Sunday, 11 June 2017

The not knowing of Not-knowing.

The not knowing of Not-knowing.
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Not knowing ‘who am I?’,
And Not knowing this Not-knowing,
As my essential bare Reality,
With the arrival of this ephemeral body,
And the consciousness of it,
I was caught into the net of
māyā / prapañca
Who cast upon me the ignorance,
Of My own true Reality,
And forced,
The illusion upon me,
That I am this,
This very body,
And the consciousness of it.
And I am,
The consciousness of the world,
Around me.
Who else could free me,
From this illusion?
Except but my own Beloved,
-But My own very Self?
Except The Kind Guru,
Who is but my own very Self?
And in His infinite mercy,
He did the same.
I was freed of this māyā / prapañca
-Of this wicked ignorance,
And, Of this wile knowledge,
Which was the bondage indeed.
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न-जानने का न-जानना  
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'मैं कौन?' इससे अनभिज्ञ,
और इस अनभिज्ञता से भी अनभिज्ञ,
कि यही मेरी अपरिहार्य, नग्न वास्तविकता है,
इस नश्वर देह के आते ही,
और इसकी चेतना के उद्भव के साथ,
मैं माया (प्रपञ्च) के जाल में फँस गया।
जिसने मुझ पर आरोपित किया अज्ञान,
-मेरी अपनी वास्तविकता का अज्ञान,
और मुझ पर यह भ्रम लाद दिया,
कि मैं देह हूँ !
और हूँ,
-इससे सम्बद्ध इसकी चेतना!
और मैं हूँ,
-इसके संसार की चेतना,
जो मेरे इर्द-गिर्द है!
और मुझे इस भ्रम से विमुक्त,
दूसरा कोई कौन कर सकता था,
सिवा मेरे प्रियतम के?
सिवा मेरी अपनी आत्मा के?
सिवा दयालु गुरु के,
और उसकी असीम कृपा के?
जो स्वयं मेरी ही निज आत्मा है!
और यही हुआ।
मैं इस माया (प्रपञ्च) से मुक्त हुआ।
इस दुष्ट अज्ञान से,
और इस कुटिल ज्ञान से,
जो कि था वास्तविक बंधन !
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