वेदविहित वर्णाश्रम-धर्म
प्रश्न : जो कण-कण में है, हर जगह, हर पल, हर चीज़ में है, उसे क्या खोजना और क्यों खोजना?
एक टिप्पणी : विनय जी, क्या आप इसका उत्तर देना चाहेंगे?
उत्तर : ’जो कण-कण में है, हर जगह, हर पल, हर चीज़ में है,...’ यदि यह मन, बुद्धि, या इन्द्रियों से प्राप्त होनेवाला कोई प्रत्यक्ष संवेदन / अनुभव न होकर, केवल एक तर्क अर्थात् हज़ारों दूसरे विचारों जैसा एक विचारमात्र है, -कोरा बौद्धिक निष्कर्ष, जिसकी सत्यता या असत्यता से आपको कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, तो उसे आप खोजेंगे ही क्यों और आप इसके लिए बाध्य भी नहीं हैं । आप उस बारे में सोचेंगे भी नहीं । लेकिन यदि यह आपका ऐसा प्रत्यक्ष संवेदन / अनुभव है जिसे ’सिद्ध’ करना भी आपको अनावश्यक, व्यर्थ और हास्यास्पद प्रतीत होता हो, -क्योंकि तब आप उस कण-कण ... से अभिन्न हैं यह आपको अनायास स्पष्ट है, तब भी उसे क्या खोजना और क्यों खोजना? और ’कौन’ खोजेगा, क्योंकि उससे भिन्न क्या दूसरा कोई (कौन) है?
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वेद और वेदान्त (जो वेद के मौलिक सार-तत्व की ही गंभीर विवेचना है, जिसका प्रयोजन पात्र जिज्ञासुओं और मुमुक्षुओं की शंकाओं का समाधान करना और उन्हें उस तत्व की प्राप्ति के मार्ग पर दृढता प्रदान करना है), की शिक्षा मूलतः अति सरल है । स्त्रियों और अब्राह्मणों के लिए ईश्वर की उपासना अपने मन-बुद्धि को रुचे ऐसे किसी इष्ट के रूप में करना और ब्राह्मणों (अर्थात् जो सीधे ही परमात्मा के बारे में जानना-समझना चाहते हैं और जिन्हें तिनके से लेकर ब्रह्मा तक की नश्वरता अनुभव हो जाने से इहलोक और परलोक (संसार) के समस्त अनित्य और आभासी सुखों से जिनका मोहभंग हो चुका है, और जो किसी ’नित्य’ / अनश्वर तत्व की संभावना और उसे जानने की इच्छा रखते हैं और इस हेतु तप, चिंतन, मनन, निदिध्यासन करने के लिए समर्पित हैं, -अर्थात् जो विवेक-वैराग्य, साधन और मुमुक्षा से युक्त हैं) के लिए आचार्य से दीक्षा लेकर इस हेतु प्रणिपातपूर्वक इसका साधन करना, -वेद के अनुसार ये दो ही मार्ग मनुष्य के लिए श्रेयस्कर हैं ।
यदि किसी मनुष्य की इनमें से किसी में भी रुचि नहीं तो वेद उसे कोई शिक्षा नहीं देते । वह स्वयं ही खोजे और जाने कि उसका कर्तव्य क्या है । 'धर्म' का उपदेश दिया जाता है वह भी 'अधिकारी/ पात्र' द्वारा 'अधिकारी / पात्र' को ही । व्यवसाय और व्यापार की तरह 'धर्म' का प्रचार करना, और लोगों को 'धर्मान्तरण' के लिए प्रोत्साहित करना या भय, प्रलोभन या कुटिलता से 'बाध्य' करना तो सरासर 'अधर्म' है ।
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प्रश्न : जो कण-कण में है, हर जगह, हर पल, हर चीज़ में है, उसे क्या खोजना और क्यों खोजना?
एक टिप्पणी : विनय जी, क्या आप इसका उत्तर देना चाहेंगे?
उत्तर : ’जो कण-कण में है, हर जगह, हर पल, हर चीज़ में है,...’ यदि यह मन, बुद्धि, या इन्द्रियों से प्राप्त होनेवाला कोई प्रत्यक्ष संवेदन / अनुभव न होकर, केवल एक तर्क अर्थात् हज़ारों दूसरे विचारों जैसा एक विचारमात्र है, -कोरा बौद्धिक निष्कर्ष, जिसकी सत्यता या असत्यता से आपको कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, तो उसे आप खोजेंगे ही क्यों और आप इसके लिए बाध्य भी नहीं हैं । आप उस बारे में सोचेंगे भी नहीं । लेकिन यदि यह आपका ऐसा प्रत्यक्ष संवेदन / अनुभव है जिसे ’सिद्ध’ करना भी आपको अनावश्यक, व्यर्थ और हास्यास्पद प्रतीत होता हो, -क्योंकि तब आप उस कण-कण ... से अभिन्न हैं यह आपको अनायास स्पष्ट है, तब भी उसे क्या खोजना और क्यों खोजना? और ’कौन’ खोजेगा, क्योंकि उससे भिन्न क्या दूसरा कोई (कौन) है?
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वेद और वेदान्त (जो वेद के मौलिक सार-तत्व की ही गंभीर विवेचना है, जिसका प्रयोजन पात्र जिज्ञासुओं और मुमुक्षुओं की शंकाओं का समाधान करना और उन्हें उस तत्व की प्राप्ति के मार्ग पर दृढता प्रदान करना है), की शिक्षा मूलतः अति सरल है । स्त्रियों और अब्राह्मणों के लिए ईश्वर की उपासना अपने मन-बुद्धि को रुचे ऐसे किसी इष्ट के रूप में करना और ब्राह्मणों (अर्थात् जो सीधे ही परमात्मा के बारे में जानना-समझना चाहते हैं और जिन्हें तिनके से लेकर ब्रह्मा तक की नश्वरता अनुभव हो जाने से इहलोक और परलोक (संसार) के समस्त अनित्य और आभासी सुखों से जिनका मोहभंग हो चुका है, और जो किसी ’नित्य’ / अनश्वर तत्व की संभावना और उसे जानने की इच्छा रखते हैं और इस हेतु तप, चिंतन, मनन, निदिध्यासन करने के लिए समर्पित हैं, -अर्थात् जो विवेक-वैराग्य, साधन और मुमुक्षा से युक्त हैं) के लिए आचार्य से दीक्षा लेकर इस हेतु प्रणिपातपूर्वक इसका साधन करना, -वेद के अनुसार ये दो ही मार्ग मनुष्य के लिए श्रेयस्कर हैं ।
यदि किसी मनुष्य की इनमें से किसी में भी रुचि नहीं तो वेद उसे कोई शिक्षा नहीं देते । वह स्वयं ही खोजे और जाने कि उसका कर्तव्य क्या है । 'धर्म' का उपदेश दिया जाता है वह भी 'अधिकारी/ पात्र' द्वारा 'अधिकारी / पात्र' को ही । व्यवसाय और व्यापार की तरह 'धर्म' का प्रचार करना, और लोगों को 'धर्मान्तरण' के लिए प्रोत्साहित करना या भय, प्रलोभन या कुटिलता से 'बाध्य' करना तो सरासर 'अधर्म' है ।
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