Wednesday, 28 June 2017

विरूपाक्षपञ्चाशिका


Note :This is the 'draft'only. I shall post the edited copy of the same in due course.
विरूपाक्षपञ्चाशिका
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(त्रयाधिकंपञ्चाशत्)
अहम्
’सोमसूर्याग्निलोचनः’
विरूपाक्ष इति ।
विरूपाणि - विरुद्धस्वरूपाणि लोकविरुद्ध-त्रित्वसंख्या-विशिष्टानि-इति यावत् ; एवं भूतानि अक्षीणि अस्य इति बहुव्रीहिः ; ’बहुव्रीहौ सक्थ्यक्ष्णोः स्वाङ्गात्षच्’ इति षच्प्रत्यत्वयः । त्रिलोचन इत्यर्थः । तथा च श्रुतिः  -- ’त्रिलोचनं नीलकण्ठं प्रशान्तम् ’ इति ।
      ॥ शिवतत्वरहस्यम् ॥
(’बहुव्रीहौ ...’ ५/४/११३ अष्टाध्यायी.)
प्रथमोऽध्यायः
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गन्धगजसमरसिकायेन्द्राय प्रकटिताद्रियुगसमरः ।
निजसिद्धिबीजमस्मै कथयति पृष्टो विरूपाक्षः ॥१
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गन्धगज-रसिकाय-इन्द्राय प्रकटित-अद्रियुग-समरः ।
निजसिद्धिबीजम् अस्मै कथयति पृष्टः विरूपाक्षः ॥
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अर्थ : ऐरावत (गन्धगज) पर आरूढ इन्द्र के सम्मुख दो विशाल पर्वतों (जगत् तथा चैतन्यमूर्ति) के रूप में प्रकट निजसिद्धिबीज विरूपाक्ष से इन्द्र द्वारा प्रश्न किए जाने पर विरूपाक्ष ने कहा :
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टिप्पणी : गन्ध पृथ्वी तत्व है, इरा पृथ्वी है, इरा > ऐरावत इन्द्र का वाहन है । ग्रन्थ के अंतिम, पचासवें श्लोक में जिस राजा वेन के पुत्र वैन्य का उल्लेख है, वह विष्णु का अवतार है ...
विमतिपदमङ्ग! सर्वं मम चैतन्यात्मनः शरीरमिदम् ।
शून्यपदादीलावधि दृश्यत्वात् पिण्डवत् सिद्धम् ॥२
अर्थ : हे द्वैतबुद्धि से देखनेवाले! शून्य (आकाश) से लेकर संपूर्ण ब्रह्माण्ड के पिण्डवत् दृश्य होने से यह सिद्ध है कि यही मेरा संपूर्ण शरीर और चैतन्य आत्मा है ।
टिप्पणी : यहाँ इन्द्र मनुष्य का ’मन’ है, विरूपाक्ष मनुष्य की सत्यश्चिदात्मा ।
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सम्पन्नोऽस्मि कृशोऽस्मि स्निह्य२त्करणोऽस्मि मोदमानोऽस्मि ।
प्राणिमि शून्योऽस्मीति च षट्सु पदेष्वस्मिता दृष्टा ॥३
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सम्पन्नः अस्मि कृशः अस्मि स्निह्यत्-करणः अस्मि मोदमानः अस्मि ।
प्राणिमि शून्यः अस्मि-इति च षट्सु पदेषु-अस्मिता दृष्टा ॥
अर्थ : अस्मिता - (मेरा) अस्तित्व, संपन्नता (ऐश्वर्य, बलशाली), कृश (दुर्बल), स्नेहशील-इन्द्रियों से युक्त, मोदयुक्त, प्राणयुक्त, तथा आकाशवत् शून्य, इन छः पदों में देखा जाता है :
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विषयशरीरेन्द्रियधीप्राणनिरोधप्रसिद्ध्यदस्मित्वाम् ।
इत्थं चितिमखिलेऽध्वनि धारयतो विश्वदेहत्वम् ॥४
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विषयशरीर-इन्द्रिय-धी-प्राण-निरोध-प्रसिध्यत्-अस्मित्वाम् ।
इत्थं चितिं अखिले-अध्वनि धारयतः विश्वदेहम् ॥
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अर्थ : विषय, शरीर, इन्द्रियाँ, बुद्धि, प्राण, और इनका निरोध / निग्रह अस्मित्व (अस्मिता) के होने पर ही संभव होता है, इनके माध्यम से विश्वरूपी अपनी देह को चिति में विभिन्न प्रकार से धारण करता हुआ ...
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उत्क्रम्य विश्वतोऽङ्गात् तद्भागैकतनुनिष्ठिताहन्तः ।
कण्ठलुठत्प्राण इव व्यक्तं जीवन्मृतो लोकः ॥५
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उत्क्रम्य विश्वतः अङ्गात् तत्-भाग-एकतनु-निष्ठित-अन्तः ।
कण्ठ-लुठत्-प्राणः इव व्यक्तं जीवन्-मृतः लोकः ॥
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अर्थ :  विश्व में उत्क्रमित होता हुआ, मृत्युलोक में लौकिक देहधारियों में कण्ठ से लेकर दूसरे विभिन्न संपूर्ण अङ्गों से ’मैं’-रूप में व्यक्त होकर जीवन जीता हूँ ।
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देहेऽस्मितया यज्जडयोरास्फालनं मिथो बाह्वोः ।
इच्छामात्रेणेत्थं गिर्योरपि तद्वशाज्जगति ॥६
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देहे-अस्मितया यत्-जडयोः आस्फालनं मिथः बाह्वः ।
इच्छामात्रेण इत्थं गिर्यः अपि तत्-वशात्-जगति ॥
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अर्थ : देह में अस्मिता की तरह यह जो बाहुओं की तरह से जड-देह तथा अन्तर्यामी चेतन (आत्मा) का आलिङ्गन /  संयोग का परिणाम है, इच्छामात्र से लेकर वाक्-रूप तक भी, उस के ही द्वारा जगत् में ...
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बिन्दुं प्राणं शक्तिं मन इन्द्रियमण्डलं शरीरं च ।
आविष्य चेष्टयन्तीं धारय सर्वत्र चाहन्ताम् ॥७
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बिन्दुं प्राणं शक्तिं मनः इन्द्रियमण्डलं च ।
आविष्य चेष्टयन्तीं धारय सर्वत्र च अहन्ताम् ॥७
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अर्थ : (देह में) बिन्दु, प्राण, शक्ति, मन तथा इन्द्रिय-समूह (आदि सूक्ष्म) एवं (स्थूल) शरीर में आविष्ट (प्रविष्ट और व्याप्त) होकर शक्तियाँ चेष्टायुक्त होती हैं, उन्हें सर्वत्र अहन्ता ही जानो ।
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ईश्वरता कर्तृत्वं स्वतन्त्रता चित्स्वरूपता चेति ।
एतेऽहन्तायाः किल पर्यायाः सद्भिरुच्यन्ते ॥८
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ईश्वरता कर्तृत्वं स्वतन्त्रता चित्-स्वरूपता च-इति ।
एते-अहन्तयाः किल पर्यायाः सद्भिः उच्यन्ते ॥
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अर्थ : ईश्वरत्व (ईशिता), कर्तृत्व, स्वतंत्रता, और चित्-स्वरूपता (चेतना) अर्थात् चित्स्वरूप होना, ज्ञानियों के द्वारा इन सभी को अहन्ता के ही पर्याय (अहन्ता के लिए प्रयुक्त किए जानेवाले अन्य पद) कहा जाता है ।
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॥ इति प्रथमोऽध्यायः ॥
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द्वितीयोऽध्यायः
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प्रत्यवमर्शात्मासौ
     चितिः स्वरसवाहिनी परा वाग् या ।
आद्यन्तप्रत्याहृत-
     वर्णगणा सत्यहन्ता सा ॥९
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प्रत्यवमर्श-आत्मा-असौ चितिः स्वरस-वाहिनी परा वाक् या ।
आद्यन्त-प्रत्याहृत-वर्णगणाः सति-अहन्ता सा ॥
अर्थ : (प्रत्यवमर्श - विवेक, सोपपत्तिक स्मरणजन्य ज्ञान; जैसे ’सुखमहमस्वाप्सं न किञ्चिदवेदिषम् - ’तब मैं सुखपूर्वक सोया, तब मैंने कुछ नहीं जाना’ इस प्रकार का भान होना), वह परा वाक् जो स्वतत्व के रस को ग्रहण करनेवाली विवेकयुक्त आत्मा है, जिसमें आदि से अन्त तक समस्त वर्णगण प्रत्याहृत हुए होते हैं ही वह अहन्ता है ।
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टिप्पणी :
१-तुलना करें :
श्री दक्षिणामूर्तिस्तोत्र :
राहुग्रस्तदिवाकरेन्दुसदृशो माया समाच्छादनात्
सन्मात्रः करणोपसंहरणतो योऽभूत् सुषुप्तः पुमान् ।
प्राग्स्वाप्समिति प्रबोधसमये यः प्रत्यभिज्ञायते
तस्मै श्रीगुरुमूर्तये नम इदं श्रीदक्षिणामूर्तये ॥६
२- प्राग्स्वाप्सम् इति...
३-प्रत्यभिज्ञायते ...इसलिए यहाँ प्रत्यवमर्श का तात्पर्य है प्रत्यभिज्ञा ।
४- स्व-रसवाहिनी > अङ्गिरसः (अथर्वा-अङ्गिरसः) ....-
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स्वपरावभासनक्षम-
     आत्मा विश्वस्य यः प्रकाशोऽसौ ।
अहमिति स एक उक्तो-
     ऽहन्ता स्थितिरीदृशी तस्य ॥१०
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अर्थ : स्व / अहन्ता और पर (अन्यता) को स्पष्ट करने में सक्षम प्रकाशरूपी वह जो विश्व की आत्मा है, वही जो ’अहम्’ के रूप में उत्तम-पुरुष एकवचन की तरह से कही जाती है, उसकी अहन्ता (नामक) स्थिति / वास्तविकता है ।
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विच्छिन्नाविच्छिन्ने इदमित्यहमित्युभे प्रथे तस्य ।
आभास्याभास्यकतां स्फुटयन्त्यौ चेत्यचित्पदयोः ॥११
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विच्छिन्न-अविच्छिन्ने इदं अहं इति उभे प्रथे तस्य ।
आभास्य-आभास्यकतां स्फुटयन्त्यौ चेत्य-चित्-पदयोः ॥
अर्थ : विच्छिन्न तथा अविच्छिन्न,  इदं तथा अहं - दोनों ही उसके ही प्रथित (प्रथ् -प्रथ्यते > प्रथम, proto,  प्रकार हैं, जिसे आभास्य तथा आभास्यकता (पदों) के माध्यम से चेत्य तथा चित् इन दो पदों से स्पष्ट किया जाता है ।
टिप्पणी --
१. स्फुटयन् (पुं.-एकवचन) > स्फुटयन्ती (स्त्री.-एकवचन) > स्फुटन्त्यौ (द्विवचन)....
२."श्रीरमण महर्षि से बातचीत, ९ नवंबर, १९३६, क्रमांक २७७.
श्री कोहन : संकल्प क्या है? मेरा अभिप्राय यह है कि इसका पंचकोषों में कहाँ स्थान है?
महर्षि : सर्वप्रथम अहम् वृत्ति उदय होती है । तदुपरान्त अन्य संकल्प । वे ही मन हैं । मन दृश्य है तथा ’मैं’ द्रष्टा है । क्या ’मैं’ के बिना इच्छा हो सकती है? वह ’मैं’ में ही समायी हुई है । अहम् वृत्ति विज्ञानमय कोष है । इच्छा इसी में निहित है ।
श्री भगवान् ने आगे कहा :
अन्नमय कोष स्थूल देह कोष है । प्राण-सहित ज्ञानेन्द्रियाँ तथा कर्मेन्द्रियाँ प्राणमय कोष का निर्माण करती हैं । ज्ञानेन्द्रियाँ तथा मन मनोमय कोष बनाती हैं वे ही ज्ञानेन्द्रियाँ हैं । मन केवल संकल्पों का बना है । ’इदम्’ दृश्य है तथा ’अहम्’ (मैं) द्रष्टा है; दोनों मिलकर विज्ञानमय कोष बनते हैं ।
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एकः स आत्मना७सौ न हि क्रमोऽस्तीह देशकालाभ्याम् ।
भेदिनि मिथः स युक्तश्चेस्ये  भेदाश्रयः खलु सः ॥१२
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एकः सः आत्मन्-असौ न हि क्रमः अस्ति इह देश-कालाभ्याम् ।
भेदिनि मिथः सः युक्तः च अस्ये भेदाश्रयः खलु सः ॥
अर्थ : आत्मन्-असौ, वह एकमेव आत्मा देश और काल के क्रम से रहित है यद्यपि वही पुनः देश और काल इन दोनों के ऐसे आभासी भेद से युक्त (प्रतीत) होते हुए उस भेद का आश्रय भी है ।
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स्वाङ्गे चिद्गगनात्मनि स्वशक्तिलहरी
     दुग्धोदनिभः स्वशक्तिलहरीणाम् ।
सम्भेदविभेदाभ्यां
     सृजति ध्वंसयति चैष जगत् ॥१३
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स्व-अङ्गे-चित्-गगन-आत्मनि स्वशक्तिलहरी ।
दुग्धोद-निभः स्वशक्तिलहरीणाम् ॥
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अर्थ : स्व-अङ्गे चित्-गगन-आत्मनि स्वशक्तिलहरी
दुग्धोद-निभः ( दुग्धोद निभ > दूधदेनेवाली ...’मा’, समान) स्वशक्तिलहरीणाम् ।
सम्भेद-विभेदाभ्याम् सृजति ध्वंसयति च एषः जगत् ॥
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स्वभाव से ही, दूध देनेवाली गौ की तरह चिदाकाश आत्मा में स्वशक्ति लहरीरूपी उस के परिणामस्वरूप लहरों का प्रसार करती हुई, प्रधान और गौण भेदों के माध्यम से इस जगत् का सदा सृजन और संहरण (संकोच) करती है ।
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टिप्पणी :
१-क्षीरोद > श्लोक २०,
२-शक्तिवीचि > श्लोक २०,
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रूपादिपञ्चविषयात्मनि भोग्यहृषीकभोक्तृरूपेऽस्मिन् ।
जगति प्रसरदनन्तस्वशक्तिचक्रा चितिर्भाव्या ॥१४
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रूपादि-पञ्चविषय-आत्मनि भोग्य-हृषीक-भोक्तृरूपे-अस्मिन् ।
जगति प्रसरत्-अन्त-स्वशक्तिचक्रा चितिः भाव्या ॥
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अर्थ : इस (आत्मा) में रूप, रस, गंध, स्पर्श, घ्राण आदि पाँच इन्द्रिय-संवेदनों के विषयों का उपभोग भोक्ता की तरह यह आत्मा करता है,
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टिप्पणी : हृषीक, अनुभोक्ता, विषयिन् विषयी...
हृषीकेश, हृषीकेशव, (वह अनुभवकर्ता जो समस्त यज्ञों का कर्ता भोक्ता और फल पाता है ।)
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सोमरविवह्निलक्षणभोगेन्द्रियभोक्तृभानपिण्डात्मा ।
बिन्दुर्विमर्शधर्मा षण्णामेकोऽध्वनां प्राणः ॥१५
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सोम-रवि-वह्नि-लक्षण-भोगेन्द्रिय-भोक्तृभान-पिण्डात्मा ।
बिन्दुः-विमर्शधर्मा षण्णां-एकः अध्वनां प्राणः ॥
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(भोग्यं सोमलक्षणं पराग्ररूपत्वात् । इन्द्रियाणि रविलक्षणानि पराक्प्रत्यगात्मकत्वात् । भोक्ता वह्निलक्षणः प्रत्यगेकस्वभावत्वात् । एतत्त्रितयात्मकमेव विश्वं ।)
अर्थ : सोम (मन), रवि (आत्मा, चैतन्य, प्रकाश, भास्करः), वह्नि (प्राण)-लक्षणात्मक, कर्म तथा ज्ञान के लक्षणयुक्त भोगेन्द्रियों, तथा भोक्ता और भान के लक्षणो से युक्त पिण्ड, आत्मा, बिन्दु (विन्दु) इन छः गतियों से संलग्न / संयुक्त आत्मा ही एकमात्र विश्वात्मक प्राण है ।
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व्यक्तं हि पदार्थात्मकमिदं जगन्नित्यमेव तल्लग्नम् ।
शक्त्यात्मकमव्यक्तं तत्रैव पुनर्निमज्जति च ॥१६
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व्यक्तं हि पदार्थात्मकं इदं जगत्-नित्यं एव तत्-लग्नम् ।
शक्त्यात्मकं-अव्यक्तं तत्र-एव पुनः निमज्जति च ॥
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(जगदेतद् द्विविधं स्थूलं सूक्ष्मं च । स्थूलं व्यक्तमुच्यते । सूक्ष्मं च शक्तिरुच्यते । तत्र पदार्थात्मकं यदेतद् व्यक्तं जगत् तत् नित्यमेव तल्लग्नं उदयादिदशासु सर्वदा बिन्दुशक्तिलग्नमेव । यत् पुनरव्यक्तं शक्त्यात्मकं, तदपि तत्र निमज्जति । स्थूलतया सूक्ष्मतया वा प्रतीयमानं यद्यावदस्ति जगत्, तत् सर्वं प्रत्यवमर्शात्मकचितिबहिर्भावेन नोपपद्यते जल बहिर्भावेन तरङ्गादिवदिति यावत् ॥१६)
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अर्थ : यह व्यक्त और नित्य पदार्थात्मक स्थूल और सूक्ष्म जगत् उस प्राण के ही सान्निध्य से तथा शक्तिरूप अव्यक्त भी उसी प्राण से है तथा पुनः उसी में निमज्जित होता है ।
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षोडशधैनं नवधा षोढा भिन्दन्त्यथ त्रिधा च बुधाः ।
आधारभेदलक्ष्यं बहुसिद्धिकरं च सेत्स्यन्तः ॥१७
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षोडशधा-एनं नवधा षोढा भिन्दन्ती-अथ त्रिधा च बुधाः ।
आधारभेदलक्ष्यं बहुसिद्धिकरं च सेत्स्यन्तः ॥
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अर्थ :
इस (बिन्दु) का चिन्तन तत्वविदों द्वारा भिन्न-भिन्न रीति से सोलह, नौ और छः प्रकार से किया जाता है । इस प्रकार के बहुविध चिन्तन से अनेक प्रकार की (भिन्न-भिन्न) सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं ।
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टिप्पणी : सिध् > सिध्यति, सेत्स्यति > लृङ् / आशीर्लिङ् अन्य पुरुष बहुवचनं > सेत्स्यन्तः,
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यस्य विमर्शस्य कणः पदमन्त्रार्णात्मकस्त्रिधा शब्दः ।
पदतत्त्वकलात्मार्थो धर्मिण इत्थं प्रकाशस्य ॥१८
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यस्य विमर्शस्य कणः पदमन्त्रात्मकः त्रिधा शब्दः ।
पदतत्वकलात्मार्थः धर्मिणः इत्थं प्रकाशस्य ॥
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(वर्णपदमन्त्रात्मकतया तत्त्वभुवनकलात्मकतया शब्दार्थरूपोऽध्वा)
अर्थ :
शब्द के वर्ण, मन्त्र तथा पद इन रूपों में आत्म-चिन्तन रूपी प्रत्यभिज्ञा उनकी प्रकृति की ही तरह अन्तर्निहित है ।
अर्थ के कला, तत्त्व तथा भुवन इन रूपों में आत्म-चिन्तन रूपी प्रत्यभिज्ञा उनकी प्रकृति की ही तरह अन्तर्निहित है ।
टिप्पणी :
स्वेन विना मृतमण्डम्
     स्वावेशबलेन जीवयन्नेकः ।
मार्ताण्डः परमोऽसौ
     परनभसि न किं त्वया दृष्टः ॥१९
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स्वेन विना मृतं-अण्डम्
     स्व-आवेशबलेन जीवयन्-एकः ।
मार्ताण्डः परमः असौ
      परनभसि न किं त्वया दृष्टः ॥
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(*प्रकाशस्य धर्मभूतो यो विमर्शः ... ... ... प्रकाशकत्वात् परमो मार्ताण्डः)
अर्थ :
जिस प्रकार प्रकाश धर्मभूत विमर्श की तरह इस व्यक्त जगत् को आलोकित करता है, उसी प्रकार वही सर्वव्यापी प्रकाश सूर्य को भी आलोकित करता है ।
टिप्पणी :
तुमने देखा कि नहीं कि जिस प्रकार ’स्व’ रूपी बिन्दुमात्र के बिना अंडा मृत / मिट्टी होता है, और उसके आवेश से ही उसमें जीवभाव व्यक्त होता है, वैसे ही पराकाश में स्थित सूर्य को आलोकित करनेवाले प्रकाश (मार्ताण्ड) से ही सूर्य मार्तण्ड होता है ।*
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चिद्गगनक्षीरोदं स्वयमिच्छामन्दरेण संक्षोभ्य ।
तच्छक्तिवीचिभिरसावुत्थापयतीन्दुमण्डाख्यम् ॥२०
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चित्-गगनक्षीरोदं  स्वयं-इच्छा-मन्दरेण संक्षोभ्यः ।
तत्-शक्ति-वीचिभिः असौ उत्थापयति-इन्दुमण्डाख्यम् ॥
(स्वयं स्वातन्त्र्येणैव इच्छामन्दरेण ... ... ...अण्डाख्यमिन्दुमुत्थापयति)
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अर्थ :
वह (चैतन्यरूपी प्रकाश), अपनी स्वतन्त्रता में अपने ही संकल्प से चिदाकाश रूपी क्षीरसागर का उसकी शक्ति-तरंगों रूपी मथानी से मंथन कर, उन शक्ति-ऊर्मियों से अण्ड नामक इन्दु का उत्क्षेप करता है ।
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टिप्पणी :
१-क्षीरोद > श्लोक १३,
२-शक्तिवीचि > शक्तिलहरी > श्लोक १३
३-यही इन्दु जीव (पिण्ड) में मन तथा विश्व में ब्रह्माण्ड है ।
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शक्तिर्मायाप्रकृतिः
    पृथ्वीति चतुर्विभागमण्डं यत् ।
यश्च विभागोऽस्य पुन-
     र्बहुधासर्वं स्थितं मयि तत् ॥२१
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शक्तिः माया-प्रकृतिः
     पृथ्वी-इति चतुर्-विभागं-अण्डं यत् ।
यः च विभागः अस्य पुनः
     बहुधासर्वं स्थितं मयि तत् ॥
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अर्थ :
शक्ति, माया, प्रकृति और पृथ्वी इन चार विभागों में यह जो अण्ड है, उनमें से प्रत्येक पुनः अनेकविध है, और सब कुछ मुझ (अहम्) में अवस्थित है ।
टिप्पणी :
१ -श्रीमद्भग्वद्गीता अध्याय १४, श्लोक ३ -
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम् ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥
२ - विष्णु के क्षीरसागर में शेषशायी पर शयन करने और उनकी नाभि (नभ > नाभि) से ब्रह्मा के उत्क्षेपित होने के बाद चतुरानन ब्रह्मा ही वह सृष्टिकर्ता है ....
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शक्तिर्बिन्दुः ।
(शक्तिर्बिन्दुः । तेनकारणेन शुद्धाध्वलक्षणं कार्यमुपलक्ष्यते, मायया मिश्राध्वात्मकम् प्रकृत्या शुद्धेतरात्मकम्, पृथिव्या स्थूलभोग्यभोगायतनादि । इति चतुर्विभागं यदण्डं यश्चास्य विभागो भुवनादिरूपः, ततः सर्वं मयि स्थितं परस्मिन्नेव प्रकाशे वर्तते । स्थितमिति भूतार्थतायामविवक्षा स्थितेस्त्रैकालिकत्वाद् इति शिवम् ॥२१)
(अर्थ :
शक्ति ही बिन्दु है । अहम् > अहं तथा ॐ > अ उ म् में बिन्दु ही समान है । इसलिए बिन्दु अर्थात् शक्ति को शुद्ध अध्वलक्षण कहकर माया से मिश्रित अध्वात्मक प्रकृति, कार्य को गौण लक्षण कहा गया, और इससे इतर (अन्य) को शुद्ध आत्मा प्रधान लक्षण । पृथ्वी से अभिप्राय है स्थूल भोग और भोगायतन । इस प्रकार से अण्ड का जो चार प्रकार का भेद है, वह भुवन-आदिरूप ’लोक’ है । इससे (स्पष्ट है कि यह) सब-कुछ (जो) मुझ (अहं) में ही अवस्थित है (मेरे ही) परम-प्रकाश के भीतर है ।
॥ इति द्वितीयोऽध्यायः ॥
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तृतीयोऽध्यायः
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अहमेकोऽनस्तमित-
     प्रकाशरूपोऽस्मि तेजसां तमसाम् ।
अन्तः स्थितो ममान्त-
     स्तेजांसि तमांसि चैकस्य ॥२२
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अहं-एको-अनस्तमित-
     प्रकाशरूपः अस्मि तेजसां तमसाम् ।
अन्तः स्थितः ममान्तः
     तेजांसि तमांसि च एकस्य ॥
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(प्रकाशात्मकोऽहमेक ... ... ...  अनस्तमितप्रकाशरूपो ... प्रकाशात्मकोऽहमेक > तेजांसि ... तमांसि बिन्दुमायादीनां)
अर्थ :
मैं (अहम्) समस्त तेजों में एकमेव अनस्तमित (जो अस्त नहीं होता, स्थिर, नित्य, सनातन, शाश्वत्) प्रकाशरूप हूँ । जिस एक ही मुझ (अहं) में समस्त तेज और तम हैं वह मेरा ही अन्तःस्थल है ।
टिप्पणी :
अनस्तमितम् : स्थिर, नित्य, सनातन, शाश्वत्
अस्तमितम् : अस्थिर, अनिश्चित ........... श्लोक ४०,
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प्रथमो मध्यम उत्तम इति पुरुषा भेदिनस्त्रयोऽपि मिथः ।
मत्तस्तु  महापुरुषात् प्रत्यवमर्शात्मनो न बहिः ॥२३
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प्रथमः मध्यमः उत्तमः इति पुरुषाः भेदिनः त्रयः अपि मिथः ।
मत्तः तु महापुरुषात् प्रत्यवमर्शात्मनः न बहिः ॥
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(प्रथमो मध्यम उत्तम इति त्रयः पुरुषाः ... ... ... महापुरुषान्मत्तो न बहिः ...सः त्वं अहम् ...
अर्थ :
प्रथम (उत्तम), मध्यम तथा अन्य इस प्रकार के अर्थात् ’मैं’ , ’तुम’ तथा ’वह’ आदि सर्वनामरूपी जो तीन पुरुष हैं, वे भी मुझ (अहम्) की ही प्रत्यभिज्ञा से उद्भूत हैं और मुझ महान् आत्मा के ही अन्तर में हैं न कि मुझ (अहम्) से बाहर ।
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युष्मच्छेषापोहवदहमिति यद्भाति भिन्नमिह रूपम् ।
तदिदं भागविभेदो न त्वहमेकोऽस्मि यन्नित्यम् ॥२४
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युष्मत्-शेष-अपोहवत्-अहम्-इति यत्-भाति भिन्नम् इह रूपम् ।
तत्-इदं भागविभेदः न तु अहम्-एकः अस्मि यत्-नित्यम् ॥
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अर्थ : युष्मद् अर्थात् ’तुम’ और शेष अर्थात् अन्य आदि जो मुझसे भिन्न यह / वह के रूप में भासित होते हैं, वह ’इदम्’ के ही भेद हैं न कि मुझ (अहम्) के उस नित्य के जो कि मैं हूँ ।
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द्यावापृथिवीदेशः कालोऽहो रात्रिरिति ययोः प्रसरः ।
ते भानतिरोधिकृती शक्ती मे भावबृन्दस्य ॥२५
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द्यावा-पृथिवीदेशः कालः अहः रात्रिः-इति ययोः प्रसरः ।
ते भाननिरोधीकृतिः शक्तिः मे भावबृन्दस्य ॥
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अर्थ :
आकाश, धरती, स्थानविशेष, काल, दिन और रात्रि इस प्रकार से देश-काल दोनों का जो विस्तार है, वह उन सब प्रकाश (भान) को रोकनेवाली शक्तियों का समूह है, जो मेरी ही शक्तियाँ हैं ।
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टिप्पणी : इन शक्तियों का विशेष नामभेद अगले श्लोकों में वर्णित है ।
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धूमावती तिरोधौ
     पुष्टौ ह्लादा च भास्वती भाने ।
क्षोभे च परिस्पन्दा
     व्याप्तौ विभ्वीति शक्तयः पञ्च ॥२६
(धूमावतीति मे शक्तिः प्रथमे , पुष्टौ आप्यायने ह्लादाख्या, अवभासने भास्वती, क्षोभे परिस्पन्दने स्पन्दाख्या, व्याप्तौ विभ्वीति पञ्च मे शक्तयः)
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धूमावती तिरोधौ
     पुष्टौ ह्लादा च भास्वती भाने ।
क्षोभे च परिस्पन्दा
     व्याप्तौ विभ्वी-इति शक्तयः पञ्च ॥
अर्थ :
तिरोधानरूपी शक्ति धूमावती, पुष्टिरूपी ह्लादा, भानरूपी भास्वती, क्षोभरूपी परिस्पन्दा, व्याप्तिरूपी विभ्वी ये पाँच नामभेद उनके हैं ।
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धूमावती पृथिव्यां ह्लादाप्सु शुचौ तु भास्वती प्रथते ।
वायौ स्पन्दा विभ्वी नभसि व्याप्तं जगत् ताभिः ॥२७
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धूमवती पृथिव्यां ह्लादा-अप्सु शुचौ तु भास्वती प्रथते ।
वायौ स्पन्दा विभ्वी नभसि व्याप्तं जगत्- ताभिः ॥
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धूमावती पृथ्वी में, ह्लादा जल (आप्) में भास्वती शौच / शुचिता अर्थात् ज्वलन या प्रकाश के रूप में अग्नि में, स्पन्दा (या परिस्पन्दा) वायु में तथा विभ्वी नभ (आकाश) में व्याप्त हैं जिनसे यह जगत् अस्तित्वमान होता है ।
अर्थ :
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निजधर्मिणं प्रकाशं स्वरूपयन्ती प्रकाश्यवर्गस्य ।
शक्तिर्विमर्शरूपा शरीरयत्यखिलमस्य मम ॥२८
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निजधर्मिणं प्रकाशं स्वरूपयन्ती प्रकाश्यवर्गस्य ।
शक्तिः विमर्शरूपा शरीरयति-अखिलमस्य मम ॥
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(विमर्शरूपा मम शक्तिः प्रत्यवमर्शरूपिणीयं चितिः ... अखिलं मम शरीरयति)
अर्थ :
प्रकाशित होनेवाले विषयों को रूपाकार देते हुई मेरे निजस्वरूपवाली, चैतन्यस्वरूपा वे शक्तियाँ समस्त भासमान प्रकाश्यवर्ग के स्वरूप को आलोकित  करती हैं । मूलतः विमर्शरूपा (प्रत्यवमर्शरूपा) यही चितिशक्ति मेरे इस पूरे जगत को शरीर का रूप प्रदान करती है ।
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ज्ञातृज्ञानज्ञेयात्मकमखिलं मद्विमर्शवह्निशिखा ।
दग्ध्वा प्रकाशरूपं शुभ्रं भस्मावशेषयति ॥२९
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ज्ञातृ-ज्ञान-ज्ञेयात्मकं-अखिलं मत्-विमर्श-वह्निशिखा ।
दग्ध्वा प्रकाशरूपं शुभ्रं भस्मावशेषयति ॥
--
(भस्म सन्मात्रां विभूतिम्)
अर्थ : विमर्शरूपी इस चितिशक्ति (चेतना) की अग्नि की शिखा जब ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेयात्मक इस समस्त को पूर्णतः जला देती है, तो स्वयं शुभ्र शुद्ध भानमात्र स्वरूप में (द्वैतरहित) भस्म की तरह अवशिष्ट रह जाती है ।
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अकठोरमद्विमर्शज्वालाग्रस्ते तिरोधिमद् भानम् ।
अङ्गारवदिव भस्म प्रथते तत्राणुवर्गस्य ॥३०
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अकठोरमत्-विमर्शज्वालाग्रस्ते तिरोधिमत् भानम् ।
अङ्गारवत्-इव भस्म प्रथते तत्राणुवर्गस्य ॥
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अर्थ : किंतु जब ऐसा न होकर क्षीण अवस्था में जब यह ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेयात्मक रूप में, द्वैतसहित रहती हुई व्यक्त और अव्यक्त भान की तरह प्रकट और लुप्त होती है, तब यह उसी अणुवर्ग की अंगारवत् भस्म की तरह होती है ।
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टिप्पणी : अणु अर्थात् जीव, आणवमल अर्थात् जीव का अपने वास्तविक स्वरूप का जन्मजात अज्ञान । अणुवर्ग का तात्पर्य है जीव-समष्टि ।

कार्त्स्न्येनाविष्टमिवारण्यपुराद्यग्निना मयापि जगत् ।
चित्रमवधूय भेदं ननु गृह्णात्येकरूपत्वम् ॥३१
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कार्त्स्न्येन-आविष्टं-इव-अरण्यपुरादि-अग्निना मयापि जगत् ।
चित्रं-अवधूय भेदं ननु गृह्णाति-एकरूपत्वम् ॥
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अर्थ :
यद्यपि वन तथा नगर इत्यादि सभी में अहम् (मुझ) से संपूर्णतः आविष्ट / ओत-प्रोत है, जैसे उन्हें जलादेनेवाली अग्नि उनमें भेद न करती हुई उनके व्यक्त (चित्ररूप) और उनकी विविधरूपता को जलाकर राख कर देती है, वैसे ही अहम्  की वह्नि-शिखा उनके अभेदमूल-एकत्व का प्राकट्य है ।
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टिप्पणी :
१-कृत्स्नं (पूर्ण, संपूर्ण) > कार्त्स्न्य > कार्त्स्न्येन > पूरी तरह से ।
अवधूय > धू (ल्यप्) > उपेक्षा करते हुए, महत्व न देते हुए, या जलाकर,
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अन्तर्मुखं स्वरूपं ज्ञेयस्य ज्ञानमस्य तु ज्ञाता ।
ज्ञानस्य ज्ञातृतनोश्चितिरेकास्यास्त्वहं नान्यः ॥३२
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अन्तर्मुखं स्वरूपं ज्ञेयस्य ज्ञानं-अस्य तु ज्ञाता ।
ज्ञानस्य ज्ञातृतनोः-चितिः-एकस्याः तु अहं न-अन्यः ॥
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चेतना (consciousness) ही ज्ञेय के सापेक्ष-ज्ञान तथा सापेक्ष ज्ञाता की भी अन्तर्निहित सत्यता है  ।
जबकि ज्ञान तथा ज्ञाता की सत्ता में निहित चेतना (विशुद्ध भान) मैं (अहम्) सबकी पारमार्थिक सत्ता ।
(अन्तर्मुखं पारमार्थिकं स्वरूपम्)
अर्थ :
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अक्रमता मे क्रमिकं ज्ञात्राद्यं सक्रमा क्रमा तु चितिः ।
मद्वद् ज्ञाता ज्ञानं शक्तिरिव त्रितयवद् ज्ञेयम् ॥३३
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अक्रमता मे क्रमिकं ज्ञातृ-आदि यं सक्रमा क्रमा तु चितिः ।
मत्-वत् ज्ञाता ज्ञानं शक्तिः इव त्रितयवत् ज्ञेयम् ॥
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(यतो ज्ञाताहं चेति, ज्ञानं शक्तिश्चेति, ज्ञेयं त्रितयं चेति)
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अर्थ : चूँकि मेरा (अहम् का) क्रमराहित्य है, उसकी ज्ञाता-आदि (ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय तीन) रूपों में क्रमिक (क्रमयुक्त या विशिष्ट क्रम में होनेवाली) प्रतीति उस चेतना की ही अवस्थाएँ हैं, अतएव ज्ञाता, ज्ञान एवं शक्ति इन तीनों प्रकारों में मुझ (अहम्) को ही जाना जाता है ।
टिप्पणी :
१-यतो ज्ञाताहं चेति, ज्ञानं शक्तिश्चेति, ज्ञेयं त्रितयं चेति...
अर्थ : चूँकि ज्ञाता अहम्, ज्ञान शक्ति और ज्ञेय तीनों से युक्त है ...
२ -क्षणप्रतियोगी परिणामापरान्तनिर्ग्राह्यः क्रमः ॥
(पातञ्जल योगगसूत्र कैवल्यपाद ३२)
अर्थ : जो परिणाम क्षण-क्षण घटित होते हैं किंतु बीत जाने पर ही स्पष्टता से (बुद्धि में) ग्रहण किये जाते हैं उन्हें क्रम कहा जाता है ।
३ -पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तेरिति ॥
(पातञ्जल योगगसूत्र कैवल्यपाद ३३)
अर्थ : पुरुष से गुणों का कोई प्रयोजन न होने पर (जब गुण पुरुष से स्वतंत्र अपनी ही प्रकृति में लौट जाते हैं तो यह उनका प्रतिप्रसव कहलाता है जिसे चितिशक्ति की कैवल्य अर्थात् स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाना है ।
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पीतादिषु हि न नीलं
     तेष्वत्र च भाति चाक्षुषं ज्ञानम् ।
न श्रौत्रादिषु तदपि
     ज्ञाता तेष्वत्र चानुगतः ॥३४
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पीतादिषु हि न नीलं
     तेषु अत्र च भाति चाक्षुषं ज्ञानं ।
न श्रौतृ-आदिषु तदपि
     ज्ञाता तेषु-अत्र च अनुगतः ॥
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अर्थ : जब पीले रंग की वस्तु देखी जाती है तो नीले आदि अन्य रंग नहीं दिखलाई देते, यह चाक्षुष (इन्द्रिय)-ज्ञान है ।
इसी प्रकार श्रौतृ-आदि से होनेवाला ज्ञान भी (इन्द्रिय)-ज्ञान है, यद्यपि इस प्रकार के ज्ञान में भी ज्ञाता अदृश्य रूप में (अनुगत) अवश्य ही विद्यमान होता है ।
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ज्ञातारं मां ज्ञानं शक्तिं त्रितयात्मकं पुनर्ज्ञेयम् ।
अविकल्पं भावयतः सोऽहं सा तत् त्रयं तच्च ॥३५
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ज्ञातारं मां ज्ञानं शक्तिं भावयतः त्रितयात्मकं पुनर्ज्ञेयम् ।
अविकल्पं भावयतः सोऽहं सा तत् त्रयं च तत्-च ॥
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अर्थ : उसी मुझ ज्ञाता मैं (अहम्) को पुनः ज्ञान, शक्ति और ज्ञेय इन तीन प्रकारों में जाना जाता है ।
विकल्परहित भान में जो वह (अहम् , ज्ञाता) है, वही मैं, विकल्पसहित मैं -अहम् (पुंल्लिंग, ज्ञाता-सापेक्ष), वही शक्ति (सा - स्त्रीलिंग), और वही तत् (नपुंसकलिंग)...
अत्र ’सोऽहं’ ’सा तत्’ ’त्रयं तच्च’)
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अर्थ :
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सन्तानान्तरवाहे ज्ञाता व्यावृत्तभासनः क्रमिकः ।
जीवाख्यो मद्योगान्मद्वत् स्यादक्रमाभासः ॥३६
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सन्तान-अनन्तर-वाहे ज्ञाता व्यावृत्तभासनः क्रमिकः ।
जीवाख्यः मद्-योगात्-मद्-वत् स्याद्-अक्रमाभासः ॥
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अर्थ : वि आवृत्त भासी ... क्रम आभास तथा तरंग के रूप में एक अन्य ज्ञाता (चिदाभास) क्रमिक रूप में अस्तित्व में आता है । जीव के नाम से विख्यात वह आभास भी क्रम के विलय के साथ मुझ (अहम्) से एकीभूत हुआ ...
टिप्पणी
बाल्यादिष्वपि जाग्रदादिषु तथा सर्वास्ववस्थास्वपि
व्यावृत्तास्वनुवर्तमानमहमित्यन्तः स्फुरन्तं सदा ।
बाल्य-आदिषु जाग्रत आदिषु तथा सर्वासु अवस्थासु अपि
वि आवृत्तासु-अनुवर्तमानम्-अहम्-इति अन्तःस्फुरन्तं सदा ।
(श्रीदक्षिणामूर्तिस्तोत्रम्)
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वेद्यं स्वक्रमविद्धां वित्तिमनुप्रविशदङ्गविषयाद्यम् ।
वेदितरि वित्तिमुखतो लीनं तल्लक्षणं भवति ॥३७
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वेद्यं स्वक्रमविद्धां वित्तिं-अनुप्रविशत्-अङ्ग-विषय-आदि यम् ।
वेदितरि वित्तिमुखतः लीनं तत्-लक्षणं भवति ॥
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अर्थ : (जीव के नाम से विख्यात वह आभास भी क्रम के विलय के साथ मुझ -अहम् से एकीभूत हुआ ...) वेद्य (जिसे जाना जाता है, ज्ञेय) जो अपने ही क्रम से विद्ध ज्ञाता (बहुवचन) को जानकर जानने (चेतना) के विविध अङ्गों, विषयों आदि में प्रविष्ट हुआ जब जानने की ओर उन्मुख होता है तो ज्ञाता (अहम्) में लीन होकर तत्स्वरूप हो जाता है ।
टिप्पणी :  "वस्तुतः प्रत्येक अनुभव में उस अनुभव का अनुभवकर्ता उदित होता है । स्मृति निरंतरता का भ्रम उत्पन्न करती है । वस्तुतः प्रत्येक अनुभव का अपना अनुभवकर्ता होता है, और निजत्व अथवा एकात्मता की भावना समस्त ’अनुभवकर्ता-अनुभव’ इस प्रकार के संबंधों के मूल में अवस्थित उभयनिष्ठ तत्व के कारण हो पाती है ।"
(अहं ब्रह्मास्मि - श्री निसर्गदत्त महाराज से वार्तालाप, अध्याय १ ’अहं-वृत्ति’ / ’मैं हूँ का भाव)
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टिप्पणी :
१-वेदितरि > वेदितृ, वेदिता > वेदितरि (सप्तमी विभक्ति, एकवचन)...
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स्मृत्यनुभवानुसंहतिवशतस्तज्जगदिदं तथा तदिदम् ।
स्वैर्यहमाभासयिता भिन्नं चापोहनेन मिथः ॥३८
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स्मृति-अनुभव-अनुसंहतिवशतः तत्-जगत्-इदं तथा तत्-इदं ॥
स्वैरि-अहं-आभासयिता भिन्नं च अपोहनेन मिथः ॥
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अर्थ : स्मृति, संवेदन, अनुभव, के क्रम से मैं (अहम्) अपनी स्वतंत्र स्फूर्ति से स्मृति के माध्यम से इस जगत्, तथा इदं प्रत्यय की प्रत्यक्ष संवेदन की तरह अभिव्यक्ति करता हूँ । और पुनः अपनी ही प्रत्यभिज्ञा से वह ’तत्’ यह ’इदं’ इसकी प्रत्यभिज्ञा भी अहम् / मैं है । आभास उत्पन्न करनेवाली क्षणिक रूप से बनने-मिटनेवाली स्वतंत्र अहंता, और आभास इन दोनों से भिन्न ।
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टिप्पणी :
स्वैर् > स्वैरि, स्वैरं, ...
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स्मृतिरनुभवस्य भानं सोऽर्थस्य द्वौ सहानुसन्धानम् ।
त्रितयमपि मां विनैकं क्रमरहितं न घटते विदुषाम् ॥३९
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स्मृति-अनुभवस्य भानं सः अर्थस्य द्वौ सहानुसन्धानम् ।
त्रितयं-अपि मां विना-एकं क्रमरहितं न घटते विदुषाम् ॥
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अर्थ : विद्वज्जनों के अनुसार स्मृति का अर्थ है अनुभव का भान रहना, अनुभवसहित अर्थ (विषय) का भान प्रत्यक्ष संवेदन है । आत्म-चिन्तनयुक्त प्रत्यभिज्ञा में दोनों साथ-साथ होते हैं (किन्तु क्रम भी होता है,... ) ये तीनों एक मेरे (अहम् के) विना नहीं होते और मेरे (अहम् के)ही आश्रय से इनका उदय होता है, मैं (अहम्) ही उनके उद्गम का स्रोत है । मैं (अहम्) क्रम के व्यवधान से रहित एकत्वमात्र है ।
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अस्तमितमर्थजातं भात्वा भिन्नमिव रुद्धतद्भानम् ।
मद्भानैकात्म्येन स्रोत इवाब्धौ स्थितं हि मयि ॥४०
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अस्तमितं-अर्थजातं भात्वा भिन्नं-इव रुद्ध-तत्-भानम् ।
मद्-भान-एकात्म्येन स्रोत इव-अब्धौ स्थितं हि मयि ॥
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अर्थ :
वह भान (स्वरूप की प्रत्यभिज्ञा) जिसके तात्पर्य की अस्पष्टता होने पर जो भेदों से युक्त प्रतीत होता है, मुझ (अहम्) से एकात्मता (का दर्शन) होने पर मुझमें ही अर्थात् स्रोत में वैसे ही समाहित हो जाता है जैसे जल समुद्र में ।
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टिप्पणी :
१ -अनस्तमितम् : स्थिर, नित्य, सनातन, स्पष्ट, प्रत्यक्ष, अपरोक्ष, शाश्वत्
२ -अस्तमितम् : अस्थिर, अनिश्चित, अप्रत्यक्ष, परोक्ष, ........... श्लोक २२,
३ -यहाँ एक प्रश्न उठता है संस्कृत के विद्वान ही उसे अधिक अच्छी तरह समझ और समझा सकते हैं ।
श्रीमद्भग्वद्गीता :
अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् ।
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥
(अध्याय १, श्लोक १०)
तथा
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वाऽभविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥
(शाङ्कर-भाष्य -अध्याय २, श्लोक २०)
जिसका पाठान्तर :
न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥
(गीताप्रेस गोरखपुर का अन्वय-संस्करण)
जिनमें अभविता और अभविता का प्रयोग द्रष्टव्य है ।
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॥ इति तृतीयोऽध्यायः ॥
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चतुर्थोऽध्यायः
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मत्स्थमपि भुवनबृन्दं बहिरिव मद् भाति मायया भविनाम् ।
अथ विद्यया भवेद् भवपदिनामन्तर्बहिष्ट्वेन ॥४१
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मत्-स्थं-अपि भुवनबृन्दं बहिः-इव मद्-भाति  मायया भविनाम् ।
अथ विद्यया भवेत् भवपदिनाम्-अन्तःबहिष्ट्वेन ॥
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अर्थ : मुझमें ही अवस्थित भुवनत्रयी मेरी माया से अभिभूत होने से संसार के लोगों को बाहर की तरह दिखाई देती है, किंतु मुझे (अहम् को) जानकर वही संसार भीतर-बाहर से मुझ से ही ओतप्रोत / आविष्ट देखा जाता है ।
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ग्राहकमेवं त्वजडं जडमन्यद् ग्राह्यमस्य यो मनुते ।
मायाविमोहितात्मा २बोध्यः सोऽणुर्भवी सद्भिः ॥४२
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ग्राहकं एवं तु अजडं जडं-अन्यत् ग्राह्यं अस्य यः मनुते ।
मायाविमोहित-आत्मा बोध्यः सः अणुः भवी सद्भिः ॥
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अर्थ : इस दृश्य-जगत् को (इन्द्रिय-मन-बुद्धि में) ग्रहण करनेवाला (ज्ञाता) इस प्रकार अ-जड अर्थात् चेतनस्वरूप है, जबकि जिसे ग्रहण किया जाता है वह अन्य (ज्ञेय) जड है, इस प्रकार की जिसकी मान्यता है, वह माया-विमोहित मनुष्य (जीव / मैं रूपी ज्ञाता) स्वरूपतः क्या है इसे जान लिया जाना चाहिए । वही स्वरूपतः श्रेष्ठ बुद्धियुक्त मनुष्यों के द्वारा जाना जाता है ।  
(ग्राहकं एवं तु अजडम् ... ... ग्राह्यं जडम्)
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जडतात्मिकामिदन्तामथाजडत्वात्मिकामहन्तां च ।
सामानाधिकरण्यादिदमहमिति बुध्यते द्विपदी ॥४३
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जडतात्मिकां इदन्तां अथ अजडत्वात्मिकां अहन्तां च ।
सामानाधिकरण्यात्-इदं-अहं बुध्यते द्विपदी ॥
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जिसे जड कहा गया वह ’इदन्ता’ तथा वैसे ही जिसे अ-जड कहा गया वह अहन्ता भी, इन दोनों का एक ही अधिकरण (आधारभूत स्थान) होने से इस प्रकार मनुष्य इस द्विपदी, इन दो पदों (इदं-अहं) के उस अधिकरण (आधारभूत स्थान) को अभेदस्वरूप देखा जाना चाहिए ।
टिप्पणी :
उपदेश-सारम् श्लोक २१,
इदमहंपदाभिख्यमन्वहम् ।
अहमिलीनकेऽप्यलयसत्तया ॥
(अर्थ :-- अहं जिसे जड, ज्ञेय, इदं से पृथक् और भिन्न, अ-जड, ज्ञाता, अहं के रूप में देखा जाता है इस ’अहं’ और इस ’इदं’ पद से इंगित उपाधियों का ’अहम्’ में विलीन होने पर ’अहम्’ अलय-सत्ता की तरह जाना जाता है ।)  
 (अभेदारोपणेन)
--
उद्भविनां केवलया निमग्नमन्तःपदे दृशा भाति ।
मग्नोन्मग्नोभयविधमुन्मया मयि पुनः पूर्णे ॥४४
--
उद्भविनां केवलया निमग्नं-अन्तःपदे दृशा भाति ।
मन-उन्मग्न-उभयविधं-उन्मया मयि पुनः पूर्णे ॥
--
(अभेदप्रतिपत्तिलक्षणं कैवल्यमुद्भवः ...स्वस्वरूपावस्थितिरेवोन्मना)
अर्थ : कैवल्य में इदं, अहम् (सदाशिव-तत्व) में निमग्न / निमज्जित / विलीन / एकात्म हो जाता है,
उन्मन में ’इदं’ को विश्व की तरह देखा जाता है ।
ये दोनों (इदं तथा अहं या निमग्नता तथा उन्मनीभाव) का उद्भव और विलय उस ’अहम्’ से, और उसी में होता है, जो पूर्ण है ।  
--
रविसोमतडिद्वज्राम्बुदबाडवजलधिगिरिगुहारण्यैः ।
दृढभावितात्मभावैर्योगी तत् कर्म निर्वहति ॥४५
--
रवि-सोम-तडित्-वज्र-अम्बुद-बाडव-जलधि-गिरि-गुहा-अरण्यैः
दृढभावित-आत्मभावैः योगी तत्- कर्म निर्वहति ॥
--
अर्थ :
स्वस्वरूपावस्थितिरेवोन्मना ... स्व-स्वरूप में अवस्थित हुआ, उन्मन अवस्था में स्थित योगी,
सूर्य, चन्द्र, तडित्, वज्र, मेघ (इन्द्र), बाडव (वरुण), समुद्र या जलाशय (वरुण) या पर्वतकन्दराओं में आत्मभाव में दृढभाव से (उस उस देवता से प्रेरित) उस विशिष्ट कर्म में संलग्न रहता हुआ, उस कर्म का निर्वाह करता है ।  
...
विश्वात्मकपरिपूर्णपरप्रकाशात्मकस्वरूपादविचलतैव
या देवता यमर्थं करोति तेनार्थिनो दृढं तस्याम् ।
विधृताहङ्कारस्य क्षणेन सोऽर्थः समायाति ॥४६
--
विश्वात्मक-परिपूर्णपर-प्रकाशात्मक-स्वरूपात्-अविचलतः-एव
या देवता यं अर्थं करोति तेन-अर्थिनः दृढं तस्याम् ।
विधृता-अहङ्कारस्य क्षणेन सोऽर्थः समायाति ॥
--
टिप्पणी :
यह स्पष्ट नहीं है कि उपरोक्त श्लोक दो पदों से युक्त है या तीन पदों से युक्त ?
अर्थ : उस विश्वात्मक परिपूर्ण प्रकाशात्मक स्वरूप में ही अविचलित रहता हुआ, वह देवता उस योगी के लिए उस कर्म का जो आशय उसके प्रति प्रकाशित करता है, उस आशय से उसकी दृढता और प्रबल होती है । उस देवता में अहन्ता को दृढता से स्थिर रखने पर उसे उस अर्थ (परमार्थ) की प्राप्ति होती है ।

टिप्पणी :
अहङ्कार का अर्थ यहाँ अहं-वृत्ति है,
वृत्तयस्त्वहं-वृत्तिमाश्रिताः ।
वृत्तयो मनः विद्ध्यहं मनः ॥
(उपदेश-सार, श्लोक १८)
--
धारणसङ्ग्रहपाकव्यूहाप्रतिघातलक्षणैर्भूतैः ।
स्वस्वनिविष्टाहन्तैर्योगिन इष्टा क्रिया भवति ॥४७
--
धारण-सङ्ग्रह-पाक-व्यूह-अप्रतिघात-लक्षणैः-भूतैः ।
स्व-स्व-निविष्टा-अहन्तैः-योगिनः इष्टा क्रिया भवति ॥
--
अर्थ : धारण, ग्रहण, पाक (पक्वता), व्यूहन (गठन) अप्रतिघात (अव्याहतप्रसार) क्रमशः पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, और आकाश के लक्षण हैं । अपनी निज अहन्ता में इन पाँच के माध्यम से योगी के इष्ट (अभीष्ट) कर्म होते हैं ।
टिप्पणी :
धारणलक्षणं भूतं पृथिवी । सङ्ग्रहलक्षणमापः । पाकलक्षणं तेजः । व्यूहोऽवयवसंहननं, तल्लक्षणं वायुः । अप्रतिघातोऽव्याहतप्रसरत्वं तल्लक्षणमाकाशः ।)
--
इति तन्मात्राकर्मज्ञानेन्द्रियमानसास्मिताधीषु ।
अव्यक्ते पुंसि तथा धृतचितिशक्तिश्च तत्कर्मा ॥४८
--
इति तन्मात्रा-कर्म-ज्ञानेन्द्रिय-मानस-अस्मिता-धीषु ।
अव्यक्ते पुंसि तथा धृत-चिति-शक्तिः च तत्-कर्मा ॥
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अर्थ :
पञ्च तन्मात्राओं, कर्म एवं ज्ञानेन्द्रियों, मन (चेतना) अस्मिता (अहं-वृत्ति) और बुद्धियों इन अव्यक्तों में, तथा पुरुष में ध्यान (चिति, चितिशक्ति) को धारण करता हुआ उस कर्म को करनेवाला (योगी) ...
टिप्पणी :
१ -तन्मात्र : अहंकार से उत्पन्न शब्द तन्मात्र, स्पर्शतन्मात्र, रूपतन्मात्र, रसतन्मात्र, एवं गन्ध तन्मात्र यह पाँच अविशेष जिनसे पञ्च महाभूत बनते हैं ।
२ -कर्मन् > कर्मा > करनेवाला, राजन् > राजा, शर्मन् > शर्मा, वर्म्मन् > वर्म्मा, ...
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रागनियत्योः काले विद्याकलयोर्गुहासरस्वत्योः ।
ईशसदाशिवशक्तिषु शिवे च तद्वत् कृताहन्तः ॥४९
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रागनियत्योः काले विद्याकलयोःगुहा सरस्वत्योः ।
ईश-सदाशिव-शक्तिषु शिवे च तद्वत् कृत-अहंतः ॥
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अर्थ : इसी प्रकार राग, नियति, काल, विद्या और कला, गुहा और सरस्वती, ईश, सदाशिव तथा शक्ति एवं शिव में भी उसी प्रकार ध्यान (चिति, चितिशक्ति) को धारण करता हुआ, ...
टिप्पणी :
राग : माया का एक क~चुक (आवरण) जिसके द्वारा पूर्णत्व परिच्छिन्न हो जाता है,
नियति : कार्य-कारण द्वारा संकोच (कार्य-कारण की बाध्यता)
काल : क्रमाभास,
विद्या : परिच्छिन्न ज्ञान,
कला : कर्तृत्व, परिमित कर्तृत्व,
गुहा : माया (आवरण और विक्षेपशक्ति)
सरस्वती : शुद्धविद्या,
(गुहा माया, ... ... सरस्वती शुद्धविद्या)
अर्थ :
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शुकवामदेवयोरपि कृष्णदधीच्योस्तथा च वैन्यस्य ।
भूतात्मयोगजं खल्वार्षे वैश्वात्म्यमाख्यातम् ॥५०
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शुक्र-वामदेवयोः अपि कृष्णदधीच्योः तथा च वैन्यस्य ।
भूतात्म-योगजं खलु आर्षे वैश्वात्म्यं आख्यातम् ॥
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अर्थ :
शुक, वामदेव, कृष्ण, दधीचि तथा वैन्य के द्वारा जिस भूतात्म-योग का वैश्वात्म्य कहा गया है, उसका ही वर्णन हे इन्द्र! तुम्हारे लिए किया गया ।
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टिप्पणी : ऋग्वेद मण्डल १०, सूक्तं १४८ में इन्द्र और वैन्य का सन्दर्भ यहाँ उल्लेखनीय है ।
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कालाग्निकोटिदीप्तां दाहे पाशोच्चयस्य पटु तृप्तौ ।
अमृतौघवृष्टिमूर्तिं स्मर शक्तिं भव गुरुर्जगतः ॥५१
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कालाग्निकोटिदीप्तां दाहे पाश-उच्चयस्य पटु तृप्तौ ।
अमृत-ओघ-वृष्टि-मूर्तिं स्मर शक्तिं भव गुरुः जगतः ॥
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अर्थ :
अमृत की घनघोर वृष्टि की तरह बरसती हुई उस शक्ति को स्मरण करो जो कोटि-कोटि ज्वालाओं युक्त काल रूपी अग्नि के समान अज्ञान के बंधन को तोड़ती और जला देती है ।
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ख्यातिमपूर्णां पूर्णख्यातिसमावेशदार्ढ्यतः क्षपय ।
सृज भुवनानि यथेच्छं स्थापय हर तिरय भासय च ॥५२
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ख्यातिं अपूर्णां पूर्णख्यातिसमावेशदार्ढ्यतः क्षपय ।
सृज भुवनानि यथेच्छं स्थापय हर तिरय भासय च ॥
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अर्थ :
अपूर्ण ज्ञान को उस पूर्ण ज्ञान की सहायता से दृढता से नष्ट करो, और यथासंकल्प अभीप्सित भुवनों का सृजन, परिरक्षण-पालन, विलय अथवा तिरोधान करो ।
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टिप्पणी :
ख्याति : ज्ञान
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इति बोधितः स इन्द्रो देवेष्वधिकारमलमपोह्य स्वम् ।
आविष्टशक्तितत्वः शिववदपश्यत् स्वमात्मानम् ॥५३
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इति बोधितः स इन्द्रः देवेषु-अधिकारं-अलं अपोह्य स्वम् ।
आविष्टशक्तितत्वः शिववत्-अपश्यत्-स्वं-आत्मानम् ॥
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अर्थ :
इस प्रकार से प्रबोध दिए जाने पर उस इन्द्र ने देवताओं इत्यादि पर अपने स्वामित्व और अधिकार इत्यादि को त्याग कर अपने ही भीतर अपनी ही आत्मा में शिववत् आविष्ट शक्तितत्व के दर्शन किए ।
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इति चतुर्थोऽध्यायः
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॥ शिवार्पणमस्तु ॥

© vinayvaidya111@gmail.com
Note :This is the 'draft'only. I shall post the edited copy of the same in due course.
यह सन्दर्भ भी स्मरणार्थ यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। 
ऋग्वेद में ’वेन’....
(ऋग्वेद मंडल १० / १२१)
हिरण्यगर्भ समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् ।
....
(ऋग्वेद मंडल १० / १२२)
वसुं न चित्रमयं हंसं गृणीषे
(ऋग्वेद मंडल १० / १२३)
अयं वेनश्चोदयत्पृश्निगर्भा ज्योतिर्जरायू रजसो विमाने ।
...









   




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