सुनाई दे रही थी ।
"मैं समय को भी वैसे ही अपने पंजों में दबाकर यहाँ से वहाँ ले जा सकता हूँ जैसे तुम्हें उस दिन तुम्हारे घर से दबोचकर उठा लाया था और खजूर के उस पेड़ पर लाकर छोड़ दिया था । ..."
बीच-बीच में वह कहीं उसी तन्द्रा में अनेक तलों से गुज़रता रहा जिनका कोई तय धरातल नहीं था ।
"क्या गरुड़ यही वायु है जो तमाम चीजों को बिखेर देता है?"   
उसका चिन्तन भी बदस्तूर जारी था ।
तब उसकी चेतना में देवलोक की संरचना के बारे में ख़याल आने लगे ।
उसे लगने लगा कि अस्तित्व का संपूर्ण ज्ञान उसमें मानों बीजरूप में अव्यक्त अप्रकट है जो समय समय पर अभिव्यक्त और पुनः अव्यक्त होता रहता है, और उसी समय को गरुड़ ने अपने पंजों में दबोच रखा है ।
क्या ऐसे अनेक समय होते हैं ?
परस्पर नितान्त अछूते किंतु फिर भी सर्वथा अपृथक् भी?
क्या समय को परिभाषित किया जा सकता है?
क्या समय एक ऐसा लोक नहीं है जिसे स्वतंत्र रूप में तो नहीं पाया जाता फिर भी सभी घटनाएँ उसी के अन्तर्गत हुआ करती हैं?
और जब मैं (?) ’इस’ लोक में होता हूँ तो शेष सब घटनाएँ कहाँ, किस लोक में होती होंगी?
हातिम ताई स्वयं किसी स्वप्न जैसे एक तन्द्रालोक में था जहाँ उसे अपने उस शरीर का भान नहीं था जिससे संसार में वह वैसे ही जागता-सोता, उठता-बैठता, खाता-पीता और तमाम वह सब किया करता है जिसे उसके जैसे असंख्य शरीर / लोग (लोक) पृथ्वीलोक में किया करते हैं ।
अवश्य ही गरुड़ वायुलोक का देवता है और वही पृथ्वीलोक में हमें गरुड़ की तरह दिखाई देता है ।
तब उसे पहली बार यह समझ में आया कि वह (गरुड़) कैसे अतीत और भविष्य को भी अपने पंजों में जकड़कर उड़ सकता है !
साथ ही हातिम ताई को यह भी समझ में आया कि कैसे हर आत्मा (मनुष्य) का अतीत और भविष्य यद्यपि पत्थर की लकीर की तरह अचल-अटल होता है फिर भी वह उनसे बँधा नहीं होता ।
तब हातिम ताई चन्द्रलोक में प्रविष्ट हुआ ।
उसे अनायास ही चान्द्र व्याकरण स्पष्ट होने लगा ।
उसे अत्यन्त कौतूहल, जिज्ञासा और आश्चर्य हुआ कि यह सारा ज्ञान अब तक कहाँ विलुप्त था और अब अचानक ही क्यों उसे सब कुछ ऐसा साफ़ दिखाई दे रहा है जैसे जमीन को खोदते समय धरती में दबा कोई स्वर्ण-मुद्राओं से भरा घड़ा बाहर निकल आए जिसमें सौ-पचास सोने की मुहरें हों, जिन्हें वह दिन की रौशनी में देख रहा हो ।
तब उसे समझ में आया कि चान्द्र व्याकरण विभिन्न वर्णों के समास और समुच्चय और वर्गीकरण का एक तरीका है और यह वैसा ही एक लोक है जैसा इन्द्र का लोक अर्थात् ऐन्द्र व्याकरण होता है ।
अब उसमें यह कौतूहल जागृत हुआ कि ऐन्द्र-व्याकरण और चान्द्र व्याकरण में क्या भिन्नता है?
और उसे ऐन्द्र-व्याकरण की बनावट भी तुरंत स्पष्ट हुई ।
यह सब सिद्धान्ततः भी सत्य था और विस्तृत प्रकट रूप से भी उतना ही सत्य था ।
जैसे उसके हाथ केवल कुञ्जी ही नहीं, कुञ्जियों की पुञ्जीभूत पूञ्जी ही लग गई हो ।
तब उसका ध्यान पुनः चान्द्र-व्याकरण की ओर गया, क्योंकि चन्द्रलोक में होने पर उसके लिए यही सर्वाधिक संभव और उचित भी था ।
तब उसे चन्द्र का रहस्य स्पष्ट हुआ ।
जैसे इन्द्र ’इ न् द् र’ इन चार वर्णों का संयोग है वैसे ही चन्द्र ’च् न् द् र’ इन चार वर्णों का ।
ये चारों वर्ण भी जब उनका उच्चारण किया जाता है, प्राणयुक्त ’देवता’ होते हैं जो समस्त लोकों रूपी भवनों / भुवनों की ईंटें (इष्टियाँ) हैं जिनका ज्ञान काल और जीवन-मृत्यु के देवता यमराज ने कठोपनिषद् में नचिकेता को दिया था ।
किन्तु इसी पृथ्वीलोक अर्थात् मृत्युलोक में तो वर्ण ’च्’ का स्वतन्त्र अर्थ यद्यपि अत्यन्त गूढ और विशद है (जैसा कि दूसरे भी प्रत्येक वर्ण और उसके देवता का होता है) तात्कालिक अर्थ तो यही है कि वह ऐसा विस्तार / आधार है, जिससे ’चम्’ (चमत्), ’चिन्’ (चित् / चिनोति), चुम्ब् (ईषत्-स्पर्श) जैसी अनेक धातुएँ बनती हैं ।
उसे ध्यान आया कि यहाँ उसे इन्हीं तीन धातुओं का विस्तार से अवलोकन करना है ।
सृष्टि और लोकसृष्टि एक चमत्कार ही है जिससे अनायास और अकारण ही एकमेव चित्-तत्व पर द्वैत आरोपित हो जाता है ।
यह वैसा ही है जैसा कि ऐन्द्र व्याकरण (स्थूल भौतिक विज्ञान) में किसी चुम्बत्व-प्रवण धातु (magnetic-metal)  के एक पिण्ड (mass / body)  में प्रत्येक अणुमात्र में ही उत्तरी (N) और दक्षिणी (S) ध्रुव होते हैं, किन्तु उनकी सम्पूर्ण राशि बिखरी होती है और जैसे ही वह पिण्ड किसी चुम्बकीय क्षेत्र (magnetic field) में प्रविष्ट होता है, ये सभी अणु अनायास स्वतःसमायोजित होकर उस पिण्ड को एक पूर्ण चुम्बक (magnet) बना देते हैं । ठीक इसी प्रकार प्रकृति और पुरुष दो ध्रुव हैं जो वैसे तो अस्त-व्यस्त दशा में सर्वत्र होते हैं किन्तु जब कोई जड पिण्ड किसी चेतन-क्षेत्र में प्रविष्ट होता है तो तुरंत ही परस्पर समायोजित होकर उस पिण्ड में एक पृथक् जीव-चेतना की तरह व्यक्त हो उठते हैं ।
किन्तु हातिम ताई इससे आगे कुछ सोचता इससे पहले ही उसके समय की दशा बदल गई और वह पुनः तन्द्राविष्ट हो गया ।
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व्याकरण, ऐन्द्र और चान्द्र,   

Monday, 24 June 2019

प्रेम, उन्माद और काम

दैत्यगुरु भृगु शुक्राचार्य
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हातिम ताई उसके पंजों में जकड़ा हुआ था लेकिन उसे कोई खरोंच तक नहीं आई थी । जैसे बिल्ली अपने बच्चों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक दाँतों में दबाकर ले जाती है, कुछ इसी तरह गरुड़ उसे अपने पंजों में दबाए हुए था । बहुत वेग से उड़ता हुआ गरुड़ उसे लेकर रक्त सागर (लाल सागर) को पार कर वहाँ, उस देश में ले गया जहाँ गरुड़ की राजधानी थी । गरुत्मान् की वह राजधानी गिरीश कही जाती थी क्योंकि वहाँ अनेक पहाड़ियों झरनों, कल-कल बहती नदियों के बीच गिरीश (ग्रीक) साम्राज्य अपनी कला और वैभव की ऊँचाइयों पर वैभव और समृद्धि से पूर्ण था ।
दैत्यराज राजा Dietrich (दैत्यऋक्ष) की राजधानी यद्यपि वहाँ से दूर थी, किंतु उसकी सेना और ग्रीक सेना के बीच अकसर युद्ध होते रहते थे ।
दैत्यगुरु भृगु अर्थात् शुक्राचार्य प्रायः वहाँ आश्रम बनाकर निवास करते थे । उनकी परंपरा के मूल पुरुष तो इन्दोनेशिया के बाली द्वीप से आए थे जहाँ राजा बलि ने जब उस यज्ञ का संकल्प लिया था जिसमें सर्वस्व दान कर दिया जाता है, तो उन्होंने ही उसे तब रोका था जब स्वयं भगवान् विष्णु ने वामन का वेष धरकर साढ़े तीन डग भूमि उससे दान में माँगी थी । महर्षि भृगु के कुल की ही सन्तान के रूप में शुक्राचार्य (यह दैत्यों के गुरु की उपाधि है, जिसकी अपनी  कुल-परंपरा है,) ने तब बलि को पहले तो रोका किन्तु जब वह नहीं रुका तो उस पात्र के भीतर वहाँ जाकर उन्होंने उसके उस जलमार्ग को अवरुद्ध कर दिया जिससे संकल्प करते समय जल छोड़ा जाता है । तब ब्राह्मण-वेशधारी ने बलि से कहा था :
राजन् ! जल के मार्ग में कोई अवरोध है कृपया इस तिनके से उसे हटा दीजिये नहीं तो आपका संकल्प अपूर्ण रह जाएगा ।
तब बलि ने उनके हाथ से तिनका लेकर उससे उस अवरोध को हटाने का यत्न किया । वही तिनका शुक्राचार्य की एक आँख में जा घुसा और वे तड़पकर वहाँ से हट गए । वामन को तीन डग धरती मिली तो पहले डग में समूची धरती को और दूसरे में स्वर्ग को तथा तीसरे में अन्तरिक्ष को भी नाप लिया । फिर पूछा :
"आधा डग कहाँ रखूँ ?"
तब राजा बलि ने अपना मस्तक झुकाकर कहा :
"प्रभु मेरे इस मस्तक पर रख दीजिए ! मैं जानता हूँ कि ब्राह्मण के वेष में आप स्वयं भगवान् नारायण मेरे समक्ष खड़े हैं इससे बढ़कर मेरे लिए और क्या सौभाग्य होगा ?"
तब वामन-वेषधारी भगवान् श्रीहरि ने झुककर अपने घुटने से राजा बलि के मस्तक को दबाया और वह पाताल चला गया ।
यह पाताल बलि की धरती के दूसरे सिरे पर स्थित था जहाँ दैत्यराज का कुल फल-फूल और पनप रहा था ।
यही शुक्राचार्य जिन्होंने श्री हरि को इस छल के लिए क्रोधवश उनके सीने पर पादाघात किया था तो श्री हरि ने मुस्कुराकर ऋषि भृगु से पूछा था :
"भगवान् ! मेरा वक्ष तो वज्र सा कठोर है, आपके चरण-कमल पर कोई चोट तो नहीं लगी?"
तब ऋषि ने उनके प्रश्न को सुना-अनसुना कर दिया किन्तु तब भी ऋषि की परंपरा में दैत्यों के लिए सहानुभूति और श्री हरि के प्रति कुछ द्वेष अवश्य बना रहा ।
जब गरुड़ हातिम ताई को लेकर वहाँ पहुँचा तो एक सुन्दर झील के किनारे शुक्राचार्य के आश्रम के निकट उसे छोड़ दिया ।
महर्षि भृगु के कुल के किसी अगली पीढ़ी के वंशज तब दैत्य-गुरु थे ।
जब हातिम ताई वहाँ पहुँचा तो पहले तो उसे नींद आ गई । वन में फूलों फलों से लदे वृक्ष और उनसे संलग्न मधुछत्रों से च्यवित हो रहा मधुरस पीकर  उसे बहुत प्रसन्नता हुई । तब वह पथहीन वन में कुछ दूर स्थित उस आश्रम की ओर बढ़ चला जहाँ ऋषि भृगु अपने गुरुकुल में शिष्यों को कृष्ण-यजुर्वेद की शिक्षा देते थे ।
हातिम ताई संस्कृत और वेद से तो सर्वथा अनभिज्ञ था किन्तु उसे यह अवश्य लगा कि महात्मा गरुड़ उसके हितैषी हैं और ईश्वर के दूत हैं ।
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पुनः गरुड़ के पंजों में दबा वह प्रायः अचेत हो चुका था । इस बीच तन्द्रा जैसी स्थिति में वह पुनः स्वप्नावस्था जैसी मनःस्थिति में उन घटनाओं को जी रहा था जो उसके उस शहर में रहते हुए उसके साथ हुई थीं । वहाँ उसे आए हुए अभी एक-दो साल ही हुए थे कि उसके धर्मपिता ने क़बीले की एक लड़की से उसका विवाह तय किया । वह तो धर्मपिता की आज्ञा में बँधा था इसलिए उसई इच्छा पूछने का प्रश्न ही कहाँ था ?
विवाह हो जाने पर उसकी पत्नी उसके साथ रहने लगी ।
उसे पत्नी बहुत अच्छी लगती थी इसलिए उससे उसका प्रेम निरंतर बढ़ने लगा ।
इसी प्रेम के आवेश में उसमें कामोन्माद उठने लगा और वह सोचने लगा कि यह उन्माद कैसा है? क्या यह कोई रोग या मनोविकार है? उसने पशुओं को तो काम-क्रीड़ा करते देखा था और पक्षियों आदि को भी किंतु उसे यह नहीं पता था कि मनुष्यों में भी ऐसा होता है ।
तब उसने अपने धर्मपिता से इस विषय मे प्रश्न किया ।
धर्मपिता ने कहा यह उन्माद (नशा) प्रकृति से ही प्राप्त होता है किंतु केवल मनुष्य ही इस विकार से मुक्त रह सकता है । पशुओं के लिए यह असंभव है कि वे इसके पाश से मुक्त हो सकें । लेकिन पशु और दूसरे जंतु भी इस उन्माद के वैसे अभ्यस्त नहीं होते जैसा कि प्रायः अविवेकी और प्रमादयुक्त मनुष्य अपनी असावधानी से हो जाया करता है।  
"क्या मनुष्य के लिए यह संभव है?"
"मनुष्यों में जो पशु हैं उनके लिए तो संभव नहीं है, किंतु जो वास्तव में मनुष्य हैं या धर्म के अनुसार जिनका आचरण है उनके लिए यह अवश्य संभव है ।"
"मनुष्य कौन हैं और मनुष्यों में वास्तविक पशु कौन और वास्तविक मनुष्य कौन हैं?"
"देखो प्रकृति में - जो कि माता और बीजीय है, यह उन्माद / विकार नहीं है किंतु मनुष्य में यह उन्माद विकार हो सकता है ।"
धर्मपिता की बात सुनकर हातिम ताई को कुछ स्पष्ट नहीं हुआ ।
"ऐसा कैसे हो सकता है?"
"देखो, जब अपनी पत्नी के प्रति यह उन्माद उठता है तो पत्नी से आत्मीयता होती है, -उसके साथ प्रेम जुड़ा होता है और तब जो संतान पत्नी से पैदा होती है वह भी वास्तविक मनुष्य या ईश्वर-पुत्र होती है । जबकि जब पशुओं की तरह केवल इस उन्माद, इसकी उत्तेजना और उपभोग के और इसकी निवृत्ति के सुख के लिए पुरुष द्वारा किसी भी स्त्री से, या स्त्री द्वारा किसी भी पुरुष से जो काम-व्यवहार किया जाता है, वह पशुता है ।"
तब हातिम ताई के मन में प्रश्न उठा कि क्या इस उन्माद का सन्तान की उत्पत्ति से कोई संबंध है?
उसने अपने धर्मपिता से यही प्रश्न पूछा ।
"हाँ कुछ लोग ऐसा ही समझते हैं ।"
"क्या इसीलिए विवाह नामक रस्म शुरु हुई?"
"नहीं ! इस उन्माद का सन्तान की उत्पत्ति से कोई संबंध नहीं है और स्त्री चूँकि माता है, इसलिए वही मनुष्य का बीज है जिसमें से पुनः स्त्री या पुरुष जैसी सन्तानें जन्म लेती हैं । जैसे किसी वृक्ष के बीज से वही वृक्ष पुनः पैदा (प्रदाय) होता है, वैसे ही नारी से पुनः मनुष्य पैदा होता है, और संतान के जन्म का इस उन्माद से वस्तुतः तब कोई संबंध नहीं होता जब नारी के प्रति पुरुष में प्रेम और आदर होता है ।"
"तो क्या एक ही पुरुष एक से अधिक स्त्रियों से, या एक ही स्त्री एक से ज़्यादा पुरुषों से विवाह कर सकते हैं?"
"वैसा प्रायः न तो संभव है, न आवश्यक क्योंकि यदि प्रेम है तो यह समाज की व्यवस्था पर और समाज में स्त्रियों और पुरुषों की संख्या पर भी  निर्भर होता है । इसलिए इस बारे में कुछ तय नहीं किया जा सकता । किंतु परिवार और वंश चलाने के लिए यही सबसे अच्छा तरीका है कि एक पुरुष एक ही स्त्री से, और एक स्त्री एक ही पुरुष से निष्ठापूर्वक प्रेम और आदरसहित प्रसन्नतापूर्वक काम-व्यवहार करे, न कि इसका उपयोग नशे के तरह करे ।"
तब उसे याद आया उसके पिता उसकी माता को ’बी’ या ’बीजी’ क्यों कहते थे ! उसके समाज में ही स्त्री-मात्र को प्रायः ’बी’ कहकर आदर और सम्मान दिया जाता था ।
(इसी ’बी’ से अंग्रेज़ी का विमिन / women और वुमन / वुमन तथा वाइव्ज़ wives / वाइफ़ / wife बने हैं । इसी प्रकार से womb शब्द भी बना है जिसका प्रयोग 'गर्भ' के अर्थ में किया जाता है।  हिंदी और दूसरी भाषाओं में 'बाई' भी इसी से प्रचलित हुआ शब्द है। और इसी प्रकार से ’मादा’ भी ’माता’ का ही अपभ्रंश है ।)
धर्मपिता की शिक्षा से उसका भ्रम दूर हो गया और उसे स्पष्ट हुआ कि पुरुष के लिए स्त्री और स्त्री के लिए पुरुष, उपभोग का साधन नहीं बल्कि परस्पर आदर, प्रीति और सम्मान के लिए होते हैं ।
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हर हर महादेव कपालीश्वर

शहर (शं हर)
हातिम ताई जब उनके साथ था, तो जिस ऊँटवाले के ऊँट पर वह सीढ़ी से उतरा था उसे उसने अपना धर्मपिता मान लिया ।
उस धर्मपिता ने उससे पूछा :
"अगर तुम्हें खजूर के झाड़ से उतरने का तरीका नहीं आता था तो तुम खजूर के उस झाड़ (पेड़) पर चढ़े ही क्यों थे?"
 तब हातिम ताई ने कहा :
"मैं संपूर्ण भूमि के नृप (सोलोमन / सुलेमान) सौरमान राजा इल के साम्राज्य के एक छोटे से राज्य के सुमेरु पर्वत की तलहटी से सहस्र कोस दूर रहता था । मेरे माता-पिता सुमेरियन हैं ।
जब मैं बहुत छोटा था और एक दिन अपने घर से बाहर अकेला ही खेल रहा था तभी आसमान से एक बड़ा पक्षी आया और उसने मुझे अपने पंजों से पकड़ लिया । वह मुझे लेकर आकाश में उड़ गया । बहुत देर तक उड़ते रहने के बाद उसने मुझे इस खजूर पर छोड़ दिया । फिर मैं इस खजूर पर अटका हुआ अपने माता-पिता को याद करता और रोता रहा । लेकिन ताज्जुब की बात कि तब तक मैं इतना बड़ा हो गया कि जैसे बीस-पच्चीस साल गुज़र गए हों ।"
"तुम्हारी कहानी पर मुझे यक़ीन नहीं होता, लेकिन राजा इल का नाम तो सभी जानते हैं इसलिए मैं तुम्हारी गबाही (गवाक्षीय) को मिथ्या नहीं मानता ।"
(टिप्पणी : उस जमाने (युग) में गाय को न सिर्फ़ माता, बल्कि देवी माना जाता था जिसकी मौन भाषा को समझनेवाले कुछ लोगों को गवाक्षी कहा जाता था अर्थात् वन में विचरती गाय (गौ) ने अपनी आँखों (अक्षि) से जो देखा और जिसे अपनी आँखों से मौन भाषा में वह कह सकती थी वह भाषा ही गवाक्षि / गवाक्षी के नाम से जानी जाती थी । उसे ही वे लोग प्रचलित भाषा में एक-दूसरे से सत्य के प्रमाण के तौर पर मान्य करते थे ।)
तब उसने हातिम ताई से उसके माता पिता का नाम पूछा ।
हातिम ताई बोला :
"मेरे पिता का नाम ’आत्मन्’ और माता का नाम ’ईरा’ है । अब मुझे नहीं पता, कि मैं उनसे पुनः कब और कैसे मिल सकूँगा ।"
तब उस क़ाफ़िले के उस आदमी ने कहा :
"हमें इतना ही हुक़्म (रुक्म / रक़म) मिला था कि इस रेगिस्तान में एक आदमी खजूर के झाड़ पर अटका हुआ है, उसे सही-सलामत धरती पर उतारो और लौट जाओ । अब हम तुम्हारा क्या करें ।"
"अभी तो मैंने आपको धर्मपिता मान लिया है इसलिए आप जैसा कहेंगे मैं वही करूँगा ।"
हातिम ताई बोला ।
तब उस आदमी को हातिम ताई पर दया आ गई और उसने उसे अपने साथ रख लिया ।
तब हातिम उस क़ाफ़िले (क़बीले) के साथ रहने लगा ।
वे लोग कापालिक थे जिसका मतलब था कि वे भगवान् शिव के कपाल की लिङ्ग-स्वरूप में पूजा करते थे और उसे ही एकमात्र परमेश्वर अर्थात् ’इल’ का प्रतीक समझते थे । उन्हें बचपन से ही यह बतलाया गया था कि राजा इल जो इस पूरी पृथ्वी का एकमात्र ईश्वर है हम सब मनुष्यों का राजा है उसके अलावा दूसरा कोई ईश्वर नहीं है।  इसीलिए हम उसकी प्रतिमा के रूप में इस शिवलिङ्ग -राजा इल के मस्तक / कपाल की पूजा करते हैं और अपने को कापालिक कहते हैं।
(सन्दर्भ : इस विषय में इल-आख्यान के अन्तर्गत वाल्मीकि-रामायण में वर्णित और यहाँ उद्धृत प्रकरण इसी  ब्लॉग में अन्यत्र देखे जा सकते हैं। )
तब पहली बार उस क़बीले के लोगों (कापालिकों) का परिचय हातिम (आत्मीय) से हुआ जो आत्मन् (आत्मा जो सर्वत्र और सब कुछ है, जिससे यह संसार प्रकट, व्यक्त और अव्यक्त होता रहता है ।) और ईरा (अर्थात् स्थूल प्रकृति, संक्षेप में यह संपूर्ण पृथ्वी) का पुत्र था ।
वे लोग तब हातिम (आत्मीयः) को 'आदमी', उसके माता पिता को 'आदम और ईव' कहने लगे।
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ऊँट पर बैठकर यात्रा करते हुए कई दिन गुज़र जाने के बाद हातिम ताई जब रास्ते के किसी पड़ाव पर रात को सो जाने के बाद सुबह सोकर उठा तो उसे यह देखकर अचरज हुआ कि वहाँ से बहुत दूर एक शहर दिखाई दे रहा था जहाँ वे थोड़ी देर में पहुँच सकते थे ।
"इसे शहर कहते हैं ।
उसके धर्मपिता ने उसे बताया ।
जब क़ाफ़िला क़रीब घंटे भर चलकर वहाँ पहुँचा तो वहाँ एक बहुत बड़ा नगर उसकी आँखों के सामने था ।
लगभग वैसा ही जैसा कि वह नगर था जहाँ से उसे कोई पक्षी उठा लाया था ।
"क्या यही वो जगह है जहाँ उसके माता-पिता रहते हैं?"
-उसने अपने धर्मपिता से पूछा ।   
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शमन धर्म को माननेवाले उस कापालिकों के शहर में रहते हुए हातिम ताई ने क़बीले की एक कन्या से विवाह किया और उनके अनेक पुत्र हुए । शमन लोग प्रायः भगवान शिव की पूजा करते थे और हर हर महादेव कहा करते थे। उसे नहीं पता था कि उनकी ऐसी बस्ती को शहर कहा जाता था।
वहीं उसे स्पष्ट हुआ कि यद्यपि वह अपने माता-पिता से बहुत दूर था लेकिन उनका आत्मीयः होने से आत्मीव भी था ।
गरुड़-स्तम्भ
प्रायः बीस वर्ष तक वहाँ रहते हुए वह उनके उस विशाल मन्दिर में प्रायः आता जाता रहता था जहाँ ज्योतिष-दर्शन सीखा और सिखाया जाता था । यद्यपि उस मन्दिर में तीन सौ साठ मूर्तियाँ थी जिनमें से प्रत्येक ही समस्त दिशाओं का एक अंश अर्थात् दिगन्त थी, किन्तु उनमें से प्रत्येक की पूजा एक विशिष्ट चान्द्र-तिथि को तथा उसी विशिष्ट सौर-तिथि को की जाती थी । हर तिथि का अपना वैदिक नाम था, जो काल के उस अयनान्त का द्योतक भी था । यह सब बहुत रोचक था । उसी मन्दिर में एक विशाल और ऊँचा स्तंभ था, जिस पर वही पक्षी प्रायः आकर बैठ जाया करता था जिसने उसे खजूर के उस पेड़ पर ला छोड़ा था । यह देखकर उसे हैरत होती थी कि उसी स्तंभ के पास ही ठीक वैसी ही आकृति का एक और विशाल स्तंभ भी खड़ा था जिस पर उसी पक्षी की आकृति का एक पक्षी इस प्रकार से स्थिर और निश्चल था मानों बस अभी कहीं से उड़कर आया हो या बस अब उड़ने ही वाला हो ।
ऐसे ही दो स्तंभ और भी बने थे जहाँ हर शरद और वसन्त की ऋतु के कुछ समय बाद शारदीय पूर्णिमा के बाद  और होली पूर्णिमा से पहले कोई उत्सव मनाया जाता था और अमावस की रात सैकड़ों दीप जलाए जाते थे ।
उसे यह भी समझ में आया कि यह पक्षी वही था जिसे ये लोग तार्क्ष्य अर्थात् गरुड़ या गरुत्मान् कहा करते थे । उन दो स्तंभों के ठीक सामने एक मन्दिर और था जहाँ भगवान् विष्णु की एक विशाल प्रतिमा थी । चूँकि वह सुमेरियन था इसलिए उसे यह देखकर तनिक भी आश्चर्य नहीं हुआ कि भगवान् विष्णु की यह प्रतिमा उसी स्वर्ण की बनी थी जो सुमेरु पर्वत पर पाया जाता था । सुमेरु पर्वत अत्यन्त दुर्गम एक द्वीप पर स्थित था जिसके चारों ओर के विशाल सागर में भयंकर हिंस्र जलचर जन्तु रहते थे इसलिए उसे यह कौतूहल अवश्य था कि इतने दुर्गम स्थान से यह स्वर्ण कैसे लाया गया होगा, -जिससे यह प्रतिमा बनाई गई होगी ! किंतु वह इस पर और अधिक कुछ नहीं सोच पाता था ।
उसके धर्मपिता, जितना भी उन्हें मालूम था उसे प्रायः इतना कुछ बतला चुके थे कि अब आगे का ज्ञान उसे स्वयं ही प्राप्त करना होगा यह भी उसे लगने लगा था ।
उसे उस मन्दिर में स्थित गरुड़ की उस प्रतिमा से और उसके पास के स्तंभ पर प्रतिदिन आकर बैठनेवाले उस गरुड़ से डर भी बहुत लगता था (जिसका प्रत्यक्ष कारण तो यही था कि उसने या उसकी जाति के ही किसी पक्षी ने उसका अपहरण कर लिया था और उसे खजूर पर सही-सलामत (!) छोड़ गया था) ।
उस घटना से पहले भी उसे अपने हृदयाकाश में कुछ आवाजें अकसर सुनाई देतीं थीं किन्तु उसे उस समय यह अनुमान नहीं था कि वे आवाजें सिर्फ़ उसे ही सुनाई देती हैं । उसे यही लगता था कि वे आवाजें उसके आसपास के दूसरे लोगों को भी सुनाई देती होंगी । धीरे-धीरे उसे विश्वास हो गया कि जिस आकाश में उसे ये आवाजें सुनाई देती हैं वह आकाश दूसरों को न तो दिखाई देता है और न जिसकी ध्वनियाँ ही उन्हें सुनाई देती हैं ।
और तब उसे स्पष्ट हुआ कि ऐसे अनेक आकाश इसी एक आकाश / स्थान में हैं जो परस्पर एक दूसरे से नितान्त पृथक् हैं । उसने इसकी तुलना उन आकाशों से की जिन्हें वह अपनी जागृति, स्वप्न या गहरी स्वप्न रहित निद्रा में अनुभव किया करता था, जहाँ दूसरे लोग या संसार अदृश्य होता था ।
चूँकि उसी आकाश में उसने खजूर के उस पेड़ पर वह आवाज भी सुनी थी जिसने उसे खाने के लिए फल दिए थे इसलिए वह उसे ईश्वरीय अवश्य समझता था। इसकी तुलना में जागृति, स्वप्न या गहरी निद्रा में अनुभव किए जानेवाले आकाश उसके लिए 'दुनियावी' / 'मायावी' थे।
और गहरी निद्रा में यद्यपि वहाँ का आकाश अत्यन्त घना अन्धेरा मात्र होता था किन्तु उसमें भी अपने अस्तित्व का भान कभी खोता नहीं था । बाद में इसकी धुँधली स्मृति अपने स्वप्नों की स्मृति की ही तरह उसे जागते हुए भी कभी-कभी कौंध जाती थी ।
पहले उसे यह समझने में कठिनाई होती थी कि जब गरुड़ ने उसे खजूर के पेड़ पर ला छोड़ा था तब केवल तीन चार वर्ष की आयु का था, लेकिन उसके घर से गरुड़ द्वारा उसे उठाये जाने के बाद और खजूर के पेड़ पर उसे छोड़ने के बीच का समय क्या इतना लंबा था कि वह अचानक जवान हो गया?
फिर कभी इसी गरुड़-स्तम्भ को देखते-देखते उसे वही आवाज सुनाई दी जिसे दूसरे नहीं सुन सकते थे।
गरुड़-स्तम्भ पर स्थित गरुड़ की प्रतिमा से ही वह आवाज आ रही थी।
"जैसे मैं पृथ्वी के एक स्थान से दूसरे स्थान तक पल भर में जा सकता हूँ वैसे ही समय के एक हिस्से से दूसरे तक भी जा सकता हूँ और समय को वैसे ही अपने पंजों में दबोच सकता हूँ जैसे तुम्हें उस दिन दबोचा था "
हातिम ताई सुनकर स्तब्ध रह गया किन्तु गरुड़ से उसका भय उसी दिन दूर हो गया था।   
और इसके कुछ ही दिनों बाद एक दिन उस मन्दिर के प्राङ्गण में जब वह पहुँचा, तो उसे कल्पना तक न थी कि आज यहाँ उसका यह आखिरी दिन होगा ।
अभी वह वहाँ से गुज़र ही रहा था कि वह विशाल पक्षी उछलकर स्तंभ से उड़ा और उसने झपटकर उसे निमिषार्ध (पलक झपकने से भी कम समय) में अपने पजों में दबोच लिया ।
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Sunday, 23 June 2019

क़िस्सा हातिम ताई का

ईश्वर-निष्ठा
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और जब खजूर पर अटके हुए हातिम ताई ने सीढ़ियाँ लानेवाले लोगों का एहसान लेने से इंकार कर दिया, और जब रेगिस्तान के उस इलाके में रात होने लगी, तो भूख और प्यास से बेचैन हुए हातिम ताई ने ईश्वर से प्रार्थना की :
"हे प्रभु ! मैंने तुझ पर विश्वास रखा और मैं अब थक चुका हूँ।  मैं नहीं जानता कि रात की इस ठण्ड में भूखा प्यासा मैं कब तक तकलीफ उठाता रहूँगा ? क्या मेरी मुक्ति का कोई उपाय नहीं ?"
अभी वह प्रार्थना कर ही रहा था कि खजूर के उस दरख़्त पर बेमौसम ही फल उठे खजूर के मीठे और पके फलों की खुशबू उसके नथुनों में पहुँची और उसे एक आवाज़ सुनाई दी :
"यक़ीन करो प्रभु बहुत ही दयालु है।  तुमने यक़ीन किया और तुम्हारे लिए बेमौसम ही ये मीठे फल तुम्हारे लिए इस दरख़्त पर उसकी कृपा से ही फल उठे।  निश्चय ही तुम्हारी निष्ठा पूर्ण है, और क्योंकि तुम उन शैतान दुष्टों के चंगुल में फँसने से बच गए और तुमने उनका एहसान लेने से इंकार कर दिया। लेकिन यदि तुम्हारा यक़ीन सच्चा है तो तुम्हें फल की चिंता छोड़ देना चाहिए।"
अभी उसने फलों को तोड़ने के लिए उनकी तरफ हाथ बढ़ाया ही था, कि वे एकाएक उसकी दृष्टि से ओझल हो गए। लेकिन तब भी उसने प्रभु का धन्यवाद किया और शांतिपूर्वक भूख झेलता रहा।
तब एक और आवाज़ उसे सुनाई दी :
"मैं तुम्हारी भक्ति और निष्ठा से प्रसन्न हूँ। "
और तत्क्षण ही उसे वे फल पुनः दृष्टिगोचर होने लगे।
तब उसने पुनः प्रभु का धन्यवाद किया ('thank you' बोला, क्योंकि उसे हिंदी नहीं आती थी!)
दो तीन फल खाये ही थे कि उसकी भूख-प्यास दोनों मिट गए।
ऐसे अमृत जैसे स्वादिष्ट और मधुर फल उसने इससे पहले जीवन में कभी चखे तक नहीं थे। 
तभी ऊँटों का एक काफ़िला उसे दूर से आता दिखाई दिया।
जब वे लोग पास आए तो उनकी निग़ाह खजूर पर टिके हातिम ताई पर पड़ी।
एक ऊँचे ऊँटवाले व्यक्ति ने एक सीढ़ी पेड़ से टिकाई और सीढ़ी का दूसरा सिरा ऊँट की पीठ पर। 
तब हातिम ताई सही सलामत उसके ऊँट पर उतर आया।
तब उसे विश्वास हुआ कि जो ईश्वर पर यक़ीन करता है उसे ईश्वर कभी नहीं त्यागता।
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इस घटना के बाद हातिम ताई दुनिया भर के दुःख-दर्द दूर करने के अपने मिशन पर वापस संलग्न हो गया।
लेकिन उसने कभी किसी से यह नहीं कहा कि वह कैसे दुनिया का दुःख दर्द दूर कर सकता है क्योंकि वह अत्यंत विनम्र था और उसे विश्वास था कि ईश्वर ही सबके दुःख दर्द दूर करता है, चाहे वे उस पर यक़ीन करें या न करें, -चाहे वे उसे जानें या न भी जानें।
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टिप्पणी :
उपरोक्त पोस्ट केवल मनोरंजन के लिए लिखी गई है, न कि किसी की आस्था-विश्वास का मज़ाक उड़ाने के लिए।  इसलिए यदि किसी की आस्था-निष्ठा को ठेस लगी हो, तो कृपया क्षमा करें ! 
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(कल्पित)   क़िस्सा-कहानी   

Friday, 21 June 2019

खजूर में अटके लोग

आसमान और खजूर में अटके लोग
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कहावत है :
आसमान से गिरे और खजूर में अटके ।
यह कहावत न सिर्फ़ इस्लाम बल्कि उन सभी सामाजिक व्यवस्थाओं पर सच साबित होती है (चाहे वह हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, यहूदी या कोई और हो जिन्हें राजनीति ने कामचलाऊ रीति से या अपने स्वार्थों के लिए ’धर्म’ का नाम दिया है,) और जो खजूर से उतरने के लिए ही राज़ी नहीं होती क्योंकि खजूर से उतरना भी आसान नहीं, बहुत मुश्किल है । लेकिन जब कोई खजूर में अटक ही जाए तो यह प्रश्न गौण महत्व रखता है कि खजूर से  उतरना आसान है या मुश्किल ? तब अधिक महत्वपूर्ण यह है कि उसे खुद को ही यह समझ में आ जाए कि यदि कोई उसे उतारने में उसकी मदद करता है तो वह उसकी मदद को कृतज्ञतापूर्वक या कृतघ्नतापूर्वक ही सही, स्वीकार कर ले ।
इतनी संवेदनशीलता और दूसरे पर विश्वास करना तो पशुओं या पक्षियों में भी देखा जाता है कि अपनी जान पर बन आने पर मज़बूरी में ही सही, बचानेवाले की मदद लेने से वे इंकार नहीं करते । मान लीजिए हवाई-जहाज के दुर्घटनाग्रस्त होने पर पैराशूट से उतरे उस यात्री का पैराशूट किसी बहुत ऊँचे खजूर पर अटक जाता है और कुछ लोग बहुत लंबी और मजबूत सीढ़ी लाकर उसे उतारने में उसकी मदद करें तो क्या वह उनकी मदद नहीं लेगा? या, क्या इससे उसके स्वाभिमान को ठेस लगती है इसलिए वह मदद लेने से इंकार कर देगा ? अब मान लीजिए कि उसी दुर्घटनाग्रस्त जहाज में उसी आदमी के साथ उसका पालतू कुत्ता भी था जिसे बचाने के लिए उस आदमी ने उसे यह सोचकर जहाज से फेंक दिया था कि शायद इस तरह उसकी जान बचाई जा सके! और वह स्वयं पैराशूट की सहायता से धरती पर उसी खजूर के पास सही सलामत उतर आया, जहाँ खजूर के उस बहुत ऊँचे पेड़ पर उसका कुत्ता गिरकर अटक गया था । क्या वह आदमी अपने कुत्ते की मदद के लिए सीढ़ी लानेवाले लोगों से मदद नहीं लेगा?
आसमान से आई एक किताब को माननेवालों का दावा है कि उनकी किताब किसी खजूर में नहीं अटकी और उस किताब का एक एक लफ़्ज़ बलफ़्ज़ दुरुस्त है जिसमें किसी फ़ेरबदल के बारे में सोचना तक गुस्ताख़ी और गुनाह है ।
’लफ़्ज़’ से याद आया संस्कृत में फ़ेफ़ड़े को ’फुफ्फुस’ कहा जाता है । वाणी के व्याकरण (स्वनिम व्युत्पत्ति) के आधार पर इसे फ्-उ-फ्-उ-ह् के रूप में समझा जा सकता है । आयुर्वेद के किसी ग्रन्थ में संभवतः इसकी पुष्टि भी पाई जा सकती है । यह फ्-उ-फ्-उ-ह् शब्द ’फ्’ अर्थात् प्-ह्, अर्थात् प्राणयुक्त ’अ’ है क्योंकि ’ह्’ वर्ण विसर्गसूचक और ’अ’ सर्गसूचक है जिनसे मिलकर ’अहं’ प्रत्यय या ’अह्’ प्रत्याहार बनता है जो आत्मा का पर्याय है । (और यद्यपि ’अह्’ प्रत्याहार पाणिनी के द्वारा प्रयुक्त ४२ प्रत्याहारों में नहीं प्राप्त होता क्योंकि वहाँ इसे ’अल्’ प्रत्याहार के अन्तर्गत देखा जा सकता है ) । ’उ’ उत्सर्गसूचक है । प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य (पातञ्जल योगसूत्र समाधिपाद ३४) के तारतम्य में ’अ’ ’उ’ और ’ह्’ प्राण के सर्ग, उत्सर्ग तथा विसर्ग के द्योतक हैं । आधिभौतिक (स्थूल देह के) स्तर पर यही प्रच्छर्दन (श्वासोच्छ्वास) तथा विधारणा दोनों हैं । इसे और आगे विवेचित किया जा सकता है जिसे विद्वानों के लिए छोड़ दिया है । आदिदैविक स्तर पर यही अ-उ-म् अर्थात् ॐ या प्रणव मन्त्र है । क्योंकि यह मन में होते हुए भी इसका सृजन (सर्ग) उत्सर्ग या विसर्जन (विसर्ग) संभव नहीं । वास्तव में मन स्वयं ही इसका अभिव्यक्त प्रकार है ।
अंग्रेज़ी भाषा में फुफ्फुस की ध्वनि को ’dub-lub’ से व्यक्त किया जाता है । वाणी के व्याकरण से इसकी विवेचना करें तो इसमें विद्यमान वर्ण ’ड्’, ’व्’ (अर्थात् ’उ’) तथा ’ब्’ एवं 'ल्' भी ’फुफ्फुस’ के ही तुल्य / समान समझे जा सकते हैं ।
फ़ेफ़ड़ों का कार्य है रक्त को सतत शुद्ध करते रहना ।
हृदय जो फ़ेफ़ड़ों के साथ साथ भावनाओं का भी अधिष्ठान है, स्थूल दैहिक के साथ साथ सूक्ष्म मानसिक संवेदनशीलता का भी आश्रय है ।
मनुष्य या किसी भी जीवित प्राणी के जीवन में ’धर्म’ का वही महत्व है जो शरीर में रक्त का होता है ।
यदि शरीर में रक्त निरंतर स्वच्छ न होता रहे तो शीघ्र ही मृत्यु हो जाती है ।
फ़ेफ़ड़े यही कार्य करते हैं जो शारीरिक स्तर पर ज़रूरी है ।
संवेदनशीलता वही, जीवन के प्रति जागृति (चेतना) का ही नाम है ।
एक अविभाजित जीवन जो व्यक्ति और उसके समुदाय का रूप ग्रहण करता है ।
समुदाय की सामूहिक गतिविधियाँ ’सामाजिक अभियांत्रिकी’ (social engineering ) हैं, जो धर्म / संवेदनशीलता के अभाव में राजनीतिक विचार (Political thought / ideology) तक सीमित और कुंठित होकर रह जाते हैं ।
’अहिंसा परमो धर्मः’ का सिद्धान्त एक प्रेरणा या विचारमात्र हो सकता है ।
’प्रेरणा’ की तरह यह संवेदनशीलता का पर्याय है और इसीलिए हिंसा के निषेध का आग्रह करता है ।
’विचार’ की तरह यह इस नए प्रश्न को जन्म देता है :
"अहिंसा क्या है?"
तब हमारा ध्यान इस पर आता है कि वैचारिक मल्लों (विचारमल्लों, मुल्लों या कठमुल्लों) के लिए किसी धर्म की शिक्षा देना, वहीं तक, केवल किसी ऐसी  कार्यपद्धति के पालन और अनुशासन तक ही संभव है, जिस पर यंत्रवत उसका आचरण वे कर सकें । कोई कितना भी यंत्रवत क्यों न हो उसमें यदि जीवन है तो संवेदनशीलता भी अवश्य होगी और इसका विलोम भी इतना ही सत्य है (-अनुलोम विलोम प्राणायाम?)
जैन धर्म के सन्दर्भ में इस विषय की विवेचना करने पर यह समझा जा सकता है कि जैन-मुनि मुख पर कपड़ा इसीलिए बाँधते हैं ताकि श्वास के साथ आनेवाले सूक्ष्म जीवों की हत्या न हो । सिद्धान्त जो भी हो, इसके दो पक्ष हैं । यदि ’अहिंसा’ को केवल विचार और आचरण तक समझा जाए तो यह भी उपयोगी है । यदि ’अहिंसा’ का आग्रह संवेदनशीलता के कारण है तो इसका उपयोग मन को अधिक संवेदनशील और इसलिए धर्म के लिए अधिक अनुकूल बनाने के लिए भी हो सकता है ।
रीति-रिवाज, रूढ़ियाँ, परंपराएँ आदि सामाजिक-अभियांत्रिकी (social engineering) प्राथमिक रूप से उपयोगी अवश्य हैं किंतु वहीं अटक जाना वैसा ही है जैसे फ़ेफ़ड़े रक्त को शुद्ध करने का काम बंद कर दें और रक्त क्रमशः अशुद्ध होते हुए अंततः मृत्यु हो जाए ।
श्री पुष्पेन्द्र कुलश्रेष्ठ जी के वीडिओ में सुना कि कुरान के ३० आयतें ऐसी हैं जिनमें ३४ बार ’जेहाद’ का उल्लेख है ।
और इस बारे में स्पष्ट आदेश भी है कि इसलाम को माननेवाले प्रत्येक के लिए ज़रूरी है कि वह इसलाम के न माननेवाले किसी भी व्यक्ति को पहले तो समझा-बुझा कर उसे इसलाम में धर्मान्तरित करे और यदि वह इसलाम में धर्मान्तरित होने से इंकार करता है तो उसे क़त्ल कर दे । ऐसा क़त्ल भी इसलाम की राह में किया गया एक पुण्यकार्य है जिससे उसे जन्नत मिलेगी ।
खजूर में अटका हुआ आदमी सहानुभूति और करुणा का पात्र तो अवश्य है, लेकिन किसी बाध्यता या ज़रूरत के कारण खजूर पर चढ़ा हुआ आदमी अगर उतरना चाहता भी हो लेकिन किसी की मदद लेने में अपनी हेठी महसूस करता हो तो उसे कौन (उ)तारे?
और इस पर तुर्रा यह कि उतरने के बाद वह उन सभी बाक़ी लोगों को खजूर पर चढ़ने के लिए बलपूर्वक बाध्य करे कि जब तक धरती के सारे मनुष्य खजूर पर न चढ़ जाएँ तब तक उसका धर्म अधूरा है ।
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अयनान्त और संक्रान्ति

International Yoga-Day.
राष्ट्रवाद 
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21 जून को सायण-गणना से सूर्य का प्रवेश मिथुन राशि में होता है।
यह इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि मिथुन युगल का पर्याय है और सूर्य आत्मा का।
सूर्यः आत्मा जगतस्थश्च।
इसलिए 21 जून को विश्व योग दिवस मनाया जाना सर्वथा प्रासंगिक और समीचीन है।
निरयण-गणना से 15 जून को ही सूर्य का मिथुन राशि में प्रवेश हो जाता है।
अयन का अर्थ है मार्ग।
सूर्य का उत्तरायण (सौम्यायन) मकर संक्रान्ति के समय होता है जब सूर्य धनु राशि से मकर में प्रवेश करता है।
यह तिथि जनवरी माह की 13 तारीख को होती है जब सायण-सूर्य का प्रवेश मकर राशि में होता है।
निरयण-गणना से यह तिथि 21 जनवरी को होना चाहिए।
सूर्य इससे ठीक छः माह बाद दक्षिणायन (याम्यायन) होता है।  दक्षिण यम की दिशा है।
अयनान्त (Solstice) और संक्रान्ति (Equinox) ये चार खगोलीय बिंदु (प्रसंग) वे हैं जिनमें से 2 वे हैं जहाँ पर चन्द्रमा की पृथ्वी के चारों ओर घूमने की कक्षा, सूर्य के चारों ओर परिभ्रमण करती हुई पृथ्वी की कक्षा को काटती है। दूसरे दो बिंदु वे हैं जो पृथ्वी की कक्षा पर वहाँ स्थित हैं, जिनमें से एक पृथ्वी से सूर्य की निकटतम दूरी पर और दूसरा पृथ्वी से सूर्य की अधिकतम दूरी पर होता है। चूँकि सूर्य के चारों ओर पृथ्वी के परिभ्रमण की कक्षा अंडाकार है इसलिए सूर्य इस अंडाकार कक्षा रूपी दीर्घवृत्त (ellipse) के नाभि (focus) पर स्थित है।
इस प्रकार क्रमशः वसन्त विषुव तथा शरद विषुव ही उपरोक्त दो बिंदु हैं। इन्हें ही equinox कहा जाता है।
equinox अश्विनौ तथा ऊक्षिणौ के समास से बना शब्द है।
संस्कृत में दो अश्वों को अश्विनौ तथा दो बैलों को ऊक्षिणौ कहा जाता है।  अंग्रेज़ी का horse अश्वः का ही सज्ञात cognate है, जबकि ox ऊक्षन् (बैल) का।  इन्हें आप भारत के चार सिन्होंवाले राष्ट्रीय चिन्ह में अशोक-स्तम्भ पर एक चक्र के दोनों ओर देख सकते हैं।
शरद विषुव और वसन्त विषुव ऋतु-परिवर्तन के समय के सूचक हैं।  शरद विषुव वर्षाऋतु के अंत में व शीतऋतु के आगमन से पूर्व का समय है जबकि वसन्त विषुव शीतऋतु के अंत, और ग्रीष्म के प्रारम्भ का समय है। भारतीय संस्कृति में इसी समय शारदीय तथा वासंती नामक दो नवरात्र पर्व मनाये जाते हैं।  यह नई फसल की बुआई तथा तैयार फसल की कटाई का समय भी होता है। भारतवर्ष चूँकि गर्म स्थान है इसलिए भीषण गर्मी में प्रायः धरती को परती छोड़ दिया जाता है ताकि धरती की मिट्टी धूल बनकर पूरी तरह कीटाणु तथा विषाणुरहित हो जाए।  ऐसी मिट्टी पर बारिश (संस्कृत -वारिशः) पड़ने पर जो प्राण पृथ्वी को प्राप्त होते हैं वे ही शरद पूर्णिमा के चंद्र से ओज तथा सोम को ग्रहण कर उत्तम अन्न और ओषधि पैदा करते हैं।
इसी प्रकार वसंत पूर्णिमा को दूसरी फसल की कटाई के समय फाल्गुन मास के समय होली मनाई जाती है, जिसके तुरंत बाद नववर्ष की चैत्र नवरात्र होती है।
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जिन राष्ट्रनेताओं ने इस राष्ट्रीय चिन्ह और अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की स्थापना की उन्होंने अवश्य ही बहुत सूझबूझ तथा ध्यान से यह तय किया होगा। यह सनातन-धर्म तथा संस्कृति के साथ सर्वथा सामञ्जस्यपूर्ण भी है। 
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Wednesday, 19 June 2019

चतुर्वदन चतुर्नामा

ब्रह्मा के चार नाम
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अदिति को स्थूल देवताओं ने अपने तेज से आधिभौतिक रूप में दक्ष प्रजापति की पुत्री के रूप में रचा ।
अदिति का भौतिक स्वरूप इसलिए एक बालिका की तरह था, जो दक्षकन्या थी।  दक्ष का अर्थ है निष्णात, निपुण, ...। इसी अदिति ने बाद में तप किया और दक्ष के द्वारा किए जा रहे यज्ञ में अपने पति भगवान शंकर को न बुलाए जाने पर योगाग्नि प्रज्वलित कर अपने उस जीवन का अंत कर दिया। अदिति वही सती थी जिसने बाद में हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया और जिसका नाम उमा हुआ, किन्तु उसकी तप साधना अपूर्ण रह जाने से अभी भगवान् शंकर से उसका सारूप्य नहीं हुआ था।  यद्यपि पूर्वजन्म में विवाह के बाद उसे उनका सामीप्य और सालोक्य और सायुज्य अवश्य प्राप्त हुआ था। सायुज्य इस अर्थ में कि वह उनसे जुड़ी थी, लेकिन युगल-मूर्ति की तरह।  सारूप्य इस अर्थ में कि वह उनसे आत्मवत एकाकार नहीं हुई थी।
जब देवताओं ने अपने तेज से उसकी रचना की, तो वे ही देवता जो वर्णरूपी मुख या मुण्डमात्र थे, पुनः उस तेज से युक्त दक्षकन्यारूपी अदिति के समीप पहुँचे और उसके स्वरूप की जिज्ञासा की।
तब अदिति ने अपने तत्व का वर्णन उनसे किया।
इस वर्णन को सुनने पर उन वाचिक-वर्ण रूपी देवताओं का यज्ञोपवीत संस्कार हुआ जिससे सभी वर्ण, जो सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा के मुख से उद्गार के रूप में व्यक्त हुए थे, ब्राह्मण-वर्ण के अर्थात् वेदतत्व के रूप में पुनः अभिव्यक्त हुए।
(देवी-अथर्व-शीर्ष)
ऋषि जब उन देवताओं के तत्व को जानने के लिए उत्कंठित हुए तो अदिति ने उन देवताओं के मुण्डों की माला गूँथकर उसे भगवान् शंकर के गले में पहना दिया।  तब से भगवान् शंकर महादेव और मुण्डमालाधारी हो गए। तब उन्होंने उल्लासपूर्वक नृत्य करते हुए अपना डमरू उठाया और उसे 14 बार भिन्न भिन्न रीति से बजाया जिससे उठे स्वरों को ऋषियों ने अक्षर-समाम्नाय के रूप में ग्रहण किया।
वेदाङ्ग के रूप में माहेश्वर अक्षर-समाम्नाय से ही व्याकरण का जन्म हुआ।
ब्रह्मा के मन में जब सृष्टि की रचना का संकल्प उठा, तो उनके मुख से उसी वेद-विद्या ने पुनः जन्म लिया जिस पर वे काम-मोहित हो उठे। इस प्रकार के अनाचार पर  क्रुद्ध होकर भगवान् शंकर ने उनके पाँच मस्तकों में से एक को काट दिया। वही मस्तक ....
तब ब्रह्मा के मन में अपने इस कर्म के लिए अपराध-बोध हुआ, उन्होंने क्षमायाचनापूर्वक भगवान् शंकर की स्तुति की। तब अश्विनीकुमारों ने आकर उनके कटे हुए मस्तक को पुनः उनके धड़ पर प्रत्यारोपित कर दिया।
ब्रह्मा के द्वारा की गयी स्तुति से संतुष्ट होकर भगवान् शंकर ने उन्हें वरदान दिया :
"सुरेश्वर! तुम्हारे द्वारा किए गए अपराध को यद्यपि मैंने क्षमा कर दिया, किन्तु इसीलिए संसार में कोई तुम्हारी कोई पूजा नहीं करेगा। यद्यपि पुष्कर तीर्थ में जो तुम्हारी पूजा करेगा उसे अवश्य संसार की समस्त धन-संपत्ति तथा दीर्घ आयु भी अवश्य प्राप्त होगी।
तुम्हारा यश संसार में और तुम्हारी सृष्टि में भी, तब भी चार रूपों में नित्य बना रहेगा।
तुम्हारे चार नाम तुम्हारे यश का कीर्तिगान करेंगे।
तुम्हारा प्रथम नाम 'अहम्' होगा जिसे समस्त भूत अनायास और सदा जानेंगे।
('अहम् नाम अभवत्' -बृहदारण्यक उपनिषद्;  अहं ब्रह्मास्मि (महावाक्य), I AM THAT I AM, Jehovah,)
[D.: What is this Self again?
M.: The Self is known to everyone but not clearly. You always exist. The Be-ing is the Self.
 ‘I am’ is the name of God. 
Of all the definitions of God, none is indeed so well put as the Biblical statement :
“I AM THAT I AM” in EXODUS (Chap. 3). There are other statements, such as
Brahmaivaham, (ब्रह्मैवाहम्)
Aham Brahmasmi (अहं ब्रह्मास्मि)
and So'ham (सोऽहं).
But none is so direct as the name JEHOVAH = I AM.
The Absolute Being is what is - It is the Self. It is God. Knowing the Self, God is known.
In fact God is none other than the Self.]
(श्री रमण महर्षि से बातचीत 106, 110)
तुम्हारा दूसरा नाम वाजश्रवा होगा क्योंकि तुम धन-संपदा और लौकिक समृद्धि के लिए प्रयत्नशील रहोगे, लेकिन अंत में तुममें वैराग्य प्रकट होने पर विश्वजित नामक सर्ववेदस् यज्ञ कर तुम अपना सब धन-वैभव दान कर दोगे। यहाँ तक कि अपने सर्वोत्तम पुत्र को भी मृत्यु को दान कर दोगे।
(वाजश्रवा - कठोपनिषद्)
तुम्हारा यश इतना विस्तीर्ण होगा कि हर कोई बारंबार इसका वर्णन करेगा, इसलिए तुम्हारा तीसरा नाम भूरिश्रवा (महाभारत) होगा।
और चूँकि तुम स्वयं ही सृष्टिकर्ता हो, इसलिए जो भी पराक्रमी जैसे एक सौ अश्वमेध कर लेने पर कोई इंद्र के पद को प्राप्त होकर वृद्धश्रवा कहलाता है, वैसे ही तुम्हारा चौथा नाम वृद्धश्रवा ही होगा।
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(कल्पित)  
 

       

                    

Monday, 17 June 2019

Cosmic and Collective Mind

Artificial Intelligence.
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वेदान्त-सार (सदानन्दकृत)
विवेक अग्निहोत्री
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Watching this video.
While watching this, I'd many a questions there in my mind.
This is about what he terms as 'Intellectual Terrorism'.
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Some 40 years ago, I began going through the Sanskrit text :
वेदान्त-सार (सदानन्दकृत) /  sadānanda -vedānta-sāraḥ
of this Masterpiece of Vedanta.
In the old collection of my Father's books, I was always lured by two most important books.
One was this and another was the कठोपनिषद् / kaṭhopaniṣad.
Whenever I tried to see what these texts are about, it was far difficult an effort on my part when I was some 15 years old. And I always promised to myself; -when I get stabled in some job, earn money as livelihood, I would make a point to go deep in the above 2 texts.
Once I asked my Father :
sadānanda is no doubt the author of the 'vedānta-sāraḥ',
but who wrote the कठोपनिषद् / kaṭhopaniṣad ?
My Father was first a bit surprised but after a minute He spoke to me :
"महर्षि वेदव्यास / maharṣi vedavyāsa is said to have authored all Veda and the related literature."
Till then I had deep respect for sadānanda, but from that day I had far more respect for महर्षि वेदव्यास / maharṣi vedavyāsa also.
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sadānanda, in His treatise 'vedānta-sāraḥ' on the subject, talks of the Cosmic-mind, the collective-mind and the mind of an individual.
He likens the individual with a tree while the Collective as the flora of a region and the Cosmic as that of the whole earth.
The knowledge possessed by an individual is the totality of jumbled up perceptions, their memory and the reactions that come up through all this mess.
The knowledge acquired so, be of a human or animal or any living being whosoever is but 'intellect' the faculty of distinguishing and discriminating between various objects.
This knowledge though can go on accumulating more and more information, neatly classified and arranged very systematically is not WISDOM.
The problem of communicating this knowledge consists in the fact that the WISDOM; that is an  AWAKENING is inborn and inherited and is never information gathered from outside.
When I first heard of Artificial Intelligence, I was intrigued; -how intelligence could be artificial? To me so far, the 'Intelligence' meant WISDOM that is another aspect of consciousness in a living being that only emerges out from within and subsides there-in again.
J.Krishnamurti distinguishes between the 'intellect' and the 'intelligence' [Years of awakening].
He supposedly equates 'thought' with 'intellect', while 'AWAKENING' to 'Intelligence'.
Sri Nisargadatta Maharaj in 'I AM THAT' says :
"All knowledge is ignorance."
and;
"God is the the end of all knowledge and wisdom'.
गीता / Gita tells :
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः।।42
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।43
(अध्याय 3)
'बुध्' -the root-word in Sanskrit gives us the sense of 'knowing' that is again of the kind that is gained either through some medium; - be that of the senses, the 'consciousness' / चित्त (the mind), or just the pure awareness of just being irrespective of the acquired knowledge through a medium.
The first is called 'intellect' or 'thought', and the 'conclusion' that is reached at through thought(s) is  therefore is but the ramification of thought(s) only.
The second is though the support of all such intellect, is never a subject to 'intellect'.
This is the difference between the 'बुद्धि' / intellect, and the 'बोध' / the Intelligence.
One knows the 'intellect' through intelligence only and this 'knowing' is not the knowledge / information. While the 'knowing' that is in the form of information / verbal knowledge' is not WISDOM. This is but the 'AWAKENING'.
In intellect there is always the entity (the 'subject') that 'knows', the object that is 'known' and the 'knowledge' that is thought or thought of.
In Intelligence; such distinction ceases to exist, though this is not 'ignorance',
In 'ignorance' the fundamental core-truth is 'ignored' and a superficial knowledge is assumed true.
Thus, this 'ignorance' and the so-called acquired knowledge are but the two facets of the same thing.
Sri Ramana Maharshi in His 'Sat-Darshanam'/ 'सद्दर्शनं'  tells us :
विद्या कथं भाति न चेदविद्या
विद्यां विना किं प्रविभात्यविद्या।
द्वयं च कस्येति विचार्य मूल-
स्वरूपनिष्ठा परमार्थविद्या।।12
Here He classifies the 'knowing' in terms of the 'intellect' that is but another form of 'ignorance' only, and the 'knowing' that is the true 'Intelligence'; -'the AWAKENING' which is the conviction of one's Self .
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By the way, later on I realized what 'intelligence' means apropos to our common language.
This is like how it is used in 'intelligence gathered', 'Intelligence-Bureau',
Recently, Sri Narendra Modi ji also uses this term.
I can't say what is his idea / impression / perception of this word.
But I do admire his approach.
As he insists upon development, and the development requires the infrastructure, infrastructure is the core-requirement for development, presently, this is the only pragmatic approach that should be given attention to.
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Vivek Agnihotri seems to suggest that 'Artificial Intelligence' is the secondary data that the Corporate bodies, Governments and global companies like Google, Facebook, Twitter and others collect through their 'services' from their customers / clients.
This further means no data is 'Private' and 'Confidential' in the true sense.
They seem to 'empower' people while 'impoverishing' them at the same time.
They are the latest kind of 'sophisticated' terror people are hardly aware of.
This is what the 'Collective mind' can have access to.
the 'Cosmic Mind' however, is free from the notion of distinction at any level.
It is but the 'Totality' of 'What is', but there is no individual to claim this as his own.
In this 'Totality' the individual, the collective and the Cosmic are but phenomenon while the 'Intelligence' / AWAKENING is ever so pure, innocent and indivisible one without the other.
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Summarily, 
The way we look at the world (and our-self as well) is one through thought, intellect and the Artificial Intelligence, or through the Intelligence.
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Sunday, 16 June 2019

सामञ्जस्य / गीतार्थ

जेहाद या जहाति ?
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पिछले पोस्ट में मैंने उल्लेख किया था कि पूरी पृथ्वी पर दो ही मुल्क (मूलकः) हैं, दो ही वतन (वसं / वसन्) हैं, और मनुष्य के भविष्य के लिए सर्वाधिक बड़ी चुनौती यह है कि इन दोनों के बीच सामञ्जस्य कैसे स्थापित किया जाए ।
किसी भी शास्त्र के अध्ययन और वास्तविक तात्पर्य के लिए पहली आवश्यकता है ’पात्रता’
विद्या ददाति विनयं विनयेनायाति पात्रता ।
पात्रत्वेन धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततो सुखम् ॥
विद्या ही शास्त्र का सार होता है । विद्या भी पुनः अपरा और परा होती है ।
मुण्डकोपनिषद् प्रथम मुण्डक के प्रथम खण्ड का आरंभ इस प्रकार से होता है :
ॐ ब्रह्मा देवानां प्रथमः सम्बभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता ।
स ब्रह्मविद्यां सर्वविद्याप्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठपुत्राय प्राह ॥१॥
अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्माथर्वा तां पुरोवाचाङ्गिरे ब्रह्मविद्याम् ।
स भारद्वाजाय सत्यवहाय प्राह भारद्वाजोऽङ्गिरसे परावराम् ॥२॥
शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ ।
कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति ॥३॥
तस्मै स होवाच । द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद्ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च ॥४॥
तत्रापरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्ववेदः शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दो ज्योतिषमिति ।
अथ परा यया तदक्षरमधिगम्यते ॥५॥
यहाँ केवल अपरा-विद्या के बारे में ।
जैसे कठोपनिषद् में यमराज द्वारा नचिकेता के पिता, वाजश्रवस् के पुत्र उद्दालक के लिए ’गौतम’ शब्द से संबोधित किया गया है, क्योंकि वे ऋषि गौतम के कुल में उत्पन्न हुए थे, उसी उदाहरण से इस पोस्ट को लिखनेवाला स्वयं को ’भारद्वाज’ मान्य करता है ।
उपरोक्त जानकारी अपनी प्रशंसा के लिए नहीं बल्कि इस हेतु से है कि उपरोक्त उपनिषद्-मन्त्रों में ’भारद्वाज’ ऋषि का उल्लेख है ।
पुनः ’अङ्गिरा’ / ’अङ्गिरस्’ इन नामों का संबंध उन आर्ष-ऋषियों से है, जिनका उल्लेख भी ऊपर प्रथम मन्त्र में किया गया है ।
पिछले पोस्ट्स में लिख चुका हूँ कि किस प्रकार ’आर्च-एन्जिल’(Arch-Angel) ’आर्ष-अङ्गिरा’ का ही सज्ञात (cognate) है ।
इसी प्रकार मॆकॉले (Macaulay) भी महाशालः का ही सज्ञात (cognate) है । वैसे इसे ’महाकाली’ से भी व्युत्पन्न किया जा सकता है ।
(संक्षेप में महा / मघा / मघवा / आदि से ’मॆक् / ’मेगा’ (Max / Mc / Mega)’  आदि जैसे अनेक prefix-युक्त शब्द / नाम विभिन्न यूरोपीय भाषाओं में पाए जाते हैं । जिनका अर्थ भी यही; -बड़ा, विशाल आदि होता है ।)
अब गीता में पाए जानेवाले ५ श्लोक जो इस प्रकार से हैं :
अध्याय २
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते ।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् ॥५०॥
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥५५॥
अध्याय ३
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनं ॥४१॥
एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥४३॥
अध्याय ११
द्रोणं च भीष्मं च कर्णं तथान्यानपि योधवीरान् ।
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा युध्यस्व जेतासि रणे सपत्नान् ॥३४॥
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सामञ्जस्य / गीतार्थ हा (छोड़ना) हन् (मारना / मिटा देना), जहदजहत् (जहत्-अजहत् लक्षणा),
जिहाद
जहातीह -- जहाति इह -- यहाँ (संसार में) जो मनुष्य बुद्धियुक्त होकर पाप-पुण्य दोनों को त्याग देता है और इस प्रकार योगबुद्धि में प्रतिष्ठित हो जाता है उसे बुद्धियोग प्राप्त हुआ ऐसा समझो ! योग का अर्थ है कुशलतापूर्वक प्राप्त हुए कर्तव्य कर्म का राग-द्वेषरहित होकर कामनारहित होकर आचरण करना।
प्रजहाति  -- जब पूरी तरह से त्याग देता है -- हे पार्थ ! जब ऐसा योगयुक्त मनुष्य मनोगत सभी कामनाओं को त्यागकर अपनी आत्मा ही में आत्मा ही से संतुष्ट हुआ -अर्थात् संसार की किसी भी अन्य वस्तु की कामना छोड़ देता है, तब उसे स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।
प्रजहि -- हे अर्जुन ! अतः तुम इन्द्रियों आदि पर नियंत्रण रखते हुए ज्ञान तथा विज्ञान का नाश करनेवाले इस पापी (काम एवं क्रोध) को मार डालो।
जहि --और इस प्रकार हे महाबाहु ! बुद्धि से परे के उस अध्यात्म तत्व को जानकर उसमें मन-बुद्धिपूर्वक अच्छी तरह स्थिर होकर कामरूपी दुराचारी असत्स्वरूप इस शत्रु को मार डालो !
जहि -- द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह, कर्ण तथा दूसरे भी अन्य वीर योद्धाओं को तुम मार डालो, और चूँकि वे सभी पहले से ही मेरे द्वारा मारे जा चुके हैं, इसलिए तुम यह सोचकर कि तुम इन्हें मारने जा रहे हो,व्यथित मत होओ, इन शत्रुओं को मारकर तुम रण में विजय प्राप्त करोगे।
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हन् (मार डालना) --अदादिगण परस्मैपदी धातु है, जिसका लोट् लकार मध्यम पुरुष एकवचन रूप 'जहि' होता है।  अर्थात् : 'मार डालो'
हां (छोड़ना) --जुहोत्यादिगण परस्मैपदी धातु है, जिसका लट् लकार  प्रथम पुरुष एकवचन रूप 'जहाति' होता है। अर्थात् : (वह, जो) त्याग देता है। 
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भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया उसका सन्दर्भ मुख्यतः आध्यात्मिक और गौणतः तात्कालिक युद्ध-प्रसंग था जिसमें अर्जुन को युद्ध करने के लिए बाध्य होना पड़ा। हमारे समय में युद्ध कोई बाध्यता कहाँ है? लेकिन हम धर्मग्रन्थ का मनमाना अर्थ और व्याख्या कर युद्धोन्माद पैदा करें तो यह अवश्य ही हमारा बहुत बड़ा दुर्भाग्य ही है। 
कुछ लोग जेहाद का ऐसा ही अर्थ और व्याख्या कर रहे हैं और आतंकवाद के माध्यम से इसका राजनीतिक लाभ लेने का प्रयास कर रहे हैं। ज़ाहिर सी बात है कि उन्हें विश्वशांति से कुछ नहीं लेना देना। क्या मानवता के हितैषी इस सच्चाई से आँखें बंद कर सकते हैं?   
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Friday, 14 June 2019

वादे वादे जायते तत्वबोधः

एक गंभीर भूल
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विगत सदियों में सनातन धर्म के अनेक देशी-विदेशी विचारकों, अध्ययनकर्ताओं, शोधकर्ताओं ने किसी भी बहाने से संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन और उनके अनुवाद अंग्रेज़ी तथा दूसरी यूरोपीय भाषाओं में किए। और चूँकि यह तो बिलकुल स्वाभाविक भी था, कि संस्कृत भाषा के अनेक शब्दों के लिए उन्हें उन विभिन्न भाषाओं में ऐसे शब्द ही नहीं मिले जो मूल संस्कृत शब्द के तात्पर्य को यथावत व्यक्त कर सकते थे। क्योंकि उन भाषाओं में वेद तथा वैदिक विषयों के बारे में न तो कभी चिंतन किया गया न खोज ही की गयी।
इसलिए धर्म, संप्रदाय, अहं, अहंकार, चित्त, वृत्ति, संस्कार, मोक्ष, विवेक,  मुमुक्षा, भक्ति, साधना, आत्मा, ध्यान, धारणा, तप, ब्रह्म, ब्रह्मचर्य, वैराग्य जैसे शब्दों के लिए उन्होंने क्रमशः
religion, sect / cult, ego, Self, mind, tendencies / impressions, liberation, discrimination, earnestness / urge for liberation, spiritual-practice, self / Self, meditation, fixing of the mind, penance / austerities, Ultimate / Totality / Reality / Supreme, celibacy, dispassion ...
जैसे शब्दों को चुना।
दूसरी ओर तमाम (तं  आम्) भारतीय भाषाएँ मूलतः वेद तथा वैदिक-ज्ञान से अविच्छिन्नतः जुडी हैं इसलिए उनमें शब्द-बाहुल्य इतना ही समृद्ध और विपुल था जैसा कि संस्कृत भाषा में है। सबसे बड़ी विशेषता यह कि जैसे संस्कृत भाषा में नए शब्द गढ़ने / रचने के लिए अपार सामर्थ्य और संभावनाएँ हैं उसी तरह लगभग सभी भारतीय भाषाओं में भी हैं। चाहे गोस्वामी तुलसीदास जी का 'श्रीरामचरितमानस' हो, समर्थ रामदास का 'दासबोध' या संत ज्ञानेश्वर महाराज का 'अमृतानुभव' ग्रन्थ, सभी में संस्कृत का लोकभाषा में विवर्तन ऐसा स्वाभाविक है कि पाठक बस मंत्रमुग्ध होकर रह जाता है। बाँग्ला, असमिया, यहाँ तक कि अवधी, भोजपुरी, ब्रजभाषा में भी कई ऐसे शब्द पाए जाते हैं जिन्हें देखकर लगता है जैसे ठेठ संस्कृत से चले आए हों - बेहिचक, अधिकार-पूर्वक, बेरोकटोक।
अपने अध्ययन के दौरान मैंने अनुभव किया कि उर्दू (व अरबी एवं फारसी) के भी ऐसे ढेरों शब्द हैं जिन्हें  सीधे संस्कृत से प्राप्त किया जा सकता है। श्री आर. एस. एन सिंह के अनुसार उर्दू के सभी शब्द और खासकर क्रियाएँ सीधे संस्कृत की मूल क्रियाओं का अपभ्रंश हैं। एक छोटा सा उदाहरण है 'पानी', जो हमें संस्कृत या हिंदी का नहीं प्रतीत होता। लेकिन संस्कृत की 'पा' (पीना) धातु से पेयं, और पानं तथा पानं से पानीय, फिर पानीय होकर पानी तक पहुँचना लोकभाषा की ही देन है।
इतना ही नहीं फ़ारसी तथा अरबी भाषा की संरचना को समझें तो स्पष्ट हो जाता है कि व्याकरण मूलतः दो प्रकार का होता है :
पहला है वाणी का व्याकरण,
दूसरा है भाषा का व्याकरण।
जैसा कि व्युत्पत्ति (वि आ कृ) से भी स्पष्ट है कि व्याकरण वह विद्या है जो उन शब्दों के उद्भव के बारे में कहता है जिनसे किसी भाषा का निर्माण हुआ होता है।
श्रीदेवी-अथर्वशीर्षं  को प्रमाण के लिए आधार बनाएँ तो इस बारे में अपने ब्लॉग्स में मैंने अनेक पोस्ट्स में स्पष्ट किया है कि किस प्रकार वाणी (voice) से वर्णों (sounds) की उत्पत्ति होने के बाद वे वर्ण (जो आधिदैविक दृष्टि से देवता-तत्व हैं) वाणी की अधिष्ठात्री अदिति के समक्ष प्रस्तुत हुए और उन्होंने उससे उसके तत्व को जानने के लिए जिज्ञासा / प्रार्थना की।  यह जानना भी रोचक है कि इससे पहले उन्हीं वर्णरूपी देवताओं ने अपने तेज से ही अदिति की सृष्टि की थी।  तब अदिति ने उन्हें अपने स्वयं के तत्व का दर्शन देते हुए उनका 'संस्कार' किया।
वे ही देवता अदिति के पिता प्रजापति दक्ष से कहते हैं :
(ते देवा अब्रुवन्) --नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम्।। 8
तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम्।
दुर्गां देवीं शरणं प्रपद्यामहेऽसुरान्नाशयित्र्यै ते नमः।।9
देवीं वाचमजनयन्तं देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति।
(देवताओं ने उस वाणी को जन्म दिया जिसका प्रयोग (समस्त) पशु करते हैं -- अर्थात् वह वाणी जिसकी कोई भाषा-विशेष नहीं बनी है।)
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप  सुष्टुतैतु।।10
(वह वाणी जो धेनु (गौ) की तरह पूरी पृथ्वी पर सर्वत्र विचरण करती है, उसकी हमने इस प्रकार स्तुति की। )
और उसने हमें (वर्णों के रूप में) धीमी गति से चलनेवाली वाणी प्रदान की (जिसे मनुष्य बोलने लगे)।
कालरात्रीं ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम्।
सरस्वतीमदितिं दक्षदुहितरं नमामः पावनां शिवाम्।।11
(यहाँ देवी के आधिदैविक स्वरूप का वर्णन है। )
महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धीमहि।
तन्नो ------- देवी --------------प्रचोदयात्।।12
अदितिर्ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव।
तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः।।13
(इस मन्त्र में देवता दक्ष प्रजापति से कहते हैं :
जिन देवताओं ने पहले (अपने तेज से) अदिति की आधिभौतिक रूप में सृष्टि की,
हे दक्ष ! उसी तुम्हारी पुत्री अदिति ने पुनः उन देवताओं को आधिदैविक स्वरूप में जन्म दिया।
और वे देवता इस प्रकार परस्पर शुभ अमृतबन्धु हुए।
यह उन वर्णों का वर्णन है जिन्हें अक्षरसमाम्नाय अर्थात् माहेश्वर वर्णसमाम्नाय कहा जाता है।
इन वर्णों के द्वारा भगवान शिव ने ऋषियों को वैदिक व्याकरण की शिक्षा / उपदेश किया।
यही भाषा 'संस्कारित होने से' 'संस्कृत' नाम से विख्यात हुई।
मन्त्र 8 में अदिति को ही भद्रा तथा प्रकृति, नियता कहकर संबोधित किया गया है, जो प्राकृत भाषा हुई।
इसलिए मानव द्वारा बोली जानेवाली सभी भाषाओं का प्राकृत स्वरूप में भिन्न भिन्न स्थानों पर भिन्न भिन्न रूपों में प्राकट्य / उद्भव हुआ जिनकी रचना पारस्परिक प्रभावों से सतत बदलती रही।
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अब हम उदाहरण के लिए कुछ हिंदी / उर्दू शब्दों पर ध्यान दें :
नमाज़ - जिसे आपका प्रचलित हिंदी शब्दकोश फ़ारसी से आया हुआ बतलाता है।
संस्कृत से खोजें तो यह अर्थसाम्य के आधार पर भी 'नम् यजन / यज्न' अर्थात् प्रार्थना के अर्थ में प्रयुक्त होता है। अरबी भाषा में नमाज़ को 'सला' कहा जाता है।
'ईद' जो ईश्वरीय आराधना और पूजा का उल्लास है संस्कृत की 'ईड्' धातु से बना है जिसका प्रयोग ऋग्वेद के प्रथम मंडल के पहले ही मन्त्र 'अग्निमीडे' में पाया जाता है।   
'ईदगाह' स्पष्टतः 'ईडागृह' का सज्ञाति / cognate है, जिसका अर्थ है पूजास्थल ।
जैसे आग़ाह / निग़ाह का मूल आग्रह / निग्रह में है, वैसे ही 'मुल्क' का 'मूलकः' तथा 'वतन' का 'वसं' में है।
इस प्रकार से 'दो मुल्कों' का सिद्धांत वस्तुतः इस रूप में ग्राह्य है कि धरती पर मनुष्यों में भी दो सभ्यताएँ भौतिकवादी और सनातन धर्मवादी हमेशा अस्तित्व में रहेंगी। उनके बीच संघर्ष भी होगा ही। किन्तु समग्रतः प्रबुद्ध मनुष्य उनमें सामंजस्य भी स्थापित कर सकता है। या फिर पूरी मानव-जाति का ही विनाश होना है।
'वसति' (संज्ञा) से बना है बस्ती।
सत् से बना है सद् -- सादा, सादिक, सूद, मसूद, असद, सौदा, मसौदा।
ये वे कुछ उदाहरण हैं जिनसे किस प्रकार अरबी तथा फ़ारसी एवं हिंदी / उर्दू के वर्तमान में प्रचलित शब्द बने।
मनुष्यों द्वारा बोली जानेवाली किसी भी भाषा के विभिन्न रूप मौखिक तथा लिपिबद्ध रूपों में परंपरा से एक से दूसरी पीढ़ियों तक प्रचलित होते रहे। जबकि संस्कृत भाषा देवभाषा / अमरभाषा होने से उसी प्रकार अजर अमर और शाश्वत सनातन स्वरूप की है जैसे विज्ञान के वे नियम जिन्हें यदि शाब्दिक रूप न भी दिया जाए तो भी वे अपना अपना कार्य तो करते ही हैं। क्या विज्ञान के नियम अजर अमर और शाश्वत सनातन नहीं हैं ?
वाणी वैसे भी अग्नि अर्थात् ऊर्जा है जिसका चेतना से संयोग (कर्मफलेषु जुष्टाम् --- मन्त्र 9) होने से ही देवता जीवन की तरह जगत का कार्य करते हैं।
वाणी वैसे भी किसी देह-यंत्र का सर्वाधिक श्रेष्ठ उपकरण है।
देवता वर्णस्वरूप हैं और प्रत्येक वर्ण ही देवता है।  इस प्रकार विभिन्न वर्णों के समुदाय से बने शब्द अर्थात् मन्त्र भी देवता-विशेष हैं जिनका आवाहन मन्त्रों से ही किया जाता है। यह अवश्य ही एक अत्यंत गूढ़ सत्य है जिसे नकारकर या जिसका विरोधकर हम अपने ही पाँवों पर कुल्हाड़ी मारते हैं।
यदि किसी को वेद और वैदिक धर्म पर संशय है तो उसे या तो वेद को समझना चाहिए या बस इस बारे में मौन रहना चाहिए। किसी के द्वारा केवल हठधर्मी से किए गए उग्र विरोध और निंदा या खिल्ली उड़ाने से उसका अंततः अपना भी अत्यंत अनिष्ट होता है।
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35-A elucidated.

The Nation First.
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I knew the article 370 of the Constitution of India was a temporary arrangement at that time to meet the constitutional requirements, but this video of Shri Pushpendra Kulshreshtha ji made me aware what is the section 35-A that that was annexed to it in May 1954.  I learned from this video;  It is in total contradiction to the Article 368.
I feel this my utmost duty to let every Indian know this fact as is very carefully explained by Shri Pushpendra Kulshreshtha ji.
Grateful indeed to Him.
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Wednesday, 12 June 2019

धर्म और विचार

धर्म-आधारित विचार और विचार-आधारित धर्म
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यहाँ थोड़ा स्पष्टीकरण ज़रूरी है।
जैसा कि पिछले किसी पोस्ट में लिखा जा चुका है;
जिसे Religion के नाम से 'धर्म' का पर्याय मान लिया गया है वह 'धर्म' relegated to relics है।
विदेशियों ने पूर्वाग्रहग्रस्त मानसिकता से जानबूझकर या बौद्धिकता के दम्भ से भारतीय सनातन धर्म, संस्कृति दर्शन, विचार और वैदिक-पौराणिक सन्दर्भों को अत्याचार और अन्यायपूर्वक, छल-प्रपंच से इतना अधिक विकृत कर प्रस्तुत किया है, कि आज हम विदेशी रीति-रिवाजों, परंपराओं, रूढ़ियों को 'धर्म' का कोई भिन्न प्रकार मानने लगे हैं।  और अपने इस भ्रम की ओर हमारा ध्यान तक नहीं जाता।
इसी प्रकार हम यह भी मान चुके हैं, कि 'विचार' का अनुवाद 'thought' या 'thought' का अनुवाद 'विचार' है।     
इसा प्रकार एक रोचक बौद्धिक भूलभुलैया में हम सतत घूम रहे हैं।
ज्ञान की भारतीय सनातन धर्म की परंपरा में 'धर्म' को अविनश्वर / अविनाशी वैश्विक गतिविधि के रूप में मान्य किया जाता है। वह इस अर्थ में अनादि और अनंत है कि जिस भौतिक समय को हम केवल विचार ही विचार में कल्पित कर उसे अतीत में अनादि और भविष्य में अनंत समझते हैं वैसा न तो कोई अतीत और न कोई भविष्य परिभाषित ही किया जा सकता है।  जिसे वैयक्तिक अतीत और भविष्य कहा जाता है और जिसे समूह का अतीत और भविष्य कहा जाता है, वैश्विक तल पर काल की विराट समष्टि में वैसा कोई अतीत या भविष्य नहीं होता।  क्योंकि उस विराट काल का सन्दर्भ-बिन्दु (point of reference) सदैव मनुष्य ही होता है। शुद्ध भौतिक विज्ञान पर आधारित संकल्पनाओं से हम स्थूलतम आधार पर द्रव्य, ऊर्जा और इनके बीच के क्रिया-कलापों के लिए कोई तथाकथित गणितीय और वैज्ञानिक नियम अवश्य ही खोज सकते हैं, और खोजते  ही रहते हैं,  लेकिन वे स्थूल तल पर ही तभी तक 'सत्य' होते हैं जब तक कि उनका विचार किया जाता है। विचार का यह प्रकार शब्दों को दिए गए उनके अर्थ-विशेष पर निर्भर होता है। यह भी सच है कि स्थूल स्तर पर अतीत की घटनाओं की पुनरावृत्ति की प्रयोग से पुनः पुनः परीक्षा और पुष्टि कर हम अपने विचार और विचारों को सुगठित स्वरूप दे देते हैं, किन्तु इससे उन नियमों की वैश्विक सत्यता है यह सिद्ध नहीं होता। संक्षेप में वे सब नियम जटिल और गणितीय सिद्धांत भी हमारी जागृत अवस्था में ही, और वह भी जब वे हमारे चिंतन का विषय होते हैं शायद अटल सत्य होते हों। वह विषय-निरपेक्ष अकाट्य सत्य जिसे विवेचनात्मक विचार से ग्रहण किया जा सके, न तो सिद्धांत में ढाला जा सकता है, न प्रयोग से सिद्ध किया जा सकता है। यूँ कहें कि बुद्धि (अर्थात् तर्क) ही किसी सत्य का आधार और आश्रय होता है, किन्तु स्वयं बुद्धि और तर्क भी सूचनापरक ज्ञान से सीमित होता है।  लेकिन ऐसा सत्य है ही नहीं, यह कहना जल्दबाज़ी और अधीरता होगा।
फिर भी यह अकाट्य / अटल सत्य वैयक्तिक, सामूहिक और समष्टि के तल पर समस्त बुद्धियों का स्रोत / मूल उद्गम है इसमें संदेह नहीं। 
कभी-कभी हमारी बुद्धि अत्यंत स्तब्ध और निर्विचार होते हुए हमें एकाएक उस प्रज्ञा की एक झलक मिल जाया करती है, जो अनुभवगम्य न होते हुए भी जिसका बोध असंदिग्ध और निर्विवाद रूप से होता है। जहाँ अस्तित्व ही बोध तथा बोध ही अस्तित्व होता है। जहाँ व्यक्तित्व तथा उसकी पहचान (स्मृति) तक विदा हो जाती है, इसलिए संसार और विचार भी खो जाता है। क्योंकि 'पहचान' ही 'स्मृति' और 'स्मृति' ही पहचान है, और ये दोनों एक ही प्रतीति के दो पहलू हैं। एक के अभाव में दूसरा नहीं हो सकता।  इसलिए सरल स्वाभाविक बोध किसी पहचान की अपेक्षा नहीं रखता और जब हम वस्तुतः उत्सुक और जागरूक, और संसार या संसार से जुडी किसी भी वस्तु को बेहिचक भूल जाने के लिए खुशी खुशी राज़ी भी होते हैं, तो अनायास ही उसका दर्शन हो जाता है। पर तब हम मृत, मूर्च्छित या पत्थर की तरह असंवेदनशील भी कदापि नहीं होते। तब हमारा 'धर्म' अनायास किसी दुर्लभ पुष्प की भाँति उमगकर खिल उठता है, जिसमें सृष्टि से अपनी एकाकारिता में तन्मय होकर हमें किसी ऐसे तत्व का साक्षात्कार होता है जो विचार की उपज नहीं होता। बाद में हम उस साक्षात्कार (revelation) को विचार में ढाल सकते हैं लेकिन तब वह गूँगे का गुड़ होता है।   
दूसरी ओर कभी कभी कोई घटना हमें इस तरह झकझोर भी सकती है कि हम बस असहाय और किंकर्तव्य-विमूढ़ हो जाते हैं।  'सकते में, 'shocked' 'stunned' शायद इसे 'stoned' भी कह सकते हैं। ऐसा नहीं कि तब हमारे प्राण जड हो जाते हों और हम शारीरिक हलचल या कार्य तक न कर सकते हों, लेकिन मन के स्तर पर हम इतने ठिठक जाते हैं कि कोई भावना, विचार या प्रतिक्रिया पैदा तक नहीं होती। यूँ कहें कि बुद्धि बिलकुल कुंठित हो जाती है। शायद हम बस 'सहम' भर जाते हैं । किसी तरह एक असह्य दीर्घकाल तक उसमें पड़े रहने के बाद ही हम कुछ सोच पाने में सक्षम हो पाते हैं।  और कुछ दिन या महीने बीत जाने के बाद हम उसे शायद भूल जाते हैं।
मनःस्थिति और परिस्थिति इन दो आधारों पर हमारा 'धर्म' बनता / बिगड़ता और बदलता रहता है। यह मनःस्थिति और परिस्थिति दोनों एक दूसरे को प्रभावित करते हैं और हमारा 'विचार' उस दलदल में केंचुए सा रेंगता रहता है। 
विचारजनित परंपराओं, विश्वासों, आग्रहों और रूढ़ियों, आस्थाओं आदि की पुनरावृत्ति से एक संमोहन पैदा होता है, और हम 'धर्म' को एक संकीर्ण और प्रायः कट्टर सोच तक सीमित कर लेते हैं। ऐसे 'धर्मों' में परस्पर अविश्वास, भय और कठोरता, वैमनस्य, शत्रुता और क्रूरता भी अपरिहार्यतः होती ही है।
किन्तु मनुष्य इतना भी पशु नहीं है कि कठोरता, क्रूरता और आग्रह में निहित अधर्म को पहचान तक न सके।
लेकिन जब ऐसे उदाहरण सामने आते हैं जब कोई तथाकथित 'धर्म' और उसकी किताब या संस्थापक ही परंपराओं, विश्वासों, आग्रहों और रूढ़ियों, आस्थाओं आदि को बलपूर्वक लादते हैं, तब उन अधर्मयुक्त धर्मों के औचित्य और प्रामाणिकता पर प्रश्न उठाना ही सर्वाधिक ज़रूरी कर्तव्य है।
क्या उनसे युद्ध ही एकमात्र श्रेयस्कर कर्तव्य हो सकता है?
या क्या अहिंसक प्रतिरोध भी उनका हृदय-परिवर्तन घटित कर सकता है?
पिछले बीस तीस सालों में तिब्बत के बौद्धों ने चीनी साम्राज्य के क्रूर और कठोर शासन के विरोध में इस प्रकार से अहिंसक प्रतिरोध किया है जिसमें बौद्ध भिक्षुओं ने आत्म-दाह तक किया है। हालाँकि साम्यवाद तो धर्म को ही अफ़ीम कहता है।
क्या भारत में भी अब वैसा ही समय नहीं आ गया है?
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Friday, 7 June 2019

राजनीति का धर्म

सत्ता का धर्म 
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अस्तित्व और शक्ति किसी भी प्रकार की सत्ता के दो अनिवार्य पक्ष होते हैं।
अस्तित्व मात्र शक्ति है और शक्ति मात्र अस्तित्व।
मूलतः असीमित समष्टिरूप में, इन दोनों में कोई संघर्ष या द्वंद्व तक नहीं है, लेकिन इनके किसी अंश की तरह से व्यक्त रूप लेते ही, वह व्यक्त-अस्तित्व समष्टि का एक सीमित टुकड़ा होकर रह जाता है।
वह टुकड़ा सजीव-सचेतन हो सकता है जो अपने ही जैसे अन्य टुकड़ों के भी सजीव-सचेतन या निर्जीव-जड (चेतनारहित) होने का अनुमान कर सकता है। मूलतः वह कोई ऐसी जैव-प्रणाली होता है जो द्रव्य और ऊर्जा (matter and energy) से बना एक पिंड ही होता है जिसमें दृष्टा-दृश्य का विभाजन पैदा हो जाता है जिसमें उस पिंड को अपने आप की तरह और उससे भिन्न प्रतीत होनेवाले चतुर्दिक् संसार (जो कि वस्तुतः उस पिंड में भी व्याप्त है), के क्रमशः दृष्टा और दृश्य होने का अनुमान पैदा होता है।
इसा प्रकार समष्टि अस्तित्व और शक्ति (अर्थात् सत्ता) असंख्य जीवों के, तथा जड-चेतन, निर्जीव-सजीव पिंडों के रूप में व्यक्त संसार की तरह पाया जाता है। कोई सचेतन सजीव पिंड और उसके द्वारा अनुभव / अनुमानित किया जानेवाला संसार भी, दोनों ही परस्पर सापेक्ष और अन्योन्याश्रित होते हैं।  इसलिए जितने पिंड हैं उनमें से प्रत्येक का अपना एक विशिष्ट दृश्य संसार होता है जिसमें दृष्टा व्यक्ति / व्यष्टि नितान्त अकेला, एकाकी होता है। चूँकि ऐसे असंख्य व्यक्ति इस प्रकार व्यक्त होते हैं इसलिए उनमें से प्रत्येक ही अस्तित्व और शक्ति का एक अनोखा (unique) उदाहरण होता है।
द्वितीयाद्वै भयम्।
दूसरे के होने की, -'अस्तित्व की'- प्रतीति ही भय है।
The other is hell!
क्योंकि तब अपने अस्तित्व के नष्ट होने की आशंका पैदा हो जाती है।
वह 'दूसरा' ही भय है।
वह अज्ञात और अपरिचित है।
अपने अस्तित्व को बनाए रखने की चिंता और प्रयत्न ही व्यक्ति को विभिन्न प्रकार के समस्त उपभोगों (भोगों) की और आकर्षित करता है। और कुछ विचित्र बात यह है कि कोई न कोई 'दूसरा' ही उस भोग का साधन हो सकता है। इस प्रकार भोग / उपभोग के हर साधन से :
love-hate-relationship
पैदा हो जाती है।
गीता अध्याय 7 श्लोक 27 के अनुसार :
इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।
इस प्रकार प्राणीमात्र जन्म से ही इच्छा (आकर्षण, राग) तथा द्वेष (विकर्षण) से युक्त होता है।
यह है किसी भी relationship का सारतत्व।
भर्तृहरि अपने वैराग्यशतक में कहते हैं :
भोगे रोग-भयं कुले च्युति-भयं वित्ते नृपालाद्भयम्
माने दैन्य-भयं बले रिपुभयं रूपे जरायाभयम्।       
शास्त्रे वादि-भयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयम्
सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्।। 31
भोग (करने) में रोग होने का, उच्च कुल में पैदा होने से कुल की मर्यादा से च्युत हो जाने का, धन-संपत्ति होने पर राजा का, प्रतिष्ठा-सम्मान होने पर भविष्य में उसके समाप्त होने से दीन हो जाने का, बल होने पर शत्रु / प्रतिस्पर्धी का, और रूपयौवन-संपन्न होने पर बूढ़े हो जाने का डर लगा रहता है।
शास्त्र के ज्ञाता होने पर दूसरे शास्त्रवेत्ताओं से वाद-विवाद तथा हार का, गुण होने पर दुष्टों द्वारा गुण का दुरुपयोग किये जाने का, शरीर के रहने तक यमराज (मृत्यु होने) का डर होता है।
संसार की हर वस्तु मनुष्य के लिए भय से पूर्ण है, केवल वैराग्य ही अभय है।
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यदि वैराग्य ही अभय है तो ऐसा वैराग्य कैसे उत्पन्न किया जा सकता है ?
अपने अस्तित्व और शक्ति का भान / प्रतीति तीन स्तरों पर हो सकती है :
व्यक्ति के स्तर पर, समूह के स्तर पर, और समष्टि के स्तर पर।
व्यक्ति के रूप में मनुष्य भी शरीर के स्तर से तो पशु ही है, क्योंकि वह भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, जागृति-निद्रा, रोग-व्याधि, जीवन-मृत्यु के पाश में बँधा है।
मन के स्तर पर मनुष्य (का मन) ईर्ष्या-द्वेष, राग-भय, काम-क्रोध, हर्ष-विषाद आदि के पाश में बँधा है।
इसी का विस्तार सामूहिक स्तर तक होने से मनुष्य दूसरे पशुओं की तरह, अपने समूह के लिए चिंतित होता है।  अर्थात् वह समूह के भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी, जागृति-निद्रा, रोग-व्याधि, जीवन-मृत्यु, ईर्ष्या-द्वेष, राग-भय, काम-क्रोध, हर्ष-विषाद आदि से प्रेरित हुआ समूह के दृष्टिकोण को महत्त्व देता हुआ तदनुसार आचरण करता है। समूह के लिए प्राण तक न्यौछावर करना उसका आदर्श हो सकता है।
यहीं से मनुष्य में राजनीति पैदा होती है।
मनुष्य की राजनीति के दो प्रकार हो सकते हैं :
पहला, समूह के सापेक्ष अपने अस्तित्व और शक्ति अर्थात् 'सत्ता' के संरक्षण और संवर्धन का प्रयास, जो व्यक्ति और समूह में उसकी स्थिति पर निर्भर होता है।
समूह व्यक्ति का तथा व्यक्ति समूह का शोषण करता है।  न सिर्फ यह, बल्कि  विभिन्न समूह भी एक-दूसरे का शोषण करते हैं।
दूसरा, समष्टि-धर्म के अनुसार अपने, समूह के और राष्ट्र / संसार के संरक्षण और संवर्धन के लिए जो किया जाना उचित है वैसा आचरण करना।
इस प्रकार राष्ट्र (राज् - राजति, राजते - जो चमकता है अर्थात् स्वयं ही दूसरों को दिखाई पड़ता है, - इति राष्ट्रः) अर्थात् सारे संसार का जिससे कल्याण हो उस प्रकार से कार्य करना। 'राज् - राजति, राजते' से ही एक अन्य संज्ञा बनती है राज्य, जो शासन के अर्थ में पृथ्वी के एक हिस्से पर लागू होता है, जिस पर कोई राजा शासन करता है। वैदिक सनातन धर्म में इसे ही क्षत्रियवर्ण कहा गया है। यहाँ उल्लेखनीय है कि मनुष्य स्वयं ही जीवों की एक 'जाति' है, इसलिए सनातन धर्म के अनुसार सभी वर्ण मनुष्य के हैं और इस मनुष्य के वर्ण होते हैं, जिसमें कोई 'जाति' नहीं हो सकती।  'जाति' शब्द का प्रयोग वर्ण से जुड़े पैतृक परंपरा से प्राप्त व्यवसाय या आजीविका के लिए भी गौण अर्थ में किया जाता है, किन्तु वह 'जाति' वैसी कोई भेदमूलक व्यवस्था नहीं है, जैसी कि 'वर्ण' है।
गीता अध्याय 4 का श्लोक 13 में इसे और स्पष्ट किया गया है :
चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।
तस्य कर्तारमपि मां विद्धि विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।
"मनुष्य-जाति में भी मनुष्यों में विद्यमान उनके गुणों और कर्मों को प्रेरित करनेवाली उनकी अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार, उनके ये चार वर्ण मेरे ही द्वारा सृजित किये गए हैं। उस चातुर्वर्ण्यता का कर्ता (करनेवाला) भी मुझे ही जानो, और साथ ही उसे भी जानो, जो यह सब करता हुआ भी वस्तुतः अकर्ता एवं अविनाशी (जन्म-मृत्युरहित) है।"            
राज्य के शासन की नीति ही राजनीति का दूसरा प्रकार है। ऐसा राजा स्वयं भी धर्म से शासित होता है। इसी प्रकार, ब्राह्मण, वैश्य तथा शूद्र वर्णों को भी धर्म के शासन में रहने के लिए सनातन धर्म के शास्त्र शिक्षा देते हैं। शिक्ष् (सीखना) और शास् (सिखाना) दोनों ही शिक्षा के समानार्थी हैं।
इस प्रकार से 'शासन' का अर्थ हुआ शिक्षा की व्यवस्था।
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Thursday, 6 June 2019

The Oasis,

रब दा वास्ता     
वाह, ...  व्वाह ! शाद्वल,
हरित-भूमि !
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वाल्मीकि रामायण में शाद्वल शब्द का प्रयोग वन के उस हिस्से के लिए किया गया है जो 'अरण्य' नहीं है।
'अरण्य' के भी पुनः दो अर्थ किए जा सकते हैं।
पहला वह जो रण, अर्थात् रणभूमि नहीं है।
'रण' वही है जिसे  रेगिस्तान कहा जाता है।
रण वह मैदान है जहाँ ज़मीन पर कोई वनस्पति तृण आदि तक का अभाव होता है।
इसलिए प्राचीन-काल में योद्धा ऐसे मैदान पर युद्ध करते थे।
'अरण्य' वह है जहाँ युद्ध कर पाना कठिन होता है।
'अरण्य-रोदन' ऐसे ही वन में रोने को कहा जाता है, जहाँ आपकी आवाज़ सुननेवाला कोई नहीं होता।
'शाद्वल' वन में वृक्षों, लताओं, फूलों आदि से भरा एक टुकड़ा होता है।
'शाद्वल' रण में या अरण्य में भी हो सकता है।
जिसे अरबी भाषा में 'वाह' या 'व्वाह' कहा जाता है।
अंग्रेज़ी के wow से भी यह मिलता-जुलता है !
अरबी भाषा में खजूर को 'नख़ल' कहा जाता है और रेगिस्तान में जहाँ हर तरफ रेत ही होती है और भूमिगत जल भी होता है, किसी हिस्से में नख़लिस्तान / शाद्वल भी पाया जाता है।  मानव-बस्ती के लिए ऐसे ही कुछ स्थान रहने के लिए अपेक्षतया उपयुक्त होते हैं। प्राचीनकाल से ही ऐसे भौगोलिक क्षेत्रों में ऊँटों की बहुतायत रही है।  यह शोध का विषय हो सकता है कि ऊँटों की बहुतायत होने से ऐसे क्षेत्र धीरे-धीरे मरुस्थल बन गए, या मरुस्थलों के कारण कुछ स्थानों पर जहाँ भूमि में जलस्रोत थे, ख़जूर के वृक्ष बढ़े-पनपे।
जो भी हो मनुष्यों ने उन भौगोलिक क्षेत्रों की पहचान की।
संस्कृत में शात (मूल शा धातु, 'तेजने' - तेजयुक्त होने, करने के अर्थ में, शान इसी से व्युत्पन्न होता है,) से ही निशात बनाता है।  जैसे 'स्तब्ध' और 'निस्तब्ध' या 'निःस्तब्ध' समानार्थी होते हुए भी पहले 'स्तब्ध' का अर्थ 'ठिठका हुआ' भी होता है, जबकि 'निःस्तब्ध' का अर्थ 'अत्यंत शान्त' होता है।  निशातबाग तो सुना ही होगा! इसका जो भी तात्पर्य ग्रहण करना चाहें ठीक ही है।
इसी प्रकार 'निशा' अर्थात् रात्रि को भी दो प्रकार से समझा जा सकता है। 'शाम' अर्थात् सायं को भी।
अंग्रेज़ी में नख़लिस्तान को oasis कहा जाता है।
यह भी अव-शिष् का सज्ञात cognate है।  अर्थ है : जो शेष रहता है।
ऐसा ही एक शब्द है 'oath' जिसकी व्युत्पत्ति 'अव-वद' , 'अव-वच' दोनों से की जा सकती है।
जैसे अथ, तथ, व्यथ (वि अथ), रथ, कथ, मथ, पथ, आदि में 'थ' प्रत्यय वर्ण (suffix) से जुड़कर निश्चित अर्थ रखनेवाले किसी शब्द को बनाता है, वैसे ही 'अव-थ' भी।
अरबी भाषा की संरचना इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि संस्कृत की ही तरह एक एक वर्ण चाहे वह मूल प्रातिपदिक हो या प्रत्यय से युक्त हो भिन्न भिन्न वर्णों से जुड़कर बहुत भिन्न अर्थ देता है और जहाँ तक मेरा अनुमान है अरबी भाषा के प्रत्येक शब्द की उत्पत्ति वैसे ही समझी जा सकती है जैसे कि संस्कृत भाषा के प्रत्येक शब्द की होती है। लिपि के कारण अवश्य दोनों भाषाओं में प्रत्ययों / उपसर्गों के जुड़ने के अपने नियम बदल जाते हैं लेकिन मूल सिद्धांत समान हैं।
विगत 1400 वर्षों के इतिहास के कारण एक कठिनाई अवश्य पैदा हो गयी है कि अरबी भाषा को प्रायः क़ुरान के सन्दर्भ में ही सीखा / पढ़ा जाता है, जबकि इसे क़ुरान से स्वतंत्र रूप में भी सीखा पढ़ा जा सकता है। यह तो मानना ही होगा कि क़ुरान और इस्लाम का आगमन होने से पहले भी अरबी भाषा लिखी-पढ़ी और बोली जाती रही होगी।
अरबी, हिंदी, उर्दू, और पंजाबी का 'रब' से वही संबंध है, जो हिब्रू भाषा में Rabbi  /ˈræbaɪ/ से 'रब' का है।  
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अरबी, फ़ारसी, हिब्रू, उर्दू, रब, पंजाबी,
रब दा वास्ता,
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कथा की फलश्रुति

वाल्मीकि रामायण,
अरण्यकाण्ड,
एकादश सर्ग
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जब भगवान् श्रीराम महर्षि अगस्त्य की प्रशंसा करते हुए अपने छोटे प्रिय भाई लक्ष्मण से इल्वल और वातापि की कथा कह चुके, तो श्री लक्ष्मण ने मुस्कुराते हुए उनसे निवेदन किया :
भैया, महर्षि अगस्त्य और इल्वल तथा वातापि कथा इतनी ही है, या उसमें कुछ गूढ तत्व भी छिपा है, जिसे मैं ग्रहण नहीं कर पा रहा हूँ ? यदि मेरी जिज्ञासा अतिप्रश्न न हो तो कृपा कर इस विषय में मुझसे कहें ।
तब भगवान् श्रीराम ने मन्द स्मितपूर्वक उनसे कहा :
"लक्ष्मण ! तुम संकेत से भी सत्य का ग्रहण कर लेते हो, -लक्षण से भी त्याज्य और अत्यज्य की विवेचना कर लेते हो । यह विवेचना ही विवेक है जिसे नित्य-अनित्य के बारे में जिज्ञासापूर्वक किए जाने पर मनुष्य परम श्रेयस् की प्राप्ति कर लेता है । किन्तु वह ज्ञान का मार्ग है और तुम्हारी वर्तमान की जिज्ञासा से प्रत्यक्षतः संबंध नहीं रखता ।
तुम्हारी बुद्धि के अनुकूल मैं तुम्हारी जिज्ञासा का समाधान करने का यत्न करूँगा, जिससे तुम्हें उसी श्रेयस् की प्राप्ति इसी क्षण हो जाएगी जिसके लिए मनुष्य, तपस्वी, ऋषि अनेक जन्मों तक कठिन तप और स्वाध्याय आदि करते हुए सहस्रों वर्षों में दुर्लभता से प्राप्त करते हैं ।
सुनो! इल्वल मनुष्य की बुद्धि है, वातापि विचार है, महर्षि अगस्त्य गुरु हैं और ब्राह्मण लौकिक ज्ञानी हैं जिन्हें, कर्मकाण्ड आदि से इस लोक और परलोक के बारे में बहुत ज्ञान होता है, किन्तु वे न तो आत्मज्ञानी, न ब्रह्मज्ञानी, न मुक्त और न मुमुक्षु ही होते हैं । हाँ वे श्राद्ध संकल्प आदि कर्मकाण्ड में भी पारंगत हो सकते हैं । विषय मेष-शाक है, जो अचर वनस्पति भी हो सकता है, या सजीव और चर मृग आदि प्राणी भी । इसलिए ऐसे ब्राह्मण भी विषयों के उपभोग के आकर्षण से बच नहीं पाते ।
और भी सुनो !
मन, चित्त तथा अहंकार, ये तीनों बुद्धि के ही पर्याय हैं । बुद्धि ही विचार के माध्यम से ’विषयों’ को आहार बनाकर स्वयं का श्राद्ध करती है । यही विचार पुनः बुद्धि को पुष्ट करते हैं । यह प्रक्रिया ही इल्वल और वातापि के माध्यम से कही गई है । तुम्हारे जैसे लक्षण-शास्त्र के विद्वानों के लिए ही यह संभव है कि लक्षणों में से जहत्-अजहत्-लक्षणा से विवेकपूर्वक त्याज्य और अत्याज्य लक्षणों को समझ लो । इतना ही पर्याप्त है ।
जिन्हें कर्मकाण्ड में पारंगत ब्राह्मण नहीं पचा सकते थे और जो उन ब्राह्मणों के पेट विदीर्ण कर उन्हें ही अपना आहार बना लिया करते थे, महर्षि अगस्त्य ने मेष-शाक रूपी उन विचारों (अहं-प्रत्ययों) का आहार कर लिया और उन्हें पचा भी लिया । इसके बाद उन्होंने (ज्ञान की) दृष्टि-मात्र से ही इल्वल का भी संहार कर दिया । 
यही इस कथा की फलश्रुति भी है ।"
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 (कल्पित)  अगस्त्य-क्रान्ति, अहंकार-चतुष्टय

Sunday, 2 June 2019

Lotus in the Sahara (The Desert)

This Long Summer
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I would think of trying to plant and grow Lotus in the Sahara (The Desert)...
Before that, want to secure six posts lest they go away from my p.c.
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सृष्टि-विद्या और मूर्तिपूजा 
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