विचार, ध्यान, तादात्म्य और चेतना
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विचार से कौन अनभिज्ञ है? व्यावहारिक रूप से हर कोई ’विचार’ से किसी न किसी रूप से परिचित होता है । प्रायः कहा जाता है :
’मैं सोचता हूँ कि ...’ / ’मेरा विचार है कि...’ / ’मुझे (मेरे मन में) यह विचार आया कि ...’
इस तरह यह स्पष्ट है कि ’विचार’ की गतिविधि को भिन्न-भिन्न प्रकार से अनुभव और ग्रहण किया जाता है । यह भी स्पष्ट है कि यह किसी ’चेतन-सत्ता’ अर्थात् प्राणी पर ही लागू होता है किसी जड वस्तु पर नहीं । यहाँ केवल मनुष्य के ही संदर्भ में कहा जा रहा है । मनुष्येतर प्राणियों (के मन) में विचार की क्या भूमिका होती होगी इस बारे में अभी हमारे पास पर्याप्त प्रमाण नहीं हैं, किंतु यह अवश्य कहा जा सकता है कि ’अनुभव’ नामक संवेदन उन्हें भी होता ही होगा, जिसकी तीव्रता भी हर किसी की ’चेतना’ की ग्रहण-क्षमता और उसके परिवेश तथा बाह्य क्रियाओं आदि के अनुसार कम-अधिक, गहन या सतही होती होगी । इसमें संदेह नहीं कि इस प्रकार से ’चेतना’ नामक वस्तु के अस्तिव से इनकार नहीं किया जा सकता । एक प्रश्न यह भी है कि क्या 'संवेदन' और 'चेतना' दो अलग-अलग वस्तुएँ हैं? क्या वे ही वस्तु के दो नाम नहीं ? पुनः ’चेतना’ किसी ’जीवित’ वस्तु, - जिसे ’जीव’ कह सकते हैं के परिप्रेक्ष्य में, तथा ’जीव’ किसी ऐसी चेतना की विद्यमानता से ही इस प्रकार परिभाषित हो सकते हैं । संक्षेप में ’चेतना’, ’जीव’ और ’जीवन’ को एक-दूसरे से बाँटकर नहीं देखा जा सकता ।
जहाँ इनमें से कोई एक होगा, शेष दोनों भी अवश्य होंगे ।
विचार की गतिविधि मनुष्य में जिस प्रकार होती है, वह कुछ यूँ है । विचार वैसे तो आता / जाता है, या उसे सोचा जाता है, या उस पर ’अपना’ स्वामित्व घोषित किया जाता है, या अनायास उसे ’अपना’ मान्य कर लिया जाता है । विचार के इन सभी रूपों से हर कोई कम या अधिक लुब्ध, आकर्षित, भयभीत या त्रस्त भी होता है, और इस प्रकार विचार कुछ करने / न-करने के लिए प्रेरित, उत्साहित, या बाध्य भी कर सकता है । इस सबके अतिरिक्त विचार का एक रूप वह भी है जिसमें ’अन्यमनस्क’ होते हुए उस विचार से न तो लिप्त होते हैं न उसे महत्व ही देते हैं और उस पर ध्यान जाते ही कभी-कभी उसकी उपेक्षा कर देते हैं ।
इससे स्पष्ट है कि ’ध्यान’ या किसी वस्तु के प्रति चेतना का जागृत होना, विचार से एक नितान्त भिन्न प्रकार की वस्तु है जो पुनः किसी चेतना के ही संबंध में अर्थ रखता है ।
चेतना की यह जागृति जो किसी प्रयास से नहीं होती, और जिस पर अपने स्वामित्व का दावा नहीं किया जा सकता या तो हमारे लिए महत्वपूर्ण होती है या उस बारे में हम शायद ही कभी गौर करते हैं ।
ध्यान जो क्रिया नहीं बल्कि इस प्रकार की जागृति-मात्र है, जिसमें विचार की गतिविधि कभी होती हुई जान पड़ती है, तो इस अनुभव की सूक्ष्मता की अनदेखी कर,
'मैं सोचता हूँ कि ...’ / ’मेरा विचार है कि...’ / ’मुझे (मेरे मन में) यह विचार आया कि ...’
ऐसा कह दिया जाता है । किंतु ऐसा भी प्रत्यक्षतः तभी कहा जा सकता है, जब कोई और हो जिससे कि बात हो रही हो । जब ऐसा ही बिना किसी अन्य की उपस्थिति में अपने ही मन में कहा जाता है तो वह भी पुनः विचार ही है, न कि ध्यान ।
विचार और ध्यान को इस दृष्टि से समझने के बाद प्रश्न उठता है कि विचार से तादात्म्य क्यों पैदा होता है? कोई विचार क्यों आकर्षित, विकर्षित, लुब्ध या क्षुब्ध करता है, क्यों वह महत्वपूर्ण प्रतीत होता है, और उसे ’अपना’ क्यों कहा जाता है? इसी प्रकार कोई विचार क्यों श्रेष्ठ, निकृष्ट, हीन, निंदित, गर्हित, त्याज्य, या निषिद्ध समझा जाता है और या तो उसे गौरवान्वित किया जाता है, उसकी बस उपेक्षा कर दी जाती है या वह उद्विग्न और उद्वेलित कर देता है? यह तो तय है कि यदि विचार हमारे 'ध्यान' को खींचकर मुग्ध कर देता है, तो ही 'तादात्म्य' घटित होता है ।
ध्यान के बारे में एक रोचक तथ्य यह भी है कि ध्यान 'संकल्प-पूर्वक' नहीं होता ।
उदाहरण के लिए, जब मैं इस पोस्ट को एडिट कर रहा था तब अचानक बिजली चली गई । तब मैंने झटपट इसे सेव और क्लोज़ किया, सिस्टम बंद किया, और दूसरे कार्य में लग गया ।
यू.पी.एस. 'टूँ-टूँ' करता रहा ।
पहले भी चूँकि कई बार ऐसा हो चुका है कि फिर ध्यान नहीं रहा कि बिजली कब आई और 'टूँ-टूँ' कब बंद हुआ ।
क्योंकि ध्यान हट जाने से 'टूँ-टूँ' के होते रहने से ध्यान उस पर न रहकर किसी दूसरी ओर जुड़ गया ।
इसलिए अब मैं बिजली चली जाने पर कोई लाइट ऑन कर देता हूँ और बिजली आते ही वह लाइट मेरा ध्यान अनायास आकर्षित करता है, जिससे मुझे 'टूँ-टूँ' के बंद हो जाने का ध्यान नहीं रखना होता ।
ऐसा ही एक उदाहरण है जब किसी के फ़ोन की प्रतीक्षा होती है तो फोन पर निरंतर ध्यान रखना कठिन होता है, जबकि फ़ोन की घंटी बजते ही हमारा ध्यान स्वतः ही उस ओर आकर्षित हो जाता है ।
ध्यान अर्थात् संवेदन का उस विशिष्ट दिशा या वस्तु पर लगना ऐसी गतिविधि नहीं है जिसका संकल्प (will) से कोई संबंध हो और जिसके लिए प्रयास हो सके । जबकि विचार सप्रयास या स्वतः / अनायास किन्तु स्मृति से ही होता है और उस पर हमारा ध्यान है या नहीं यह एक बहुत भिन्न बात है । यदि स्मृति नहीं तो विचार नहीं, यदि विचार नहीं तो स्मृति नहीं । ध्यान स्मृति और विचार से नितांत भिन्न चेतना की दिशा और आयाम है ।
एक ही विचार अलग-अलग स्थान और परिस्थिति में अनुकूल या प्रतिकूल क्यों हो जाता है?
इस प्रकार विचार के यथार्थ का अन्वेषण किए जाने पर यह समझना आसान है कि विचार, ध्यान और तादात्म्य (identification) में परस्पर क्या रिश्ता है ।
अब उपर्युक्त विवेचन में यदि हम ’विचार’ शब्द को ’भावना’ से प्रतिस्थापित करें,
तो इसे यह शीर्षक दे सकते हैं :
’भावना, ध्यान, तादात्म्य और चेतना’
इस बारे में फिर कभी ...
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विचार से कौन अनभिज्ञ है? व्यावहारिक रूप से हर कोई ’विचार’ से किसी न किसी रूप से परिचित होता है । प्रायः कहा जाता है :
’मैं सोचता हूँ कि ...’ / ’मेरा विचार है कि...’ / ’मुझे (मेरे मन में) यह विचार आया कि ...’
इस तरह यह स्पष्ट है कि ’विचार’ की गतिविधि को भिन्न-भिन्न प्रकार से अनुभव और ग्रहण किया जाता है । यह भी स्पष्ट है कि यह किसी ’चेतन-सत्ता’ अर्थात् प्राणी पर ही लागू होता है किसी जड वस्तु पर नहीं । यहाँ केवल मनुष्य के ही संदर्भ में कहा जा रहा है । मनुष्येतर प्राणियों (के मन) में विचार की क्या भूमिका होती होगी इस बारे में अभी हमारे पास पर्याप्त प्रमाण नहीं हैं, किंतु यह अवश्य कहा जा सकता है कि ’अनुभव’ नामक संवेदन उन्हें भी होता ही होगा, जिसकी तीव्रता भी हर किसी की ’चेतना’ की ग्रहण-क्षमता और उसके परिवेश तथा बाह्य क्रियाओं आदि के अनुसार कम-अधिक, गहन या सतही होती होगी । इसमें संदेह नहीं कि इस प्रकार से ’चेतना’ नामक वस्तु के अस्तिव से इनकार नहीं किया जा सकता । एक प्रश्न यह भी है कि क्या 'संवेदन' और 'चेतना' दो अलग-अलग वस्तुएँ हैं? क्या वे ही वस्तु के दो नाम नहीं ? पुनः ’चेतना’ किसी ’जीवित’ वस्तु, - जिसे ’जीव’ कह सकते हैं के परिप्रेक्ष्य में, तथा ’जीव’ किसी ऐसी चेतना की विद्यमानता से ही इस प्रकार परिभाषित हो सकते हैं । संक्षेप में ’चेतना’, ’जीव’ और ’जीवन’ को एक-दूसरे से बाँटकर नहीं देखा जा सकता ।
जहाँ इनमें से कोई एक होगा, शेष दोनों भी अवश्य होंगे ।
विचार की गतिविधि मनुष्य में जिस प्रकार होती है, वह कुछ यूँ है । विचार वैसे तो आता / जाता है, या उसे सोचा जाता है, या उस पर ’अपना’ स्वामित्व घोषित किया जाता है, या अनायास उसे ’अपना’ मान्य कर लिया जाता है । विचार के इन सभी रूपों से हर कोई कम या अधिक लुब्ध, आकर्षित, भयभीत या त्रस्त भी होता है, और इस प्रकार विचार कुछ करने / न-करने के लिए प्रेरित, उत्साहित, या बाध्य भी कर सकता है । इस सबके अतिरिक्त विचार का एक रूप वह भी है जिसमें ’अन्यमनस्क’ होते हुए उस विचार से न तो लिप्त होते हैं न उसे महत्व ही देते हैं और उस पर ध्यान जाते ही कभी-कभी उसकी उपेक्षा कर देते हैं ।
इससे स्पष्ट है कि ’ध्यान’ या किसी वस्तु के प्रति चेतना का जागृत होना, विचार से एक नितान्त भिन्न प्रकार की वस्तु है जो पुनः किसी चेतना के ही संबंध में अर्थ रखता है ।
चेतना की यह जागृति जो किसी प्रयास से नहीं होती, और जिस पर अपने स्वामित्व का दावा नहीं किया जा सकता या तो हमारे लिए महत्वपूर्ण होती है या उस बारे में हम शायद ही कभी गौर करते हैं ।
ध्यान जो क्रिया नहीं बल्कि इस प्रकार की जागृति-मात्र है, जिसमें विचार की गतिविधि कभी होती हुई जान पड़ती है, तो इस अनुभव की सूक्ष्मता की अनदेखी कर,
'मैं सोचता हूँ कि ...’ / ’मेरा विचार है कि...’ / ’मुझे (मेरे मन में) यह विचार आया कि ...’
ऐसा कह दिया जाता है । किंतु ऐसा भी प्रत्यक्षतः तभी कहा जा सकता है, जब कोई और हो जिससे कि बात हो रही हो । जब ऐसा ही बिना किसी अन्य की उपस्थिति में अपने ही मन में कहा जाता है तो वह भी पुनः विचार ही है, न कि ध्यान ।
विचार और ध्यान को इस दृष्टि से समझने के बाद प्रश्न उठता है कि विचार से तादात्म्य क्यों पैदा होता है? कोई विचार क्यों आकर्षित, विकर्षित, लुब्ध या क्षुब्ध करता है, क्यों वह महत्वपूर्ण प्रतीत होता है, और उसे ’अपना’ क्यों कहा जाता है? इसी प्रकार कोई विचार क्यों श्रेष्ठ, निकृष्ट, हीन, निंदित, गर्हित, त्याज्य, या निषिद्ध समझा जाता है और या तो उसे गौरवान्वित किया जाता है, उसकी बस उपेक्षा कर दी जाती है या वह उद्विग्न और उद्वेलित कर देता है? यह तो तय है कि यदि विचार हमारे 'ध्यान' को खींचकर मुग्ध कर देता है, तो ही 'तादात्म्य' घटित होता है ।
ध्यान के बारे में एक रोचक तथ्य यह भी है कि ध्यान 'संकल्प-पूर्वक' नहीं होता ।
उदाहरण के लिए, जब मैं इस पोस्ट को एडिट कर रहा था तब अचानक बिजली चली गई । तब मैंने झटपट इसे सेव और क्लोज़ किया, सिस्टम बंद किया, और दूसरे कार्य में लग गया ।
यू.पी.एस. 'टूँ-टूँ' करता रहा ।
पहले भी चूँकि कई बार ऐसा हो चुका है कि फिर ध्यान नहीं रहा कि बिजली कब आई और 'टूँ-टूँ' कब बंद हुआ ।
क्योंकि ध्यान हट जाने से 'टूँ-टूँ' के होते रहने से ध्यान उस पर न रहकर किसी दूसरी ओर जुड़ गया ।
इसलिए अब मैं बिजली चली जाने पर कोई लाइट ऑन कर देता हूँ और बिजली आते ही वह लाइट मेरा ध्यान अनायास आकर्षित करता है, जिससे मुझे 'टूँ-टूँ' के बंद हो जाने का ध्यान नहीं रखना होता ।
ऐसा ही एक उदाहरण है जब किसी के फ़ोन की प्रतीक्षा होती है तो फोन पर निरंतर ध्यान रखना कठिन होता है, जबकि फ़ोन की घंटी बजते ही हमारा ध्यान स्वतः ही उस ओर आकर्षित हो जाता है ।
ध्यान अर्थात् संवेदन का उस विशिष्ट दिशा या वस्तु पर लगना ऐसी गतिविधि नहीं है जिसका संकल्प (will) से कोई संबंध हो और जिसके लिए प्रयास हो सके । जबकि विचार सप्रयास या स्वतः / अनायास किन्तु स्मृति से ही होता है और उस पर हमारा ध्यान है या नहीं यह एक बहुत भिन्न बात है । यदि स्मृति नहीं तो विचार नहीं, यदि विचार नहीं तो स्मृति नहीं । ध्यान स्मृति और विचार से नितांत भिन्न चेतना की दिशा और आयाम है ।
एक ही विचार अलग-अलग स्थान और परिस्थिति में अनुकूल या प्रतिकूल क्यों हो जाता है?
इस प्रकार विचार के यथार्थ का अन्वेषण किए जाने पर यह समझना आसान है कि विचार, ध्यान और तादात्म्य (identification) में परस्पर क्या रिश्ता है ।
अब उपर्युक्त विवेचन में यदि हम ’विचार’ शब्द को ’भावना’ से प्रतिस्थापित करें,
तो इसे यह शीर्षक दे सकते हैं :
’भावना, ध्यान, तादात्म्य और चेतना’
इस बारे में फिर कभी ...
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