उन्माद, विषाद और अवसाद
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यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ६, श्लोक १९ )
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मन का पेंडुलम (संस्कृत : कंदु -- कंदुल -- कंदुलम् -- पंदुलम्य -- दोलायमानो इति) एक बार चलना शुरू हो जाता है तो अगर वहाँ रुकना चाहता भी हो, तो भी फिर वहाँ नहीं रुक पाता जहाँ से उसने चलना शुरू किया था। किसी उन्माद के चढ़ाव पर हाँफता हुआ उत्तेजना के ज्वार से ग्रस्त, ऊँचाई से ऊँचाई की दिशा में गतिशील रहता है। चरम उत्तेजना तक जाकर क्षण भर मानों रुक जाता है, पर पलक झपकते ही वहाँ से उतरने लगता है। शुरू में धीमी गति से, और क्रमशः गति बढ़ाते हुए। फिर तेज गति से उतरता हुआ क्षण भर विषादपूर्ण मनःस्थिति पर अटकता है पर विवश होकर गति की विपरीत दिशा में उसी वेग से जो उन्माद के समय उसमें था, ऊँचाई से ऊँचाई तक तब तक जाता है, जब तक कि अवसाद की मंज़िल को नहीं छू लेता। फिर क्षण भर ठिठककर बाध्य होता है और विषाद की दिशा में लौटता हुआ उन्माद की ही ओर हाँफते हुए आगे बढ़ने लगता है।
दीवार-घड़ी पर सेकंड का काँटा एकसार गति से एक वृत्त में घूमता रहता है, मिनट का काँटा साठ सेकंड प्रति मिनट की गति से, और घंटे का काँटा साठ मिनट प्रति घंटे की रफ़्तार से एक चक्र में घूमते रहते हैं। पेंडुलम के धीमे या तेज होने से उनकी इस गति में कोई फ़र्क नहीं पड़ता। सेकंड की सुई कितनी भी धीमी या तेज गति से चले, मिनट की सुई साठ सेकंड में ही एक चक्र चलती है। इसी तरह घंटे की सुई साठ मिनट प्रति घंटे की गति ही से चलती है। लेकिन पेंडुलम ही इसे तय करता है कि सेकंड की अवधि कितनी लघु या दीर्घ होगी। क्या सेकंड की लंबाई पेंडुलम की मर्ज़ी से ज़्यादा-कम हो सकती है? 'समय' की दीर्घता की सुनिश्चितता हम पर इस तरह हावी है कि हम यह नहीं देख पाते हैं कि क्या सेकंड, मिनट, घंटे या दिन, माह और वर्ष का अंतराल / अवधि / समय भी, -उसकी 'लंबाई' या विस्तार भी, वस्तुतः सुनिश्चित / नियत है? क्या होगी कसौटी, प्रमाण समय की दीर्घता का, जिसे गणितीय सूक्ष्मता और सटीकता (exactness) से तय किया जा सके? तब हम किसी दूसरी घड़ी के आधार पर इस यांत्रिक घड़ी का इकाई समय-अंतराल (दीर्घता) सुनिश्चित करते हैं, फिर भले ही वह परमाणु-घड़ी (atomic -clock) क्यों न हो।
लेकिन तब भी यह संदेह तो रहता ही है कि परमाणु-घड़ी से तय किया गया समय-अंतराल वस्तुतः कितना दीर्घ या लघु है, और वास्तव में ऐसे दो इकाई-अंतराल बिलकुल समान परिमाण के होंगे इसका कौन सा प्रमाण हमारे पास हो सकेगा?
काल और स्थान दोनों जड (inert / insentient) सत्ताएँ / विषय (object) हैं, - जो जड हैं और अपनी सत्यता के लिए किसी चेतन-सत्ता (conscious-entity) पर आश्रित हैं। वास्तव में वे सत्ताएँ (entities) हैं यह कहना ही मौलिक भ्रम है। इस चेतन-सत्ता की काल-स्थान-निरपेक्षता अर्थात् उनसे स्वतन्त्रता स्वयंसिद्ध तथ्य है, और यह विषयी (subject) है, जबकि काल और स्थान दोनों जड (inert / insentient) बौद्धिक अनुमान तथा अनुमान पर आधारित निष्कर्ष / विषय (object) हैं, और चेतन-सत्ता के अंतर्गत हैं। इस प्रकार विषयी (subject) स्वभावतः काल-स्थान से अस्पर्शित सत्ता है, और काल-स्थान उस पर आरोपित विचार मात्र हैं । यह भौतिक शरीर अवश्य ही भौतिक तत्वों से बनी सुगठित संगठित जैव-प्रणाली है, जो भौतिक काल-स्थान के अंतर्गत है और इसलिए अन्य भौतिक घटनाओं की तरह एक घटना / परिणाम है जिसकी पूर्वनिर्धारित अटल नियति है जिसे बदल पाना असंभव है। किंतु बदलने का यह संकल्प जिस चेतना में उठता है वह चेतना अवश्य ही काल-स्थान से प्रभावित नहीं होती और वही जन्म-मृत्यु से रहित और अछूती है। यद्यपि शरीर के जन्म को अपना जन्म समझे जाने की भूल प्रायः हर किसी से होती है क्योंकि इस विचार की सत्यता पर संदेह तक नहीं उठाया जाता और न कोई इस भूल की ओर हमारा ध्यान ही आकृष्ट करता है। किंतु सावधानी से देखते ही यह स्पष्ट हो जाता है कि जैसे पेंडुलम सेकंड, मिनट, या घंटों की दीर्घता (या अन्य शब्दों में --अवधि / अंतराल / विस्तार) को तय करता है और वह दीर्घता कोई स्वतंत्र भौतिक राशि (quantity) नहीं होती, वैसे ही चेतना की स्प्रिंग-बैलेंस से नियंत्रित मन, प्राण, बुद्धि, विचार, भावना आदि सूक्ष्म तत्वों तथा शरीर के दूसरे अंगों की स्थूल गति किसी तय अवधि से सामंजस्य से तय होती है।
तो वह 'कौन' / 'क्या' है जो उन्माद, विषाद और अवसाद के क्रम से गुज़रता है? क्या यही "मैं" जिसे व्यवहार में अपने-आपकी तरह एक स्वतंत्र सत्ता (व्यक्ति-विशेष) मान लिया जाता है, वह पेंडुलम नहीं है जिसकी गति चेतना / चेतनता रुपी स्प्रिंग-बैलेंस से और उससे संबद्ध व्हील से निर्धारित होती है? और यह गति कितनी भी सुदीर्घ या अल्पप्राय हो, क्या वह चेतना / चेतनता इससे प्रभावित होती है? वह तत्व जो चेतना / चेतनता के रूप में इस सारे क्रम का आधार किंतु इससे अप्रभावित रहता है, क्या मापनीय काल-स्थान के अंतर्गत है, या काल-स्थान ही उसके अंतर्गत होता है? ज़रूरी नहीं है की पेंडुलम रुके ही। ज़रूरी है इस संबद्ध चेतना / संबुद्ध के स्वरूप की पहचान हो जाना। यदि उसे 'साक्षी' कहा जाए तो वह पुनः इसी चेतना के अंतर्गत एक विचार ही होगा, न कि उससे प्रत्यक्ष परिचय या उसका बोध, क्योंकि वह चेतना किसी दूसरी चेतना के बोध का विषय भी नहीं हो सकती।
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चलते-चलते
काल के इस लचीले (elastic) स्वरूप और साल्वेडोर डाली (Salvador Dali) के 'समय' के गूढ किंतु सरल-निश्छल हास्य-बोध को समझ पाने में मुझे जो श्रम करना पड़ा, उसे उसने यद्यपि अपनी चित्रकला में बहुत पहले ही घड़ियों के चित्रांकन से आश्चर्यजनक रूप से अभिव्यक्त कर दिया था, लेकिन उसने इस प्रकार इस तथाकथित वैज्ञानिक-बुद्धि को कटघरे में भी खड़ा कर दिया था, जो 'समय' का अध्ययन उसे एक राशि (quantity) मानकर करती है। 'Uncertainty-Principle' समय के इसी मूल्यांकन का परिणाम है।
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Quantum-Mechanics में Heisenberg द्वारा प्रतिपादित 'Uncertainty-Principle' इस मौलिक तथ्य की उपेक्षा करता है कि भौतिक विज्ञान से मान्य 'समय' न तो राशि (quantity) है, न मापनीय (measurable) ही है। इसलिए यद्यपि Heisenberg द्वारा प्रतिपादित 'Uncertainty-Principle' व्यावहारिक धरातल पर सत्य सिद्ध होता है लेकिन वह केवल इसलिए क्योंकि उसे सिद्ध करने की प्रक्रिया में यह मौलिक तथ्य eliminate / निवारित हो जाता है।
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यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ६, श्लोक १९ )
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मन का पेंडुलम (संस्कृत : कंदु -- कंदुल -- कंदुलम् -- पंदुलम्य -- दोलायमानो इति) एक बार चलना शुरू हो जाता है तो अगर वहाँ रुकना चाहता भी हो, तो भी फिर वहाँ नहीं रुक पाता जहाँ से उसने चलना शुरू किया था। किसी उन्माद के चढ़ाव पर हाँफता हुआ उत्तेजना के ज्वार से ग्रस्त, ऊँचाई से ऊँचाई की दिशा में गतिशील रहता है। चरम उत्तेजना तक जाकर क्षण भर मानों रुक जाता है, पर पलक झपकते ही वहाँ से उतरने लगता है। शुरू में धीमी गति से, और क्रमशः गति बढ़ाते हुए। फिर तेज गति से उतरता हुआ क्षण भर विषादपूर्ण मनःस्थिति पर अटकता है पर विवश होकर गति की विपरीत दिशा में उसी वेग से जो उन्माद के समय उसमें था, ऊँचाई से ऊँचाई तक तब तक जाता है, जब तक कि अवसाद की मंज़िल को नहीं छू लेता। फिर क्षण भर ठिठककर बाध्य होता है और विषाद की दिशा में लौटता हुआ उन्माद की ही ओर हाँफते हुए आगे बढ़ने लगता है।
दीवार-घड़ी पर सेकंड का काँटा एकसार गति से एक वृत्त में घूमता रहता है, मिनट का काँटा साठ सेकंड प्रति मिनट की गति से, और घंटे का काँटा साठ मिनट प्रति घंटे की रफ़्तार से एक चक्र में घूमते रहते हैं। पेंडुलम के धीमे या तेज होने से उनकी इस गति में कोई फ़र्क नहीं पड़ता। सेकंड की सुई कितनी भी धीमी या तेज गति से चले, मिनट की सुई साठ सेकंड में ही एक चक्र चलती है। इसी तरह घंटे की सुई साठ मिनट प्रति घंटे की गति ही से चलती है। लेकिन पेंडुलम ही इसे तय करता है कि सेकंड की अवधि कितनी लघु या दीर्घ होगी। क्या सेकंड की लंबाई पेंडुलम की मर्ज़ी से ज़्यादा-कम हो सकती है? 'समय' की दीर्घता की सुनिश्चितता हम पर इस तरह हावी है कि हम यह नहीं देख पाते हैं कि क्या सेकंड, मिनट, घंटे या दिन, माह और वर्ष का अंतराल / अवधि / समय भी, -उसकी 'लंबाई' या विस्तार भी, वस्तुतः सुनिश्चित / नियत है? क्या होगी कसौटी, प्रमाण समय की दीर्घता का, जिसे गणितीय सूक्ष्मता और सटीकता (exactness) से तय किया जा सके? तब हम किसी दूसरी घड़ी के आधार पर इस यांत्रिक घड़ी का इकाई समय-अंतराल (दीर्घता) सुनिश्चित करते हैं, फिर भले ही वह परमाणु-घड़ी (atomic -clock) क्यों न हो।
लेकिन तब भी यह संदेह तो रहता ही है कि परमाणु-घड़ी से तय किया गया समय-अंतराल वस्तुतः कितना दीर्घ या लघु है, और वास्तव में ऐसे दो इकाई-अंतराल बिलकुल समान परिमाण के होंगे इसका कौन सा प्रमाण हमारे पास हो सकेगा?
काल और स्थान दोनों जड (inert / insentient) सत्ताएँ / विषय (object) हैं, - जो जड हैं और अपनी सत्यता के लिए किसी चेतन-सत्ता (conscious-entity) पर आश्रित हैं। वास्तव में वे सत्ताएँ (entities) हैं यह कहना ही मौलिक भ्रम है। इस चेतन-सत्ता की काल-स्थान-निरपेक्षता अर्थात् उनसे स्वतन्त्रता स्वयंसिद्ध तथ्य है, और यह विषयी (subject) है, जबकि काल और स्थान दोनों जड (inert / insentient) बौद्धिक अनुमान तथा अनुमान पर आधारित निष्कर्ष / विषय (object) हैं, और चेतन-सत्ता के अंतर्गत हैं। इस प्रकार विषयी (subject) स्वभावतः काल-स्थान से अस्पर्शित सत्ता है, और काल-स्थान उस पर आरोपित विचार मात्र हैं । यह भौतिक शरीर अवश्य ही भौतिक तत्वों से बनी सुगठित संगठित जैव-प्रणाली है, जो भौतिक काल-स्थान के अंतर्गत है और इसलिए अन्य भौतिक घटनाओं की तरह एक घटना / परिणाम है जिसकी पूर्वनिर्धारित अटल नियति है जिसे बदल पाना असंभव है। किंतु बदलने का यह संकल्प जिस चेतना में उठता है वह चेतना अवश्य ही काल-स्थान से प्रभावित नहीं होती और वही जन्म-मृत्यु से रहित और अछूती है। यद्यपि शरीर के जन्म को अपना जन्म समझे जाने की भूल प्रायः हर किसी से होती है क्योंकि इस विचार की सत्यता पर संदेह तक नहीं उठाया जाता और न कोई इस भूल की ओर हमारा ध्यान ही आकृष्ट करता है। किंतु सावधानी से देखते ही यह स्पष्ट हो जाता है कि जैसे पेंडुलम सेकंड, मिनट, या घंटों की दीर्घता (या अन्य शब्दों में --अवधि / अंतराल / विस्तार) को तय करता है और वह दीर्घता कोई स्वतंत्र भौतिक राशि (quantity) नहीं होती, वैसे ही चेतना की स्प्रिंग-बैलेंस से नियंत्रित मन, प्राण, बुद्धि, विचार, भावना आदि सूक्ष्म तत्वों तथा शरीर के दूसरे अंगों की स्थूल गति किसी तय अवधि से सामंजस्य से तय होती है।
तो वह 'कौन' / 'क्या' है जो उन्माद, विषाद और अवसाद के क्रम से गुज़रता है? क्या यही "मैं" जिसे व्यवहार में अपने-आपकी तरह एक स्वतंत्र सत्ता (व्यक्ति-विशेष) मान लिया जाता है, वह पेंडुलम नहीं है जिसकी गति चेतना / चेतनता रुपी स्प्रिंग-बैलेंस से और उससे संबद्ध व्हील से निर्धारित होती है? और यह गति कितनी भी सुदीर्घ या अल्पप्राय हो, क्या वह चेतना / चेतनता इससे प्रभावित होती है? वह तत्व जो चेतना / चेतनता के रूप में इस सारे क्रम का आधार किंतु इससे अप्रभावित रहता है, क्या मापनीय काल-स्थान के अंतर्गत है, या काल-स्थान ही उसके अंतर्गत होता है? ज़रूरी नहीं है की पेंडुलम रुके ही। ज़रूरी है इस संबद्ध चेतना / संबुद्ध के स्वरूप की पहचान हो जाना। यदि उसे 'साक्षी' कहा जाए तो वह पुनः इसी चेतना के अंतर्गत एक विचार ही होगा, न कि उससे प्रत्यक्ष परिचय या उसका बोध, क्योंकि वह चेतना किसी दूसरी चेतना के बोध का विषय भी नहीं हो सकती।
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चलते-चलते
काल के इस लचीले (elastic) स्वरूप और साल्वेडोर डाली (Salvador Dali) के 'समय' के गूढ किंतु सरल-निश्छल हास्य-बोध को समझ पाने में मुझे जो श्रम करना पड़ा, उसे उसने यद्यपि अपनी चित्रकला में बहुत पहले ही घड़ियों के चित्रांकन से आश्चर्यजनक रूप से अभिव्यक्त कर दिया था, लेकिन उसने इस प्रकार इस तथाकथित वैज्ञानिक-बुद्धि को कटघरे में भी खड़ा कर दिया था, जो 'समय' का अध्ययन उसे एक राशि (quantity) मानकर करती है। 'Uncertainty-Principle' समय के इसी मूल्यांकन का परिणाम है।
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Quantum-Mechanics में Heisenberg द्वारा प्रतिपादित 'Uncertainty-Principle' इस मौलिक तथ्य की उपेक्षा करता है कि भौतिक विज्ञान से मान्य 'समय' न तो राशि (quantity) है, न मापनीय (measurable) ही है। इसलिए यद्यपि Heisenberg द्वारा प्रतिपादित 'Uncertainty-Principle' व्यावहारिक धरातल पर सत्य सिद्ध होता है लेकिन वह केवल इसलिए क्योंकि उसे सिद्ध करने की प्रक्रिया में यह मौलिक तथ्य eliminate / निवारित हो जाता है।
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