वेताल-कथा / एकस्मिन् कल्पे
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विक्रमार्क ने हठ नहीं छोड़ा ।
वह श्मशान से कुछ आगे गया जहाँ अत्यन्त पुराने वटवृक्ष की जटाओं के बीच फ़ँसे उस शव (नर-कंकाल) को श्रमपूर्वक उस बरगद की जटाओं से निकालकर उसे कंधे पर रखा और गुरु के आश्रम में ले चला । तब कंकाल में स्थित वेताल ने अपनी उसी चिरपरिचित शैली में कहा :
राजन् ! तुम गुरु की आज्ञा से इस श्रम में निष्ठापूर्वक संलग्न हो क्योंकि तुम्हारे लिए गुरु-निष्ठा और गुरु-आज्ञा का पालन ही एकमात्र आचार और निष्ठा है । तुम्हारे श्रम के निवारण के लिए मैं तुमसे यह कथा कहता हूँ ध्यानपूर्वक सुनो !
ऐसे ही किसी कल्प में राजा शाकल्य के राज्य का विस्तार शर्बरीक नामक राज्य की सीमा तक था किंतु उससे कुछ ही कोस दूर हारीत नामक राज्य की सीमा लगी हुई थी । राजा शाकल्य का राज्य खंडित था क्योंकि उसने पिता की अनुमति न होते हुए भी, अपने भाई से युद्ध कर उसे जीता था ।
एक समय राजा शाकल्य आखेट के लिए वन में गया और अपने राज्य की सीमा न जानने के कारण भूल से शर्बरीक राज्य में प्रविष्ट हो गया । उसके अंगरक्षक तथा सैनिक बहुत दूर पीछे कहीं छूट गए थे । वहाँ के निवासी वेद-धर्म से अनभिज्ञ थे और आजीविका के लिए आखेट या कृषि आदि कार्य कर जीवन-यापन करते थे । वहाँ स्थित एक गाँव में पहुँचते हुए उसे शाम हो गई । अपने घोड़े पर जाते हुए थोड़ी दूर उसे एक घर में दीपक या अग्नि के जलने से उत्पन्न प्रकाश दिखलाई पड़ा और वह उसी दिशा में चल पड़ा । वह घर किसी स्त्री का था, और द्वार पर आए अतिथि का उसने सम्मानपूर्वक स्वागत किया । राजा बहुता थका हुआ भी था । उस स्त्री ने आदरपूर्वक राजा के स्नान, विश्राम आदि का प्रबंध किया । स्वस्थचित्त होने के पश्चात् रात्रि में भोजन के समय राजा को मद्यपान की इच्छा हुई तो उसने इसका भी प्रबंध किया । तब राजा को काम-आवेग हुआ । उस स्त्री ने निःसंकोच राजा के आवेग को शान्त किया और फिर राजा सो गया । सुबह उठकर शौच-स्नान आदि से निवृत्त होकर राजा जब वहाँ से प्रस्थान करने लगा तो उसने उस स्त्री को पाँच स्वर्ण-मुद्राएँ दीं और आगे चला गया ।
उसे उसके सैनिक भी दिखलाई दे गए थे और वह पुनः उनके साथ अपने राज्य में लौट गया ।
अनेक वर्षों बाद इसी प्रकार आखेट के लिए वन में घूमते हुए वह भूलवश हारीत राज्य की सीमा में प्रविष्ट हो गया । शाम हो रही थी उसे थोड़ी दूर एक स्थान पर दीपक या अग्नि के जलने से उत्पन्न प्रकाश दिखलाई पड़ा और वह उसी दिशा में चल पड़ा । वह किसी मुनि का आश्रम था जहाँ उसे भोजन के लिए फल आदि प्राप्त हुए और रात्रि में ठहरने के लिए उत्तम स्थान शैया आदि भी मिल गई । सुबह जब वह नित्य-कर्म से निवृत्त हुआ और प्रस्थान के लिए मुनि की आज्ञा लेने उनके समीप गया तो उन्हें भेंट करने के लिए उसके पास केवल पाँच ही स्वर्ण-मुद्राएँ थीं और उसे वह पुराना प्रसंग याद हो आया ।
मुनि ने स्वर्ण-मुद्राएँ लेना स्वीकार नहीं किया क्योंकि वे स्वर्ण या धन आदि वस्तुएं नहीं रखते थे । और राजा को आशीर्वाद देकर उन्होंने विदा किया ।
जब राजा पुनः अपने राज्य में, अपने महल में पहुँचा और रात्रि में उसने अपनी पतिव्रता रानी से इन दोनों प्रसंगों का वर्णन किया तो उसने अनायास उससे पूछा :
क्या वह स्त्री पतिव्रता नहीं थी?
रानी ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया :
"वह उतनी ही पतिव्रता थी जितनी कि मैं ! वह उतनी ही तत्वदर्शी भी थी जैसे वे मुनि ।"
राजा चौंक गया । तब कंकाल में स्थित वेताल बोला :
"हे राजन् ! मैं ही वह राजा शाकल्य था और मेरी रानी ने मुझसे क्या कहा यह तो मुझे अब स्मरण नहीं किंतु मुझे रानी के विचार की सत्यता बारे में संशय था । यदि तुम इस विषय में सत्य को जानते हुए भी मेरे इस संशय का निवारण नहीं करोगे तो तुम्हारे सिर के सहस्र टुकड़े हो जाएँगे !"
तब विक्रमार्क ने उसे उत्तर दिया :
"हे राजा ! तुम्हें जिस स्त्री ने उस रात्रि में आश्रय दिया था वह गणिका थी और अपने धर्म का सम्यक् पालन करते हुए उसने अतिथि तरह पति मानकर निष्ठापूर्वक तुम्हारा सत्कार किया । सुनो राजन् ! वह स्त्री वैसी ही पतिव्रता और पवित्र थी जैसी कि तुम्हारी रानी थी । अन्तर केवल यह है कि तुम्हारी रानी की आचार-निष्ठा उसके पातिव्रत्य के विचार से प्रेरित थी और वह पूर्ण रूप से केवल तुम्हें ही पति मानती थी । जबकि उस स्त्री की आचार-निष्ठा के अनुसार अतिथिमात्र ही उस समय-विशेष पर उसका पति होता था और पति-भाव से उसकी सेवा करना उसका पातिव्रत्य धर्म और आचार था, जिससे उसे इस विषय में विचार करने की आवश्यकता ही नहीं थी ।
इसी प्रकार मुनि ने भी यथासंभव सम्यक् रीति से अतिथि-सत्कार का कर्तव्य पूरा किया । उन्होंने अपरिग्रह के अपने व्रत का निष्ठा से पालन किया इस प्रकार ये तीनों ही सुख या भोग-बुद्धि से रहित रहते हुए अपने धर्म का आचरण करनेवाले पूर्ण तत्वदर्शी थे ।"
राजा का मौन भंग होते ही शव में स्थित वेताल शव को छोड़कर उड़ चला !
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चलते-चलते, :
टिप्पणी > वीत > वैत > वैताल / वेताल, वैताग > वैतागवाड़ी ..
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विक्रमार्क ने हठ नहीं छोड़ा ।
वह श्मशान से कुछ आगे गया जहाँ अत्यन्त पुराने वटवृक्ष की जटाओं के बीच फ़ँसे उस शव (नर-कंकाल) को श्रमपूर्वक उस बरगद की जटाओं से निकालकर उसे कंधे पर रखा और गुरु के आश्रम में ले चला । तब कंकाल में स्थित वेताल ने अपनी उसी चिरपरिचित शैली में कहा :
राजन् ! तुम गुरु की आज्ञा से इस श्रम में निष्ठापूर्वक संलग्न हो क्योंकि तुम्हारे लिए गुरु-निष्ठा और गुरु-आज्ञा का पालन ही एकमात्र आचार और निष्ठा है । तुम्हारे श्रम के निवारण के लिए मैं तुमसे यह कथा कहता हूँ ध्यानपूर्वक सुनो !
ऐसे ही किसी कल्प में राजा शाकल्य के राज्य का विस्तार शर्बरीक नामक राज्य की सीमा तक था किंतु उससे कुछ ही कोस दूर हारीत नामक राज्य की सीमा लगी हुई थी । राजा शाकल्य का राज्य खंडित था क्योंकि उसने पिता की अनुमति न होते हुए भी, अपने भाई से युद्ध कर उसे जीता था ।
एक समय राजा शाकल्य आखेट के लिए वन में गया और अपने राज्य की सीमा न जानने के कारण भूल से शर्बरीक राज्य में प्रविष्ट हो गया । उसके अंगरक्षक तथा सैनिक बहुत दूर पीछे कहीं छूट गए थे । वहाँ के निवासी वेद-धर्म से अनभिज्ञ थे और आजीविका के लिए आखेट या कृषि आदि कार्य कर जीवन-यापन करते थे । वहाँ स्थित एक गाँव में पहुँचते हुए उसे शाम हो गई । अपने घोड़े पर जाते हुए थोड़ी दूर उसे एक घर में दीपक या अग्नि के जलने से उत्पन्न प्रकाश दिखलाई पड़ा और वह उसी दिशा में चल पड़ा । वह घर किसी स्त्री का था, और द्वार पर आए अतिथि का उसने सम्मानपूर्वक स्वागत किया । राजा बहुता थका हुआ भी था । उस स्त्री ने आदरपूर्वक राजा के स्नान, विश्राम आदि का प्रबंध किया । स्वस्थचित्त होने के पश्चात् रात्रि में भोजन के समय राजा को मद्यपान की इच्छा हुई तो उसने इसका भी प्रबंध किया । तब राजा को काम-आवेग हुआ । उस स्त्री ने निःसंकोच राजा के आवेग को शान्त किया और फिर राजा सो गया । सुबह उठकर शौच-स्नान आदि से निवृत्त होकर राजा जब वहाँ से प्रस्थान करने लगा तो उसने उस स्त्री को पाँच स्वर्ण-मुद्राएँ दीं और आगे चला गया ।
उसे उसके सैनिक भी दिखलाई दे गए थे और वह पुनः उनके साथ अपने राज्य में लौट गया ।
अनेक वर्षों बाद इसी प्रकार आखेट के लिए वन में घूमते हुए वह भूलवश हारीत राज्य की सीमा में प्रविष्ट हो गया । शाम हो रही थी उसे थोड़ी दूर एक स्थान पर दीपक या अग्नि के जलने से उत्पन्न प्रकाश दिखलाई पड़ा और वह उसी दिशा में चल पड़ा । वह किसी मुनि का आश्रम था जहाँ उसे भोजन के लिए फल आदि प्राप्त हुए और रात्रि में ठहरने के लिए उत्तम स्थान शैया आदि भी मिल गई । सुबह जब वह नित्य-कर्म से निवृत्त हुआ और प्रस्थान के लिए मुनि की आज्ञा लेने उनके समीप गया तो उन्हें भेंट करने के लिए उसके पास केवल पाँच ही स्वर्ण-मुद्राएँ थीं और उसे वह पुराना प्रसंग याद हो आया ।
मुनि ने स्वर्ण-मुद्राएँ लेना स्वीकार नहीं किया क्योंकि वे स्वर्ण या धन आदि वस्तुएं नहीं रखते थे । और राजा को आशीर्वाद देकर उन्होंने विदा किया ।
जब राजा पुनः अपने राज्य में, अपने महल में पहुँचा और रात्रि में उसने अपनी पतिव्रता रानी से इन दोनों प्रसंगों का वर्णन किया तो उसने अनायास उससे पूछा :
क्या वह स्त्री पतिव्रता नहीं थी?
रानी ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया :
"वह उतनी ही पतिव्रता थी जितनी कि मैं ! वह उतनी ही तत्वदर्शी भी थी जैसे वे मुनि ।"
राजा चौंक गया । तब कंकाल में स्थित वेताल बोला :
"हे राजन् ! मैं ही वह राजा शाकल्य था और मेरी रानी ने मुझसे क्या कहा यह तो मुझे अब स्मरण नहीं किंतु मुझे रानी के विचार की सत्यता बारे में संशय था । यदि तुम इस विषय में सत्य को जानते हुए भी मेरे इस संशय का निवारण नहीं करोगे तो तुम्हारे सिर के सहस्र टुकड़े हो जाएँगे !"
तब विक्रमार्क ने उसे उत्तर दिया :
"हे राजा ! तुम्हें जिस स्त्री ने उस रात्रि में आश्रय दिया था वह गणिका थी और अपने धर्म का सम्यक् पालन करते हुए उसने अतिथि तरह पति मानकर निष्ठापूर्वक तुम्हारा सत्कार किया । सुनो राजन् ! वह स्त्री वैसी ही पतिव्रता और पवित्र थी जैसी कि तुम्हारी रानी थी । अन्तर केवल यह है कि तुम्हारी रानी की आचार-निष्ठा उसके पातिव्रत्य के विचार से प्रेरित थी और वह पूर्ण रूप से केवल तुम्हें ही पति मानती थी । जबकि उस स्त्री की आचार-निष्ठा के अनुसार अतिथिमात्र ही उस समय-विशेष पर उसका पति होता था और पति-भाव से उसकी सेवा करना उसका पातिव्रत्य धर्म और आचार था, जिससे उसे इस विषय में विचार करने की आवश्यकता ही नहीं थी ।
इसी प्रकार मुनि ने भी यथासंभव सम्यक् रीति से अतिथि-सत्कार का कर्तव्य पूरा किया । उन्होंने अपरिग्रह के अपने व्रत का निष्ठा से पालन किया इस प्रकार ये तीनों ही सुख या भोग-बुद्धि से रहित रहते हुए अपने धर्म का आचरण करनेवाले पूर्ण तत्वदर्शी थे ।"
राजा का मौन भंग होते ही शव में स्थित वेताल शव को छोड़कर उड़ चला !
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