Friday, 2 June 2017

भावना, ध्यान, तादात्म्य और चेतना

भावना, ध्यान, तादात्म्य और चेतना
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विचार का स्थान जैसा कि प्रायः हर कोई अनायास स्वीकार करता है, प्रकटतः तो मस्तिष्क है जहाँ शब्दों और शब्दपर्यायों का बाज़ार है । शब्द के बदले में शब्द का मोल-भाव किया जाता है और विचार की इस गतिविधि का परिणाम होता है और अधिक शब्दों की अनियंत्रित या सुनियंत्रित अनुशासित भीड़ । व्यवहार के लिए उनका अपना प्रयोजन है किंतु उन्हें हमेशा किसी विकल्प से बदला जा सकता है । जरूरी नहीं कि उन्हें भावनाओं का रंग दिया जाए । शुद्ध गणित या भौतिक-विज्ञान का अध्ययन, प्रोद्यौगिकी, तकनीकी ज्ञान जैसे ’डिजिटल’ या ’सिम्युलेशन’ (simulation) आदि  के प्रयोग और निष्कर्ष शब्द से शब्द की यात्रा है ।
दूसरी ओर भावना हृदय की गतिविधि है जहाँ शब्द कभी काम आते हैं तो कभी किसी काम नहीं आते ।
विचार की ही तरह भावना भी हमारे ध्यान को आकर्षित, मुग्ध, चकित या विस्मित, चंचल, व्याकुल या शान्त करती है । क्या ध्यान और ’मन’ एक ही वस्तु हैं, जब हम अन्यमनस्क होते हैं तो क्या ध्यान खंडित होता है? ’मन’, -जिसे कभी भावना कहा-समझा जाता है, कभी बुद्धि, कभी अहं / स्व अर्थात् अपने पृथक् और स्वतंत्र होने / अस्तित्व का बोध और उसकी सहज स्वीकृति, और विचार, भावना (जिसमें भय, लोभ, ईर्ष्या, उत्साह, शोक, चिन्ता, अवसाद, ऊब, उकताहट, आवेग, -जिसमें विशुद्ध भावनात्मक या विशुद्ध शारीरिक या मिले-जुले प्रभाव, आशा-निराशा, स्मृति और उससे पैदा हुई विभिन्न प्रकार की धारणाएँ तथा कल्पनाएँ भी होती हैं), इन सबका ध्यान से क्या संबंध है? क्या ध्यान जीवन का एक सहजस्फूर्त रंग नहीं है जो ’मन’, विचार, और ’स्व’ के कार्यरत होने या न होने से सदैव अप्रभावित रहता है?  स्कूल की कक्षा १ से विश्वविद्यालय के शिक्षकों से हम सुनते आते हैं :
"तुम्हारा ध्यान कहाँ है?" और हमें उनके प्रश्न को समझने में क्या कभी कठिनाई होती है?
इसलिए ’ध्यान’ या तो होता है, ’कहीं’ होता है, या ’कहीं नहीं’ होता है, -जो शायद सर्वाधिक भयावह स्थिति है । सामान्यतः तो हमारा ध्यान विचारों और भावनाओं से नियंत्रित होता है किंतु फिर भी ध्यान की रश्मि-रेखा उस चट्टान को अनायास भेदकर सदा सामने प्रत्यक्ष रहती है । विचारों और भावनाओं का आग्रह प्रबल होने पर ध्यान की वह रश्मि-रेखा अवश्य ही क्षीण और अदृश्य जैसी हो जाती है किंतु विचारों और भावनाओं का प्रवाह जैसे ही कमज़ोर या कष्टप्रद होने लगता है, ध्यान तत्क्षण ही मुक्ति की राह ढूँढ लेता है । विचार और भावनाएँ हमें कल्पित दुःखों-सुखों आशंकाओं चिन्ताओं, व्यग्रताओं या उत्तेजनाओं में ले जाते हैं जबकि ध्यान उन सबके औचित्य और व्यर्थता को उनकी पूरी नग्नता में प्रकट कर देता है । किंतु ध्यान में एक अवरोध यदि कुछ है तो वह है विचार और भावना से तादात्म्य (identification) . यहाँ एक गूढ प्रश्न उपस्थित होता है कि यह ’तादात्म्य’ (identification) विचार या भावना जैसी कोई अमूर्त वस्तु है या संसार की दूसरी वस्तुओं की तरह इंद्रियग्राह्य (tangible) कोई चीज़?
क्योंकि ’तादात्म्य’ का अर्थ हुआ किसी विचार, भावना या वस्तु से अपने-आपको अभिन्न मान बैठना । दूसरे शब्दों में ’तादात्म्य’ ( identification) एक क्षणिक विचार ही हुआ । पुनः इस विचार में भी ’स्व’ के निरपेक्षतः स्वतंत्र होने की कल्पना भी अनायास जुड़ी होती है ।
क्या ऐसे किसी ’स्व’ की सत्यता है भी?
एक शरीर-विशेष, उसके मस्तिष्क, हृदय और स्मृति की दृष्टि से तो हर मनुष्य (और प्राणी भी) अवश्य ही एक ’जीव’ है जो किसी भी दूसरे ’जीव’ के ही समान है । किंतु ’स्व’ का विचार, भावना, स्मृति और किसी नाम-विशेष, जाति, राष्ट्र, संस्कृति, भाषा, स्थान, 'धर्म' समुदाय से उसे जोड़ने का आग्रह ’तादात्म्य’ है ।
’स्व’ मूलतः मस्तिष्क की एक भ्रान्त कल्पना है यह बात समझकर वह कल्पना यदि मिट जाती है तो ’विचार’ और ’विचार करनेवाला’ एक ही ’स्व’ के दो पहलू हैं यह स्पष्ट हो जाता है, और यही ’तादात्म्य’ का निराकरण भी है । तब व्यावहारिक और औपचारिक रूप से मनुष्य अपने-आपको दूसरों से भिन्न तो समझता है किंतु उनसे अपने-आपको अधिक महत्वपूर्ण या विशिष्ट समझना उसके लिए संभव नहीं रह जाता ।
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