Doubts and the doubter
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Consciousness and the Absolute.
May 1, 1980
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Q.: But I like to act; I like to work.
M : All these activities go on, but they are only entertainment. The waking and deep sleep states come and go spontaneously. Through the sense of “I”, you spontaneously feel like working. But find out if this sense of “I” is real or unreal, permanent or impermanent.
The “I” which appears is unreal. How unreal it is I have proven. The moment the “I” is proven unreal, who is it who knows the “I” is unreal? This knowledge within you that knows the “I” is unreal, that knowledge which knows change, must itself be changeless, permanent.
You are an illusion, mãyã, an imagination. It is only because I know that I’m unreal that I know you also are unreal. It is not like this : Because I am real, you are unreal. It is like this : Because I am unreal, everything is unreal.
Consciousness depends on the body; the body depends on the essence of food. It is the Consciousness which is speaking now. If the food essence is not present, the body cannot exist. Without the body, would I be able to talk?
Can you do anything to retain this sense of “I”? As it came spontaneously, so will it go. It will not forewarn you by announcing, “I am going tomorrow.”
A doubt has arisen and you are trying to find the solution, but who is it who has this doubt? Find out for yourself.
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प्रश्नकर्ता : किन्तु कार्यरत रहना, कार्य करते रहना मुझे अच्छा लगता है ।
महाराज : ये सारे क्रिया-कलाप चलते रहेंगे, लेकिन वे मनबहलाव भर हैं। जागना और गहरी निद्रा की अवस्थाएँ अनायास आती-जाती रहती हैं। "मैं"-भावना के माध्यम से तुम्हें एकाएक कुछ करने की इच्छा होती है। पता लगाओ कि यह "मैं"-भावना सत्य है या असत्य, स्थायी है या अस्थायी ?
जो "मैं" प्रतीत होता है असत्य है। यह असत्य कैसे है, इसे मैं प्रमाणित कर चुका हूँ। जैसे ही "मैं" की असत्यता सिद्ध हो जाती है, कौन है जो जानता है कि "मैं" असत्य है? तुममें स्थित वह ज्ञान जो कि इस "मैं" को असत्य जानता है, वह ज्ञान जो परिवर्तन को जानता है, उसे स्वयं तो अवश्य ही परिवर्तनरहित, स्थायी होना चाहिए।
तुम एक भ्रान्ति हो, माया, एक कल्पना। चूंकि मुझे पता है की मैं असत्य हूँ इसीलिए मुझे पता है कि तुम भी असत्य हो । और ऐसा नहीं : चूँकि मैं सत्य हूँ इसलिए तुम असत्य। यह ऐसा है : चूँकि मैं असत्य हूँ सभी-कुछ असत्य है।
चेतना देह पर आश्रित होती है; देह अन्न के सार पर। यह तो चेतना ही है जो कि अभी बात कर रही है। यदि अन्न का सार विद्यमान न हो तो देह नहीं हो सकती। क्या देह न होने पर मैं बोल सकूँगा ?
क्या इस "मैं"-भावना को बनाए रखने के लिए तुम कुछ कर सकते हो? जैसे अनायास इसका आगमन हुआ, इसका प्रस्थान भी होगा। "मैं जा रही हूँ।" इस प्रकार की घोषणा कर, जाने से पहले यह तुम्हें सचेत तो नहीं करेगी।
एक शंका तुम्हें हुई और अब तुम उसका समाधान ढूँढ रहे हो, किंतु वह कौन है जिसे यह शंका हुई? अपने-आप को जानो !
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Talks with Sri Ramana Maharshi:
1st February, 1939
No. 618
D.: Doubts are always arising. Hence my question.
M.: A doubt arises and is cleared; another arises and that is cleared,
making way for another, and so it goes on. So there is no possibility
of clearing away all doubts. See to whom the doubts arise. Go to their
source and abide in it. Then they cease to arise. That is how doubts are
to be cleared. Atma samstham manah krtva na kinchidapi chintayet.
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श्री रमण महर्षि से बातचीत
1 फरवरी 1939
क्रमांक 618
भक्त : संशय पुनः पुनः पैदा होते रहते हैं। अतः मुझे शंका है।
महर्षि : संशय उत्पन्न होता है तथा उसका समाधान कर दिया जाता है; पुनः संशय होता है, उसका भी निवारण कर दिया जाता है जिसका स्थान क्रमानुसार फिर नया संशय ले लेता है। अतः संशयों का पूर्ण समाधान संभव नहीं। यह ज्ञात करो कि संशय किसे हुए। उनके मूल तक पैठकर वहीं अवस्थित हो जाओ। तब उनकी उत्पत्ति होना समाप्त हो जाएगा। संशयोच्छेदन का यही मार्ग है।
आत्म-संस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्।
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Remark :
Understanding the subtleties of a language sometimes helps to understand better.
Here, we can see how कोऽहम्? / ko:'ham? in sanskrita,
/ मी कोण? / mī koṇa? in Marathi,
/ ’मैं कौन?’ / ’maiṃ kauna’ in Hindi,
/ हुं कोण? / હું કોણ? / huṃ koṇa ? in Gujarati,
and
नान् यार्? / நான் யார்? nãn yãr in Tamizh
all lack a supporting verb as is there in English translation :"Who am I?"
In Marathi, in first person, 'मी आहे' second person, 'तू आहे' and third person, 'तो / ती आहे' use the same supporting verb 'आहे' Thus conversation in Marathi is comparatively easy in conveying the exact sense of "I". Because 'मी आहे' and 'ब्रह्म आहे' at once equate 'I' with 'ब्रह्म' that is the sole purpose of अद्वैत-शिक्षा / advaita-teaching.
In English "Who am I" is rather confusing (at least for me).
The purport of "Who I?" refers to an 'I' that is 'timeless' Reality while "Who am I" refers to a transient time-bound entity 'me'.
The 'timeless' is the implied meaning of 'I' as ब्रह्म / Brahman or "What is?" or "Who is?".
While the 'time-bound', transient 'me' is the apparent (formal) meaning of 'I'.
When the difference between the two meanings is correctly understood, the apparent is realized as a false, though useful in the worldly sense, notion only and is got rid of.
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Consciousness and the Absolute.
May 1, 1980
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Q.: But I like to act; I like to work.
M : All these activities go on, but they are only entertainment. The waking and deep sleep states come and go spontaneously. Through the sense of “I”, you spontaneously feel like working. But find out if this sense of “I” is real or unreal, permanent or impermanent.
The “I” which appears is unreal. How unreal it is I have proven. The moment the “I” is proven unreal, who is it who knows the “I” is unreal? This knowledge within you that knows the “I” is unreal, that knowledge which knows change, must itself be changeless, permanent.
You are an illusion, mãyã, an imagination. It is only because I know that I’m unreal that I know you also are unreal. It is not like this : Because I am real, you are unreal. It is like this : Because I am unreal, everything is unreal.
Consciousness depends on the body; the body depends on the essence of food. It is the Consciousness which is speaking now. If the food essence is not present, the body cannot exist. Without the body, would I be able to talk?
Can you do anything to retain this sense of “I”? As it came spontaneously, so will it go. It will not forewarn you by announcing, “I am going tomorrow.”
A doubt has arisen and you are trying to find the solution, but who is it who has this doubt? Find out for yourself.
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प्रश्नकर्ता : किन्तु कार्यरत रहना, कार्य करते रहना मुझे अच्छा लगता है ।
महाराज : ये सारे क्रिया-कलाप चलते रहेंगे, लेकिन वे मनबहलाव भर हैं। जागना और गहरी निद्रा की अवस्थाएँ अनायास आती-जाती रहती हैं। "मैं"-भावना के माध्यम से तुम्हें एकाएक कुछ करने की इच्छा होती है। पता लगाओ कि यह "मैं"-भावना सत्य है या असत्य, स्थायी है या अस्थायी ?
जो "मैं" प्रतीत होता है असत्य है। यह असत्य कैसे है, इसे मैं प्रमाणित कर चुका हूँ। जैसे ही "मैं" की असत्यता सिद्ध हो जाती है, कौन है जो जानता है कि "मैं" असत्य है? तुममें स्थित वह ज्ञान जो कि इस "मैं" को असत्य जानता है, वह ज्ञान जो परिवर्तन को जानता है, उसे स्वयं तो अवश्य ही परिवर्तनरहित, स्थायी होना चाहिए।
तुम एक भ्रान्ति हो, माया, एक कल्पना। चूंकि मुझे पता है की मैं असत्य हूँ इसीलिए मुझे पता है कि तुम भी असत्य हो । और ऐसा नहीं : चूँकि मैं सत्य हूँ इसलिए तुम असत्य। यह ऐसा है : चूँकि मैं असत्य हूँ सभी-कुछ असत्य है।
चेतना देह पर आश्रित होती है; देह अन्न के सार पर। यह तो चेतना ही है जो कि अभी बात कर रही है। यदि अन्न का सार विद्यमान न हो तो देह नहीं हो सकती। क्या देह न होने पर मैं बोल सकूँगा ?
क्या इस "मैं"-भावना को बनाए रखने के लिए तुम कुछ कर सकते हो? जैसे अनायास इसका आगमन हुआ, इसका प्रस्थान भी होगा। "मैं जा रही हूँ।" इस प्रकार की घोषणा कर, जाने से पहले यह तुम्हें सचेत तो नहीं करेगी।
एक शंका तुम्हें हुई और अब तुम उसका समाधान ढूँढ रहे हो, किंतु वह कौन है जिसे यह शंका हुई? अपने-आप को जानो !
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Talks with Sri Ramana Maharshi:
1st February, 1939
No. 618
D.: Doubts are always arising. Hence my question.
M.: A doubt arises and is cleared; another arises and that is cleared,
making way for another, and so it goes on. So there is no possibility
of clearing away all doubts. See to whom the doubts arise. Go to their
source and abide in it. Then they cease to arise. That is how doubts are
to be cleared. Atma samstham manah krtva na kinchidapi chintayet.
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श्री रमण महर्षि से बातचीत
1 फरवरी 1939
क्रमांक 618
भक्त : संशय पुनः पुनः पैदा होते रहते हैं। अतः मुझे शंका है।
महर्षि : संशय उत्पन्न होता है तथा उसका समाधान कर दिया जाता है; पुनः संशय होता है, उसका भी निवारण कर दिया जाता है जिसका स्थान क्रमानुसार फिर नया संशय ले लेता है। अतः संशयों का पूर्ण समाधान संभव नहीं। यह ज्ञात करो कि संशय किसे हुए। उनके मूल तक पैठकर वहीं अवस्थित हो जाओ। तब उनकी उत्पत्ति होना समाप्त हो जाएगा। संशयोच्छेदन का यही मार्ग है।
आत्म-संस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत्।
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Remark :
Understanding the subtleties of a language sometimes helps to understand better.
Here, we can see how कोऽहम्? / ko:'ham? in sanskrita,
/ मी कोण? / mī koṇa? in Marathi,
/ ’मैं कौन?’ / ’maiṃ kauna’ in Hindi,
/ हुं कोण? / હું કોણ? / huṃ koṇa ? in Gujarati,
and
नान् यार्? / நான் யார்? nãn yãr in Tamizh
all lack a supporting verb as is there in English translation :"Who am I?"
In Marathi, in first person, 'मी आहे' second person, 'तू आहे' and third person, 'तो / ती आहे' use the same supporting verb 'आहे' Thus conversation in Marathi is comparatively easy in conveying the exact sense of "I". Because 'मी आहे' and 'ब्रह्म आहे' at once equate 'I' with 'ब्रह्म' that is the sole purpose of अद्वैत-शिक्षा / advaita-teaching.
In English "Who am I" is rather confusing (at least for me).
The purport of "Who I?" refers to an 'I' that is 'timeless' Reality while "Who am I" refers to a transient time-bound entity 'me'.
The 'timeless' is the implied meaning of 'I' as ब्रह्म / Brahman or "What is?" or "Who is?".
While the 'time-bound', transient 'me' is the apparent (formal) meaning of 'I'.
When the difference between the two meanings is correctly understood, the apparent is realized as a false, though useful in the worldly sense, notion only and is got rid of.
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