Tuesday, 23 August 2016

जीवन और समय का यथार्थ स्वरूप

जीवन और समय का यथार्थ स्वरूप
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प्रश्न : क्या जीवन समय की विमा से मुक्त है?
... थोड़ा सा ध्यानपूर्वक देखें तो इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर प्राप्त हो जाता है ।
यह प्रश्न कि जिसे हम जीवन कहते हैं, उसका ’समय’ से क्या संबंध है?
जिस तरह हम जीवन को जानते हैं और उसके बारे में हमें जिज्ञासा होती है क्या समय को भी हम उसी तरह से जानते और उसे समझने की चेष्टा करते हैं?
स्पष्ट है कि जीवन को हम जिस प्रकार अनायास जानते हैं किन्तु उसे परिभाषित नहीं कर पाते, वैसा ही समय के संबंध क्यों नहीं करते? क्या हम समय को एक केवल विचार के ही रूप में नहीं जानते? क्या समय, - चाहे भौतिक हो या मानसिक, घटनाओं से ही नहीं जाना जाता? क्या जीवन घटना(ओं) पर आश्रित / अवलंबित है? इसलिए हम समय को वस्तुतः प्रत्यक्ष उस तरह से नहीं जानते / जान सकते जिस तरह से हम और प्रत्येक जीवित कहा जानेवाला प्राणी ’जीवन’ को अनायास और प्रत्यक्ष ही जानता है, यद्यपि ’जीवन’ के यथार्थ स्वरूप का वर्णन कर पाना शायद ही किसी के लिए संभव हो । दूसरी ओर ’समय’ स्वयं जीवन की गतिविधि के असंख्य रूपों में से केवल एक नितान्त वैयक्तिक विचार है । यदि जीवन है तो ही समय हो सकता है, किन्तु समय हो न हो जीवन तो अकाट्य प्रत्यक्ष समक्ष है । जैसे हम ईश्वर, अतीत, भविष्य, किसी वस्तु या व्यक्ति, घटना को उसके विचार से भिन्न एक स्वतन्त्र सत्ता मान बैठते हैं, क्या जीवन के संबंध में ऐसा किया जा सकता है?
जीवन समय (की विमाओं) से नितान्त स्वतन्त्र है और इसी तरह सदा / सर्वत्र से भी मुक्त । किन्तु विचार इस प्रत्यक्ष बोध को हमारी आँखों से छिपा देता है । चित्त जब विचार के स्वरूप / सीमाओं को ध्यान से देख लेता है तो हमें जीवन और समय का  पारस्परिक संबंध क्या है यह स्पष्ट हो जाता है ।
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