काम, क्रोध, सम्मोहः, हास्यबोध / Lust, Anger, Passion and Humor .
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When I saw this first time, at once the man looked to me like Ashok Kumar The Old Hero of Hindi Films. Because of the humor invoked, this just made me laugh.
And I at once remembered the following stanzas of श्रीमद्भगवद्गीता / ShrimadBhagavadGita.
I remembered how passion (Lust, desire and anger) get entwined because of the attention given to them by 'thought'. 'thought' gets associated wit them, and one causes the another.Unfortunately one is caught into this trap and fails to see the mechanism behind this whole movement of Thought, Lust, Anger, and Passion, where desire lurks underground.
Humor at once frees us from this whole trap and we re-live the pure innocence of a child-mind.
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I'm convinced there is no other way of freeing the mind from this complex formidable trap of
Lust, Anger, Passion and Desire / Violence within one.
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अध्याय 3, श्लोक 37,
श्रीभगवानुवाच :
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥
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(कामः एषः क्रोधः एषः रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनः महापाप्मा विद्धि एनम् इह वैरिणम् ॥)
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भावार्थ : हास्यबोध
श्रीभगवान् ने कहा :
यह काम, यह क्रोध, यह रजोगुण से उत्पन्न होनेवाला, यह बहुत खाने जिसकी भूख कभी शान्त नहीं होती अर्थात् निरन्तर भोग करनेवाला, महापापी अर्थात् महादुष्ट, इसे ही वैरी अर्थात् शत्रु जानो ।
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टिप्पणी :
उपरोक्त श्लोक को गत श्लोक 36 के साथ पढ़ा जाना चाहिए ।
[अध्याय 3, श्लोक 36,
अर्जुन उवाच :
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥
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(अथ केन प्रयुक्तः अयम् पापम् चरति पूरुषः ।
अनिच्छन् अपि वार्ष्णेय बलात्-इव नियोजितः ॥)
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भावार्थ :
अर्जुन ने प्रश्न पूछा :
हे वार्ष्णेय (वृष्णिवंशी भगवान् श्रीकृष्ण) ! मनुष्य किसके द्वारा प्रेरित किया जाकर, न चाहता हुआ भी जैसे उसे बल से बाध्य किया जा रहा हो, पाप का आचरण करता है?
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Chapter 3, śloka 37,
śrībhagavānuvāca :
kāma eṣa krodha eṣa
rajoguṇasamudbhavaḥ |
mahāśano mahāpāpmā
viddhyenamiha vairiṇam ||
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(kāmaḥ eṣaḥ krodhaḥ eṣaḥ
rajoguṇasamudbhavaḥ |
mahāśanaḥ mahāpāpmā
viddhi enam iha vairiṇam ||)
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Meaning :
Know this lust, this anger which is ever so hungry and is never satiated, is the great sinner, is the enemy, that arises from rajoguṇa.
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Chapter 3, śloka 36,
arjuna uvāca :
atha kena prayukto:'yaṃ
pāpaṃ carati pūruṣaḥ |
anicchannapi vārṣṇeya
balādiva niyojitaḥ ||
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(atha kena prayuktaḥ ayam
pāpam carati pūruṣaḥ |
anicchan api vārṣṇeya
balāt-iva niyojitaḥ ||)
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arjuna asked :
O vārṣṇeya (bhagavān śrīkṛṣṇa) ! Who tempts man to indulge in committing sin, where-by even though un-willing, one is, as if forced to do the same?
अध्याय 2, श्लोक 62,
ध्यायतो विषयान्पुन्सः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।
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(ध्यायतः विषयान् पुन्सः सङ्गः तेषु उपजायते ।
सङ्गात् सञ्जायते कामः कामात् क्रोधः अभिजायते ॥
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भावार्थ :
जब मनुष्य (का मन) विषयों का चिन्तन करता है तो उसके मन में उन विषयों से आसक्ति (राग या द्वेष की बुद्धि) पैदा होती है, उस आसक्ति के फलस्वरूप उन विषयों से संबंधित विशिष्ट कामनाएँ उत्पन्न होने लगती हैं । और कामनाओं से क्रोध का उद्भव होता है ।
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Chapter 2, śloka 62,
dhyāyato viṣayānpunsaḥ
saṅgasteṣūpajāyate |
saṅgātsañjāyate kāmaḥ
kāmātkrodho:'bhijāyate |
--
(dhyāyataḥ viṣayān punsaḥ
saṅgaḥ teṣu upajāyate |
saṅgāt sañjāyate kāmaḥ
kāmāt krodhaḥ abhijāyate ||
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Meaning :
When one thinks of the objects (of desires), this causes attachment with them, from the attachment comes the desire for those objects and there-from the anger.
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अध्याय 2, श्लोक 63,
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क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥
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क्रोधात् भवति सम्मोहः सम्मोहात्-स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृति-भ्रंशात्-बुद्धिनाशः बुद्धिनाशात्-प्रणश्यति ॥
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भावार्थ :
क्रोध से चित्त अत्यन्त मोहाविष्ट हो जाता है, चित्त के अत्यन्त मूढता से आविष्ट होने पर स्मृति विभ्रमित हो जाती है, स्मृति के विभ्रमित हो जाने पर बुद्धि अर्थात् विवेक-बुद्धि नष्ट हो जाती है, और विवेक-बुद्धि के नष्ट होने पर मनुष्य विनष्ट हो जाता है ।
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Chapter 2, shloka 63,
krodhādbhavati sammohaḥ
sammohātsmṛtivibhramaḥ |
smṛtibhraṃśādbuddhināśo
buddhināśātpraṇaśyati ||
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krodhāt bhavati sammohaḥ
sammohāt-smṛtivibhramaḥ |
smṛti-bhraṃśāt-buddhināśaḥ
buddhināśāt-praṇaśyati ||
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Meaning :
Anger causes the delusion, and delusion results in the confusion of memory. Confusion in memory further causes loss of capacity to distinguish between the right and the wrong, the truth and the false, and once this capacity is lost, one is but ruined.
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When I saw this first time, at once the man looked to me like Ashok Kumar The Old Hero of Hindi Films. Because of the humor invoked, this just made me laugh.
And I at once remembered the following stanzas of श्रीमद्भगवद्गीता / ShrimadBhagavadGita.
I remembered how passion (Lust, desire and anger) get entwined because of the attention given to them by 'thought'. 'thought' gets associated wit them, and one causes the another.Unfortunately one is caught into this trap and fails to see the mechanism behind this whole movement of Thought, Lust, Anger, and Passion, where desire lurks underground.
Humor at once frees us from this whole trap and we re-live the pure innocence of a child-mind.
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I'm convinced there is no other way of freeing the mind from this complex formidable trap of
Lust, Anger, Passion and Desire / Violence within one.
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अध्याय 3, श्लोक 37,
श्रीभगवानुवाच :
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥
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(कामः एषः क्रोधः एषः रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनः महापाप्मा विद्धि एनम् इह वैरिणम् ॥)
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भावार्थ : हास्यबोध
श्रीभगवान् ने कहा :
यह काम, यह क्रोध, यह रजोगुण से उत्पन्न होनेवाला, यह बहुत खाने जिसकी भूख कभी शान्त नहीं होती अर्थात् निरन्तर भोग करनेवाला, महापापी अर्थात् महादुष्ट, इसे ही वैरी अर्थात् शत्रु जानो ।
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टिप्पणी :
उपरोक्त श्लोक को गत श्लोक 36 के साथ पढ़ा जाना चाहिए ।
[अध्याय 3, श्लोक 36,
अर्जुन उवाच :
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥
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(अथ केन प्रयुक्तः अयम् पापम् चरति पूरुषः ।
अनिच्छन् अपि वार्ष्णेय बलात्-इव नियोजितः ॥)
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भावार्थ :
अर्जुन ने प्रश्न पूछा :
हे वार्ष्णेय (वृष्णिवंशी भगवान् श्रीकृष्ण) ! मनुष्य किसके द्वारा प्रेरित किया जाकर, न चाहता हुआ भी जैसे उसे बल से बाध्य किया जा रहा हो, पाप का आचरण करता है?
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Chapter 3, śloka 37,
śrībhagavānuvāca :
kāma eṣa krodha eṣa
rajoguṇasamudbhavaḥ |
mahāśano mahāpāpmā
viddhyenamiha vairiṇam ||
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(kāmaḥ eṣaḥ krodhaḥ eṣaḥ
rajoguṇasamudbhavaḥ |
mahāśanaḥ mahāpāpmā
viddhi enam iha vairiṇam ||)
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Meaning :
Know this lust, this anger which is ever so hungry and is never satiated, is the great sinner, is the enemy, that arises from rajoguṇa.
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Chapter 3, śloka 36,
arjuna uvāca :
atha kena prayukto:'yaṃ
pāpaṃ carati pūruṣaḥ |
anicchannapi vārṣṇeya
balādiva niyojitaḥ ||
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(atha kena prayuktaḥ ayam
pāpam carati pūruṣaḥ |
anicchan api vārṣṇeya
balāt-iva niyojitaḥ ||)
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arjuna asked :
O vārṣṇeya (bhagavān śrīkṛṣṇa) ! Who tempts man to indulge in committing sin, where-by even though un-willing, one is, as if forced to do the same?
अध्याय 2, श्लोक 62,
ध्यायतो विषयान्पुन्सः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।
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(ध्यायतः विषयान् पुन्सः सङ्गः तेषु उपजायते ।
सङ्गात् सञ्जायते कामः कामात् क्रोधः अभिजायते ॥
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भावार्थ :
जब मनुष्य (का मन) विषयों का चिन्तन करता है तो उसके मन में उन विषयों से आसक्ति (राग या द्वेष की बुद्धि) पैदा होती है, उस आसक्ति के फलस्वरूप उन विषयों से संबंधित विशिष्ट कामनाएँ उत्पन्न होने लगती हैं । और कामनाओं से क्रोध का उद्भव होता है ।
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Chapter 2, śloka 62,
dhyāyato viṣayānpunsaḥ
saṅgasteṣūpajāyate |
saṅgātsañjāyate kāmaḥ
kāmātkrodho:'bhijāyate |
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(dhyāyataḥ viṣayān punsaḥ
saṅgaḥ teṣu upajāyate |
saṅgāt sañjāyate kāmaḥ
kāmāt krodhaḥ abhijāyate ||
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Meaning :
When one thinks of the objects (of desires), this causes attachment with them, from the attachment comes the desire for those objects and there-from the anger.
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क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥
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क्रोधात् भवति सम्मोहः सम्मोहात्-स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृति-भ्रंशात्-बुद्धिनाशः बुद्धिनाशात्-प्रणश्यति ॥
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भावार्थ :
क्रोध से चित्त अत्यन्त मोहाविष्ट हो जाता है, चित्त के अत्यन्त मूढता से आविष्ट होने पर स्मृति विभ्रमित हो जाती है, स्मृति के विभ्रमित हो जाने पर बुद्धि अर्थात् विवेक-बुद्धि नष्ट हो जाती है, और विवेक-बुद्धि के नष्ट होने पर मनुष्य विनष्ट हो जाता है ।
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Chapter 2, shloka 63,
krodhādbhavati sammohaḥ
sammohātsmṛtivibhramaḥ |
smṛtibhraṃśādbuddhināśo
buddhināśātpraṇaśyati ||
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krodhāt bhavati sammohaḥ
sammohāt-smṛtivibhramaḥ |
smṛti-bhraṃśāt-buddhināśaḥ
buddhināśāt-praṇaśyati ||
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Meaning :
Anger causes the delusion, and delusion results in the confusion of memory. Confusion in memory further causes loss of capacity to distinguish between the right and the wrong, the truth and the false, and once this capacity is lost, one is but ruined.
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