’प्रतिबद्धता’ का प्रश्न एक राजनीतिक प्रश्न है । कोई प्रगति, विकास, के प्रति समर्पित है, कोई हिन्दुत्व के प्रति, कोई इस्लाम के प्रति, कोई सेक्युलरिज़्म के प्रति, तो कोई कम्यूनिज़्म के प्रति । कोई ’राष्ट्रवाद’ के प्रति तो कोई वैश्विक-मानवतावाद के प्रति, कोई साहित्य के प्रति तो कोई धर्म, नैतिकता, अध्यात्म या भौतिकता के प्रति । वास्तव में प्रगति, विकास, इस्लाम, सेक्युलरिज़्म, कम्यूनिज़्म, राष्ट्रवाद, वैश्विक मानवतावाद, साहित्य, धर्म, नैतिकता, ये सारे शब्द अपने आपमें किसी सुनिश्चित तथ्य के रूप में नहीं बल्कि हर एक की उसकी अपनी व्याख्या के द्वारा ग्रहण किए जाते हैं, और तथ्यात्मक रूप से वे किसे इंगित करते हैं यह सदा अनिश्चित ही रहता है । पुनः किसी भी एक शब्द को उठा लें तो आप देखेंगे कि उसके प्रति स्वयं की प्रतिबद्धता घोषित करनेवाले भी उस शब्द के भिन्न-भिन्न संस्करणों (versions) के प्रति समर्पित होते हैं न कि उस तथ्य के प्रति जिसे शब्द के द्वारा व्यक्त किए जाने का प्रयास वे करते हैं । और चूँकि वास्तव में ये शब्द ऐसे किसी तथ्य के लिए प्रयुक्त ही नहीं किए जा सकते जिसे ’आदर्श’, ’लक्ष्य’ कहा जाता है । क्योंकि ’आदर्श’ और ’लक्ष्य’, ’प्रगति’, ’विकास’ भी पुनः ऐसे ही और कुछ आकर्षक, लुभावने, लेकिन खोखले और अर्थहीन शब्द ही तो हैं । तथ्य की ओर से आँखें मूँदकर किसी शब्द के आकर्षण से मोहित होकर उसके प्रति समर्पित होना, उससे अपना तादात्म्य कर लेना शुद्ध कल्पना-विलास, एक अंतहीन भूल या भूल-भुलैया भी है । शब्द का अपना एक प्रभामंडल होता है और उस प्रभामंडल से संमोहित होकर तथ्य से आँखें फेर लेना मृग-मरीचिका ही सिद्ध होता है ।
जब तक कोई बच्चा है तब तक शब्दों, विचारों की स्पून-फ़ीडिंग किसी हद तक उपयोगी होती है, किंतु यदि कोई स्पून-फ़ीडिंग का ही अभ्यस्त होकर स्पून-फ़ीडिंग और स्पून के प्रति समर्पित हो रहे, तो वह कभी परिपक्व न होकर, अंत तक बच्चा ही रह जाता है । आत्म-निर्भरता यदि सचमुच इतनी महत्वपूर्ण है, तो हमें चाहिए कि इन तमाम शब्दों को डिक्शनरियों में ही रहने दें, इन विचारों को उन विचारकों के ही पास रहने दें और अपने भीतर तथ्य को देखने का जज़्बा और माद्दा पैदा होने दें ।
तथ्य क्या है? हिंसा तथ्य है, ईर्ष्या, भय, आशंका, लोभ, भविष्य की कल्पना और अतीत की स्मृति तथ्य है, जीवन के विविध पहलू साक्षात तथ्य हैं, रोग, प्रतिद्वन्द्विता, असहिष्णुता, बुढ़ापा, द्वन्द्व / दुविधा, चिन्ता, प्रत्यक्ष-तथ्य हैं । इन तथ्यों की ओर से ध्यान हटाकर किन्हीं आदर्शों, उद्देश्यों, लक्ष्यों, को महान समझकर उनके लिए प्रयत्न करना और संघर्ष करते रहना आकाश के तारे तोड़ने के प्रयास जैसा है ।
चूँकि हममें इतना साहस नहीं और सुविधाभोगी होने से इस बारे में आलस्य तो है ही, इसलिए हम वस्तुतः सुखवादी सुविधाभोगी और पलायनवादी भर हैं । तथ्य से पलायन करने के इच्छुक । यह एक और तथ्य है । और इसलिए भी हम अपने कल्पित वर्तमान में रहने के लिए अभिशप्त हैं ।
तथ्य से आँखें न फेरकर, उसे ध्यानपूर्वक देखते ही वह रूपान्तरित हो जाता है या उसकी व्यर्थता पता चलने पर बस विलीन ही हो जाता है, और हमारे वर्तमान को, हमको भी रूपान्तरित कर देता है ।
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जब तक कोई बच्चा है तब तक शब्दों, विचारों की स्पून-फ़ीडिंग किसी हद तक उपयोगी होती है, किंतु यदि कोई स्पून-फ़ीडिंग का ही अभ्यस्त होकर स्पून-फ़ीडिंग और स्पून के प्रति समर्पित हो रहे, तो वह कभी परिपक्व न होकर, अंत तक बच्चा ही रह जाता है । आत्म-निर्भरता यदि सचमुच इतनी महत्वपूर्ण है, तो हमें चाहिए कि इन तमाम शब्दों को डिक्शनरियों में ही रहने दें, इन विचारों को उन विचारकों के ही पास रहने दें और अपने भीतर तथ्य को देखने का जज़्बा और माद्दा पैदा होने दें ।
तथ्य क्या है? हिंसा तथ्य है, ईर्ष्या, भय, आशंका, लोभ, भविष्य की कल्पना और अतीत की स्मृति तथ्य है, जीवन के विविध पहलू साक्षात तथ्य हैं, रोग, प्रतिद्वन्द्विता, असहिष्णुता, बुढ़ापा, द्वन्द्व / दुविधा, चिन्ता, प्रत्यक्ष-तथ्य हैं । इन तथ्यों की ओर से ध्यान हटाकर किन्हीं आदर्शों, उद्देश्यों, लक्ष्यों, को महान समझकर उनके लिए प्रयत्न करना और संघर्ष करते रहना आकाश के तारे तोड़ने के प्रयास जैसा है ।
चूँकि हममें इतना साहस नहीं और सुविधाभोगी होने से इस बारे में आलस्य तो है ही, इसलिए हम वस्तुतः सुखवादी सुविधाभोगी और पलायनवादी भर हैं । तथ्य से पलायन करने के इच्छुक । यह एक और तथ्य है । और इसलिए भी हम अपने कल्पित वर्तमान में रहने के लिए अभिशप्त हैं ।
तथ्य से आँखें न फेरकर, उसे ध्यानपूर्वक देखते ही वह रूपान्तरित हो जाता है या उसकी व्यर्थता पता चलने पर बस विलीन ही हो जाता है, और हमारे वर्तमान को, हमको भी रूपान्तरित कर देता है ।
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