योगी-चरित्र
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गीता अध्याय 8, श्लोक 16
आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन ।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥
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(आब्रह्म-भुवनात् लोकाः पुनरावर्तिनः अर्जुन ।
माम् उपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते ॥)
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भावार्थ :
हे अर्जुन! ब्रह्म सहित, समस्त ही लोक (अर्थात् छोटे-बड़े सभी) बारम्बार प्रकट और अप्रकट हुआ करते हैं, किन्तु हे कौन्तेय (अर्जुन)! मुझे प्राप्त हो जाने के बाद ऐसा पुनः पुनः आवागमन फिर नहीं होता ।
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गीता अध्याय 5, श्लोक 27
अध्याय 5 , श्लोक 27
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स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः ।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ ॥
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स्पर्शान् कृत्वा बहिः बाह्यान् चक्षुः च एव अन्तरे भ्रुवोः ।
प्राण-अपानौ समौ कृत्वा नासा-अभ्यन्तरचारिणौ ॥
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अर्थ :
बाह्य इन्द्रिय-संवेदनों (स्पर्श, रूप, रस, गंध , शब्द ) को बाहर छोड़कर अर्थात् चित्त को उनसे हटाकर अन्तर्मुख करते हुए दृष्टि / ध्यान को दोनों भौहों के मध्य स्थिर कर, नासा में आती-जाती श्वास (अर्थात् प्राण और अपान को समान (संतुलित) कर ..
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अध्याय 8, श्लोक 10,
प्रयाणकाले मनसाचलेन
भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक्
स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यं ॥
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(प्रयाणकाले मनसा अचलेन ।
भक्त्या युक्तः योगबलेन च एव ।
भ्रुवोः मध्ये प्राणम् आवेश्य सम्यक्
सः तम् परम् पुरुषम् उपैति दिव्यम् ॥)
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भावार्थ :
(और) अन्त-समय आने पर अचल मन, भक्ति तथा (श्लोक 8 में कहे गए पूर्व में किए गए अभ्यास से सिद्ध हुए) योगबल की सहायता से ही वह भृकुटी के मध्य में प्राण को अच्छी प्रकार स्थापित (आविष्ट) करते हुए वह उस परम पुरुष परमेश्वर को ही प्राप्त होता है ।
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चैतन्य परब्रह्म स्वरूपतः विशुद्ध अक्षर अविकारी ब्रह्मस्वरूप है जिसकी तरंगमात्र ब्रह्माकारवृत्ति की तरह काल-स्थान को प्रक्षेपित करती है। तात्पर्य यह कि जीव को प्रतीत होनेवाला आभासी काल-स्थान मरीचिका की भाँति विभ्रम है किंतु जिस तल पर जीव उसे देखता है वह है ब्रह्माकार-वृत्ति।
इसी ब्रह्माकार-वृत्ति में जो तृण से लेकर ब्रह्मा तक के समस्त लोकों का आधार है, असंख्य त्रसरेणु वैसे ही झिलमिलाते हैं जैसे खिड़की से आते सूरज के प्रकाश में नृत्यरत धूलिकण। प्रत्येक कण अपने-आपमें पूर्ण ब्रह्म है, यद्यपि (दो नेत्रों से जुडी) द्वैत दृष्टि के कारण समष्टि रूप में वे अनेक भासते हैं।
उन्हें 'देखनेवाला 'दृष्टा' स्वयं भी वैसा ही एक धूलिकण है और
"The Observer is the Observed ...(-J.Krishnamurti)"
के न्याय से भी यही अकाट्य सत्यता है।
ये असंख्य दृष्टा और उन्हें प्रतीत होनेवाला काल-स्थान (दिक्-काल) जिसे मापनीय होने के आधार से स्वतंत्र सत्ता मान लिया जाता है वस्तुतः उसी ब्रह्म का 'विवर्त' मात्र है।
विवर्त का अर्थ है नाम-रूप बदल जाने पर भी वस्तु का न बदलना -अपरिवर्तनशीलता या अविकारिता।
इसकी तुलना में विकार का अर्थ है; -मूल वस्तु में बदलाव होना।
जल भाप, बर्फ या पानी के रूपों में भी तत्वतः जल ही रहता है, जबकि दूध, दही में बदल जाने पर तत्वतः दूध से भिन्न हो जाता है। जल, भाप, बर्फ या पानी हो एक से दूसरे रूप में बदला जा सकता है लेकिन दही को पुनः दूध में नहीं बदला जा सकता।
इस प्रकार जीव ब्रह्म का विवर्त है, न कि विकार।
ब्रह्माकार-वृत्ति के असीम सागर में उठनेवाली तरंगें सर्वप्रथम पञ्च-महाभूतों की रचना करती हैं।
जैसे पृथ्वी के दो पिंड गुरुत्व के आकर्षण से परस्पर एक दूसरे की ओर आते हैं और जल जल में मिल जाता है, अग्नि, वायु और आकाश भी इसी प्रकार उसी विवर्त में गतिशील हैं, जो ब्रह्माकारवृत्ति है :
"अक्षरात्-सञ्जायते कालः कालात् व्यापकोच्यते ..."
(शिव-अथर्व शीर्ष)
तात्पर्य यह कि काल-स्थान का 'सृजन' होता है।
यही त्रसरेणुरूपी जीव प्रथमतः पञ्चतत्वों के मिश्रण से सर्वत्र विद्यमान चैतन्य के प्रकाश का सूक्ष्म अंश ग्रहण कर 'भ्रूण' या बीज बनता है।
यह भ्रूण गर्भ में रहकर नित्य वर्धमान होता रहने से ब्रह्म ही है।
भ्रूण से गर्भ और गर्भ से शिशु के रूप में जन्म लेने के बाद यह एक स्वतंत्र जैव-प्रणाली के रूप में विकसित होता है। वृद्ध होने तक यह इस प्रकार निरंतर परिवर्तित होता रहता है जिसमें इसका विकारी अंश (पञ्चभूत) देह की कोशाओं में संचरित होकर उन्हें नित्य नया रूप देते रहते हैं और इस प्रवाह पर ध्यान न होने से देह को एक स्थिर वस्तु समझ लिया जाता है।
इसी विकारी देह का बोध जिस चेतना में होता है वह जीव के संपूर्ण जीवन-काल में आधार की भाँति अचल, अविकारी होती है इसे स्पष्ट करने या समझने के लिए किसी विलक्षण प्रतिभा का होना ज़रूरी नहीं है। केवल इस ओर ध्यान देने से ही यह स्पष्ट हो जाता है।
इस चेतना को व्यवहार में 'मैं' कहा जाता है, यद्यपि विशेषण के रूप में चेतना के लिए 'मैं' कहा जाना विरोधाभासी है। शरीर स्वयं का परिचय व्यक्त करने के लिए 'मैं' का प्रयोग नहीं कर सकता जब तक कि चेतना उससे सम्बद्ध न हो, चेतना केवल भान और इन्द्रिय-संवेदनात्मक होने से इस शब्द का प्रयोग नहीं कर सकती। इस प्रकार 'मैं' एक व्यावहारिक और उपयोगी सत्य है जिसका वाणी से प्रयोग किए बिना भी अस्तित्व स्वयंसिद्ध है। मूलतः यह चेतना का अपने स्वयं का निःशब्द भान, स्वयं चेतना को ही है जिसे शब्द दिए जाते ही दुविधा पैदा हो जाती है। चेतना स्वयं को 'अन्य' की तरह से नहीं इससे भिन्न प्रकार से बोधमात्र से ही जानती है जहाँ ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान परस्पर तत्वतः अभिन्न हैं। किन्तु जब इसी चेतना में किसी 'विषय' को जाना जाता है तो चेतना विषय से तदाकार हो जाती है तभी उसे 'जान' सकती है।
यह तदाकारिता बीज रूप में तब भी थी ही जब भ्रूण इसका 'विषय' था।
फिर माता से तदाकारिता तब तक रही जब तक देह का पृथक शरीर की तरह शिशु के रूप में जन्म हुआ।
चेतना जो भ्रूण में बीज-रूप में सुषुप्त थी इडा और पिंगला नाड़ियों के माध्यम से, उस मार्ग से भ्रूमध्य तक जा पहुँची और मस्तिष्क में संचरित होकर शरीर के अंगों तक फैल गयी। इसलिए शरीर में दो प्रकार की चेतनाएँ प्रत्यक्ष हैं। जैसे हमारे शरीर में कुछ स्थानों पर सुई चुभाये जाने पर उस स्पर्श का पता हमें चलता है तो कुछ अन्य स्थानों पर सुई चुभाये जाने पर हमें उसका पता नहीं चलता। इस प्रकार गत्यात्मक और संवेदनात्मक दो प्रकार की नाड़ियाँ प्रमुख रूप से इडा पिंगला ही हैं।
चेतना से संवेदन, संवेदन से विचार, विचार से भावना, भावना से अनुभूति, अनुभूति से स्मृति, स्मृति से संस्कार,तथा पुनः संस्कार से स्मृति, स्मृति से अनुभूति, अनुभूति से भावना, भावना से विचार, विचार से संवेदन और संवेदन से चेतना तक जाकर चक्र पूर्ण हो जाता है।
भ्रूण से भ्रूमध्य / भ्रुकुटी तक यही संवेदन जीवन का बाह्य प्रकार है।
किंतु योगी जब विधिपूर्वक 'ध्यान' को भ्रूमध्य पर लाकर, अन्य बाह्य विषयों को चित्त से हटाकर अन्तर्मुख होता है और प्रणव का उच्चार करता है तो उसकी 'पात्रता', उत्कंठा की तीव्रता के अनुसार उसका चित्त उस द्वार को खटखटाता है जो ब्रह्मलोक का प्रवेश-द्वार है। पात्रता का तात्पर्य है विवेक, वैराग्य, उपरति तथा शम-दम आदि दैवी-संपत्तियों से युक्त होना।
ब्रह्मलोक का प्रवेशद्वार भीतर की तरफ खुलता है अर्थात् चेतना के अंतर्मुख होने पर ही।
इस द्वार के खुलने पर योगी ब्रह्मलोक से परिचित होता है।
एक बार इस द्वार का खुल जाना इसकी संभावना उत्पन्न करता है कि प्रयाणकाल में भी योगी परमेश्वर अर्थात् उस ब्रह्माकार वृत्ति का 'मामनुस्मर' की विधि से प्रत्यक्ष स्मरण कर सके। यहाँ 'हठ' की कोई भूमिका नहीं हो सकती। पात्रता ही एकमात्र अधिकारिता है।
यद्यपि इस प्रकार से अंतकाल में योगी सूर्य या चंद्र मार्ग से उत्तरायण अथवा दक्षिणायन के मार्ग से ब्रह्मलोक में या उत्तम गति को प्राप्त हो सकता है किंतु जैसा प्रारंभ में कहा गया, ब्रह्मलोक से लेकर तृण तक सभी लोक अनित्य होने से प्राप्त करने योग्य नहीं हैं,
कठोपनिषद अध्याय 2, वल्ली 3 के श्लोक १६ में वर्णन है :
शतं चैका च हृदयस्य नाड्य-
स्तासां मूर्धानमभिनिःसृतैका ।
तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति
विष्वङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्ति ॥
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इस हृदय की एक सौ एक नाड़ियाँ हैं, उनमें से एक मूर्धा का भेदन कर बाहर को निकली हुई है। उसके द्वारा ऊर्ध्व --ऊपर की ओर गमन करनेवाला पुरुष अमरत्व को प्राप्त होता है। शेष विभिन्न नाड़ियाँ उत्क्रमण (प्राणों के उत्सर्ग) -की हेतु होती है। (जिनसे प्राण के उत्सर्ग होने पर पुरुष अन्य अन्य योनियों में पुनः जन्म लेता है।
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(हिंदी पाठकों के लिए मेरे स्वाध्याय ब्लॉग में
मूल अंग्रेज़ी में लिखे गए पोस्ट का हिंदी रूपांतर )
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