Saturday, 10 June 2017

अर्थ का तात्पर्य :

The English Translation is given at the end of this Hindi text.
अर्थ का तात्पर्य :
प्रश्न : क्या कुछ भी निरर्थक नहीं होता?
उत्तर : ’अर्थ’ शब्द का प्रयोग दो तरह से हो सकता है । पहला है वैचारिक तात्पर्य जो पुनः एक विचार (शब्द-समूह) होता है । स्पष्ट है कि यह ’विचार’ पुनः किसी सन्दर्भ से सार्थक या निरर्थक होता है । दूसरा है परिणामसूचक । किसी भी क्रिया का परिणाम होता है । जब इस परिणाम को ध्यान में रखकर क्रिया को नियंत्रित किया जाता है तब क्रिया निरर्थक नहीं होती । किंतु परिणाम शुभ है या अशुभ, अच्छा है या बुरा इस पर ध्यान दिए बिना ही क्रिया / कार्य किया जाता है तो भले ही तात्कालिक रूप से वह लाभप्रद या हानिप्रद दिखाई दे, तो परिणाम सार्थक, निरर्थक या अनर्थकारी ’कुछ भी’ हो सकता है । इसलिए ’कुछ भी’ निरर्थक भी हो सकता है ।
किंतु इसमें बुनियादी कारक-तत्व (factor) है ’कर्ता’ । क्या कर्ता के अभाव में क्रिया / कार्य का होना संभव है?
दूसरा इतना ही या इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण कारक-तत्व (factor) है दृष्टा (observer).
’कर्ता’ के स्वरूप / यथार्थ को जाननेवाला स्वयं न तो क्रिया / कार्य या परिणाम होता है, दूसरी ओर उस जाननेवाले की दृष्टि क्रिया / कार्य या परिणाम पर होती अवश्य है किंतु वह स्वयं उनमें से किसी में हस्तक्षेप न तो करता है, और न कर सकता है । इस तरह क्रिया / कार्य या परिणाम उस दृष्टा द्वारा ’देखे भर’ जाते हैं और वही उनके ’होने’ या न ’होने’ का एकमात्र प्रमाण है । क्रिया / कार्य या परिणाम इस प्रकार ’देखे जानेवाले’ (observed) के रूप में होते हैं ।
क्या ’देखे जानेवाले’ (observed) का ’देखनेवाले (दृष्टा / observer)’ से पृथक् अपना स्वतंत्र अस्तित्व हो सकता है? जबकि ’देखनेवाले (दृष्टा / observer)’ का अस्तित्व प्रमाणित किया जाना तक हास्यास्पद है । यदि उसके अस्तित्व से इनकार या उस पर संदेह भी उठाया जाए, तो यह भी उसके अस्तित्व को ही अनायास सिद्ध करता है, और इस इनकार या संदेह का निराकरण हो जाता है ।
निष्कर्ष : क्रिया / कार्य या परिणाम प्रकृति है जो जड है, दृष्टा का इस प्रकृति से भिन्न लक्षण है, वह (नित्य / सदा) ’चेतन’ है । किंतु ’कर्ता’ विचार है जिसका अस्तित्व सदा संदेहास्पद है । ’मैं’, ’तुम’, ’यह’, ’वह’, ’ये’, ’वे’ आदि विचार हैं, न कि प्रकृति या चेतन (जिसे साङ्ख्य-दर्शन में ’पुरुष’ कहा जाता है ।)
इस प्रकार 'विचाऱ' की भूमिका मध्यवर्ती / माध्यम (interface) की है, जिसकी औपचारिक सत्ता है जिसका उपयोग तो है ही, किंतु उसका स्वरूप स्पष्ट न होने से उसे ही आवश्यकता से अधिक महत्वपूर्ण समझ लिया जाता है।
पुनश्च : चूँकि ’देखनेवाला’(observer) ही ’देखे गए’ / (observed) का आधार और प्रमाण है, और 'देखा गया' (observed) उसका विस्तार, इसलिए बुद्धि में वे यद्यपि ’दो’ प्रतीत होते हैं, वस्तुतः एक ही तत्व के दो पक्ष हैं ।
(the observer is the observed).
यह है 'अद्वैत-दर्शन' !
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Sense of the meaning
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Q: Could anything be absurd?
A: The word ‘Meaning’ is used in two senses.
One is the sense in terms of thought. That is again a thought (set of words) only.
Obviously, this ‘thought’ has a sense, no sense, or it is just absurd in the relevant context only. The other is the sense in terms of the consequence, effect or result. Every action is the cause of an effect. When an action is performed and controlled / regulated with keeping in view this effect, consequence, or result, it is not absurd. But when it is done without seeing that the effect, consequence, or result, may be good or bad, and though may look advantageous or harmful, may have sense, no sense or just absurd in accordance with the relevant context.
So, ‘anything’ could be absurd as well.
But again, here is a core-factor ‘the agency’ – the entity that is responsible for performing the ‘action’, though which is supposed to exist independently apart from the action and act.
Is the happening of ‘action’ may take place in the absence of such an entity / ‘agency’?
Another not this much but far more important core-factor that is also the evidence of any action and its happening is the entity, namely the knowing-consciousness which though is a witness is affected in no way, nor is a part of the action or the happening. Neither is the cause or consequence of the action.
At the same time, it is also true that this entity the know-er or the knowing-consciousness does not, nor can interfere in the way happening takes place. Thus, action / deed or the consequence is only ‘observed’ by that knowing-consciousness which is the only evidence of them.
In this way, action / consequence are only observed by this knowing-consciousness and this itself is their only evidence. So whatever appears to have been done or is being done are in the form of ‘observed’.
Again, does this ‘observed’ has its own independent and separate existence apart from the ‘observer’, -namely this knowing-consciousness? Existence of an ‘observer’ is so obvious that asking for evidence of its existence is just absurd and ridiculous. For this only asserts its existence only. Who doubts the existence of the observer? Who refutes the existence of the observer? Is not this entity its own affirmation?
Conclusion:
Action  / deed or consequence is प्रकृति /  prakṛti, which is the संस्कृत / saṃskṛta ? word and literally means ‘a specific mode of action’. This action is obviously inert and insentient while the knowing-entity is alert and sentient. There is the element of ‘attention’ inevitably associated with the knowing-consciousness. This knowing-consciousness is termed as  पुरुष / puruṣa  in  साङ्ख्य-दर्शन / sāṅkhya-darśana …
Now, does the observed exist in the absence of the observer?
The existence of the observer is evident, but the existence of the observed is dependent on the observer’s existence. And this is in the irreversible order. That is, the existence of the ‘observer’ needs no evidence.
Again, what about the ‘agency’ – the entity that is supposed to conduct the action / deed?
Is not the idea of (existence of) such an entity in ‘thought’ only?
Is not ‘thought’ a medium ever so changing, a flux, a movement that facilitates the contact between the ‘observed’ and the ‘observer’?
Is not the role of ‘thought’ is limited to that of an ‘interface’, - a medium only?
As the observer is the support and evidence of the observed, the later is but an extension of the former.
(the observer is the observed.)    

        

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