केवटग्राम
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एक अत्यन्त पवित्र कही जानेवाली नदी के किनारे बसा यह गाँव उतना ही प्राचीन है जितना कि उस नदी का ज्ञात इतिहास !
पुराणों की दृष्टि में तो वह नदी इस अर्थ में शाश्वत् और अविनाशी है कि तीनों कालों का उसमें ही उद्भव, विकास और पुनः लय होता है और महाकाल के गर्भ से निकली उस नदी को मेकलसुता भी कहा जाता है ।
पुराण उस नदी की महिमा का वर्णन उस स्वेद-बिन्दु की तरह करते हैं जो महाकाल नटराज के ताण्डव नृत्य के बाद उनके शरीर में उत्पन्न हुआ और तत्काल ही इस नदी के रूप में परिणत हो गया । पुराण यद्यपि कहते हैं कि उस बिन्दु ने पहले तो एक सुकुमार सुन्दर बालिका का रूप ग्रहण किया और भगवान् शिव से पूछा :
"तात! मेरा जन्म किस प्रयोजन से हुआ है?
तब शिव ने उससे कहा :
"मैं आध्यात्मिक अर्थों में तो सर्वव्यापी हूँ और सब-कुछ मेरा ही अंश है किंतु पौराणिक और भौतिक-ऐतिहासिक अर्थों में जगत् भी मैं ही हूँ और मैं ही पशुरूप जीव की तरह इस जगत् में संचरित हूँ । वैसे तो मैं एक और अनेक से विलक्षण हूँ किंतु उस रूप में मैं असंख्य हूँ । एक तथा अनेक विचार के उन्मेष के बाद प्रतीत होते हैं विचार का उन्मेष बुद्धि / वृत्ति के उन्मेष के बाद ही हो सकता है । एक और अनेक जीव और जगत् के लक्षण हैं और लिङ्ग मेरा लक्षण है । जैसे तुममें निरन्तर श्वास आती जाती है, वैसे ही जगत् मुझमें और मैं जगत् में नित्य संचाररत हूँ । जब तुम्हारी श्वास रुक जाती है तब तुम या तो मृत होते हो या मेरी तरह समाधि में होते हो । जब तुम समाधि में होते हो तो मुझसे अपनी स्वरूपगत अभिन्नता को जान लेते हो किंतु श्वास के पुनः चलते ही अपने आपको पशु मानकर जीवन को पशु-धर्म अर्थात् आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन तक सीमित समझ बैठते हो । समस्त भयों में मृत्यु-भय सर्वाधिक प्रबल होता है इसलिए इस भय से ग्रस्त रहने तक कभी शान्ति से नहीं रह पाते ।
ऐसे ही किसी कल्प में मृकण्डु नामक एक ऋषि हुए जिनका अन्य नाम कुछ और था किन्तु उन्हें मृकण्डु यह नाम अपने लिए बहुत उपयुक्त प्रतीत हुआ क्योंकि 'मृ' धातु मृत्यु तथा 'कण्डु' धातु खुजली के अर्थ में ग्रहण की जाती है । उनके ही एक पुत्र थे जिन्हें इस कारण 'मार्कण्डेय' कहा गया ।
ऋषि जानते थे कि मृत्यु-भय ही जीव के चित्त में अपने अमर होने की लालसा उत्पन्न करता है और वह इसलिए पुत्र के रूप में अपने आपको जन्म देकर इस लालसा की पूर्ति कर इस भय से मुक्ति की सांत्वना और अपने अमर होने की संभावना को पाने यत्न करता है ।
प्राणीमात्र वैसे मृकण्डु ही होता है और ऋषि मृकुण्डु की संतान मार्कण्डेय भी इसका अपवाद नहीं थे । उनके और प्राणीमात्र के इस भय के निवारण के लिए मैंने ताण्डव-नृत्य किया जिससे मुझे स्वेद हुआ और वही स्वेदबिंदु तुम हो । इसलिए अब मृत्युलोक में जाओ और प्राणीमात्र के इस भय का निवारण करो !"
अपने जनक से अपने उद्भव का प्रयोजन जानकर उस बालिका ने नदी रूप ग्रहण किया और वह अमरकण्टक नामक स्थान पर धरा पर जल की धारा की तरह अवतरित हुई ।
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क्रमशः केवटग्राम और ऋषि मार्कण्डेय -2
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एक अत्यन्त पवित्र कही जानेवाली नदी के किनारे बसा यह गाँव उतना ही प्राचीन है जितना कि उस नदी का ज्ञात इतिहास !
पुराणों की दृष्टि में तो वह नदी इस अर्थ में शाश्वत् और अविनाशी है कि तीनों कालों का उसमें ही उद्भव, विकास और पुनः लय होता है और महाकाल के गर्भ से निकली उस नदी को मेकलसुता भी कहा जाता है ।
पुराण उस नदी की महिमा का वर्णन उस स्वेद-बिन्दु की तरह करते हैं जो महाकाल नटराज के ताण्डव नृत्य के बाद उनके शरीर में उत्पन्न हुआ और तत्काल ही इस नदी के रूप में परिणत हो गया । पुराण यद्यपि कहते हैं कि उस बिन्दु ने पहले तो एक सुकुमार सुन्दर बालिका का रूप ग्रहण किया और भगवान् शिव से पूछा :
"तात! मेरा जन्म किस प्रयोजन से हुआ है?
तब शिव ने उससे कहा :
"मैं आध्यात्मिक अर्थों में तो सर्वव्यापी हूँ और सब-कुछ मेरा ही अंश है किंतु पौराणिक और भौतिक-ऐतिहासिक अर्थों में जगत् भी मैं ही हूँ और मैं ही पशुरूप जीव की तरह इस जगत् में संचरित हूँ । वैसे तो मैं एक और अनेक से विलक्षण हूँ किंतु उस रूप में मैं असंख्य हूँ । एक तथा अनेक विचार के उन्मेष के बाद प्रतीत होते हैं विचार का उन्मेष बुद्धि / वृत्ति के उन्मेष के बाद ही हो सकता है । एक और अनेक जीव और जगत् के लक्षण हैं और लिङ्ग मेरा लक्षण है । जैसे तुममें निरन्तर श्वास आती जाती है, वैसे ही जगत् मुझमें और मैं जगत् में नित्य संचाररत हूँ । जब तुम्हारी श्वास रुक जाती है तब तुम या तो मृत होते हो या मेरी तरह समाधि में होते हो । जब तुम समाधि में होते हो तो मुझसे अपनी स्वरूपगत अभिन्नता को जान लेते हो किंतु श्वास के पुनः चलते ही अपने आपको पशु मानकर जीवन को पशु-धर्म अर्थात् आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन तक सीमित समझ बैठते हो । समस्त भयों में मृत्यु-भय सर्वाधिक प्रबल होता है इसलिए इस भय से ग्रस्त रहने तक कभी शान्ति से नहीं रह पाते ।
ऐसे ही किसी कल्प में मृकण्डु नामक एक ऋषि हुए जिनका अन्य नाम कुछ और था किन्तु उन्हें मृकण्डु यह नाम अपने लिए बहुत उपयुक्त प्रतीत हुआ क्योंकि 'मृ' धातु मृत्यु तथा 'कण्डु' धातु खुजली के अर्थ में ग्रहण की जाती है । उनके ही एक पुत्र थे जिन्हें इस कारण 'मार्कण्डेय' कहा गया ।
ऋषि जानते थे कि मृत्यु-भय ही जीव के चित्त में अपने अमर होने की लालसा उत्पन्न करता है और वह इसलिए पुत्र के रूप में अपने आपको जन्म देकर इस लालसा की पूर्ति कर इस भय से मुक्ति की सांत्वना और अपने अमर होने की संभावना को पाने यत्न करता है ।
प्राणीमात्र वैसे मृकण्डु ही होता है और ऋषि मृकुण्डु की संतान मार्कण्डेय भी इसका अपवाद नहीं थे । उनके और प्राणीमात्र के इस भय के निवारण के लिए मैंने ताण्डव-नृत्य किया जिससे मुझे स्वेद हुआ और वही स्वेदबिंदु तुम हो । इसलिए अब मृत्युलोक में जाओ और प्राणीमात्र के इस भय का निवारण करो !"
अपने जनक से अपने उद्भव का प्रयोजन जानकर उस बालिका ने नदी रूप ग्रहण किया और वह अमरकण्टक नामक स्थान पर धरा पर जल की धारा की तरह अवतरित हुई ।
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क्रमशः केवटग्राम और ऋषि मार्कण्डेय -2
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