Saturday, 27 August 2016

स्वयं से संवाद

स्वयं से संवाद
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स्वयं से संवाद कितना दुष्कर है,
स्वयं से संवाद कितना है सरल,
स्वयं यदि हो सके भी ’दो’ कभी,
कौन सा है सत्य, कहना है कठिन !
स्वयं तो निर्बाध सतत, है अविकल,
स्वयं की अवधारणा ही मूल विभ्रम,
जिस स्वयं में जन्म लेती और मिटती,
वह स्वयं है सर्वथा निष्कल निश्चल !
स्वयं है, और है स्वयं की कल्पना,
कल्पना बनती है, मिटती भी है,
कल्पना देखेगी कैसे उस स्वयं को?
जिसमें वह उमग विलस खोती भी है ।
’मैं’ तथा यह कल्पना जो 'मैं' की है,
प्रथम तो है अटल, है वह नित्य अविचल,
दूसरी बनती बिगड़ती स्मृति-जनित,
और स्मृति भी वह पुनः पहचाननिर्भर,
स्मृति भी है कल्पना ही, कल्पना पहचान जैसे,
परस्पर आश्रित हैं दोनों दो अनुमान जैसे ।
स्वयं नहीं अनुमान कोई, वह है तथ्य केवल,
जिसकी नहीं बनती स्मृति, निपट वह तो सत्य केवल ।
किंतु स्मृतियों से भरा यह चित्त ही,
कल्पना कर बना लेता है एक ’मैं’ को,
स्मृति-सातत्य से समझता है उसे ’मैं’।
स्मृति-विरहित चित्त के अवकाश के,
आकाश में, जिसको ’मैं’ जाना जाता है,
उसकी नहीं बनती कभी पहचान कोई,
बस यही पहचान उसकी है निरंतर,
और वही बाहर है वही तो है भीतर ।
स्वयं से संवाद तब उस मौन में भी,
कितना सरल है, या कि है इतना कठिन भी ?!
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