Friday, 30 November 2018

दृष्टिकोण / एक नज़रिया

अपने एक अन्य ब्लॉग
Hindi-ka-blog
में एक कविता अभी पोस्ट की।
उसे ही यहाँ उद्धृत करने का लोभ संवरित न कर सका।  
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दृष्टिकोण / एक नज़रिया जीवन को देखने का यह भी तो हो सकता है !
सुख कहाँ नहीं है?
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शीत में धूप का सुख,
ग्रीष्म में छाया का,
माया में ब्रह्म का सुख,
ब्रह्म में माया का,
देह में प्राणों का सुख,
प्राणों में काया का,
काया में जगत का सुख,
सुख में सब समाया सा।
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कविता 

Thursday, 29 November 2018

Real The perpetual and Timeless.

Below is an approximate translation of my last, the earlier
Hindi Post .
सनातन सत्य / सनातन धर्म
 The Last Writ .
The Reality of Existence that is both the perpetual as well as Timeless is though Eternal is indeed indescribable.Neither it is needed.
Relationship between the Description and the Described is what is the ever-present Truth that is 'Consciousness' .
Relationship as we know is though an assumed  mental construct / imagination / concept only, could be either transitory or temporary; or a permanent, ceaseless, perpetual one.
A relationship with the transitory, ephemeral, is no doubt temporary, but a relationship that connects with the ever-present abiding Reality could sure be a Timeless, ceaseless, unending eternal one.
But to see this, it is utmost necessary that we truly know and come across something which could be seen and found as eternal as such.Neither the intellect, thought, concepts, assumptions, guess, premises, surmises estimates and inferences, nor even the experience, emotions etc. could stay for long. All vanish in their time.
If there is anything that stands to the criteria of Timelessness, perpetuity, it is the 'Consciousness', that is so inconspicuous yet so evident as well always.
This 'Consciousness' has no beginning nor an end, For the very beginning and the end are seen within it. Even the I-sense, that appears and disappears too rises up, sprouts from the 'Consciousness', which prevails before , with and after the disappearance of the I-sense.
I-sense is therefore only a trifleof thought that happens in a split moment and is lost.
So, the 'Consciousness' is not a thing one could hold, own, grasp and claim oneself its owner.
On the contrary it is the 'Consciousness' that holds and bears innumerable life-forms; -the individual creatures and the sense of 'I' associated with and in each of them. nd as an individual every one is but an expression of that impersonal 'Consciousness' which is the substratum, foundation and the very support of the individual.
'Consciousness' itself is evidence of anything, including itself. And this is Timeless Reality. Because if it were transient, there should be another 'consciousness' that is its evidence. This is just absurd.
Therefore 'Consciousness' alone is Truth that is non-dual. Because all sense of duality/ plurality / multiplicity is merely an idea only .
 Again, it is also true that 'Consciousness' alone changeless and immutable state / fact while all else constantly undergoes change, mutates so is not the Reality worth its name.
In this way, 'Consciousness alone is the pointer that points out at itself as well.
And so, all that is seen coming and going away in the 'Consciousness'is temporary, of no value what-so-ever, and consequently illusory, Because everything that appears and disappears has no essence of its own. It is but the name and the form that is perceived in 'Consciousness' that causes a sense of our world for a short while only.
Waking dream and deep sleep states like-wise the sense of 'I'are temporary phases of mind and so are transient. They don't last.
Abiding in this pure Consciousness is the only way to be in communion with the Timeless; -the Ceaseless Eternal Reality.
This is what is expressed as सनातन सत्य / सनातन धर्म in the Upanishads.
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The Last Rites.....
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Sunday, 25 November 2018

सनातन सत्य / सनातन धर्म

संबंध : नित्य-अनित्य
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संबंध वैसे तो एक मान्यता और कल्पना होता है, लेकिन अनित्य या नित्य हो सकता है।
अनित्य से संबंध तो अनित्य होता ही है, नित्य से संबंध अवश्य नित्य हो सकता है।
लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि किसी ऐसी नित्य वस्तु की पहचान हमें हो।
न बुद्धि नित्य है, न विचार, न धारणाएँ, न मान्यताएँ, न अनुमान, न आकलन, न निष्कर्ष या अनुभव, भावनाएँ आदि। यदि नित्य कुछ है, तो वह है चेतना। यहाँ तक कि चेतना में आने-जानेवाली 'मैं' की भावना तक अस्थायी और इसलिए अनित्य है। चेतना इसलिए 'मेरी चेतना' जैसी व्यक्तिगत स्वामित्व की कोई चीज़ नहीं है। चेतना निर्वैयक्तिक सत्य है जिसमें असंख्य व्यक्ति-चेतनाएँ वैयक्तिक रूप से प्रकट और विलीन होती रहती हैं। 
चेतना किसी भी वस्तु का एकमात्र ठोस प्रमाण है किन्तु चेतना मूलतः तो स्वयं ही स्वयं का प्रमाण है, और यह सदा नित्य है क्योंकि यदि यह अनित्य होती तो इसकी अनित्यता का प्रमाण क्या होता?
इस प्रकार चेतना ही अद्वैत-सत्य भी है क्योंकि समस्त द्वैत अनित्य और मिथ्या हैं। 
और यह भी सत्य है कि चेतना ही नित्य अविकारी (changeless / immutable) सत् है जबकि शेष सब कुछ सतत विकारग्रस्त (changeable) होने से अस्थायी और असत् (false) है। 
इस प्रकार चेतना ही वह संकेत है जो स्वयं ही अपनी नित्यता का संकेत-चिह्न भी है।
इस नित्य सत्य चेतना में आने-जानेवाली हर वस्तु अनित्य और इसलिए मिथ्या है, क्योंकि वह न तो सत्य है न असत्य, किन्तु चेतना से संबंधित होने पर ही प्रतीति (appearance) की तरह अनुभव की जाती है।
जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति, यहाँ तक कि 'मैं' की भावना तक अस्थायी और इसलिए अनित्य है।
'मैं' की भावना तक से रहित इस विशुद्ध चेतना में स्थिर रहना नित्य से संबंधित होना है।
इसलिए यह सनातन सत्य है, यही सनातन धर्म भी है।  
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स्मृति से परे

कलाकार की संगीत-साधना 
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1. राग 
मंच पर वह कलाकार सचमुच बहुत श्रम और कौशल से अपनी संगीत-रचना प्रस्तुत कर रहा था। सारंगी एक ही स्वर में निरंतर बजती जान पड़ती थी।  कलाकार अपने वाद्य-यंत्र पर धीरे-धीरे एक एक स्वर उठा रहा था।  बहुत देर तक भिन्न-भिन्न स्वरों का संधान करने के पीछे कला-प्रदर्शन का भाव बिलकुल नहीं था। फिर उसने एक टुकड़ा उठाया और पाँच स्वरों का एक राग मूल स्वरूप में बजाने लगा।  स्वर अब भी मंद-गति से एक के बाद एक क्रम से बज रहे थे जिनके बीच कब एक स्वर से दूसरा प्रकट होता था इसका आभास तक न होता था।  कोई भी स्वर कच्चा न था।  सभी मँजे हुए स्वर उसी प्रकार से निरंतर दुहराए जा रहे थे जैसे पिछली बार बजे थे।  इस प्रकार एक क्रम और एक समय, कल्पना में सृजित हुआ। सारंगी बहुत सामञ्जस्य से हर अगले स्वर के संवादी स्वर को उठा रही थी।  इस प्रकार सब कुछ अत्यंत सुचारु रूप से परस्पर संयोजित था।  Perfectly well-synchronized. तबला जो अपेक्षाकृत मंद स्वर में बज रहा था सारंगी और उस वाद्य-यंत्र के वादन को ताल के माध्यम से निश्चित समयावधि में बजनेवाले समय के लिए आधार प्रदान कर रहा था।  सब कुछ एक मोहक जादू की सृष्टि कर रहा था। धीरे-धीरे राग के स्वर भिन्न भिन्न उतार चढ़ाव लेते हुए भी उन्हीं पाँच स्वरों की मर्यादा, विस्तार और विकास थे जिनसे राग की पहचान होती है।  श्रोता यद्यपि मंत्र-मुग्ध थे लेकिन हर श्रोता समान रूप से कला का आस्वाद ले रहा हो ऐसा नहीं कहा जा सकता था।  हर श्रोता सामान रूप से एकाग्र और दत्तचित्त रहा हो यह नहीं कहा जा सकता था।  क्योंकि हर श्रोता के चित्त का वाद्य-यंत्र उसकी स्मृति में बजनेवाले उन स्वरों को पूरी तरह चुप न करा पाया था जो इस आस्वाद में बाधा डालते थे।  वे स्वर भी उसे कम या अधिक और निरंतर सुनाई दे रहे थे, यद्यपि उनमें से शायद ही किसी को इसका आभास रहा हो।
फिर भी राग के आरोह-अवरोह के सुदीर्घ, सरल किंतु बंकिम पथ पर कभी धीमे कभी तेज़ क़दमों से मंदगति से चलते, ठिठकते या दौड़ते-भागते वे स्वर कितने काल तक गतिमान हुए या स्तब्ध से बजते रहे शायद ही किसी को पता चला हो।
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2. ताली और ख़ाली 
उसे मैं बरसों से जानता था।  लगभग मेरे बचपन ही से।  उसने संगीत सीखने के लिए किसी का आश्रय कभी नहीं लिया था।  उसे यह मालूम था कि संगीत साधना है, व्यवसाय या आजीविका का साधन नहीं।  और मैं ही क्या, उसके हम सभी मित्र, परिचित-अपरिचित उसके 'अभ्यास' को उसकी सनक समझते थे, और उस पर हँसते थे ।  किन्तु वह एक ही वाद्य-यंत्र पर बरसों श्रम करता रहता था, जब तक कि स्वर 'सिद्ध' न हो जाता था। इसके बाद ही उसने स्वरों के संयोजन की दिशा में अभ्यास प्रारंभ किया।  बहुत बाद में उसने सुना कि इन्हें 'राग' कहते हैं।  संपूर्ण, औडव, षाडव, संवादी, विवादी इस प्रकार के स्वर तथा राग, घरानों की शैली, टुकड़ा, दादरा, ठुमरी, टप्पा, मुरकी, गत, आदि शब्द तो उसे धीरे-धीरे मालूम हो चुके थे लेकिन  इसके बाद ही उसका ध्यान ताली और ख़ाली पर गया। ताली का अर्थ होता है आघात-प्रत्याघात जो हमेशा न्यूनतम स्वर-विस्तार होता था, जिसमें 'स्वर' नाममात्र के लिए अंश के रूप में जुड़ा होता था।  किंतु ताली के प्रयोग के दौरान उसे ख़ाली का महत्त्व और प्रयोजन स्पष्ट हुआ।  तुरंत ही उसका ध्यान इस ओर गया कि जैसे शून्य और एक, दोनों यूँ तो गणितीय अवधारणाएँ / संकल्पनाएँ हैं, और उनके संयोग से कोई संख्या कल्पित की जाती है, फिर भी शून्य के चरित्र पर सोचते हुए वह अचंभित होकर रह जाता था।  किसी वाद्य-यंत्र पर चाहे वह राग के लिए प्रयोग में लाया जाता हो, या ताल के लिए, ताली का प्रयोग ख़ाली पर ही निर्भर और ख़ाली से ही परिभाषित होता था।  कहना होगा कि शून्य प्रथम, मध्य और अंतिम भी था।  ताली, ख़ाली से ही उमगती थी, एक जादू पैदा होता था, श्रोता मंत्रमुग्ध होकर तालियों की गड़गड़ाहट से प्रसन्नता व्यक्त करते थे, किंतु ख़ाली फिर भी किसी अदृश्य सत्ता की तरह नेपथ्य में उपस्थित रहती थी। वर्चस्व उसका ही होता था।  बिना कोई आक्रमण किए।
उसे बहुत प्रशंसा मिलने लगी थी, किंतु उसे पूरा ध्यान था कि यह प्रशंसा, यह क्षणिक आत्म-मुग्धता उसे भ्रमित ही करती है।  उस विभ्रम से वह कभी भ्रमित या विचलित तक नहीं हुआ।  अपनी वीणा के स्वरों से असंख्य गन्धर्व-लोकों को प्रकट और विलुप्त करता हुआ वह सतत उस झील सा शान्त रहा जिस पर चंचल हवा के झोंकों से अनेक लहरें उठती-गिरती और विलीन होती रहती हैं, और हवा के शान्त होते ही जो पुनः दर्पण की तरह अपने चतुर्दिक फैले सौंदर्य को प्रतिबिंबित करने लगता है।
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Saturday, 24 November 2018

'विचार' और ध्यान

'विचार' का स्वरूप और ध्यान 
"मैं सोचता हूँ" बुनियादी रूप से एक भ्रामक धारणा / संकल्प है।  'विचार' चूँकि आते-जाते रहते हैं, उनका आगमन और प्रस्थान होता रहता है, इसलिए उनसे भिन्न कोई ऐसा सत्ता है ही नहीं जो उन्हें क्रियान्वित करती हो।हाँ, उन्हें बोध में जाननेवाली एक चेतन सत्ता अवश्य होती है जो विचार कदापि नहीं है।  "मैं सोचता हूँ" इस कथन में यह पहले से ही मान लिया गया है कि वही सत्ता जो उन्हें क्रियान्वित करती है, 'मैं' नामक सत्ता है। 'मैं' दृष्टा हूँ" इस विचार से उनके आने-जाने को बाधित नहीं किया जा सकता, क्योंकि 'मैं' दृष्टा हूँ" भी पुनः एक विचार है और वह भी किसी अज्ञात स्रोत से आता और जाता है।  फिर भी यह विचार उस चेतन सत्ता की ओर एक संकेतक तो हो ही सकता है जो चेतना की तरह विचार के आने-जाने की स्थिर भूमि है।
किंतु विचारों के आने-जाने का एक प्रमुख कारण होता है उस विषय और संदर्भ में हमारी दिलचस्पी होना जिससे जुड़े विचार हमें आकर्षित करते हैं।
 'राम', 'दिल्ली', 'मिठाई', 'धर्म', 'प्रेम', 'पाखंड', 'शोषण', 'पैसा', 'कविता', 'राजनीति', 'नौकरी', 'बच्चा', 'विद्वान' 'शत्रु', 'प्यार, धोखा, 'नैतिकता' जैसे असंख्य शब्दों में से केवल कोई एक शब्द भी भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में और एक ही व्यक्ति में भी भिन्न भिन्न समय पर भिन्न भिन्न भावनाएँ जगाता है। और इस भावना से ही जुडी होती है उस शब्द से हमारी उत्सुकता, हमारा आकर्षण, विकर्षण आदि। किंतु चूँकि हमारी रुचि प्रायः अनेक विषयों से जुडी होती है, और मनुष्य जितना अधिक लिखा-पढ़ा होता है उसकी रुचि उतने ही विविध रूप लेती है, इसलिए हमें लगता है कि विचारों की भीड़ हो गयी है।
स्पष्ट है कि इस छोटी या बहुत बड़ी भीड़ में भी हमारे अपने अस्तित्व का भान ही उन्हें एक सूत्र में पिरोता है और यह निःशब्द भान ही हममें उनके स्वामी होने की भावना जगाता है।  इस प्रकार भान का भावना में रूपांतरण शब्दों के सहारे क्रमशः 'मैं' की आधारभूत मान्यता बन जाता है।  विचारों और शब्दों के सातत्य / निरंतरता में हमारा ध्यान इस सरल तथ्य से हट जाता है कि यद्यपि अस्तित्व ही भान है और भान ही अस्तित्व का प्रमाण भी, 'मैं' नामक शाब्दिक पहचान अनायास विचारों को जोड़ने वाले सूत्र के रूप में 'विचारकर्ता' के रूप में विभिन्न विचारों के स्वामी की तरह स्वीकृत हो जाती है।
किंतु विभिन्न विषयों के प्रति हमारी जो दिलचस्पी होती है, उस पर ध्यान देकर विचारों का आवागमन धीरे धीरे कम किया जा सकता है। यहाँ तक कि तब मन इतना शान्त भी हो सकता है कि केवल वही विचार हमारे मन में आएँ जिनसे हमें प्रयोजन हो। आजकल 'मनोरंजन' और 'बौद्धिकता' के नाम पर अनेक व्यर्थ और हानिकारक विषय तक अखबार, मीडिया, टीवी आदि हमें  परोसते रहते हैं और तब हमें परेशानी होती है कि मन बहुत चंचल क्यों है और इसे शान्त और स्थिर, एकाग्र कैसे करें ! और फिर यह नया विचार / प्रश्न भी तमाम विचारों की भीड़ में दबकर कहीं गुम हो जाता है। जैसा कि अभी दो-चार दिन पहले ही कहीं पढ़ा था, एक अध्ययन के अनुसार आज के मनुष्य का ध्यान एक विषय पर सोलह सेकंड से अधिक समय तक सतत नहीं टिका रह पाता। इसका एक कारण तो वही है कि हमारी दिलचस्पी के विषय इतने ज़्यादा हैं कि उनमें से कुछ के प्रति हमारी रुचि बाकी की तुलना में अधिक होती है।  इसलिए ध्यान एक से अधिक विषयों की और दौड़ता रहता है। 
अपने बचपन में मैंने अनुभव किया था कि कक्षा में जब शिक्षक किसी छात्र से पूछते थे 'तुम्हारा ध्यान किधर है?' तो वास्तव में उसका ध्यान कहीं भी नहीं होने के कारण वह स्तब्ध सा खड़ा रहता था। दूसरी ओर ऐसे भी छात्र थे जिनका ध्यान एक से दूसरे विषय की ओर भागता रहता था और उन्हें 'हाज़िर-ज़वाब' समझा जाता था।  लेकिन दोनों ही स्थितियाँ ध्यान की स्वाभाविक स्थिति नहीं होतीं। प्रायः बहुत से बच्चों को मनोरंजन की ज़रूरत ही नहीं होती लेकिन अभिभावक उन्हें अनेक रोचक सामग्रियों, खिलौनों आदि से खेलने की आदत डाल देते हैं।  इसका यह मतलब नहीं की उनका विकास ही होता हो।  सच तो यह भी हो सकता है कि उनका मन 'अभ्यस्त' / occupied हो जाता है।  वे जीवन में कितना ही आगे बढ़ जाएँ इस अभ्यस्तता की ग्रंथि (obsession with the occupied state of mind) से कभी मुक्त नहीं हो पाते।  वे बचपन की उस निर्दोष सरलता को भी खो बैठते हैं जब उनका बाल-मन प्रकृति के बहुत समीप था और वे जीवन के प्रत्यक्ष संपर्क में होते थे। यदि उनका विकास उनकी स्वाभाविक गति से होने दिया जाता और उसे किसी विशिष्ट दिशा में बलपूर्वक आगे बढ़ने के लिए 'प्रोत्साहित' न किया जाता तो शायद उन्हें जीवन में स्वयं ही खोज करने की प्रेरणा भीतर से ही प्राप्त होती।
वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो 'विचार' एक त्रि-आयामी राशि  (tensor-quantity) है।  'क्व' / 'किं' से बना क्विंट / quint, quanta, quantum, quintal, दृष्टव्य हैं।   विचार पदार्थ की क्वांटम स्टेट (quantum-state) अर्थात् मूल अवस्था है। इसमें द्रव्यमान (mass) ऊर्जा / energy और गति के साथ साथ एक 'चेतन' अवयव भी जुड़ा होता है।  इनका संयुक्त (composite) / संपोषित रूप विचार नामक तरंग जिसका विस्तार 'समय' के विस्तार में भी है।  अर्थात् किसी विचार में न्यूनतम अंश समय की सूक्ष्म इकाई का भी होता है। किसी विचार के बीतने में एक सुनिश्चित समय व्यतीत होता है। अन्य स्थिर भौतिक राशियों (scaler quantities)  में समय का यह आयाम शून्य होता है। इसी प्रकार गतिशील राशियों vector quantities में गति का आयाम भी होता है जबकि विचार के साथ एक चेतन तत्व भी अनिवार्यतः जुड़ा होता है।  अन्यथा विचार बस एक मृत वस्तु  (dead thing) भर है।  छपा हुआ विचार किसी के द्वारा पढ़े जाने पर ही जीवित और जीवन्त तथ्य होता है।
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ब्रह्म, -ध्यान का विषय ?

'विषय और विषयी' के बाद उस क्रम में कुछ और महत्वपूर्ण लिख पाया हूँ।
कुछ पोस्ट्स क्रम से 'ध्यान' के स्वरूप से संबंधित हैं और ध्यान पर सर्वथा नए ढंग से प्रकाश डालते हैं किंतु उन से पहले दो-तीन अन्य पोस्ट्स प्रस्तुत कर रहा हूँ, जो ध्यान की नई भूमिका को समझने के लिए सहायक होंगे।
'ब्रह्म' पर ध्यान :
क्या ब्रह्म ध्यान का विषय हो सकता है?
 ब्रह्म के बारे में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि ब्रह्म सजातीय, विजातीय तथा स्वगत इन तीनों प्रकार के भेदों से रहित है इसलिए वस्तुतः विषय-विषयी का विभाजन ही मूलतः ब्रह्म पर आरोपित नहीं होता। किंतु जब तक अपने आपको संसार में लेकिन संसार से भिन्न और पृथक एक जीव-सत्ता के रूप में ग्रहण किया जाता है तब तक जीव विषयी के रूप में ब्रह्म को विषय की तरह मानकर उसका ध्यान करने के विचार से, उस दृष्टि से कल्पना करता है।
जहाँ तक भेद-बुद्धि है, विषय-विषयी का विभाजन तो होगा ही। किसी भी विषय से एकाकार होने पर होनेवाला अनुभव अल्पकालिक अनुभव होता है, क्योंकि निर्विषय विषयी किसी एक ही विषय पर बहुत समय तक स्थिर / संलग्न नहीं रह सकता। और, कोई भी अनुभव होने के लिए वृत्ति ही माध्यम होता है। वृत्ति के ही माध्यम से विषय-विषयी का क्षणिक तादात्म्य प्रतीत होता है। संस्कारों के कारण चित्त विभिन्न विषयों से पुनः पुनः जुड़ता और अलग होता रहता है और किसी विशेष अवसर पर यदि निर्विषय हो भी जाता है तो निद्रा या मूर्च्छा जैसा अनुभव होता है जो पुनः वृत्ति के ही प्रकार हैं। विषय से तादात्म्य की इस प्रतीति को ही स्मृति के आधार से अनुभव कहा जाता है, जो आकर चला गया लेकिन उसे पुनः स्मरण किया जाता है ।
ब्रह्म से तादात्म्य का अर्थ हुआ विषयी का विषय से तादात्म्य (एकत्व) होना। किंतु ब्रह्म में विषय का विषयी से एकाकार होने का प्रश्न ही कहाँ पैदा होता है? विषयी स्वयं ही सजातीय, विजातीय तथा स्वागत भेदों से रहित निर्विषय ब्रह्म है। 
सजातीय का तात्पर्य है एक ही जाति के अंतर्गत भेद जैसे वृक्षों में कोई नीम है, तो कोई आम इत्यादि।
विजातीय का उदाहरण है वृक्ष और पशु-पक्षियों में भिन्नता।
स्वगत का भेद है अपने एक ही शरीर में भिन्न भिन्न अंगों में भेद।
इसलिए ब्रह्म सीधे ही ध्यान का विषय तो नहीं हो सकता किंतु ब्रह्म का 'साक्षात्कार' अवश्य संभव है और यह आत्म-साक्षात्कार का ही एक रूप है।  जब अपने-आपके यथार्थ स्वरूप का इन तीनों भेदों से रहित सत्य की तरह बोध हो जाता है तो ब्रह्म का अर्थात् आत्मा का प्रत्यक्षीकरण हो जाता है। इन्द्रिय, बुद्धि, मनोगम्य समस्त विषयों का निरसन हो जाने पर चित्त जिस निर्विषय चेतना को अपने स्वरुप के रूप में जानता है वही ब्रह्म का अर्थात् आत्मा का साक्षात्कार भी है। 
यह कोई 'अनुभव' नहीं बल्कि  नित्य निज बोध का आविष्कार मात्र है, जिसे इन्द्रिय, बुद्धि, मनोगम्य विषयों से आवरित रहने तक अपरिचित और नया समझा जाता है। और इसी मान्यता के कारण ब्रह्म को भी कोई विषय मान लिया जा सकता है, और उस पर ध्यान हो सकता है या नहीं यह प्रश्न उठता है। 
आत्म-साक्षात्कार अर्थात् ब्रह्म का साक्षात् भान होते ही भेद-बुद्धि विलीन हो जाती है किंतु इससे विषयों का इन्द्रिय, बुद्धि, मनोगम्य ज्ञान समाप्त नहीं हो जाता।  तब समस्त भेद 'प्रतीति-मात्र' हैं और काल्पनिक हैं यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है।
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Thursday, 22 November 2018

तथ्य / Fact

तथ्य, सत्यता और सातत्य (?)
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कंप्यूटर i.c.u. में है।
यह तथ्य सत्यता है या सातत्य है?
पता नहीं अगली पोस्ट कब लिखूँगा !
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Computer is in i.c.u.
Fact or truth or continuity?
Don't know when the next post could be presented.
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Sunday, 18 November 2018

संसार : सत्यता और सातत्य

विच्छिन्नता और प्रच्छन्नता 
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कितने आश्चर्य की बात है कि संसार का सातत्य (सतत अस्तित्वमान होना) कल्पित है, जबकि संसार की सत्यता असंदिग्ध, निर्विवाद और अकाट्य तथ्य है।  और इन्हीं दो के बीच भेद न देख पाना मूल विभ्रम है।
एक छोटा बच्चा भी संसार को सत्य समझता है और एक बड़ी उम्र का मनुष्य भी इसे सत्य समझता है किंतु बच्चे के लिए संसार तभी तक सत्य होता है जब तक वह जागृत अवस्था में होता है और सोकर पुनः जागने पर उसका संसार उसके लिए पुनः नए सिरे से सत्य होता है।  जैसे जैसे बच्चा बड़ा होने लगता है वैसे वैसे स्मृतियों के जमा होने से उन स्मृतियों की प्रतिमाएँ एक पर एक चढ़कर संसार के सातत्य (सतत अस्तित्वमान होने) का भ्रम पैदा करती हैं और इस बीच अपनी स्वयं की सत्यता भी संसार के इस सातत्य के अनुरूप किसी प्रतिमा की तरह संसार के सातत्य (सतत अस्तित्वमान होने) का एक हिस्सा बन जाती है।  इस प्रक्रिया में निद्रा का वह अंश पूरी तरह भुला दिया जाता है जहाँ अपनी या संसार की कोई प्रतिमा नहीं होती किन्तु अपना और संसार का अस्तित्व इससे बाधित नहीं होता। अपना और संसार का वही अस्तित्व जाग जाने के बाद भी वैसा ही होता है लेकिन संसार की और उसके तारतम्य में कल्पित स्मृतियों का सातत्य (सतत अस्तित्वमान होना) इस सच्चाई से हमारा ध्यान हटा देता है।  इसलिए यह आवश्यक है कि संसार को न तो असत्य समझा जाए और न अपने से भिन्न या पृथक ही समझा जाए। तात्पर्य यह है कि अतीत स्मृतियों के माध्यम से संसार को न देखा जाए।  क्योंकि संसार जैसा प्रतीत होता है वह नित्य नया होता है जबकि स्मृति सदा पुरानी, इस वर्त्तमान से नितांत भिन्न और विच्छिन्न होती है। स्मृति को सत्य की तरह ग्रहण करना किसी सीमा तक ज़रूरी और ठीक भी हो सकता है किंतु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि उसके माध्यम से जिस संसार को ग्रहण किया जा रहा है वह 'हमेशा' वैसा होता है। इसी भूल से प्रायः हर कोई 'अपना' एक व्यक्तिगत संसार निर्मित कर लेता है जो उसकी कल्पना से भिन्न नहीं होता और इससे संसार का यथार्थ बिलकुल प्रभावित नहीं होता।  वही यथार्थ संसार की, और अपनी भी सत्यता है लेकिन उसे संसार के दूसरे 'अनुभवों' की तरह 'अनुभव' नहीं किया जा सकता।  हाँ, उसकी ओर ध्यान अवश्य दिया जा सकता है जिससे संसार की और अपनी हमेशा रहनेवाली सत्यता का बोध जागृत होता है।
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Isolation and The Underlying Reality.
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It is a wonder that the continuity of the world is imaginary, while the Reality of the world is a doubtless, indubitable, and irrefutable truth. The inability to see the difference between the two is the basic confusion / conflict. A kid treats the world as true and a grown up too takes it as true, but the kid takes the world as true only during its waking moments, and after waking up again after sleep, the world becomes true for it anew, afresh with a totally new beginning.As the kid grows up, the memories of the world that it had during waking state get accumulated in assorted order and the images made of those memories cause a delusion and confusion, conflict of the kind about the form and truth of the perceived and experienced world. Again the memory of oneself in contrast with this apparent world also in a way 'defines' an image of oneself and the memory of this image becomes a part of the memory about the world. While this happens, the fact that during sleep there is no image at all of the said world or me, is just forgotten, though the Reality is in no way affected by this whole process. The same Reality holds and abides even when one is asleep or woken up. But the continuity of the memories cover up this Truth and one just feels oneself in a world where world and the one are two different entities juxtaposed together. It is important to see that the world should neither be treated as Unreal, nor different, distinct and other than oneself (me). Because The world as it is seen every moment has ever so a new form and appearance, while this simple truth is obscured and obstructed by the memories. Because the memory is / the memories always old and dead, quite unconnected and unrelated to the present moment. Of course the memory is recognition and recognition is memory and is quite much useful in living the daily life of the individual, but at the same time the obsession with the memory gives an assumed continuity to the false, -the things non-existent. Because of this assumed and imposed sense of continuity that is the result of memory, one projects one's own imaginary world that is but living in utopia. And the Real world is in no way affected by this personal world. And That Realty is the core truth, and the very essence of the Reality, though this Reality couldn't be 'experienced' in the way one experiences the worldly things. Yet, understanding this whole thing  helps greatly in breaking the shell of the 'person' one is enclosed within.  One may become 'aware' of this Reality and leave away aside, - the personal world, that is but all sorrow and misery only.
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सवितर्क और सविकल्प

संस्कार और योगी-चरित्र
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चेतना से संवेदन, संवेदन से विचार, विचार से भावना, भावना से अनुभूति, अनुभूति से स्मृति, स्मृति से संस्कार, तथा पुनः संस्कार से स्मृति, स्मृति से अनुभूति, अनुभूति से भावना, भावना से विचार, विचार से संवेदन और संवेदन से चेतना तक जाकर चक्र पूर्ण हो जाता है।
(इसी ब्लॉग में लिखे 'आब्रह्मभुवनाल्लोका' पोस्ट से)
क्या अज्ञान अनादि है?
इस प्रश्न में दो प्रश्न अन्तर्निहित हैं :
1. अनादि का तात्पर्य क्या यह है कि इसका आरंभ नहीं ?
2. 'जिसे' अज्ञान है क्या उसका आरंभ नहीं ?
पुनः किसी भी वस्तु का आरंभ और अंत, क्या काल नामक सत्ता की अवधारणा पर ही आश्रित नहीं है?
क्या काल नामक सत्ता का आरंभ और अंत है?
काल की सत्ता वस्तुतः केवल वर्त्तमान तक सीमित नहीं है?
अतीत या भविष्य की सत्ता क्या केवल इसी वर्त्तमान में धारणात्मक या विचारगत रूप में ही नहीं होती?
तात्पर्य यह कि स्मृति और कल्पना से जिसे अतीत या भविष्य कहा जाता है क्या उसकी सत्ता वर्त्तमान पर ही आश्रित नहीं होती? इस प्रकार अतीत और भविष्य का स्वतंत्र अस्तित्व, वर्त्तमान के अभाव में, वर्त्तमान का आधार न होने पर संभव है?
इस प्रकार वास्तव में अतीत और भविष्य को हम जानते ही नहीं बल्कि (अभी न विद्यमान होने से) जिसका अस्तित्व ही नहीं उस तथाकथित अतीत और भविष्य की स्मृति और कल्पना को सत्यता देकर उसे एक घटना के रूप में व्यावहारिक तल पर ग्रहण करते हैं।  शुद्धतः भौतिक व्यावहारिक जगत में इसका सीमित उपयोग और प्रयोजन हो सकता है, किंतु वह व्यवहार नित्य सत्य नहीं है यह तो हर किसी को स्पष्ट है।  और उसके नित्य सत्य न होने से ही स्मृति-आधारित मनःसृजित कल्पना से ही, कोई घटना जो कभी हुई उसे अतीत, और वह जो कभी पुनः संभव है उसे हम भविष्य का नाम देते हैं। चूँकि अतीत स्मृति में (उसी भाषा में, जिसमें हम विचार करते हैं) लगभग यथावत् संगृहीत है इसलिए हमें पत्थर की लकीर जैसा अटल प्रतीत होता है। और जिसे हम भविष्य कहते हैं वह चूँकि असंख्य संभावनाओं की अंतहीन बहुत बड़ी भीड़, इसलिए हम भविष्य का अनुमान लगाते हैं जो कभी कभी सत्य भी सिद्ध हो जाता है। वह भी केवल शुद्धतः भौतिक सन्दर्भ में ही पूर्ण सटीकता से और त्रुटिरहित कहा जा सकता है। संपूर्ण भौतिक-विज्ञान इसी परिकल्पना पर आधारित है और उसकी संकल्पनाएँ ही 'प्रयोग' से सिद्ध होकर वैज्ञानिक सिद्धांत का रूप लेती हैं। यद्यपि इसमें गणित का भी आश्रय लिया जाना अनिवार्य ही होता है। स्थूल विषयों पर यह प्रणाली बखूबी कार्य करती है, लेकिन जैसे जैसे हम सूक्ष्म विषयों की ओर आगे जाते हैं, भौतिक विज्ञान अंततः अनिश्चितता से बच नहीं पाता।
Heisenberg का Uncertainty Principle हो या Einstein का सापेक्षता का सिद्धांत /  Theory of  Relativity, -अनिश्चितता से छुटकारा नहीं। यहाँ तक कि 'प्रकाश' / Energy है या Particle, इस बारे में भी अनिश्चयग्रस्तता वैज्ञानिक पर हावी रहती है।  यह अनिश्चितता / Uncertainty क्यों? क्या इसीलिए नहीं कि वैज्ञानिक सिद्धांत के माध्यम से उस सत्य को जानना समझना चाहता है जिसे 'भविष्य' में भी उसी तरह अकाट्य और अटल पाया जा सके जिसमें विकार अशुद्धि  न हो, जिसे विकृत (distort) न किया जा सके।
इस प्रकार वैज्ञानिक द्रव्य / matter, ऊर्जा / Energy, स्थान (दूरी) / Space (Distance), काल / Time और चेतना / consciousness इन पाँच के प्रपञ्च से परे नहीं जा पाता।
जैसे द्रव्य / matter और ऊर्जा / Energy एक ही तथ्य / Fact के दो पहलू हैं, वैसे ही स्थान / Space और दूरी / Distance,  तथा काल / Time भी वर्त्तमान / Present और अतीत-भविष्य रूपी समय के विस्तार (फैलाव)  / extension of the present in terms of 'Past' and 'Future', - के दो पहलू हैं।
यद्यपि ये सभी तत्व (elements) जड (inert and insentient) हैं, इन सबका आधार, आश्रय और प्रमाण अपेक्षाकृत कोई चेतन / conscious (sentient) सत्ता / entity है यह एक निर्विवाद तथ्य है ।  किसी तर्क, प्रयोग, या अनुभव से इसे असत्य सिद्ध नहीं किया जा सकता।  और यह स्वयंसिद्ध (self-evident) ही है।
अब हमारे सामने एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि चेतना / consciousness अर्थात् sentience का उद्भव जैव-प्रणाली के उद्भव के बाद हुआ, या चेतना / consciousness अर्थात् sentience एक ऐसा तत्व है जो पहले से विद्यमान था और जिसके अंतर्गत समस्त जीवन ने व्यक्त रूप ग्रहण किया ?
अगर मान लें कि जैव-प्रणाली के उद्भव के बाद ही चेतना का प्रस्फुटन / आगमन हुआ, तो भी यह तो मानना ही होगा कि किसी ऐसी प्रज्ञा (Intelligence) के रूप में चेतना / consciousness अर्थात् sentience बीज-रूप में इस जैव-प्रणाली में निहित कूटित कार्य-प्रणाली (encoded program) के रूप में इस प्रज्ञा (Intelligence) की तरह विद्यमान थी।  क्योंकि विज्ञान अपने खोज और अनुसंधान में जितना आगे बढ़ता है, यह तथ्य उतना ही प्रखरतः स्पष्ट होता है कि पूरे सृष्टि-क्रम में गहरा सामञ्जस्य (well-arranged pattern) है, और सृष्टि-क्रम आकस्मिक संयोगमात्र (accidental coincidental) नहीं है ।
क्या कोई ऐसा तत्व ही जगत का स्वाभाविक प्रमाण नहीं है? क्योंकि जगत दृश्य या इन्द्रियग्राह्य है, पुनः इस चेतना में ही वह बुद्धिग्राह्य है।  तत्पश्चात यह बुद्धि स्वयं भी चेतना का ही विषय है।  इस प्रकार मनुष्य में बुद्धि भी जगत और इन्द्रियों की तरह एक विषय है जिसका प्रमाण चेतना है।  यदि चेतना नहीं तो अन्य किसी के बारे में कुछ कहने का प्रश्न ही नहीं उठता।  लेकिन चेतना की विद्यमानता से ही जगत के पदार्थों, इन्द्रियों (senses), बुद्धि (Intellect), भावना (emotion and sentiments), अनुभव (feelings and experience) और अंततः 'प्राण' का अस्तित्व प्रमाणित हो सकता है। यहाँ तक कि अत्यंत दुर्बल हो जाने पर, जब 'प्राण' भी अवरुद्ध हो जाते हैं अपने अस्तित्व की चेतना समाप्त नहीं हो जाती, और प्राण की शक्ति जागृत होने पर कहा जाता है कि तब मेरी स्मृति और होश नहीं थे।
प्रश्न यह भी है कि क्या चेतना / consciousness, sentience नामक यह आधारभूत तत्व वैयक्तिक है, या द्रव्य / matter, ऊर्जा / energy, काल / Time, स्थान / Space जैसा निर्वैयक्तिक है? क्योंकि इस प्रश्न का उत्तर जान लिए जाने पर हमें स्पष्ट होगा कि हमारी वैयक्तिकता की, अपने एक स्वतंत्र व्यक्ति होने की भावना का भी उद्भव उसी मूल चेतना से ही है, जो स्वरूपतः निर्वैयक्तिक है।
केवल संस्कार से ही हमारी वह चेतना 'व्यक्ति'-भावना' बनती है और संस्कार सम्मिलित रूप से वह सब है जिससे यह लेख प्रारंभ हुआ था।
क्या प्रत्येक मनुष्य में वैयक्तिक और निर्वैयक्तिक इस प्रकार की दो चेतनाएँ होती हैं?
हर मनुष्य निरपवाद रूप से अपने-आपको 'एक' की ही तरह अनुभव तथा व्यक्त करता है और इसमें उसे कभी संशय नहीं होता। किंतु संसार में उसके जैसे असंख्य मनुष्यों में रहते हुए उसके इस स्वाभाविक बोध / भान पर अपने कोई विशेष होने का भाव इस तरह हावी हो जाता है कि अपने 'एक' होने का सरल तथ्य विस्मृतप्राय हो जाता है। यहाँ एक समस्या यह भी है कि दूसरे के अभाव में यह 'एक' होने की भावना भी लुप्त हो जाती है इसलिए भी उसका स्मरण किए जाने की संभावना नहीं रह जाती।
एक के होने के बाद ही दूसरा होता है।  दूसरे के अभाव में एक, - एक भी कहाँ रह जाता है?
'दूसरा' विकल्प है।
एक की पहचान वितर्क है।
सविकल्प और सवितर्क में यही भेद है।
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पुनः सविकल्प और सवितर्क की ही विवेचना, समाधान के रूप में क्रमशः सविकल्प समाधि तथा सवितर्क समाधि के रूप में भी की जा सकती है। जब विषयी किसी विषय से पूरी तरह तदाकार (identified) होता है तो उस तदाकारिता में, -पूर्ण तादात्म्य में सविकल्प समाधि घटित होती है।  जब विषयी किसी तर्क से पूरी तरह तदाकार (identified) होता है तो उस तदाकारिता में, -पूर्ण तादात्म्य में सवितर्क समाधि घटित होती है।  यह विषय 'अहं-वृत्ति' या 'ब्रह्माकार-वृत्ति' भी हो सकता है। यह विषय कोई संकल्प या निश्चय, संदेह या विश्वास हो सकता है जो प्रारंभ में भले ही एक वैचारिक अभ्यास रहा हो, संस्कार बन जाता है, और इस रूप में सर्वाधिक शक्तिशाली हो जाता है।
केवल सही अवधान (प्रमादशून्यता) से और विवेक के माध्यम से ही निर्विकल्प और निर्वितर्क हुआ जाता है।--                     
                            
               
       

Saturday, 17 November 2018

विवस्वान् पथ / vivasvān-patha

॥ सनातन-पथ ॥
॥ sanātana-patha ॥
॥ विवस्वान् पथ ॥
॥ त्रिशङ्कु-पथ ॥
॥ vivasvān-patha ॥
॥ triśaṅku-patha ॥
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gsat 29
वाल्मीकि-रामायण
बालकाण्ड सर्ग 60
एवमुक्ताः सुराः सर्वे प्रत्यूचुर्मुनिपुङ्गवम् ।
एवं भवतु भद्रं ते तिष्ठन्त्वेतानि  सर्वशः ॥30
गगने तान्यनेकानि वैश्वानरपथाद् बहिः।
नक्षत्राणि मुनिश्रेष्ठ तेषु ज्योतिःषु जाज्वलन् ॥31
अवाक्शिरास्त्रिशङ्कुश्च तिष्ठत्वमरसंनिभः।
अनुयास्यन्ति चैतानि ज्योतींषि नृपसत्तमम् ॥32  
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विवस्वान् पथ
इसी ब्लॉग में 'नाडी-सूत्र' या दूसरी किसी पोस्ट में मैंने उल्लेख किया है कि किस प्रकार एक रस्सी में बँधे कुछ पिंडों या पत्थरों को वेगपूर्वक गोल घुमाने से परस्पर बँधे होने से वे सभी पत्थर एक ही समतल (plane) में स्थित भिन्न-भिन्न परिधियों में घूमते हैं, इसी प्रकार सौरमंडल में सूर्य के विभिन्न उपग्रह अर्थात् बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल, बृहस्पति, शनि भी गुरुत्वाकर्षण रूपी डोरी में बँधे हुए अपनी अपनी कक्षाओं में, किंतु एक ही समतल में गतिमान रहते हैं।  यदि सूर्य के इन उपग्रहों को बिंदु मान लें तो वह समतल (plane) उसी प्रमाण से वह समतल होगा यह माना जा सकता है। यह संपूर्ण समतल जिसमें स्थित एक बिंदु पर सूर्य ग्रहों की कक्षारूपी इन वृत्तों के केंद्र पर स्थित है, 'विवस्वान् पथ' है।  इस सन्दर्भ में देखें तो यद्यपि ऋषि विश्वामित्र त्रिशङ्कु को इस विवस्वान् पथ अर्थात् सुरलोक में सशरीर भेज रहे थे, किंतु इंद्र ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया तब देवता ऋषि विश्वामित्र के कोप से डर गए और अंततः त्रिशङ्कु को 'विवस्वान् पथ' से हटकर, सप्तर्षि के दक्षिण में आकाश में नक्षत्र-मंडल में स्थान दिया गया, जहाँ वह सृष्टि के रहने तक विद्यमान रहेंगे। 
'त्रिशङ्कु' शब्द से स्पष्ट है कि यह एक उपग्रह (सैटेलाइट) है जिसके तीन ओर तीन शंकु (cone) हैं, जैसे कि  आधुनिक युग में भी सैटेलाइट्स में हुआ करते हैं। 
इस प्रकार जिस विराट प्रमाण पर सृष्टि की रचना हुई उसी प्रमाण पर यह उपग्रह त्रिशङ्कु' कैसे स्थापित किया गया यह भी दृष्टव्य है।  ऋषि वसिष्ठ और ऋषि विश्वामित्र भी इसी प्रमाण की सत्ताएँ हैं और मनुष्य रूप में भी वे ही वही ऐतिहासिक महापुरुष भी थे जिनका रामायण में उल्लेख है।
अच्छा तो यह होगा कि इस प्रकरण को ठीक से समझने के लिए इस पूरे सर्ग का अध्ययन किया जाए।
थोड़ा लिखा, बहुत समझना !
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Friday, 16 November 2018

भर्तृहरि कथा,

शतकत्रयं 
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राजा भर्तृहरि के माता-पिता ने जब राजपाट उन्हें सौंप दिया और वानप्रस्थ के लिए गृहत्याग कर वन को चले गए तो राजा अभी युवा ही थे। तब वे गुरु के मार्गदर्शन और मंत्रियों के परामर्श से धर्मपूर्वक राज्य का संचालन करते, और समय समय पर अवसर के अनुकूल प्राप्त हुए कर्तव्य का पालन उत्साह से करते थे।
ऐसे ही एक दिन उनके एक मित्र राजा ने युद्ध में उनसे सहायता करने का अनुरोध उनसे किया। 
राजा ने तुरंत ही मंत्रियों से चर्चा की और सेनापति को पर्याप्त सेना के साथ रण पर जाने का आदेश दिया।
शत्रु को पराजित कर सेना के लौटने के कुछ समय बाद उस मित्र राजा ने उन्हें एक अत्यंत मूल्यवान हार उपहार में भेंट किया।  राजा तब "नीति-शतक" की रचना कर रहे थे। उन्होंने बिना अधिक विचार किये वह हार अपनी प्रिय रानी को उपहार में दे दिया। अपनी रानी से अत्यधिक प्रेम में पड़े राजा ने फिर शृंगारशतक लिखना प्रारंभ किया। दोनों ग्रंथ लिखे जा चुके थे और एक रात्रि में, जब दरबार में एक प्रसिद्ध नर्तकी का नृत्य चल रहा था, उनकी दृष्टि उस नर्तकी के गले में पड़े वैसे ही एक हार पर पड़ी।  उनके मन में प्रश्न उठा, - क्या उनकी रानी ने ही वह हार उस नर्तकी को दिया होगा?
बहुत समय तक वे इस प्रश्न पर संशयग्रस्त रहे किंतु अपनी रानी से इस बारे में पूछना उन्हें उचित प्रतीत नहीं हुआ। इस बीच उनके राज्याभिषेक की वर्षगाँठ के अवसर पर उनके मन में इसके स्मरण हेतु एक नई मुद्रा प्रचलित करने का संकल्प उठा।  इस मुद्रा पर क्या मुद्रित किया जाए यह जानने के लिए वे गुरु की सम्मति प्राप्त करने के लिए उनसे मिलने गए।
नमस्कार और कुशल-क्षेम जानने के बाद उन्होंने गुरु से इस विषय में योग्य आदेश देने के लिए अनुरोध किया। गुरु ने उनसे कहा :
"इस मुद्रा पर तुम्हारा राज्य चिह्न और तुम्हारे कुल का वंशनाम तथा वर्ष आदि तो होगा ही किन्तु इसके एक ओर इंद्र तथा दूसरी ओर यमराज का सूचक चिह्न रखो।"
"जो आज्ञा !"
राजा महल लौट आए और मंत्रियों तथा कोषाध्यक्ष को इसकी उचित व्यवस्था करने का आदेश दिया।
राजा की समृद्ध-संपन्न प्रजा के बीच नई मुद्रा बहुत लोकप्रिय हुई। बिरला ही कोई इस मुद्रा पर अंकित जानकारी तथा चिन्हों पर विशेष ध्यान देकर विचार करता था।  वास्तव में वह मुद्रा कला का एक बेजोड़ नमूना भी था।  उस स्वर्ण-मुद्रा का मूल्य वैसे तो उसमें लगे स्वर्ण के लागत-मूल्य से इतना ही अधिक था कि न तो कोई उसे गलाकर स्वर्ण प्राप्त करने की सोचता और न स्वर्ण से उस मुद्रा का निर्माण करने का। 
बहुत दिनों बाद एक दिन राजा ने अनुभव किया कि उसके द्वारा प्रचलित की गयी नई मुद्रा राज्य में दुर्लभ हो रही है।  उसने इस बारे में गुप्तचरों से जानकारी एकत्र करने के लिए कहा तो उन्होंने बताया कि लोग इसे संग्रह कर रखना चाहते हैं, और इसीलिए यह दुर्लभ हो रही है। 
राजा ने जब उनसे यह पता लगाने के लिए कहा कि वे ऐसा क्यों कर रहे हैं, तो उत्तर मिला कि इंद्र का चिह्न मुद्रित होने के कारण यह उन्हें विशेष प्रिय है।
तब राजा एक दिन पुनः अपने गुरु के दर्शनों के लिए उपस्थित हुए और उनसे प्रसंगवश जिज्ञासा की, कि अब इस स्थिति में क्या किया जाए?
गुरु ने राजा से कहा :
"मुझे नहीं पता था कि तुम्हारे राज्य की प्रजा इस मुद्रा में दिए गए संकेत को समझने में भूल करेगी।  इंद्र का तात्पर्य है स्वर्ग, और यमराज का तात्पर्य है स्वर्ग या नरक। कुल अभिप्राय यह है कि इस मुद्रा का प्रयोग केवल लेन-देन के व्यवहार में ही अधिक से अधिक किया जाना चाहिए, क्योंकि स्वर्ग भी पुण्य का फल समाप्त होने पर हाथ से चला जाता है और स्वर्ग के लोभ से ही यमराज का सामना भी होता है। अतः इसे संग्रह करना व्यर्थ है। "
तब राजा ने इस शिक्षा को प्रजा को प्रदान करने के लिए घोषित किए जाने की व्यवस्था करने के लिए अपने मंत्रियों से  कहा।
बहुत दिनों बाद एक दिन सेवकों से उसे एक हार प्राप्त हुआ और यह सूचना भी मिली कि उस नर्तकी की मृत्यु हो गई है और मृत्यु से पूर्व उसकी अंतिम इच्छा थी, कि उसका यह हार, जो राजा के एक मंत्री ने उसे उपहार में दिया था, उसे राजा को समर्पित कर दिया जाए।
यह वही हार था जो राजा को मित्र से उपहार में मिला था और जिसे उसने अपनी प्रिय रानी को भेंट किया था,
... ...
हार को देखते ही राजा को अपना संशय स्मरण हुआ और फिर उन्होंने "वैराग्य-शतक" की रचना की।
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नीतिशतक, शृङ्गारशतक, वैराग्यशतक  

Thursday, 15 November 2018

Heisenberg and Salvador Dali

Frenzy, Melancholy and Depression.
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अध्याय 6, श्लोक 19,
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यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता ।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः ॥
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(यथा दीपः निवातस्थः न इङ्गते सा उपमा स्मृता ।
योगिनः यतचित्तस्य युञ्जतः योगम्-आत्मनः ॥)
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जैसे वायु से सुरक्षित स्थान में दीपक की लौ अकम्पित रहती है, वह उपमा योगी के चित्तरूपी लौ के लिए उदाहरण की तरह स्मरणीय है, क्योंकि  अभ्यासरत योगी का चित्त जब परमात्मा के ध्यान में रम जाता है तो इसी प्रकार से निश्चल होता है ।
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Chapter 6, śloka 19,
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yathā dīpo nivātastho
neṅgate sopamā smṛtā |
yogino yatacittasya
yuñjato yogamātmanaḥ ||
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(yathā dīpaḥ nivātasthaḥ
na iṅgate sā upamā smṛtā |
yoginaḥ yatacittasya
yuñjataḥ yogam-ātmanaḥ ||)
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Meaning :
Protected from the wind, the flame of a lamp does not flicker. This simile is quite appropriate and may be remembered to describe the state of the mind of a yogi, who practices yoga keeping his attention fixed on the Self.
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The pendulum in the wall-clock keeps ticking.
Once starts, doesn't come at the position of rest where-from it had started, though tries to do so in all and every effort. As if that position of rest but seems to be in dream only. Climbing up with heavy breath in frenzy, feverishly in excitement or thrill, goes up and higher, yet moving ever so restless. At the peak it stops for so short like a fraction of a moment, that it needs while reversing the direction of the movement. then it goes down descending helplessly, to attain that moment of dream where it had been for a timeless moment of rest, that looks like a dream now. In the beginning with slow pace but as it reaches the exact point it is only the sadness, a fraction of a moment that it remembers the rest but the moment soon turns into melancholy. So long a moment, yet so short, that it begins to climb up again on yet another steep path to another peak of Depression.The deep depression though sounds and feels like abyss of sorrow and misery only. Reaching the utter height of depression, it again stops for a fraction of a second that is needed to change the direction downwards.
From the point of rest -- Frenzy -- Melancholy -- Depression; -thus repeats the cycle.
The second-needle moves at the same speed. It takes exactly (?) 60 seconds to come again to the same point on the dial. The minute-pointer likewise moves at the same speed. It takes exactly (?) 60 minutes to come again to the same point on the dial. The hour pointer likewise moves at the same speed. It takes exactly (?) 12 hours to come again to the same point on the dial.
What about the time-distance (interval of time taken) by the needle in traversing a second, a minute or an hour or 12 hours? Is it a fixed measure of 'time'? What criteria could help us decide what lenght has this span of 'time'? Could it be decided and determined with Mathematical precision so that we can be 100% sure that this measure is strictly the same in every second, minute or hour?
Perhaps we can calibrate our wall-clock with setting it right with the help of yet another watch / clock; say an 'atomic-clock. But the doubt remains. That is; how long a second, a minute or an hour exactly is? Could any two seconds, minutes or hours are equal and really of the same measure ?
Time and Space are the (objective) entities that are inert and insentient and are perceived in a consciousness that is subjective and sentient. Presently let us take that these two objects (Objective Realities) exist irrespective of the (subjective) entity that is the mind or the consciousness. Thus the mind or consciousness tries to understand and study what exactly is Time and Space.
Is it ever possible for the mind or the consciousness to understand and study what exactly is Time and Space?  There is a mind / consciousness unoccupied and uncluttered with 'thought'. Like the mind of a child or an animal or a bird that have not come across a language. A thought is essentially a formulation based upon a language. Could such a chaste, pristine, immaculate mind / consciousness indulge and think of what exactly is Time and Space? This means a mind not only occupied but obsessed with thought can hardly understand and study what exactly is Time and Space.
Nevertheless, The existence of such a chaste, pristine, immaculate mind / consciousness is its own evidence. This mind / consciousness, from the very beginning itself is empty of all thought and intellect, yet Intelligent in a way that it is a reflection of and in direct communion with the Essence of the Whole Existence.
A cluttered and occupied mind / consciousness  however, can always pay attention to this Intelligence that is so effortless and yet authentic. It is waiting to be discovered, yet to be discovered by the mind that has seeped deep in thought and the knowledge thought claims to bring to us.
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About Time and Space :
In Atomic Physics, Heisenberg Discovered "The Uncertainty Principle". It tells us that the velocity and the time (taken by) of a moving particle could not be correctly measured (at the same time).
Simple, because the 'measured' time itself defies 'time'. Velocity / motion is an effort on the part of the moving object that tries to 'shorten' the Time and Space. As the Time and Space form a 'continuum' and are thus the "Time-Space"-continuum.
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Salvador Dali had a great sense of humor and this is  so conspicuously depicted, is so evident in his art-work paintings of 'Clocks'.
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 (The above is the English translation, done by myself, of my own Hindi post "निष्कम्प ज्योति" of yesterday, in this blog.)
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निष्कम्प ज्योति

उन्माद, विषाद और अवसाद
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यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ६, श्लोक १९ )
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मन का पेंडुलम (संस्कृत : कंदु -- कंदुल -- कंदुलम् -- पंदुलम्य -- दोलायमानो इति)  एक बार चलना शुरू हो जाता है तो अगर वहाँ रुकना चाहता भी हो, तो भी फिर वहाँ नहीं रुक पाता जहाँ से उसने चलना शुरू किया था।  किसी उन्माद के चढ़ाव पर हाँफता हुआ उत्तेजना के ज्वार से ग्रस्त, ऊँचाई से ऊँचाई की दिशा में गतिशील रहता है।  चरम उत्तेजना तक जाकर क्षण भर मानों रुक जाता है, पर पलक झपकते ही वहाँ से उतरने लगता है। शुरू में धीमी गति से, और क्रमशः गति बढ़ाते हुए। फिर तेज गति से उतरता हुआ क्षण भर विषादपूर्ण मनःस्थिति पर अटकता है पर विवश होकर गति की विपरीत दिशा में उसी वेग से जो उन्माद के समय उसमें था, ऊँचाई से ऊँचाई तक तब तक जाता है, जब तक कि अवसाद की मंज़िल को नहीं छू लेता। फिर क्षण भर ठिठककर बाध्य होता है और विषाद की दिशा में लौटता हुआ उन्माद की ही ओर हाँफते हुए आगे बढ़ने लगता है।
दीवार-घड़ी पर सेकंड का काँटा एकसार गति से एक वृत्त में घूमता रहता है, मिनट का काँटा साठ सेकंड प्रति मिनट की गति से, और घंटे का काँटा साठ मिनट प्रति घंटे की रफ़्तार से एक चक्र में घूमते रहते हैं। पेंडुलम के धीमे या तेज होने से उनकी इस गति में कोई फ़र्क नहीं पड़ता।  सेकंड की सुई कितनी भी धीमी या तेज गति से चले, मिनट की सुई साठ सेकंड में ही एक चक्र चलती है।  इसी तरह घंटे की सुई साठ मिनट प्रति घंटे की गति ही से चलती है।  लेकिन पेंडुलम ही इसे तय करता है कि सेकंड की अवधि कितनी लघु या दीर्घ होगी।  क्या सेकंड की लंबाई पेंडुलम की मर्ज़ी से ज़्यादा-कम हो सकती है? 'समय' की दीर्घता की सुनिश्चितता हम पर इस तरह हावी है कि हम यह नहीं देख पाते हैं कि क्या सेकंड, मिनट, घंटे या दिन, माह और वर्ष का अंतराल / अवधि / समय भी, -उसकी 'लंबाई' या विस्तार भी, वस्तुतः सुनिश्चित / नियत है? क्या होगी कसौटी, प्रमाण समय की दीर्घता का, जिसे गणितीय सूक्ष्मता और सटीकता (exactness) से तय किया जा सके? तब हम किसी दूसरी घड़ी के आधार पर इस यांत्रिक घड़ी का इकाई समय-अंतराल (दीर्घता) सुनिश्चित करते हैं, फिर भले ही वह परमाणु-घड़ी (atomic -clock) क्यों न हो।
लेकिन तब भी यह संदेह तो रहता ही है कि परमाणु-घड़ी से तय किया गया समय-अंतराल वस्तुतः कितना दीर्घ या लघु है, और वास्तव में ऐसे दो इकाई-अंतराल बिलकुल समान परिमाण के होंगे इसका कौन सा प्रमाण हमारे पास हो सकेगा?
काल और स्थान दोनों जड (inert / insentient) सत्ताएँ / विषय (object) हैं, - जो जड हैं और अपनी सत्यता के लिए किसी चेतन-सत्ता (conscious-entity) पर आश्रित हैं।  वास्तव में वे सत्ताएँ  (entities) हैं यह कहना ही मौलिक भ्रम है।   इस चेतन-सत्ता की काल-स्थान-निरपेक्षता अर्थात् उनसे स्वतन्त्रता स्वयंसिद्ध तथ्य है, और यह विषयी (subject) है, जबकि काल और स्थान दोनों जड (inert / insentient) बौद्धिक अनुमान तथा अनुमान पर आधारित निष्कर्ष  / विषय (object) हैं, और चेतन-सत्ता के अंतर्गत हैं। इस प्रकार विषयी (subject) स्वभावतः काल-स्थान से अस्पर्शित सत्ता है, और काल-स्थान उस पर आरोपित विचार मात्र हैं । यह भौतिक शरीर अवश्य ही भौतिक तत्वों से बनी सुगठित संगठित जैव-प्रणाली है, जो भौतिक काल-स्थान के अंतर्गत है और इसलिए अन्य भौतिक घटनाओं की तरह एक घटना / परिणाम है जिसकी पूर्वनिर्धारित अटल नियति है जिसे बदल पाना असंभव है।  किंतु बदलने का यह संकल्प जिस चेतना में उठता है वह चेतना अवश्य ही काल-स्थान से प्रभावित नहीं होती और वही जन्म-मृत्यु से रहित और अछूती है।  यद्यपि शरीर के जन्म को अपना जन्म समझे जाने की भूल प्रायः हर किसी से होती है क्योंकि इस विचार की सत्यता पर संदेह तक नहीं उठाया जाता और न कोई इस भूल की ओर हमारा ध्यान ही आकृष्ट करता है।  किंतु सावधानी से देखते ही यह स्पष्ट हो जाता है कि जैसे पेंडुलम सेकंड, मिनट, या घंटों की दीर्घता (या अन्य शब्दों में --अवधि / अंतराल / विस्तार) को तय करता है और वह दीर्घता कोई स्वतंत्र भौतिक राशि (quantity)  नहीं होती, वैसे ही चेतना की स्प्रिंग-बैलेंस से नियंत्रित मन, प्राण, बुद्धि, विचार, भावना आदि सूक्ष्म तत्वों तथा शरीर के दूसरे अंगों की स्थूल गति किसी तय अवधि से सामंजस्य से तय होती है।
तो वह 'कौन' / 'क्या' है जो उन्माद, विषाद और अवसाद के क्रम से गुज़रता है? क्या यही "मैं" जिसे व्यवहार में अपने-आपकी तरह एक स्वतंत्र सत्ता (व्यक्ति-विशेष) मान लिया जाता है, वह पेंडुलम नहीं है जिसकी गति चेतना / चेतनता रुपी स्प्रिंग-बैलेंस से और उससे संबद्ध व्हील से निर्धारित होती है? और यह गति कितनी भी सुदीर्घ या अल्पप्राय हो, क्या वह चेतना / चेतनता इससे प्रभावित होती है? वह तत्व जो चेतना / चेतनता के रूप में इस सारे क्रम का आधार किंतु इससे अप्रभावित रहता है, क्या मापनीय काल-स्थान के अंतर्गत है, या काल-स्थान ही उसके अंतर्गत होता है? ज़रूरी नहीं है की पेंडुलम रुके ही।  ज़रूरी है इस संबद्ध चेतना /  संबुद्ध  के स्वरूप  की पहचान हो जाना।  यदि उसे 'साक्षी' कहा जाए तो वह पुनः इसी चेतना के अंतर्गत एक विचार ही होगा, न कि उससे प्रत्यक्ष परिचय या उसका बोध, क्योंकि वह चेतना किसी दूसरी चेतना के बोध का विषय भी नहीं हो सकती। 
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चलते-चलते 
काल के इस लचीले (elastic) स्वरूप और साल्वेडोर डाली (Salvador Dali) के 'समय' के गूढ किंतु सरल-निश्छल हास्य-बोध को समझ पाने में मुझे जो श्रम करना पड़ा, उसे उसने यद्यपि अपनी चित्रकला में बहुत पहले ही घड़ियों के चित्रांकन से आश्चर्यजनक रूप से अभिव्यक्त कर दिया था, लेकिन उसने इस प्रकार इस तथाकथित वैज्ञानिक-बुद्धि को कटघरे में भी खड़ा कर दिया था, जो 'समय' का अध्ययन उसे एक राशि (quantity) मानकर करती है।  'Uncertainty-Principle' समय के इसी मूल्यांकन का परिणाम है।
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 Quantum-Mechanics में Heisenberg द्वारा  प्रतिपादित 'Uncertainty-Principle' इस मौलिक तथ्य की उपेक्षा करता है कि भौतिक विज्ञान से मान्य 'समय' न तो राशि (quantity) है, न मापनीय (measurable) ही है। इसलिए यद्यपि Heisenberg द्वारा  प्रतिपादित 'Uncertainty-Principle' व्यावहारिक धरातल पर सत्य सिद्ध होता है लेकिन वह केवल इसलिए क्योंकि उसे सिद्ध करने की प्रक्रिया में यह मौलिक तथ्य eliminate / निवारित हो जाता है।
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Wednesday, 14 November 2018

आब्रह्मभुवनाल्लोका

योगी-चरित्र
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गीता अध्याय 8, श्लोक 16 
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥
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(आब्रह्म-भुवनात् लोकाः पुनरावर्तिनः अर्जुन ।
माम् उपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥)
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 भावार्थ :
हे अर्जुन! ब्रह्म सहित, समस्त ही लोक (अर्थात् छोटे-बड़े सभी) बारम्बार प्रकट और अप्रकट हुआ करते हैं, किन्तु हे कौन्तेय (अर्जुन)! मुझे प्राप्त हो जाने के बाद ऐसा पुनः पुनः आवागमन फिर नहीं होता ।
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गीता अध्याय 5, श्लोक 27 
अध्याय 5 , श्लोक 27
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स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥
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स्पर्शान् कृत्वा बहिः बाह्यान् चक्षुः च एव अन्तरे भ्रुवोः ।
प्राण-अपानौ समौ कृत्वा नासा-अभ्यन्तरचारिणौ ॥
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अर्थ :
बाह्य इन्द्रिय-संवेदनों (स्पर्श, रूप, रस, गंध , शब्द ) को बाहर छोड़कर अर्थात् चित्त को उनसे हटाकर अन्तर्मुख करते हुए दृष्टि / ध्यान को दोनों भौहों के मध्य स्थिर कर, नासा में आती-जाती श्वास (अर्थात् प्राण और अपान को समान (संतुलित) कर ..
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अध्याय 8, श्लोक 10,

प्रयाणकाले मनसाचलेन
भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्
स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यं ॥
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(प्रयाणकाले मनसा अचलेन ।
भक्त्या युक्तः योगबलेन च एव ।
भ्रुवोः मध्ये प्राणम् आवेश्य सम्यक्
सः तम् परम् पुरुषम् उपैति दिव्यम् ॥)
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भावार्थ :
(और) अन्त-समय आने पर  अचल मन, भक्ति तथा (श्लोक 8 में कहे गए पूर्व में किए गए अभ्यास से सिद्ध हुए) योगबल की सहायता से ही वह भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित (आविष्ट) करते हुए वह उस परम पुरुष परमेश्वर को ही प्राप्त होता है ।

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चैतन्य परब्रह्म स्वरूपतः विशुद्ध अक्षर अविकारी ब्रह्मस्वरूप है जिसकी तरंगमात्र ब्रह्माकारवृत्ति की तरह काल-स्थान को प्रक्षेपित करती है।  तात्पर्य यह कि जीव को प्रतीत होनेवाला आभासी काल-स्थान मरीचिका की भाँति विभ्रम है किंतु जिस तल पर जीव उसे देखता है वह है ब्रह्माकार-वृत्ति।
इसी ब्रह्माकार-वृत्ति में जो तृण से लेकर ब्रह्मा तक के समस्त लोकों का आधार है, असंख्य त्रसरेणु वैसे ही झिलमिलाते हैं जैसे खिड़की से आते सूरज के प्रकाश में नृत्यरत धूलिकण।  प्रत्येक कण अपने-आपमें पूर्ण ब्रह्म है, यद्यपि (दो नेत्रों से जुडी) द्वैत दृष्टि के कारण समष्टि रूप में वे अनेक भासते हैं।
उन्हें 'देखनेवाला 'दृष्टा' स्वयं भी वैसा ही एक धूलिकण है और
"The Observer is the Observed ...(-J.Krishnamurti)"
के न्याय से भी यही अकाट्य सत्यता है।
ये असंख्य दृष्टा और उन्हें प्रतीत होनेवाला काल-स्थान (दिक्-काल) जिसे मापनीय होने के आधार से स्वतंत्र सत्ता मान लिया जाता है वस्तुतः उसी ब्रह्म का 'विवर्त' मात्र है।
विवर्त का अर्थ है नाम-रूप बदल जाने पर भी वस्तु का न बदलना -अपरिवर्तनशीलता या अविकारिता।
इसकी तुलना में विकार का अर्थ है; -मूल वस्तु में बदलाव होना।
जल भाप, बर्फ या पानी के रूपों में भी तत्वतः जल ही रहता है, जबकि दूध, दही में बदल जाने पर तत्वतः दूध से भिन्न हो जाता है। जल, भाप, बर्फ या पानी हो एक से दूसरे रूप में बदला जा सकता है लेकिन दही को पुनः दूध में नहीं बदला जा सकता।
इस प्रकार जीव ब्रह्म का विवर्त है, न कि विकार।
ब्रह्माकार-वृत्ति के असीम सागर में उठनेवाली तरंगें सर्वप्रथम पञ्च-महाभूतों की रचना करती हैं।
जैसे पृथ्वी के दो पिंड गुरुत्व के आकर्षण से परस्पर एक दूसरे की ओर आते हैं और जल जल में मिल जाता है, अग्नि, वायु और आकाश भी इसी प्रकार उसी विवर्त में गतिशील हैं, जो ब्रह्माकारवृत्ति है :
"अक्षरात्-सञ्जायते कालः कालात् व्यापकोच्यते ..."
(शिव-अथर्व शीर्ष)
तात्पर्य यह कि काल-स्थान का 'सृजन' होता है।
यही त्रसरेणुरूपी जीव प्रथमतः पञ्चतत्वों के मिश्रण से सर्वत्र विद्यमान चैतन्य के प्रकाश का सूक्ष्म अंश ग्रहण कर 'भ्रूण' या बीज बनता है।
यह भ्रूण गर्भ में रहकर नित्य वर्धमान होता रहने से ब्रह्म ही है।
भ्रूण से गर्भ और गर्भ से शिशु के रूप में जन्म लेने के बाद यह एक स्वतंत्र जैव-प्रणाली के रूप में विकसित होता है। वृद्ध होने तक यह इस प्रकार निरंतर परिवर्तित होता रहता है जिसमें इसका विकारी अंश (पञ्चभूत) देह की कोशाओं में संचरित होकर उन्हें नित्य नया रूप देते रहते हैं और इस प्रवाह पर ध्यान न होने से देह को एक स्थिर वस्तु समझ लिया जाता है।
इसी विकारी देह का बोध जिस चेतना में होता है वह जीव के संपूर्ण जीवन-काल में आधार की भाँति अचल, अविकारी होती है इसे स्पष्ट करने या समझने के लिए किसी विलक्षण प्रतिभा का होना ज़रूरी नहीं है।  केवल इस ओर ध्यान देने से ही यह स्पष्ट हो जाता है।
इस चेतना को व्यवहार में 'मैं' कहा जाता है, यद्यपि विशेषण के रूप में चेतना के लिए 'मैं' कहा जाना विरोधाभासी है।  शरीर स्वयं का परिचय व्यक्त करने के लिए 'मैं' का प्रयोग नहीं कर सकता जब तक कि चेतना उससे सम्बद्ध न हो, चेतना केवल भान और इन्द्रिय-संवेदनात्मक होने से इस शब्द का प्रयोग नहीं कर सकती। इस प्रकार 'मैं' एक व्यावहारिक और उपयोगी सत्य है जिसका वाणी से प्रयोग किए बिना भी अस्तित्व स्वयंसिद्ध है।  मूलतः यह चेतना का अपने स्वयं का निःशब्द भान, स्वयं चेतना को ही है जिसे शब्द दिए जाते ही दुविधा पैदा हो जाती है। चेतना स्वयं को 'अन्य' की तरह से नहीं इससे भिन्न प्रकार से बोधमात्र से ही जानती है जहाँ  ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान परस्पर तत्वतः अभिन्न हैं।  किन्तु जब इसी चेतना में किसी 'विषय' को जाना जाता है तो चेतना विषय से तदाकार हो जाती है तभी उसे 'जान' सकती है।
यह तदाकारिता बीज रूप में तब भी थी ही जब भ्रूण इसका 'विषय' था।
फिर माता से तदाकारिता तब तक रही जब तक देह का पृथक शरीर की तरह शिशु के रूप में जन्म हुआ।
चेतना जो भ्रूण में बीज-रूप में सुषुप्त थी इडा और पिंगला नाड़ियों के माध्यम से, उस मार्ग से भ्रूमध्य तक जा पहुँची और मस्तिष्क में संचरित होकर शरीर के अंगों तक फैल गयी।  इसलिए शरीर में दो प्रकार की चेतनाएँ प्रत्यक्ष हैं।  जैसे हमारे शरीर में कुछ स्थानों पर सुई चुभाये जाने पर उस स्पर्श का पता हमें चलता है तो कुछ अन्य स्थानों पर सुई चुभाये जाने पर हमें उसका पता नहीं चलता। इस प्रकार गत्यात्मक और संवेदनात्मक दो प्रकार की नाड़ियाँ प्रमुख रूप से इडा पिंगला ही हैं।
चेतना से संवेदन, संवेदन से विचार, विचार से भावना, भावना से अनुभूति, अनुभूति से स्मृति, स्मृति से संस्कार,तथा पुनः संस्कार से स्मृति, स्मृति से अनुभूति, अनुभूति से भावना, भावना से विचार, विचार से संवेदन और संवेदन से चेतना तक जाकर चक्र पूर्ण हो जाता है।
भ्रूण से भ्रूमध्य / भ्रुकुटी तक यही संवेदन जीवन का बाह्य प्रकार है।
किंतु योगी जब विधिपूर्वक 'ध्यान' को भ्रूमध्य पर लाकर, अन्य बाह्य विषयों को चित्त से हटाकर अन्तर्मुख होता है और प्रणव का उच्चार करता है तो उसकी 'पात्रता', उत्कंठा की तीव्रता के अनुसार उसका चित्त उस द्वार को खटखटाता है जो ब्रह्मलोक का प्रवेश-द्वार है। पात्रता का तात्पर्य है विवेक, वैराग्य, उपरति तथा शम-दम  आदि दैवी-संपत्तियों से युक्त होना।
ब्रह्मलोक का प्रवेशद्वार भीतर की तरफ खुलता है अर्थात् चेतना के अंतर्मुख होने पर ही।
इस द्वार के खुलने पर योगी ब्रह्मलोक से परिचित होता है।
एक बार इस द्वार का खुल जाना इसकी संभावना उत्पन्न करता है कि प्रयाणकाल में भी योगी परमेश्वर अर्थात् उस ब्रह्माकार वृत्ति का 'मामनुस्मर' की विधि से प्रत्यक्ष स्मरण कर सके। यहाँ 'हठ' की कोई भूमिका नहीं हो सकती।  पात्रता ही एकमात्र अधिकारिता है।
यद्यपि इस प्रकार से अंतकाल में योगी सूर्य या चंद्र मार्ग से उत्तरायण अथवा दक्षिणायन के मार्ग से ब्रह्मलोक में या उत्तम गति को प्राप्त हो सकता है किंतु जैसा प्रारंभ में कहा गया, ब्रह्मलोक से लेकर तृण तक सभी लोक अनित्य होने से प्राप्त करने योग्य नहीं हैं,
कठोपनिषद अध्याय 2, वल्ली 3 के श्लोक १६ में वर्णन है :
शतं चैका च हृदयस्य नाड्य-
स्तासां मूर्धानमभिनिःसृतैका ।
तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति
विष्वङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्ति ॥
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इस हृदय की एक सौ एक नाड़ियाँ हैं, उनमें से एक मूर्धा का भेदन कर बाहर को निकली हुई है।  उसके द्वारा ऊर्ध्व --ऊपर की ओर गमन करनेवाला पुरुष अमरत्व को प्राप्त होता है।  शेष विभिन्न नाड़ियाँ उत्क्रमण (प्राणों के उत्सर्ग) -की हेतु होती है। (जिनसे प्राण के उत्सर्ग होने पर पुरुष अन्य अन्य योनियों में पुनः जन्म लेता है।
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(हिंदी पाठकों के लिए मेरे स्वाध्याय ब्लॉग में मूल अंग्रेज़ी में लिखे गए पोस्ट का हिंदी रूपांतर )
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Tuesday, 13 November 2018

योगी चरित्र -- Yogi : Yet Another Biography.


आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥
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(आब्रह्म-भुवनात् लोकाः पुनरावर्तिनः अर्जुन ।
माम् उपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥)
(गीता, अध्याय 8, श्लोक 16)
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भावार्थ :
हे अर्जुन! ब्रह्म सहित, समस्त ही लोक (अर्थात् छोटे-बड़े सभी) बारम्बार प्रकट और अप्रकट हुआ करते हैं, किन्तु हे कौन्तेय (अर्जुन)! मुझे प्राप्त हो जाने के बाद ऐसा पुनः पुनः आवागमन फिर नहीं होता । 
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Chapter 8, śloka 16,

ābrahmabhuvanāllokāḥ
punarāvartino:'rjuna |
māmupetya tu kaunteya
punarjanma na vidyate ||
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(ābrahma-bhuvanāt lokāḥ
punarāvartinaḥ arjuna |
mām upetya tu kaunteya
punarjanma na vidyate ||)
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Meaning :
arjuna! Beginning with Brahma (The Supreme manifest form), all existent forms undergo cycles of manifestation and dissolution, but O kaunteya (arjuna)! Having attained ME, there is no rebirth (such repetetion) any more.
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(Gita, Chapter 8, stanza 16)
Brahman, the Timeless Spirit dwelling in the Heart of The Existence. Yet Time and Space stir in Him when He appears to turn the sides Lost in Self-engrossed Trans. The Awareness (Consciousness of Oneself) thus untouched with the manifest or the latent rejoices in its own grandeur.
However the seed of existence in Him sprouts and splits open into the two; namely the Latent (अव्याकृत) and the potent / inherent (सामर्थ्य).
Brahman, thus owns the wave-form of ब्रह्माकार-वृत्ति namely the Awareness (Consciousness of Oneself) expressed and manifest or not so manifest but latent and potential only.
An infinity of particles glitter in the light that is the Brahman, thus owns the wave-form of  ब्रह्माकार-वृत्ति namely the Awareness.
Each and every particle reflects and shares the Light in its own very individual and personal mode.
The particle thus shares the अस्मिता / sense of Me as well which is inseparably an essential of the Brahman.
The individual intellect thus associated in each and every particle is then illuminated and the individual soul finds itself in a world of its own.
This is the embryo, -अनुभ्रुवीय.
The Cosmic Egg thus hatched in the Heat of the Light of the Brahman breaks the shell and the very Brahman takes the form of 'Brahma' in each and every individual.
This Brahma in the individual causes an individual world of his imagination.
The wave-form of the Brahman / ब्रह्माकार-वृत्ति namely the Awareness (Consciousness of Oneself) turns into the personal consciousness.
At this stage the 'person' views the existence according to his own imagination. The imagination causes thought, thought causes the feeling, feeling causes the emotion, the emotion causes the memory, memory the impressions (संस्कार) . The  the impressions (संस्कार) in turn the memory, the memory again causes the emotion, the emotion again the feeling, the feeling causes the thought and the thought the imagination.
The cycle is then complete.
We can however postulate a stage 'karma' / कर्म that is deeds or actions assumed to have been  performed done by (?) one. Again as the concept of the 'karma' / कर्म itself holds no ground because the precisely the agent ('kartA' / कर्ता) of the action, verily the (nature of the) one who executes / performs the 'said' action could never be determined. As such, how one could be sure of the 'karma' / कर्म ?   
The cycle repeats itself in countless number.
Each and every individual undergoes this cycle as much long as one associates / identifies oneself with a mass of a physical body that becomes the organism (the subtle form).
The organism (the subtle form) thus sustains repeated births and deaths permeating the physical body which enables it to live a life of its own.
From the stage of the embryo, each and every being gets lost in the labyrinth of the psycho-somatic existence as long as ultimately he reaches the code भ्रूमध्य / भ्रुकुटी / mid-eyebrow where the two streams of consciousness namely इडा and पिंगला meet again after bifurcating from the मूलाधार / कुंड where-from they had bifurcated and separated from one another.
The personal consciousness in these two forms attains the higher realms of thought-feeling-emotion-memory.
However, after attaining maturity, the two streams again meet at the conjunction भ्रूमध्य / भ्रुकुटी  / the mid-eye brow, which is not an external aperture like the eyes, but an opening inwards and remains closed till the streams don't get again merged into one-another and they both united thus knock at the door from the outside.
This means the outward / extrovert attitude (बहिर्मुखी वृत्ति)  is turned inward / introvert.
All this play is the role of the vital energy (प्राण) which follows attention.
So 'attention' is the key-word while भ्रूमध्य / भ्रुकुटी  / the mid-eye brow, is the key-hole of the Brahman.
A yogi who has practiced for long this process ultimately at the time of death again repeats it and breaks open the door to Brahman where the wave-form of  Brahman /ब्रह्माकार-वृत्ति is ever so pure, in the pristine form as it was when the individual appeared to have emerged from it.
This is precisely the ब्रह्म-लोक / 'Brahma-loka', which a perfect Yogi may attain if he is really deserving. However if one has attained this but out of curiosity only and not because of the earnestness on the part of one, one keeps wandering into the cycle of repeated births and the consequent deaths.
Upanishads say The Presiding Lord of the ब्रह्म-लोक / 'Brahma-loka',  teaches Him, :
 "How to attain the Ultimate, that transcends even the ब्रह्म-लोक / 'Brahma-loka'."
कठोपनिषद (अध्याय 2, वल्ली 3, श्लोक 16)   however, points out a direct straightforward approach :
शतं चैका च हृदयस्य नाड्य-
स्तासां मूर्धानमभिनिःसृतैका।
तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति
विष्वङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्ति।।
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The streams in consciousness with the force of the vital energy (प्राण) move through the nerves, giving the life to the individual-existence.
There are a hundred and one such paths (nerves). One major path (nerve / नाडी) being the ब्रह्म-नाडी  / the Brahma-nADI, discussed above, which is the route when before entering the भ्रूमध्य / भ्रुकुटी  / the mid-eye brow,  इडा and पिंगला meet again after bifurcating from the मूलाधार / कुंड where-from they had started, bifurcated and separated from one another.
But there is one again that comes down from the ब्रह्म-लोक / 'Brahma-loka' -the Realm / Sphere of the Brahma to and enters the 'Heart'.
All other nerves are vicious / poisonous because they take one from death unto death only, while this one हृदय-नाडी alone takes one to The Deathless.
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भारत एक राष्ट्र / India a Nation.


भारत एक राष्ट्र क्यों है?
कुछ वर्षों पहले तक मैं प्रायः रोज श्रीदेवीअथर्वशीर्ष का पाठ किया करता था।
मंत्र 7 में मातृशक्ति उद्घोष करते हुए कहती हैं :
'अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्।'
इसका भावार्थ यद्यपि गूढ है, किंतु सरल अर्थ यह है :
मैं राष्ट्रशक्ति और वह चेतना हूँ जो वसुओं (समृद्धि के देवताओं) को शक्ति और प्रेरणा प्रदान करती है, जिससे वे समर्थ होकर देश को धन-धान्य और वैभव से संपन्न करते हैं। इसलिए मैं यज्ञों से प्रसन्न किए जानेवाले देवताओं -वसुओं में सर्वप्रथम हूँ।   
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Why India is a Nation ?
Few years ago I used to recite the Veda Text:
 'Shri devI atharva SheerSha'
regularly.
The mantra 7 is :
'ahaM rAShTrI sangamanI vasUnAM chikituShI prathamA yajniyaanAM .'
The meaning is though deep we can take a glimpse in the following words:
I am of the form of the Nation, I prompt the Vasu (the Lords of wealth)
and give them the power to make the land prosperous.
Hence and Therefore, I am the foremost and the first among all those Lords (vasu-s),
that are propitiated through sacrifice (yajna).
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Wednesday, 7 November 2018

विषय और विषयी

चेतना और चैतन्य
विषय और विषयी के संदर्भ में "ध्यान क्या है?" इस प्रश्न पर गौर करें तो सर्वप्रथम यह समझना आवश्यक है कि अस्तित्व-मात्र को मोटे तौर पर जड और चेतन में बाँटा जा सकता है।  समस्त इन्द्रियगम्य अनुभव किसी चेतन-तत्व में ही हो सकते हैं।  इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि 'मैं' अपरिहार्यतः नित्य चेतन हूँ। इसी  'मैं' को जब अपने को किसी शरीर-विशेष तक सीमित रखते हुए 'हूँ' के रूप में कहा जाता है तो इस शरीर-विशेष में स्थित, इससे जुड़ा यह 'मैं' इस चेतन की तरह 'विषयी' कहा जाता है, जबकि इसके अनुभव में आनेवाले तमाम तत्व इसके अनुभव का 'विषय' कहलाते हैं।  पुनः यह, या कोई भी शरीर-विशेष शेष सभी चेतनतायुक्त शरीरों के अनुभव का 'विषय' होता है।  अब हमें एक और शब्द मिला - 'चेतनता' ।  इसी आधार पर समस्त चेतन पिंडों (शरीरों) में 'चेतनता' नामक तत्व व्याप्त होता है और किन्हीं किन्हीं शरीरों में यही 'चेतनता' 'विषयी' कही जाती है।  जिसमें यह पहले थी किंतु अब नहीं अनुभव होती और न इसके पुनः प्रकट होने की संभावना जान पड़ती है, उन्हें 'मृत' समझा जाता है अर्थात् उस पिंड में जीवन के लक्षण नहीं दिखाई देते और वह जड की श्रेणी में रखा जाता है। चेतन जड पर नियंत्रण कर सकता है लेकिन जड में ऐसा कोई सामर्थ्य या स्वतन्त्रता होती हो ऐसा निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता।
विषयों से विषयी-चेतना का संपर्क विषय का 'ध्यान' कहा जाता है। सामान्यतः भी हम ध्यान शब्द का प्रयोग सचेत होने के अर्थ में करते हैं। इस प्रकार ध्यान का पहला अर्थ है सचेत होना।  स्पष्ट है कि यह सचेत होना अर्थात् 'सचेतनता' किसी विषयी की किसी विषय के ही प्रति होती है।
जहाँ तक स्थूल भौतिक वस्तुओं का प्रश्न है, यह सचेतनता वैसे तो शुद्ध इन्द्रिय-अनुभवों अर्थात् देखना, सुनना, छूना, सूंघना और चखना इन पाँच रूपों में होती है किंतु जब विषयी में इन अनुभवों की स्मृति संचित होने लगती है तो उन अनुभवों का 'प्रिय' तथा 'अप्रिय' में वर्गीकरण होने लगता है। अनुभवों में वृद्धि होने के साथ-साथ इस वर्गीकरण में विस्तार और विश्लेषणात्मक दृष्टि से विभाजन तथा जटिलता होने लगती है।  अनुभव तब 'मिश्रित' की तरह देखे जाते हैं। यह सब प्रायः उन सभी प्राणियों में होता है जिनमें 'भाषा' अभी अधिक विकसित नहीं हुई होती।  जब ध्वनि-संकेतों का विकास सुचारु रूप से होने लगता है तो विभिन्न ध्वनियों का न सिर्फ भावनात्मक बल्कि प्रतिमापरक (abstract) तात्पर्य (notion) भी स्थापित कर लिया जाता है अर्थात् ध्वनि-विशेष से किसी वस्तु-विशेष को जोड़ दिया जाता है और एक समूह उन तात्पर्यों का संकेतों का आदान-प्रदान और अर्थ-ग्रहण करने लगता है।  मनुष्य में ही भाषा का तत्व इतना अधिक विकसित हुआ है कि भिन्न-भिन्न समुदायों ने अपनी अपनी अलग अलग शाब्दिक भाषा निर्मित कर ली, और ऐसी असंख्य भाषाएँ अतीत में बनीं होंगीं और बनती -मिटती रहेंगीं। भाषा के उद्भव के बाद भाव और विचार के प्रभाव से भाषा जटिल और संश्लिष्ट तो हुई और केवल मूर्त ही नहीं, अमूर्त (abstract) तत्व भी भाव और विचार के माध्यम से अनायास भाषा से जुड़ गए।  इसलिए मनुष्य इतर प्राणियों की तुलना में कहीं बहुत अधिक उलझ गया।  जैसे 'मैं' का भाव / भावना, विचार, संकल्प और धारणा।  जब किसी भौतिक वस्तु के बारे में सोचा / कहा जाता है तो 'विषय' और 'विषयी' का भेद स्पष्ट होता है किंतु जब किसी भावना, अनुभूति, विचार, संकल्प, 'समय'   जैसे अमूर्त (abstract) तत्व को भाषा के माध्यम से व्यक्त किया जाता है, तो यह भेद अदृश्य हो जाता है। इस प्रकार जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे विषय तथा विषयी को परस्पर मिला दिया जाता है।
यह तो हुई 'भूमिका'.....
अब प्रश्न :
ध्यान क्या है?
अतीत तथा भविष्य 'विषय' हैं, ध्यान विषयी और विषयी के मध्य संपर्क, -interface है।  इस प्रकार ध्यान का एक शीर्ष विषय, तो दूसरा विषयी है।
ध्यान स्वरूपतः तो निर्विषय चेतना है, जो भान-स्वरूप / स्वरूप-भान है।
ध्यान या तो चित्त को प्रमाद (inattention) के कारण विषयों के संग मिल जाने के कारण से विषयी के विशिष्ट प्रकार में अनुभव किया जाता है, और तब भी विषयों के प्रति आकर्षण या विकर्षण, अर्थात् उनसे सुख या दुःख प्राप्ति का अनुमान होने से, आसक्ति / राग या द्वेष बन जाता है, अथवा उनसे उपरत (detached) कर सकता है।  इसी अनुभव के फलस्वरूप विषयों से वितृष्णा तक हो जाती है, जो विराग है।  जबकि वैराग्य राग तथा विराग दोनों से भिन्न है।
इन्द्रियों के स्थूल और सूक्ष्म विषय तो हम जानते ही हैं।
रूप,रस, गंध, स्पर्श, और श्रवण (सुनना) ये पाँच 'तन्मात्राएँ' इन्द्रियों से ध्यान / चित्त के जुड़ने के बाद ही अनुभव की जाती हैं।  स्थूल रूप में ये पाँचों क्रमशः नेत्रों, जिह्वा / जीभ, नासा (नाक), त्वचा, और कानों से ग्रहण किए जानेवाले 'विषय' हैं।
सूक्ष्म रूप से ये पाँचों कल्पना, आस्वाद, मोह, विषय-विषयी के संपर्क तथा ध्वनि, -इन्हें ग्रहण करने का कार्य हैं। इन पाँचों स्थूल और सूक्ष्म विषयों के अतिरिक्त 'अतीत', 'भविष्य', 'वर्तमान' तथा 'कर्म' (संचित / मूल प्रवृत्ति, क्रियमाण/ प्रारब्ध जो कर्म के शुरू हो जाने का नाम है, और आगामी / भावी, -जो अज्ञात होने से अनिश्चित भी है ही किन्तु अनुमेय अवश्य हो सकता है),  जैसे तत्व केवल 'स्मृति' के आधार पर विषयी द्वारा उनके चिंतन से वर्त्तमान में सत्यता दिए जाने से ही उसे आक्रान्त करते हैं, और इस तरह इन्द्रियग्राह्य किंतु अगोचर जैसे विरोधाभासी स्वरूप में उन्हें स्वीकार किया जाता है। 
इस प्रकार से, अतीत वस्तुतः कभी घटित ही नहीं हुआ लेकिन उसे घटित की तरह सत्य समझ लिया जाता है और न भविष्य ही कभी घटित होगा किंतु उसकी भवितव्यता का विचार कर लिया जाता है। 
केवल वर्त्तमान जो 'विषयी' है और अतीत तथा भविष्य से अछूता है, नित्य, सनातन और शाश्वत आधारभूत सत्य है। 
इसलिए ध्यान किए जाने का, या "ध्यान कैसे करें?" यह प्रश्न ही एक भ्रांतिजनक प्रश्न है।  किंतु 'ध्यान में कैसे अवस्थित हों?' यह प्रश्न अपेक्षाकृत सही जिज्ञासा है क्योंकि तब ध्यान क्या है, यह जानकर विषयों से उपरत (withdrawn) हो जाना तथा अनायास निर्विषय-चेतना से एकीभूत होकर उसका उदघाटन कर लेना संभव है।
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Tuesday, 6 November 2018

The Reality and The imaginary (number).

The Complex Plane.
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Whatever I have discovered in my life is not sheer serendipity, but there is something rather very deep that extends to the past lives. Not my or others's but the collective as such. For 'LIFE' as such is no personal, collective or impersonal but only the 'Individual' / 'Indivisible' WHOLE.
We can't segregate 'LIFE' as my / your / our's / their's ...
I owe much to The De Moivre's Theorem that I came across while studying Mathematics during my College days. Friends would sure laugh at me that I've so far not recovered myself from the grip of imaginary planes.
I began to doubt Science and Mathematics because there are limitations. Science and Mathematics both have foundation upon 'concepts' only. The concepts are verbal formulations of 'knowledge' acquired and supposedly 'verified' / 'proved' (true) by testing the various 'Hypotheses' that are initially based on 'concepts' only.
Looks incredible?
But when De Moivre's Theorem told me that we have use of the imaginary number; -the square root of the number -1, ... I was just struck by the apparent contradiction.
That is what caused in me disbelief over the way we have 'Developed' our irrational ideas to an utter absurdity.
By the way, I had come across the imaginary number also while studying 'surds' which plainly tells us how 'the square-root of the number 2' (itself) is an irrational number, that means : it could not be expressed in terms of division of two whole numbers.
So the very foundation that 'the square-root of the number 2' is irrational but still agreeable is quite obvious, -the square root of the number -1 / 'minus 1', is equally stretching beyond the limits of the sane logic.
And though De Moivre managed to 'eliminate' it in the effect of deriving His Theorem, it doesn't prove that This number holds validity as well.
While going through the study of
The Complex Plane (The near about cognate / सज्ञाति  of the Sanskrit Roots सं प्लुष / सं प्लक्ष + प्लं )    is a model in Mathematics that deals with the Real Line 'X' (-the real numbers) in relation to the Complex / Imaginary Line 'Y'.
Summarily :
x + iy 
is a number represented by and in this 'Complex Plane'.
Nevertheless this Plane has its own ramified Mathematics' that helps us greatly in understanding and explaining the Physics and Technical aspects of Knowledge, the basic idea is to marry a real quantity with an imaginary one that is somewhat disturbing.
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The Closed-contours and the Open-Contours in studying the functions of a Complex Variable attracted me very much because I genuinely felt the two are the labyrinthine routes where intellect gets stuck. They are fake knowledge, not the wisdom. However they may help us greatly in transcending the intellect, if we will.
During and after completion of my College, I happened to be involved in the J.Krishnamurti affair, where I found out a parallel in His approach .
He talks of the 'self' which to me,  quite resembles with this 'iy' in the Complex Plane and perhaps He is trying to point out how the elimination of this 'self' be done by means of 'enquiry' (Though the word 'enquiry' itself' is derived from en-query and thus means 'quest' ...)
In His own words :

"Self-knowledge is awareness of the self without division; and as long as there is no self-knowledge, the multiplication and re-creation of our problems will continue…Only through self-knowledge can there be transformation, and this transformation cannot come into being through any miracle, through book learning, but only through constant experimentation, through constant discovery of the process of one's being."

- J. Krishnamurti, Talk 11, Bombay, 28 March 1948.
As far as my study of the origin of Languages is concerned, I myself found out how the
 'Derivation-Theory'
 of various languages itself holds no valid ground.
However, there could be a Theory of 'cognate / सज्ञाति  of the Sanskrit Roots' which can help us understand how the many languages evolved out and gradually developed independently in different ways.
The above hypothesis is also duly supported by the How the 10 Grammars of Sanskrit explain the derivation of the Sanskrit Language in particular and all the other languages in General, 10 different ways,
The idea behind writing this post came to me because of the thought of the concept of 0 and 1.
The Real Mathematics deals with numbers mostly the Real.
But 'SAnkhya' suggests that 0 and 1 are but concepts; -though 'Mathematical', are distortion of :
The Reality.
J.Krishnamurti comes here to rescue us.
He rightly points out :
"The Description is not the Described."
Again Devi-Atharva SheerSha / देवी-अथर्व-शीर्ष too points out in the same vein :
अहम् शून्या अशून्या च
(I AM Described as 0 ; and 1 as well)
The same text Devi-Atharva SheerSha / देवी-अथर्व-शीर्ष enunciates that Language evolved in two ways : First the one that is spoken by the animals. And the same that was 'delivered' by Devi -The Goddess named Aditi, -The Mother Principle that 'Devata' were born of.
Literally The Mother Principle / The 'Intelligence' Principle, sanctified the Language in terms of detailed purification of the Language that animals speak. The word 'animal' here, is not in a derogatory sense, but is meant to say that the Language that originated from 'Nature'/ प्रकृति was in the primary stage of evolution. The Mother Principle / The 'Intelligence' Principle  made it pure and enriched it too so as to be used for conveying the Higher and the Greater Reality.
So, Intelligence is prior and beyond the intellect.
The 'intellect' is a personal asset, while The Intelligence is a Principle, common and individual / indivisible to all.
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The 10 Grammarians of Sanskrit merely devised 10 approaches to understand the basics and elements essential to imbibe this nectar The Sanskrit'.
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May This Dipavali / दीपावलि bring Light of Wisdom in the life of all.
GREETINGS !!   
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Monday, 5 November 2018

उपसंहार

The Quintessence of Wisdom  / उपदेश सार        
उन्होंने कुछ ही ग्रंथों की रचना की।  और वे सभी ग्रंथ अपनी अभिव्यक्ति में सशक्त, अर्थगर्भित और प्रत्यक्षतः उनकी आध्यात्मिक अनुभूति तथा उस अनुभूति तक पहुँचने के मार्ग का स्पष्ट वर्णन करते हैं, जिससे उनका तत्वदर्शन अनुप्राणित है।  न तो उन्होंने कभी किसी साहित्यिक रचना की तरह उस रूप में सुनियोजित ढंग से किसी कृति की रचना की और न उन्हें किसी विशिष्ट इकाई की तरह स्वतंत्र ग्रन्थ के रूप में लिखा।  मुख्यतः प्रारम्भ में उन्हें आंशिक रूप में रचा गया और बाद में ऐसे ही कई अंशों को एकीकृत कर भक्तों ने उन्हें किसी ग्रन्थ का स्वरूप प्रदान किया।  किंतु उनके विचार-दर्शन को समझने में वे ग्रन्थ प्रखरतः आवश्यक सिद्ध होते हैं। वैसे श्रीरमण एक स्वतंत्र तत्वज्ञ दार्शनिक भी थे। किन्तु सभी सच्चे तत्वदर्शियों की भाँति उनका तत्वदर्शन भी उनकी अपनी अनुभूति से ही उत्पन्न हुआ था। 
वे इस रूप में दूसरे संतों से भिन्न थे कि उन्होंने कभी चमत्कार नहीं किए, उन्होंने कभी यह दावा नहीं किया कि  उनके पास अलौकिक शक्तियाँ या सिद्धियाँ थीं।  इस विषय में उन्होंने एक बार कहा था :
"एक अविभाजित मानव-भ्रूण से किसी दार्शनिक का या क्रिकेट के खिलाड़ी का विकसित हो जाना इतना बड़ा आश्चर्य है जो संतों के बड़े-बड़े सुप्रसिद्ध चमत्कारों से बढ़कर है।"
उनकी त्वरित टिप्पणियाँ बिजली की कौंध जैसी प्रखर होती थीं परन्तु उनसे कभी किसी को ठेस लगे, ऐसा कभी नहीं होता था।  वर्षों पहले एक बार मध्यरात्रि के समय कुछ दस्यु वन में स्थित उनके आश्रम में घुस आए थे, वे न सिर्फ अविचलित रहे बल्कि उन्होंने उन दस्युओं का स्वागत किया और कहा कि इस स्थान पर उन्हें जो भी मिल सकता है, वे ग्रहण करें।  किंतु अपनी आशा के विपरीत जब उन्हें आश्रम में ऐसा कुछ न मिल सका जो उनकी दृष्टि में किसी मूल्य का हो, -जब उन्हें कोई धन-संपत्ति, सोना या रुपए-पैसे आदि नहीं मिले तो उन्होंने आश्रमवासियों को मारपीट कर अपना क्रोध व्यक्त किया।  और स्वयं श्रीरमण को भी उन्होंने नहीं छोड़ा।  जब वे दस्यु वहाँ से जा चुके थे तो एक भक्त ने, जो इससे अनभिज्ञ था कि श्रीरमण पर भी प्रहार किया गया है, घबराकर उनसे पूछा : "भगवान आप कैसे हैं ?" तो उन्होंने उत्तर दिया "भगवान बिलकुल ठीक हैं, उनकी भी ठीक से पूजा हुई है । " (इसके व्यंग्यार्थ को अंग्रेज़ी में व्यक्त करना कठिन है किंतु संस्कृत भाषा में 'पूजा' का जो तात्पर्य होता है उसके विपरीत तमिल भाषा में .. एवं हिंदी में भी, ... व्यंग्यार्थ के रूप में इसे 'अच्छी तरह मारने-पीटने' के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है।  हिंदी पाठकों को इसका अर्थ बतलाया जाना अनावश्यक है। )
एक व्यक्ति ने शिकायत भरे उग्र स्वरों में उनसे पूछा कि उसके द्वारा की जानेवाली हृदयपूर्ण प्रार्थनाओं का प्रत्युत्तर ईश्वर क्यों नहीं देते, तो उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा :
"क्योंकि यदि वे आपकी प्रार्थनाएं सुनने लगें और उन्हें पूरा करने लगें तो आप प्रार्थना करना बंद कर देंगे।"
थियोसोफी (Theosophy) के तात्विक सिद्धांत (Philosophy) से पूर्वाग्रहग्रस्त एक व्यक्ति ने उनसे प्रश्न किया :
"क्या  आपने कभी 'अदृश्य' संतों के दर्शन किए हैं?"
इस पर श्रीरमण ने उससे पूछा :
"यदि वे अदृश्य हैं तो उन्हें कैसे देखा जा सकता है?"
और वे हँसने लगे।
उनके उत्तर से अचंभित प्रश्नकर्ता ने प्रयासपूर्वक पुनः पूछा :
"चैतन्य के अंतर्गत ?"
सूर्य की प्रखर किरण की तरह उसे उत्तर मिला :
"चैतन्य के अंतर्गत 'दूसरा' नहीं होता।"
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........ समाप्त .......
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दीपावलि की हार्दिक शुभकामनाएँ  !
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स्पिनोज़ा / Spinoza

ईश्वरनिष्ठा अर्थात् आत्मनिष्ठा
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उन प्रारंभिक कुछ वर्षों में उनका तप अनायास विवृद्ध होता रहा और विशाल वटवृक्ष सा अरुणाचल के प्राङ्गण की दृढ़भूमि पर खड़ा रहा।  बाद के वर्षों में माता की महासमाधि के बाद वे पहाड़ी पर स्थित 'स्कंदाश्रम' से उतरकर माता की समाधि 'मातृभूतेश्वर' के पास ही आकर रहने लगे।  न्यूरो-सर्कोमा नामक कैंसर से १९५० में अपनी महासमाधि तक वे अरुणाचल को छोड़कर कहीं नहीं गए। यह उनका आध्यात्मिक 'घर' था।  अरुणाचल की पवित्र पहाड़ी से सटे अपने आश्रम में वे जीवनपर्यन्त रहे जहाँ हजारों दर्शनार्थी उनके दर्शन करने के लिए आते रहते थे।  यद्यपि ऐसा कहा जा सकता है कि उनके बारे में प्रत्येक का अपना अपना मत था और उनमें से कुछ को वह न प्राप्त हो सका हो जिसके लिए वह उनके सान्निध्य में आया था, शायद उसे अस्थायी या स्थायी समाधान भी न मिला हो, लेकिन अपनी मृत्यु के अंतिम क्षणों तक भी वे पूर्णतः सचेत थे, -हास्यबोध की स्वाभाविक प्रवृत्ति-सहित धीर, गंभीर और करुणापूर्ण। चाहे स्त्री हो, पुरुष या बालक, प्रत्येक आगंतुक के लिए उनके द्वार हमेशा खुले रहते थे।  सांसारिक धन-दौलत, यश / ख्याति या सम्पन्नता के प्रति वैसी वितृष्णा या भौतिकता के प्रति वैसा द्वेष भी उनके मन में नहीं था, जैसा कि उन तथाकथित संतों में कभी-कभी पाया जाता है, जो पूर्ण परिपक्व नहीं हुए होते। किसी उच्च पदस्थ अधिकारी या प्रचुर संपत्ति के स्वामी का भी वैसा ही स्वागत वहाँ होता था जैसा सहज स्मितपूर्वक स्वागत वे किसी निम्नवर्ग के कहे जानेवाले निर्धनप्राय व अकिंचन प्रतीत होनेवाले व्यक्ति का करते थे। और महर्षि किसी वैभवसम्पन्न मनुष्य को तुच्छता की दृष्टि से उसका अवहेलना या तिरस्कार कर उपेक्षा से देखते हों, ऐसा भी नहीं था।
बाह्य स्तर पर जिया जानेवाला उनका जीवन एक लीला या नाटक, अभिनय-मात्र था, जबकि गहराई में वहां शान्ति और आनंद था।  सांसारिक उत्तेजनाओं के धरातल पर उनका जीवन अत्यंत साधारणप्राय था, लगभग कोई विशिष्ट या महत्वपूर्ण बात उसमें खोजना कठिन था।  लौकिक उत्तेजनाओं और उपभोगों से अभिभूत होनेवाले शायद ही कल्पना कर सकेंगे कि आत्मनिष्ठा का जीवन कितना स्वतंत्र और भरा-पूरा हो सकता है।  सचमुच उनके पास कुछ भी न था।  उनके सान्निध्य में आश्रम बना, विकसित हुआ और ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उनसे जुड़े लोग उन्हें छोड़ने के लिए राज़ी न थे। ऐसे ही कुछ लोगों ने शुरू में उनके समीप अपने आवास के लिए मिट्टी आदि से कुछ झोंपड़ियाँ, कुटियाएँ बनाईं, और धीरे धीरे पूरा स्थान आश्रम में रूपांतरित हो गया।  किंतु वे इस सबसे मात्र उदासीन थे ऐसा भी नहीं था, इस सबके बीच भी वे प्रसन्नता और निर्लिप्तता से ही रहते थे।  "तीव्र वैराग्य की प्रबल भावना" जिसे कहें, ऐसी विरोधाभासी स्थिति थी यह। जीवन-निर्वाह की कठिनतम परिस्थितियों में एक तपस्वी का जो जीवन वे सरलतापूर्वक अनायास जी रहे थे, वह वास्तव में वैसा कठिन नहीं था जैसा कि किसी गर्म जलवायु वाले स्थान में होने की कल्पना हम करते हैं। किंतु इसके बावजूद सुख-सुविधाओं के प्रति उनके मन में तिरस्कार की वैसी भावना भी नहीं थी, जो किसी साधारण तपस्वी में न होना कठिन ही होता है । नैतिक आग्रहों और मूल्यों पर उनका विशेष ध्यान हो ऐसा भी न था।  मानवीय दुर्बलताओं के प्रति उनमें सहिष्णुता और धैर्य था। यद्यपि इस दृष्टि से उनका चिंतन स्पिनोज़ा / Spinoza के चिंतन जैसा था, लेकिन उनकी दृष्टि में इससे भी बढ़कर यदि कुछ था तो वह था, - ईश्वरीय-सत्ता में अधिष्ठित रहना, जो वस्तुतः तो हमारा मौलिक और जन्मसिद्ध अधिकार ही है, लेकिन हमारा आधा-अधूरा चिंतन ही हमें जिससे वंचित कर देता है, और ऐसा 'अपूर्ण चिंतन' ही सारी बुराइयों की जड़ और जननी है।  वे स्वयं स्वतःस्फूर्त ऐसा जीवन जीते थे जिसमें ईश्वरनिष्ठा ही आत्मनिष्ठा थी।
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 ......  निरंतर ........            
           

Sunday, 4 November 2018

सहज-समाधि

संतों का जीवन-चरित्र
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यह बालक बिना किसी को साथ लिए, अपने ही बल-बूते पर मित्रहीन और अर्थाभाव होते हुए भी किस प्रकार से अकेला ही तिरुवण्णामलै पहुँचा, किस प्रकार अरुणाचल के शिव-मंदिर के विशाल प्राङ्गण में इसे रहने के लिए आश्रय मिला और जिस ईश्वरीय सत्ता ने उसे यहाँ तक आने के लिए प्रेरित किया, उस पर ही पूर्णतः आश्रित रहकर वह यहाँ कैसे रहा, किस प्रकार मंदिर के एक पुजारी ने भगवान शिव पर चढ़ाए जानेवाले दूध और फलों आदि का प्रसाद देकर इसके लिए भोजन जुटाया, और बहुत समय बाद कैसे उसे पाताललिंगम की उस गहरी अंधेरी गुहा जैसी स्थली से जहाँ वह उसकी देह को खाते चले जा रहे कृमि-कीटों के दंश तक से अविचलित रहते हुए, -देहभान तक खोकर, परमानंद में निमज्जित था, खोजकर बाहर निकाला गया, यह सब जानना और इस बारे में पता लगाना भी, संतों के जीवन-चरित्र लिखनेवालों के लिए शोध का विषय हो सकता है। ऐसा कहा जाता है कि जब उस बालक को उस खोहनुमा अंधकारपूर्ण स्थान से बाहर लाया गया तो देखा गया कि उसकी जंघाओं पर अनेक छोटे-बड़े घाव हो चुके थे क्योंकि चींटियों, मकड़ियों और अन्य कीड़ों-मकोड़ों ने उसके शरीर के उस  स्थान का मांस खाकर और रक्त चूसकर अपनी क्षुधा शांत की थी, जबकि वह बालक अपनी देह के भान से रहित समाधि के परमानंद में डूबा हुआ था।
(वास्तव में उसने उस स्थान को इसलिए चुना था क्योंकि अन्यत्र उसकी ही आयु के कुछ बालक उसे ध्यानमग्न  अवस्था में देखकर कौतूहलवश उस पर कंकड़-पत्थर और मिट्टी के ढेले फेंककर उसके ध्यान में अनजाने ही बाधा डाल रहे थे, और एक दिन जब वे उस पर वहाँ पर होने पर भी ऐसा कर रहे थे तो किसी का ध्यान उस ओर गया, उसे यह जानने की उत्सुकता हुई कि वे बालक किस पर कंकड़-ढेले फ़ेंक रहे हैं, और तब उसे अंधेरी गुफा में एक आकृति दिखाई दी, जो उस बालक की ही थी।  तब उसने बालकों को दूर भगाया और गुफा में सावधानी से प्रवेश किया।  अंदर जाकर उसके आश्चर्य की तब सीमा न रही जब उसने देखा कि उन बालकों की ही उम्र का एक बालक संसार की सुध-बुध भूलकर समाधि जैसी अवस्था में उन बालकों के उपद्रव से अविचलित और अप्रभावित अपने ध्यान में डूबा है। यह किसी प्रकार की अभ्यासजनित एकाग्रता न थी, किसी भी प्रकार की अभ्यासजनित एकाग्रता इस प्रकार की सजीव मृत्यु का रूप नहीं ले सकती।  तब उसने दूसरों को उसके बारे में जानकारी दी, और उसे बाहर लाया गया।)
किंतु इस बारे में असामान्य-मनोविज्ञान (Abnormal-Psychology) को भी मौन हो जाना होगा, क्योंकि यह अवस्था किसी मनोरुग्णता का, या मानसिक रूप से अविकसित स्थिति का परिणाम भी नहीं था।  बल्कि इससे बहुत विपरीत, इस अवस्था में प्राप्त हुए बोध के फलस्वरूप उसके मन की शक्तियाँ और भी प्रखर और प्राणवान हो उठी थीं।  तत्वदर्शन की गूढ़ बारीकियों को श्रीरमण उस अनुभूति की व्याख्या की तरह समझ सकते थे, जिससे वे पहले ही गुज़र चुके थे।  उनकी मेधा एक ऐसा उपकरण बन चुकी थी जो अपने कार्य में दक्ष, शक्तिशाली और त्रुटिशून्य होता है।  यह  देखा जा सकता है कि वे विभिन्न भाषाओं को इतनी सरलतापूर्वक सीख सकते थे या जिस किसी विषय को दत्तचित्त होकर पढ़ते-सुनते थे उसे इस तरह भली-भाँति समझ लेते थे मानों उस पर उनका अधिकार हो जाता था ।  तिरुवण्णामलै आगमन के काल के उन सारे वर्षों में वे जिस असाधारण, -मन की समाधिमग्न दशा में अनायास रहा करते थे, उनकी उस अवस्था का किसी प्रकार के अनुशासन या अभ्यास आदि से दूर तक का भी कोई संबंध नहीं था।  कभी-कभी बिरले किसी अवसर पर अपने जीवन की किन्हीं बातों को वे जैसे अनायास बतलाते थे।  ऐसे ही एक बार उन्होंने कहा था :
"उन दिनों मैं बोलता भी नहीं था अतः लोग मुझे मौनी (जिसने मौनव्रत लिया है) कहा करते थे।  चूँकि मैं कुछ खाता भी नहीं था अतः वे कहते थे की मैंने निराहार रहने का व्रत लिया है। "
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सहज-समाधि    
..... निरंतर .........