प्रश्न : क्या मोक्ष की प्राप्ति ही जीवन का एकमात्र ध्येय है?
उत्तर : धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये किसी भी प्राणी के जीवन की स्वाभाविक गति है । इनमें से धर्म का अर्थ है वृत्ति या मनोवृत्ति । प्रत्येक प्राणी में बुद्धि के जाग्रत होने पर ही ’मैं’ और ’मेरा संसार’ इस धारणा का उद्भव होता है । यह धारणा शब्दगत न होकर आभास (अहसास) के रूप में होती है और उसे शब्द दिया जाना ज़रूरी है भी नहीं । जैसे भूख-प्यास, शीत-गर्मी आदि का संवेदन हर किसी को अनायास होता है, जैसे निद्रा आते समय पहले ही समझ में आ जाता है कि मुझे नींद आ रही है, और जागने के बाद पता चल जाता है कि अब मैं जाग गया, वैसे ही बिना शब्द के ही आहार, निद्रा, भय और मैथुन की प्रवृत्ति प्राणिमात्र में अनायास होती है । इन प्रवृत्तियों का आधार ’वृत्ति’ है । मनुष्य की स्थिति में इस वृत्ति की प्रधानता ही से ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास की मानसिक अवस्था मनुष्य-मात्र की होती है । बचपन में ब्रह्मचर्य, युवा होने पर गृहस्थ होना, प्रौढ होने पर वानप्रस्थ होना और अन्ततः मृत्यु आने से पहले उस तत्व को जान लेना जो जन्म-मृत्यु से अछूता है, यही जीवन की सार्थकता है । फिर भी गुणों की प्रधानता (न कि जन्म या जाति) के आधार पर जिस मनुष्य की दृष्टि में धर्म के प्रति समझ है और अधर्म क्या है यह भी उसे स्पष्ट है उसके कर्म (न कि जन्म या जाति) के विशिष्ट रुझान के आधार पर उसका वर्ण तय होता है ।
जिस मनुष्य के संस्कार, परिस्थिति या परिवेश इस दृष्टिकोण के अनुरूप नहीं होते वह भी जाने-अनजाने किसी न किसी वर्ण का होता ही है चाहे वह इस बारे में विचार करे या न करे । धर्म का सरल तात्पर्य है शुभ प्रवृत्ति जिससे अपना और जिसे अपना समझा जाता है, उसे सुख प्राप्त हो । यह सुख आभासी / अनित्य भी हो सकता है और (शायद) नित्य भी ।
शरीर, मन-बुद्धि और वृत्ति और उनके परिपक्व होने के अनुसार स्वाभाविक रूप से हर कोई ऐसा ही कर्म करता या करना चाहता है जिससे किसी प्रकार का सुख मिले । आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये वृत्तियाँ क्रमशः सुख पाने और दुःख को दूर करने के लिए ही मनुष्य को कर्म करने हेतु प्रेरित करती हैं । संसार के चलने के लिए भी ये ज़रूरी हैं ही ।
किंतु अल्प बुद्धि वाला मनुष्य भी कभी-न-कभी इनके चक्र से पुनः पुनः गुजरते रहने से ऊब जाता है और अंततः इस सब झमेले का मतलब क्या है यह उत्सुकता उसमें पैदा हो सकती है । साधारण मनुष्य तो जीवन में कोई ध्येय तय कर उसके लिए जीवन जीने में ही संतुष्ट हो जाता है, किंतु अल्प बुद्धि वाला भी कभी-न-कभी इस सबसे छूटना कैसे हो, इसका विचार ज़रूर करता है । कोई-कोई अंत तक इस बारे में खोज-बीन करता है और उसे मुमुक्षु कहा जाता है । जो मुमुक्षु होता है उसके लिए मोक्ष-प्राप्ति ही जीवन का एकमात्र ध्येय होता है ।
जो जीवन के बहाव में सुख-दुःख उठाता हुआ, चिन्तित, आशान्वित, आशंकित, ईर्ष्या-द्वेष, भय-लोभ, कामना-अपेक्षा, संक्षेप में द्वन्द्व-बुद्धि से प्रेरित होता है, किसी अन्य ध्येय के लिए जीता रहता है, या इस बारे में सोचने की ज़हमत तक नहीं उठाना चाहता ।
उपयोगी सन्दर्भ :
गीता अध्याय 4 श्लोक 13
वर्ण और गुणों की प्रधानता से कर्म की प्रवृत्ति, सृष्टि के विधान में ही है ।
गीता अध्याय 7 श्लोक 11
'काम' पुरुषार्थ के रूप में संततिक्रम को बनाये रखने का साधन है, न कि अनियंत्रित भोग का ।
--
©vinayvaidya111@gmail.com
उत्तर : धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये किसी भी प्राणी के जीवन की स्वाभाविक गति है । इनमें से धर्म का अर्थ है वृत्ति या मनोवृत्ति । प्रत्येक प्राणी में बुद्धि के जाग्रत होने पर ही ’मैं’ और ’मेरा संसार’ इस धारणा का उद्भव होता है । यह धारणा शब्दगत न होकर आभास (अहसास) के रूप में होती है और उसे शब्द दिया जाना ज़रूरी है भी नहीं । जैसे भूख-प्यास, शीत-गर्मी आदि का संवेदन हर किसी को अनायास होता है, जैसे निद्रा आते समय पहले ही समझ में आ जाता है कि मुझे नींद आ रही है, और जागने के बाद पता चल जाता है कि अब मैं जाग गया, वैसे ही बिना शब्द के ही आहार, निद्रा, भय और मैथुन की प्रवृत्ति प्राणिमात्र में अनायास होती है । इन प्रवृत्तियों का आधार ’वृत्ति’ है । मनुष्य की स्थिति में इस वृत्ति की प्रधानता ही से ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास की मानसिक अवस्था मनुष्य-मात्र की होती है । बचपन में ब्रह्मचर्य, युवा होने पर गृहस्थ होना, प्रौढ होने पर वानप्रस्थ होना और अन्ततः मृत्यु आने से पहले उस तत्व को जान लेना जो जन्म-मृत्यु से अछूता है, यही जीवन की सार्थकता है । फिर भी गुणों की प्रधानता (न कि जन्म या जाति) के आधार पर जिस मनुष्य की दृष्टि में धर्म के प्रति समझ है और अधर्म क्या है यह भी उसे स्पष्ट है उसके कर्म (न कि जन्म या जाति) के विशिष्ट रुझान के आधार पर उसका वर्ण तय होता है ।
जिस मनुष्य के संस्कार, परिस्थिति या परिवेश इस दृष्टिकोण के अनुरूप नहीं होते वह भी जाने-अनजाने किसी न किसी वर्ण का होता ही है चाहे वह इस बारे में विचार करे या न करे । धर्म का सरल तात्पर्य है शुभ प्रवृत्ति जिससे अपना और जिसे अपना समझा जाता है, उसे सुख प्राप्त हो । यह सुख आभासी / अनित्य भी हो सकता है और (शायद) नित्य भी ।
शरीर, मन-बुद्धि और वृत्ति और उनके परिपक्व होने के अनुसार स्वाभाविक रूप से हर कोई ऐसा ही कर्म करता या करना चाहता है जिससे किसी प्रकार का सुख मिले । आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये वृत्तियाँ क्रमशः सुख पाने और दुःख को दूर करने के लिए ही मनुष्य को कर्म करने हेतु प्रेरित करती हैं । संसार के चलने के लिए भी ये ज़रूरी हैं ही ।
किंतु अल्प बुद्धि वाला मनुष्य भी कभी-न-कभी इनके चक्र से पुनः पुनः गुजरते रहने से ऊब जाता है और अंततः इस सब झमेले का मतलब क्या है यह उत्सुकता उसमें पैदा हो सकती है । साधारण मनुष्य तो जीवन में कोई ध्येय तय कर उसके लिए जीवन जीने में ही संतुष्ट हो जाता है, किंतु अल्प बुद्धि वाला भी कभी-न-कभी इस सबसे छूटना कैसे हो, इसका विचार ज़रूर करता है । कोई-कोई अंत तक इस बारे में खोज-बीन करता है और उसे मुमुक्षु कहा जाता है । जो मुमुक्षु होता है उसके लिए मोक्ष-प्राप्ति ही जीवन का एकमात्र ध्येय होता है ।
जो जीवन के बहाव में सुख-दुःख उठाता हुआ, चिन्तित, आशान्वित, आशंकित, ईर्ष्या-द्वेष, भय-लोभ, कामना-अपेक्षा, संक्षेप में द्वन्द्व-बुद्धि से प्रेरित होता है, किसी अन्य ध्येय के लिए जीता रहता है, या इस बारे में सोचने की ज़हमत तक नहीं उठाना चाहता ।
उपयोगी सन्दर्भ :
गीता अध्याय 4 श्लोक 13
वर्ण और गुणों की प्रधानता से कर्म की प्रवृत्ति, सृष्टि के विधान में ही है ।
गीता अध्याय 7 श्लोक 11
'काम' पुरुषार्थ के रूप में संततिक्रम को बनाये रखने का साधन है, न कि अनियंत्रित भोग का ।
--
©vinayvaidya111@gmail.com
No comments:
Post a Comment