Consciousness and the Absolute
The final talks of
Sri Nisargadatta Maharaj :
May 1, 1980
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Questioner : How does a jñānī see the world?
Maharaj : A jñānī i aware of the origin and the value of consciousness, this beingness, which has spontaneously dawned on him. This same consciousness plays a multitude of roles, some happy, some inhappy; but whatever the roles, the jñānī is merely the seer of them. The roles have no effect on the jñānī.
All your problems are body-mind problems. Even so, you cling to that body. Since you identify with the body-mind, you follow certain polite modes of expression when you talk. I do not. I might embarrass you; you may not be able to take whjat I say. I have no sense of propriety.
You are bound by your own concepts and notions. Actually, you love only this sense of “I”; you do everything because of this. You are not working for anybody, nor for the nation, but only for this sense of “I” which you love so much.
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प्रश्नकर्ता : ज्ञानी की संसार के प्रति क्या दृष्टि होती है?
महाराज : ज्ञानी चेतना के स्रोत और मूल्य के प्रति, इस ’होने’ के प्रति जो अनायास ही उस पर प्रकट हुई है, के प्रति जागृत होता है । यही चेतना विभिन्न भूमिकाएँ निभाती है, -कुछ प्रसन्नतायुक्त तो कुछ विषादयुक्त; किंतु जो भी भूमिका हो, ज्ञानी उनका बस दृष्टा भर होता है । उन भूमिकाओं से वह अप्रभावित रहता है ।
तुम्हारी सारी समस्याएँ देह-मन की समस्याएँ हैं । फिर भी तुम उस देह से लिप्त रहते हो । चूँकि तुम देह-मन से स्वयं को अभिन्न मान लेते हो, इसलिए जब तुम बात करते हो, तुम अभिव्यक्ति में कुछ विनम्र तरीकों का पालन करते हो । मैं नहीं करता । मैं तुम्हें विचलित कर सकता हूँ; मैं जो कहता हूँ, हो सकता है कि तुम उसे झेल न सको । मैं शालीनता का आग्रह नहीं रखता
तुम तुम्हारी अपनी धारणाओं और स्वीकारोक्तियों से बद्ध हो । वस्तुतः, तुम्हें बस इस "मैं"-भावना से ही प्यार है; तुम जो कुछ भी करते हो इसीलिए करते हो । तुम जो कुछ भी करते हो वह किसी और के लिए, या राष्ट्र के लिए नहीं, बल्कि केवल इस "मैं"-भावना के लिए ही करते हो, -जिससे तुम्हें इतना प्यार है ।
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15th May, 1935
Talk 1.
A wandering monk (saṃnyāsī) was trying to clear his doubt:
“How to realize that all the world is Brahman / God?”
Maharshi: If you make your outlook that of wisdom, you will find the
world to be God. Without knowing the Supreme Spirit (Brahman),
how will you find His all-pervasiveness?
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श्री रमण महर्षि से बातचीत
15 मई, 1935.
एक संन्यासी अपनी शंका का समाधान करने का प्रयास कर रहा था :
"यह अनुभूति कैसे हो कि सारा जगत् ही ब्रह्म है?"
महर्षि : यदि तुम्हारी दृष्टि ज्ञानमयी हो जाये तो तुम्हें समग्र संसार ब्रह्म भासित होगा । ब्रह्मज्ञान के बिना तुमको ब्रह्म की सर्वव्यापकता का अनुभव कैसे हो सकता है?
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The final talks of
Sri Nisargadatta Maharaj :
May 1, 1980
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Questioner : How does a jñānī see the world?
Maharaj : A jñānī i aware of the origin and the value of consciousness, this beingness, which has spontaneously dawned on him. This same consciousness plays a multitude of roles, some happy, some inhappy; but whatever the roles, the jñānī is merely the seer of them. The roles have no effect on the jñānī.
All your problems are body-mind problems. Even so, you cling to that body. Since you identify with the body-mind, you follow certain polite modes of expression when you talk. I do not. I might embarrass you; you may not be able to take whjat I say. I have no sense of propriety.
You are bound by your own concepts and notions. Actually, you love only this sense of “I”; you do everything because of this. You are not working for anybody, nor for the nation, but only for this sense of “I” which you love so much.
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प्रश्नकर्ता : ज्ञानी की संसार के प्रति क्या दृष्टि होती है?
महाराज : ज्ञानी चेतना के स्रोत और मूल्य के प्रति, इस ’होने’ के प्रति जो अनायास ही उस पर प्रकट हुई है, के प्रति जागृत होता है । यही चेतना विभिन्न भूमिकाएँ निभाती है, -कुछ प्रसन्नतायुक्त तो कुछ विषादयुक्त; किंतु जो भी भूमिका हो, ज्ञानी उनका बस दृष्टा भर होता है । उन भूमिकाओं से वह अप्रभावित रहता है ।
तुम्हारी सारी समस्याएँ देह-मन की समस्याएँ हैं । फिर भी तुम उस देह से लिप्त रहते हो । चूँकि तुम देह-मन से स्वयं को अभिन्न मान लेते हो, इसलिए जब तुम बात करते हो, तुम अभिव्यक्ति में कुछ विनम्र तरीकों का पालन करते हो । मैं नहीं करता । मैं तुम्हें विचलित कर सकता हूँ; मैं जो कहता हूँ, हो सकता है कि तुम उसे झेल न सको । मैं शालीनता का आग्रह नहीं रखता
तुम तुम्हारी अपनी धारणाओं और स्वीकारोक्तियों से बद्ध हो । वस्तुतः, तुम्हें बस इस "मैं"-भावना से ही प्यार है; तुम जो कुछ भी करते हो इसीलिए करते हो । तुम जो कुछ भी करते हो वह किसी और के लिए, या राष्ट्र के लिए नहीं, बल्कि केवल इस "मैं"-भावना के लिए ही करते हो, -जिससे तुम्हें इतना प्यार है ।
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Talks with Sri Ramana Maharshi
Volume I15th May, 1935
Talk 1.
A wandering monk (saṃnyāsī) was trying to clear his doubt:
“How to realize that all the world is Brahman / God?”
Maharshi: If you make your outlook that of wisdom, you will find the
world to be God. Without knowing the Supreme Spirit (Brahman),
how will you find His all-pervasiveness?
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श्री रमण महर्षि से बातचीत
15 मई, 1935.
एक संन्यासी अपनी शंका का समाधान करने का प्रयास कर रहा था :
"यह अनुभूति कैसे हो कि सारा जगत् ही ब्रह्म है?"
महर्षि : यदि तुम्हारी दृष्टि ज्ञानमयी हो जाये तो तुम्हें समग्र संसार ब्रह्म भासित होगा । ब्रह्मज्ञान के बिना तुमको ब्रह्म की सर्वव्यापकता का अनुभव कैसे हो सकता है?
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