’पता नहीं’ का पता न होना !
--
’कठिन समय’ आपकी नहीं,
बल्कि आपके ’विश्वास’ की दृढ़ता की,
’चरित्र’ की गहराई की,
और ’मूल्यों’ के प्रति आपकी निष्ठा की परीक्षा लेते हैं ।
--
उपरोक्त वक्तव्य कितना तर्कसंगत प्रतीत होता है!
हम कितने जल्दी और आसानी से अपने-आपके (या किसी और के) ’विचार’ से भ्रमित हो जाते हैं!
क्योंकि हमें यह भी नहीं पता, कि हमें कुछ पता है या नहीं ।
--
क्या ’विश्वास’, ’चरित्र’ और ’मूल्य’ कोई ऐसी वास्तविक वस्तुएँ हैं जिनका भौतिक सत्यापन किया जा सके? और उनकी ’दृढ़ता’,”गहराई’ और ’मूल्य’ भी क्या ऐसी ही धारणाएँ मात्र नहीं है, जिन्हें न तो परिभाषित किया जाना या मापा जाना संभव है ? किंतु प्रथम दृष्टि में हम इस विचार से कितनी जल्दी सहमत हो जाते हैं ।
क्योंकि हमें यह भी नहीं पता होता कि हमें ठीक से कुछ पता ही नहीं ।
यदि ’शब्दों’ के ज्ञान को ’जानना’ समझा जाए तो हमारे पास असंख्य शब्द हैं, किंतु जीवन के यथार्थ के लिए शब्द तय करना और यह मान बैठना कि हमें इस यथार्थ का ’पता’ है, निरी आत्म-वंचना है । इससे अधिक बुद्धिमान तो वह है जो कहता है :
"मुझे बस इतना पता है कि मुझे पता नहीं ।"
मृत्यु, प्रेम, ईश्वर, जीवन, आदि शब्दों का हम जिस धडल्ले से आत्मविश्वास-पूर्वक प्रयोग करते हैं उनके बारे में अनुमान से अधिक हमारे पास क्या ऐसा कुछ होता है जिसे हम निर्भ्रान्त, संशयरहित होकर उस तरह जानते हैं, जैसे कि हम तमाम भौतिक वस्तुओं को जानते हैं?
--
’विश्वास’, ’चरित्र’ और ’मूल्य’ ’नैतिकता’, ’मृत्यु’, 'मैत्री' ’प्रेम’, 'स्वाश्थ्य', 'शान्ति', ’ईश्वर’, ’जीवन’, ’समय’, ’सुख’ के बजाय क्या हम ’संदेह’, ’चरित्रहीनता’, ’मूल्यहीनता’, ’अनैतिकता’, ’जन्म’ / ’अपने अस्तित्व’, 'युद्ध', 'रोग', 'बुढ़ापा', 'शत्रुता' ’घृणा’, ’क्रोध’, ’ईर्ष्या’,”दुःख’ आदि को ही, -इन्हें शब्द दिए बिना भी कहीं अधिक बेहतर ढंग से नहीं जानते?
क्या हम सीधे ही इन चीज़ों को समझकर उनके साथ, उनसे हमारे संबंध के बारे में यथोचित व्यवहार नहीं कर सकते?
क्या ’दुःख’ जीवन का एक प्रत्यक्ष यथार्थ नहीं है?
हम ’दुःख’ क्या है? क्या इस पर कभी ध्यान देते हैं?
हम ’दुःख’ क्यों है? क्या इस पर कभी ध्यान देते हैं?
’कौन’ दुःखी है? क्या इस पर कभी ध्यान देते हैं?
--
इस तरह से हम शायद ही कभी सोचते-विचारते हैं, हम तो बस सीखे हुए शब्दों की भूलभुलैया में डूबे रहने को ’चिंतन’ समझते हैं ।
--
हमें पता ही नहीं कि हमें पता तक नहीं !
--
--
’कठिन समय’ आपकी नहीं,
बल्कि आपके ’विश्वास’ की दृढ़ता की,
’चरित्र’ की गहराई की,
और ’मूल्यों’ के प्रति आपकी निष्ठा की परीक्षा लेते हैं ।
--
उपरोक्त वक्तव्य कितना तर्कसंगत प्रतीत होता है!
हम कितने जल्दी और आसानी से अपने-आपके (या किसी और के) ’विचार’ से भ्रमित हो जाते हैं!
क्योंकि हमें यह भी नहीं पता, कि हमें कुछ पता है या नहीं ।
--
क्या ’विश्वास’, ’चरित्र’ और ’मूल्य’ कोई ऐसी वास्तविक वस्तुएँ हैं जिनका भौतिक सत्यापन किया जा सके? और उनकी ’दृढ़ता’,”गहराई’ और ’मूल्य’ भी क्या ऐसी ही धारणाएँ मात्र नहीं है, जिन्हें न तो परिभाषित किया जाना या मापा जाना संभव है ? किंतु प्रथम दृष्टि में हम इस विचार से कितनी जल्दी सहमत हो जाते हैं ।
क्योंकि हमें यह भी नहीं पता होता कि हमें ठीक से कुछ पता ही नहीं ।
यदि ’शब्दों’ के ज्ञान को ’जानना’ समझा जाए तो हमारे पास असंख्य शब्द हैं, किंतु जीवन के यथार्थ के लिए शब्द तय करना और यह मान बैठना कि हमें इस यथार्थ का ’पता’ है, निरी आत्म-वंचना है । इससे अधिक बुद्धिमान तो वह है जो कहता है :
"मुझे बस इतना पता है कि मुझे पता नहीं ।"
मृत्यु, प्रेम, ईश्वर, जीवन, आदि शब्दों का हम जिस धडल्ले से आत्मविश्वास-पूर्वक प्रयोग करते हैं उनके बारे में अनुमान से अधिक हमारे पास क्या ऐसा कुछ होता है जिसे हम निर्भ्रान्त, संशयरहित होकर उस तरह जानते हैं, जैसे कि हम तमाम भौतिक वस्तुओं को जानते हैं?
--
’विश्वास’, ’चरित्र’ और ’मूल्य’ ’नैतिकता’, ’मृत्यु’, 'मैत्री' ’प्रेम’, 'स्वाश्थ्य', 'शान्ति', ’ईश्वर’, ’जीवन’, ’समय’, ’सुख’ के बजाय क्या हम ’संदेह’, ’चरित्रहीनता’, ’मूल्यहीनता’, ’अनैतिकता’, ’जन्म’ / ’अपने अस्तित्व’, 'युद्ध', 'रोग', 'बुढ़ापा', 'शत्रुता' ’घृणा’, ’क्रोध’, ’ईर्ष्या’,”दुःख’ आदि को ही, -इन्हें शब्द दिए बिना भी कहीं अधिक बेहतर ढंग से नहीं जानते?
क्या हम सीधे ही इन चीज़ों को समझकर उनके साथ, उनसे हमारे संबंध के बारे में यथोचित व्यवहार नहीं कर सकते?
क्या ’दुःख’ जीवन का एक प्रत्यक्ष यथार्थ नहीं है?
हम ’दुःख’ क्या है? क्या इस पर कभी ध्यान देते हैं?
हम ’दुःख’ क्यों है? क्या इस पर कभी ध्यान देते हैं?
’कौन’ दुःखी है? क्या इस पर कभी ध्यान देते हैं?
--
इस तरह से हम शायद ही कभी सोचते-विचारते हैं, हम तो बस सीखे हुए शब्दों की भूलभुलैया में डूबे रहने को ’चिंतन’ समझते हैं ।
--
हमें पता ही नहीं कि हमें पता तक नहीं !
--
No comments:
Post a Comment