Tuesday, 20 June 2017

Eureka ...!

मुझे कोई नहीं जानता  .....!
मुझे भी कोई नहीं जानता,
और मुझे तो कोई भी नहीं जानता,
हर कोई बस खुद को जानता है,
ऐसा उसे लगता है,
लेकिन खुद को कोई कहाँ जानता है?
हर कोई बस मान बैठता है कि वह खुद को जानता है,
लेकिन उसका खुद का होना क्या उसकी दुनिया के बिना मुमकिन है?
इसलिए जब तक वह दुनिया को नहीं जानता,
-या कहें ठीक से नहीं जानता,
तब तक वह खुद को आधा-अधूरा, ठीक से, या अच्छी तरह कैसे जान सकता है?
और जिस दुनिया के बारे में उसे लगता है कि वह किसी हद तक जानता है, क्या दुनिया सिर्फ़ उतनी ही है?
और क्या दुनिया के बारे में उसकी राय हर घड़ी बदलती नहीं रहती?
ऐसी बदलती दुनिया में क्या वह खुद भी लगातार बदलते रहने से बच सकता है?
फिर भी उसे कभी खयाल नहीं होता कि मैं बदल रहा हूँ  ।
यहाँ एक पेंच (गुत्थी) है,
यदि ’मैं’ बदल रहा हूँ अर्थात् जिसे पता चल रहा है वही जब बदल रहा हो तो उसे यह कैसे पता चलेगा ?
हाँ यदि ’मैं’ के दो रूप होते हों जिसमें से एक न बदलता हो और दूसरा बदलता हो तो अपने बदलते रूप को जाननेवाला रूप ही जानेगा कि उसका दूसरा रूप बदल रहा है ।
किन्तु यदि यह सब विवेचना (सिरदर्द) न की जाए और बस इतना कहा जाए :
’मुझे कोई नहीं जानता और मुझे तो कोई भी नहीं जानता’
तो क्या यह अपना सही स्टेटस्-अपडेट नहीं होगा?
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यूरेका ऽऽऽऽऽऽऽ
नया ’अपडेट’
अब जब मुझे समझ में आया कि मेरे अस्तित्व के, मेरे दो पहलू हैं,
एक लगातार बदल रहा है,
दूसरा बिलकुल नहीं बदलता ।
दूसरा बदलनेवाले पहलू को जानता भर है किंतु उसके बदलने में हस्तक्षेप नहीं कर सकता ।
पहला बदल रहा है लेकिन उसे खुद नहीं पता कि वह बदल रहा है,
क्योंकि यदि पता हो तो वह न-बदलनेवाला हो जाएगा, जिसे मूलतः अस्वीकार किया जा चुका है ।
फ़िर भी ’मेरे’ इन दोनों पहलुओं को ’जैसे’ पता चलता है, उस ’जानने’ के भी क्या दो पहलू नहीं हैं?
’मेरे’ बदलनेवाले पहलू का जानना ’जानकारी’ होता है जो लगातार बदलती रहती है पर बदलने की उसकी गतिविधि अचल-अटल चलती रहती है ।
’मेरे’ न-बदलनेवाले पहलू का जानना ’जानकारी’ के रूप में नहीं किसी और तरह का होता है  इसलिए वह वैसा ज्ञान नहीं होता जो बदलता रहता हो ।
’जानकारी’ याददाश्त होती है और ’याददाश्त’ जानकारी ।
दूसरी ओर, याददाश्त पहचान होती है और पहचान याददाश्त ।
जानकारी के अभाव में न तो याददाश्त रह सकती है न पहचान ।
किंतु जो ’जानना’ जानकारी, पहचान और याददाश्त से न तो प्रभावित होता है, न उसे प्रभावित करता है वह ’मेरे’ न-बदलनेवाले पहलू का अभिन्न अंग है ।
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क्या मैं ’विखंडित-मानसिकता’ से ग्रस्त (schizophrenic) हूँ?
क्या मैं ’अनेक-व्यक्तित्व’ के मनोरोग (multiple personality disorder / split-personality disorder) से ग्रस्त हूँ?
और दुनिया और दुनिया के लोग?
वाकई मैं नहीं जानता...!
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No one knows me also,
And no one knows me at all.
Every one knows oneself only.
That is, what he thinks.
But who really knows oneself?
Everyone just take it granted that he knows himself.
But could one exist independently, on one's own irrespective of and without the existence of a world?
So, as long as one does not know this world,
Or let us say: doesn't know well this world,
How could one so know oneself partially, incorrectly or correctly?
And what one appears to know about the world, is the whole world that much only?
Again, doesn't one's opinion about this world keeps changing every moment?
In such constantly changing a world, could one avoid getting changed?
Yet one hardly notices 'I'm changing'.
Here is a catch.
If one knows 'I'm changing,
The one who knows this, is he really changing?
If he is changing how could he know?
But wait please!
Let we assume 'I' exists in two forms, two aspects, one of which though keeps changing, the other doesn't.
Then the form that keeps changing is known by the form that never changes.
One the changeable and the other the unchangeable.
The changeable though changes doesn't know that it is changing all the time.
(Because if it knew it will be just of the unchangeable kind.)
The unchangeable though knows that the changeable keeps changing all the time, does not interfere or affect the changeable one.
So, if 'I' could be seen as having these 2 forms, one of the two changes and the other is unchangeable then we can also see there are two forms of knowing one for them each.
But if we don't want to take the trouble of all this, we could just say :
No one knows me also,
And no one knows me at all.  :
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  Eureka ...!
So now, when I begin to see that 'I' exists in two forms, one is in constant change while another is just changeless, and the changeless though knows the changing, but can never interfere with it or is affected by it in whatsoever manner, is not my 'knowing' / 'knowledge' similarly of two kinds?
The quality of  my 'knowledge' that keeps changing is based upon my information about something.
The quality of my 'knowing' that is changeless is based upon plain, simple perception either through senses or without sense, just of my non-specific 'being' only.
Again knowledge is information, information is knowledge.
There is another such couple memory is recognition and recognition is memory.
Again the two statements imply :
My 'knowing' is none of these.
The 3 couples are but different names of 'knowledge'
'knowing' is never touched by 'knowledge'.
So I could never know myself in terms of knowledge, memory or recognition, though I spontaneously, without effort always know myself in terms of 'knowing'.
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Am I schizophrenic?
Am I  suffering from multiple personality disorder / split-personality disorder?
And what about the world?
I really can't say.
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