Monday, 22 August 2016

’बरसे कंबल भीगे पानी!’

कबीर के बहाने!
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छादनं > आच्छादनं > छत...!
छज्जा / (balcony), शेड, shade, shadow, shed, चादर...
शुद्ध ज्ञान (जानना) शुद्ध जल की तरह पावन, पवित्र है, ऊर्ध्वमूलम् जलम् > जन्मना लयं गच्छति, गम्यते अवगमयते वा ...
चादर आच्छादन है कृत्रिम ज्ञान / जानकारी का, जो इन्द्रियगम्य ज्ञान की स्मृति और पहचान मात्र है । ऐसा तथाकथित ज्ञान हम पर निरन्तर बरसता है और हमारे स्वाभाविक ज्ञान पर आवरित हो जाता है ।
इस जानकारी को, जो अज्ञान का ही परिष्कृत प्रकार-मात्र है, हम ज्ञान समझ लेते हैं, ऊर्ध्वमूल ज्ञान की तरह यह भी असीम है किन्तु अनित्य भी है ।
जैसे ऊर्ध्वमूल अधःशाख अश्वत्थ है, वैसा ही जल है, वह भी परमात्मा (शिव) की जटाओं से निःसृत होकर नीचे की ओर गतिशील है ताकि इस तरह अधःपतित होता हुआ भी अधम से अधम को पावन् और पवित्र कर सके, उसका उद्धार कर सके ।
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥
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बरसात हो रही थी, सुबह की सैर पर जाते हुए ’बरसे चादर भीगे पानी!’ ये शब्द मन में ध्वनित हुए तो शेष विचार उसके पीछे आते गये ।
फिर याद आया कबीर ने शायद ’बरसे कंबल भीगे पानी!’ कहा होगा....
या शायद ’बरसे कथरिया, भीगे पानी!’ कहा होगा !
'कथरिया' से 'कंथा' याद आया :
'रथ्याचर्पट विरचित कंथा,
 .. पुण्यापुण्य विवर्जित पंथाः .. ' 
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