Sunday, 28 August 2016

क्या संस्कृत मर रही है?

क्या संस्कृत मर रही है?
क्या संस्कृत मर रही है? क्या संस्कृत मर चुकी ’डेड लैंग्वेज’ / dead language है?
कुछ लोग अवश्य ही इस संभावना से बहुत उत्साहित और प्रसन्न हैं जबकि शेष में से कुछ लोग ऐसा प्रदर्शित करते हैं कि मानों यह उनके लिए यह अत्यन्त चिन्ता का विषय है, जबकि मुझे नहीं पता कि वे इस बारे में कितना गंभीर हैं ।
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इस प्रश्न को हम दूसरी तरह से देखें :
क्या भारतीय भाषाएँ मर रही हैं, ख़त्म हो रही हैं?
हिन्दी का क्रियापद ’मरना’ संस्कृत ’मृ’ धातु से व्युत्पन्न शब्द है । हिन्दी / उर्दू का क्रिया-विशेषण ’ख़त्म / ख़तम’ भी संस्कृत के ’क्षतं’ का अपभ्रंश मात्र है । इसमें सन्देह नहीं कि इसी ’क्षत्’/ ’क्षति’ / ’क्षय’ से ’क्षत्र’ शब्द उपजा है । दूसरी ओर ’क्षिति’, ’क्षितिज’ ’क्षत्र, ’क्षात्र’ ’क्षत्रप’ (नृप की भांति) / satrap भी इसी क्षत् के सगे-संबंधी हैं । ’क्षण’ / बीतना भी इसी मूल शब्द का विवर्तन (ट्रांसफ़ॉर्मेशन) है । यहाँ तक कि ख़तना (क्रिया और संज्ञा) भी इसके दूर के रिश्ते का कोई होगा, यह अनुमान अतिशयोक्ति न होगा ।
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अब हम इसी प्रश्न पर तमिष् / द्रविड तथा जम्बूद्वीप (हिन्द-महासगर) की अन्य भाषाओं  के सन्दर्भ में विचार करें :
कि (जैसा कि कुछ लोगों का अनुमान है ) आख़िर क्यों तमिष् भी संस्कृत की तरह मरणोन्मुखी है?
मैंने पहले भी अपने कुछ लेखों में इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाया है कि तमिष् मूलतः वैदिक भाषा है और इहिन्द महासागर स्थित इस उप-महाद्वीप / सब-कॉन्टिनेन्ट से लेकर सुदूर मलयेशिया / मलय-द्वीप / बाली / म्लेच्छदेश तथा इंदोनेशिया, सिंगापुर लाओस वियतनाम  कम्बोडिया तक उन वे सभी भाषाओं ने, जिन्हें बाएँ से दाएँ लिखा जाता है, मूलतः देवनागरी को ही अपनी भाषा की लिपि के रूप में अपनाया था, और तिब्बती तथा सिंहल भाषाएँ भी इसका अपवाद नहीं हैं । इसीलिए मेरा मत है कि तिब्बती भाषा एवं तिब्बत संस्कृति और भाषा के आधार पर चीन की अपेक्षा भारत के अधिक निकट हैं । और चीन द्वारा तिब्बत का बलपूर्वक अधिग्रहण किए जाने को मैं हमारे भाग्य-नियंताओं (Those who had a tryst with destiny and their ilk) का प्रमाद या अदूरदर्शिता ही मानता हूँ । इसकी कितनी और कैसी क़ीमत हमें चुकानी होगी यह तो भविष्य में ही पता चल पाएगा । लेकिन वह एक दूसरा विषय है । अभी तो भाषा के प्रश्न पर लौटें  ।  
इन समस्त भाषाओं की लिपि में देवनागरी की छवि स्पष्ट दिखलाई देती है, यहाँ तक कि उनकी वर्णमाला भी संस्कृत / देवनागरी के ’कुचुटुतुपु’ क्रम का पालन करती हैं ।
विगत दो सहस्राब्दियों के विदेशी आधिपत्य और शासन में रहते हुए इन उपरोक्त तथ्यों को हमारी आँखों से छिपाकर हमारे सामने कुत्सित इरादों से जन्मे और रचे-गढ़े गए कुछ अन्य मत जानबूझकर प्रस्तुत किए गए ताकि संस्कृत जो ’अक्षरशः’ इन समस्त भाषाओं की जननी है, को नष्ट किया जा सके ।
अब पुनः ’तमिष्’ की ओर लौटें ।
संस्कृत की ही तरह ’तमिष्’ की उत्पत्ति भी मूलतः वैदिक ज्ञान की परंपरा को अक्षुण्ण बनाए रखने हेतु भगवान् शिव के मुख से हुई, और संस्कृत की ही तरह लोक-प्रचलन से दोनों भाषाओं ने क्रमशः परिवर्तित होते-होते वह वर्तमान स्वरूप ग्रहण किया जो आज दिखाई देता है ।              
इस संक्षिप्त इतिहास के प्रभाव से हम भारतीय तथा अन्य भारतवंशी जिनकी जड़ें संस्कृत में थीं और हैं भी, अपनी जड़ों से विच्छिन्न होते चले गए । यह कहना कि तमिष् भाषा के वर्ण भी देवनागरी / संस्कृत भाषा तथा लिपि के विशिष्ट रूप मात्र हैं न तो दुराग्रह होगा, न तमिष् से द्वेष । किंतु पिछले 2000 वर्षों की दासता ने हममें परस्पर विद्वेष के ऐसे बीज बो दिए हैं कि हर एक भारतीय भाषा शेष भाषाओं को संदेह तथा द्वेष की दृष्टि से देखने लगी और उसे हमने ’अस्मिता’ का प्रश्न बना लिया । तमिष्-भाषी भी इसका अपवाद नहीं हैं । एक ओर अपनी ही भाषा के प्रति हीनता बोध और शासकों (अंग्रेज़ या अन्य) की भाषा का आकर्षण तथा उन भाषाओं के ज्ञान तथा गौरव से जहाँ संस्कृत तथा हिन्दी यहाँ तक कि अपनी समीपवर्ती जैसे कन्नड, मलयालम, तेलुगु आदि के प्रति द्वेष ने ’अस्मिता’ की इस भावना को अनावश्यक रूप से दृढ और जटिल बना दिया, वहीं दूसरी ओर प्राचीन तमिल को समय की आवश्यकता के अनुसार न ढालने की जिद से भी तमिष् धीरे धीरे शक्तिहीन होती चली गई ।
मैं दावा तो नहीं करता और न मेरा आग्रह है किंतु उपरोक्त वर्णित प्रायः सभी भाषाओं (जिनमें सिंहल, तिब्बती, मलय आदि भी हैं) की लिपि और शब्द-व्युत्पत्ति का मैंने जो अध्ययन किया उससे इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि तमिष् की एकमात्र कमज़ोरी मुख्यतः लिखित और ध्वनित शब्द के बीच साम्य न होना रही है । इसकी तुलना में कुछ भाषाओं ने जहाँ देवनागरी लिपि को लगभग यथावत् अपना लिया (जैसे राजस्थानी, नेपाली, भोजपुरी, ब्रज तथा विशेष रूप से मराठी आदि)  वहीं कुछ अन्य (जैसे बाङ्ला, असमिया, उड़िया, गुरमुखी) आदि ने इतिहास के प्रभावों से इस लिपि में क्रमशः घटित हुए परिवर्तित रूप में इसे अपना लिया ।
कन्नड, तेलुगु, तथा मलयालम ने जहाँ भाषा के लिखित और ध्वनित रूप को संरक्षित रखा वहीं तमिष् भाषा ने वैदिक तमिष् के अपने आग्रह के कारण इस ओर ध्यान ही नहीं दिया । यद्यपि संस्कृत और तमिष् के मूल व्याकरण के सिद्धान्तों के अनुसार यह आवश्यक भी था किंतु लौकिक दृष्टि से यह तमिष् के लिए क्षतिकारी ही सिद्ध हुआ । यदि आज तमिष्-प्रेमियों को (जिनमें मैं भी हूँ), तमिष् के विलुप्ति की चिन्ता और भय सता रहा है, तो उन्हें इस ओर यथाशीघ्र ध्यान देना होगा । संस्कृत को बचाने या उसके मृत / विलुप्त होने का प्रश्न मुझे ज़रा भी चिन्तित नहीं करता क्योंकि संस्कृत अजर अमर देवभाषा है इस बारे में मुझे कदापि शंका नहीं । जैसे आज पालि, प्राकृत या पैशाची विलुप्त मृतप्राय हैं, क्योंकि वे समय की उत्पत्ति थीं, संस्कृत उस तरह समय की उत्पत्ति नहीं है ।

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 टिप्पणी :
यदि किसी को यह पोस्ट अच्छी लगी हो और वह इसका अंग्रेज़ी या किसी अन्य भाषा में भाषांतर करना चाहे तो स्वागत है । क्योंकि मैं नहीं कह सकता मैं कर पाऊँगा या नहीं ... !
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