सौन्दर्य और आवरण
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क्या आवरण सौन्दर्य से रहित होता है?
क्या सौन्दर्य को आवरण में छिपाया जा सकता है?
यदि सौन्दर्य ही आवरण हो तो? क्या आवरण का अपना सौन्दर्य नहीं हो सकता?
क्या आवरण सौन्दर्य से रहित होता है?
क्या सौन्दर्य को आवरण में छिपाया जा सकता है?
यदि सौन्दर्य ही आवरण हो तो?
क्या सौन्दर्य दृश्य रूप-रंग आकृति तक ही हो सकता है?
क्या सौन्दर्य ध्वनि, सुगंध, स्पर्श या स्वाद का रूप नहीं ले सकता ?
क्या सौन्दर्य को ’जानने’, उसके संवेदन के लिए हृदय का संवेदनशील होना ही पर्याप्त नहीं है?
क्या तब जब सौन्दर्य का संवेदन उसकी समग्रता में होता है तो संवेदनकर्ता उस से अलग होता है?
यदि वह अलग है तो सौन्दर्यहीन (कुरूप?) होगा ।
इसलिए सौन्दर्य का आवरण से कोई लेना-देना नहीं हो सकता ।
और संवेदनशील हृदय के सौन्दर्य के बारे में क्या कहेंगे?
सौन्दर्य वह है जो हमें प्रसन्न करता है ।
चूँकि हमें अपने आपसे प्रेम है इसलिए हम अपने आप को प्रसन्न रखना चाहते हैं । इसलिए जो वस्तु हमें प्रसन्न करती ’प्रतीत’ होती है, उसे हम सुन्दर समझने / कहने लगते हैं । और तब सुन्दर / असुन्दर का विचार / भावना हममे उत्पन्न होती है ।
जो वस्तु हमें हमारी प्रसन्नता के प्रतिकूल या उसमें बाधक प्रतीत होती है, उसे असुन्दर / कुरूप ! किंतु इस सतही विभाजन से हमें क्षणिक उत्तेजना या उल्लास मिल भी जाए तो भी हम वास्तविक सौन्दर्य से दूर ही रहते हैं ।
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क्या आवरण सौन्दर्य से रहित होता है?
क्या सौन्दर्य को आवरण में छिपाया जा सकता है?
यदि सौन्दर्य ही आवरण हो तो? क्या आवरण का अपना सौन्दर्य नहीं हो सकता?
क्या आवरण सौन्दर्य से रहित होता है?
क्या सौन्दर्य को आवरण में छिपाया जा सकता है?
यदि सौन्दर्य ही आवरण हो तो?
क्या सौन्दर्य दृश्य रूप-रंग आकृति तक ही हो सकता है?
क्या सौन्दर्य ध्वनि, सुगंध, स्पर्श या स्वाद का रूप नहीं ले सकता ?
क्या सौन्दर्य को ’जानने’, उसके संवेदन के लिए हृदय का संवेदनशील होना ही पर्याप्त नहीं है?
क्या तब जब सौन्दर्य का संवेदन उसकी समग्रता में होता है तो संवेदनकर्ता उस से अलग होता है?
यदि वह अलग है तो सौन्दर्यहीन (कुरूप?) होगा ।
इसलिए सौन्दर्य का आवरण से कोई लेना-देना नहीं हो सकता ।
और संवेदनशील हृदय के सौन्दर्य के बारे में क्या कहेंगे?
सौन्दर्य वह है जो हमें प्रसन्न करता है ।
चूँकि हमें अपने आपसे प्रेम है इसलिए हम अपने आप को प्रसन्न रखना चाहते हैं । इसलिए जो वस्तु हमें प्रसन्न करती ’प्रतीत’ होती है, उसे हम सुन्दर समझने / कहने लगते हैं । और तब सुन्दर / असुन्दर का विचार / भावना हममे उत्पन्न होती है ।
जो वस्तु हमें हमारी प्रसन्नता के प्रतिकूल या उसमें बाधक प्रतीत होती है, उसे असुन्दर / कुरूप ! किंतु इस सतही विभाजन से हमें क्षणिक उत्तेजना या उल्लास मिल भी जाए तो भी हम वास्तविक सौन्दर्य से दूर ही रहते हैं ।
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