Wednesday, 31 August 2016

सौन्दर्य और आवरण

सौन्दर्य और आवरण
--
क्या आवरण सौन्दर्य से रहित होता है?
क्या सौन्दर्य को आवरण में छिपाया जा सकता है?
यदि सौन्दर्य ही आवरण हो तो? क्या आवरण का अपना सौन्दर्य नहीं हो सकता?
क्या आवरण सौन्दर्य से रहित होता है?
क्या सौन्दर्य को आवरण में छिपाया जा सकता है?
यदि सौन्दर्य ही आवरण हो तो?
क्या सौन्दर्य दृश्य रूप-रंग आकृति तक ही हो सकता है?
क्या सौन्दर्य ध्वनि, सुगंध, स्पर्श या स्वाद का रूप नहीं ले सकता ?
क्या सौन्दर्य को ’जानने’, उसके संवेदन के लिए हृदय का संवेदनशील होना ही पर्याप्त नहीं है?
क्या तब जब सौन्दर्य का संवेदन उसकी समग्रता में होता है तो संवेदनकर्ता उस से अलग होता है?
यदि वह अलग है तो सौन्दर्यहीन (कुरूप?) होगा ।
इसलिए सौन्दर्य का आवरण से कोई लेना-देना नहीं हो सकता ।
और संवेदनशील हृदय के सौन्दर्य के बारे में क्या कहेंगे?
सौन्दर्य वह है जो हमें प्रसन्न करता है ।
चूँकि हमें अपने आपसे प्रेम है इसलिए हम अपने आप को प्रसन्न रखना चाहते हैं । इसलिए जो वस्तु हमें प्रसन्न करती ’प्रतीत’ होती है, उसे हम सुन्दर समझने / कहने लगते हैं । और तब सुन्दर / असुन्दर का विचार / भावना हममे उत्पन्न होती है ।
जो वस्तु हमें हमारी प्रसन्नता के प्रतिकूल या उसमें बाधक प्रतीत होती है, उसे असुन्दर / कुरूप ! किंतु इस सतही विभाजन से हमें क्षणिक उत्तेजना या उल्लास मिल भी जाए तो भी हम वास्तविक सौन्दर्य से दूर ही रहते हैं ।
--

क्या ’जीवन’ एक अंतहीन बहस है?.

क्या ’जीवन’ एक अंतहीन बहस है?
_________________________

मनुष्य का व्यक्तिगत जीवन अवश्य ही अंतहीन बहस हो सकता है किंतु बहस के लिए कोई राय / मत होना पूर्व-शर्त है । यह राय / मत विचार के ही रूप में हो सकता है और स्मृति / पहचान पर आधारित शब्द-समूह भर होता है । विचार का आगमन बुद्धि के सक्रिय होने के बाद ही होता है और बुद्धि सदा द्वन्द्व और दुविधा में होती है । वास्तविक जीवन न तो बुद्धि है, न विचार, न स्मृति है, न पहचान । ये सभी वास्तविकता पर बुद्धि, स्मृति, विचार, और पहचान का आवरण होते हैं । इसलिए वास्तविक जीवन का किसी बहस से कोई संबंध नहीं हो सकता । वस्तुओं का प्रयोजन / उपयोग होता है । विचार का विचार के दायरे तक सीमित एक (या अनेक) अर्थ होता है, जो पुनः विचार तक सीमित होता है । वस्तु का अर्थ नहीं होता और विचार किसी प्रयोजन / लक्ष्य तक नहीं पहुँचा सकता । अतः विचार के स्तर पर जिया जानेवाला ’जीवन’ अवश्य ही अंतहीन बहस हो सकता है ...
विचार, बुद्धि या स्मृति को भूलवश ज्ञान कहा / समझा जाता है, जबकि ज्ञान वह है जिसकी प्रेरणा से विचार, बुद्धि या स्मृति सक्रिय हो उठते हैं । उपनिषद् कहता है : मन जिसका विचार करता / कर सकता है वह नहीं, बल्कि ज्ञान / ब्रह्म वह है जिसकी प्रेरणा से मन विचार, बुद्धि या स्मृति को प्रयोग करता है ।      
--
विचार और जीवन अलग है । पर विचार के बिना जीवन सम्भव है क्या?
क्या जीवन का अस्तित्व विचार पर निर्भर होता है?
इससे विपरीत, क्या जीवन के होने से ही विचार अस्तित्व में नहीं आता / आते?
इसलिए विचार के अभाव में जीवन है, जबकि जीवन के अभाव में विचार नहीं हो सकता । हम / आप जीवित हैं तो ही विचार कर (या नहीं कर) सकते । किंतु जीवित ही न हों तो विचार के सक्रिय होने का प्रश्न ही कहाँ होता है?
मस्तिष्क के अपेक्षा क्या हृदय ही जीवन और प्राणों के स्पन्दन का आधार नहीं होता? क्या भावनाएँ बुद्धि / विचार / स्मृति की तुलना में अधिक शक्तिशाली जीवंत नहीं होतीं?
क्या हृदय ’बहस’ करता है? वह बस आन्दोलित, क्षुब्ध, व्याकुल, उद्वेलित, हर्ष-विषाद से प्रभावित होकर सच्चे अर्थों में जीवित होता है / जीता है ।
--
क्या ’जीवन’ एक अंतहीन बहस है?-2.
_________________________
मूल्यं / मूल्यः > मूलं / मूलः यत् / यः > शब्द (ध्वनि), गुण, पुरुष > चेतना, चित् (जो कि सत् का लक्षण / लिङ्ग और स्वरूपतः सत् से अभिन्न है ।)अर्थ > गौण, विषय, विचार, चित्त,
--
ध्यायतो विषयान्...
--
अध्याय 2, श्लोक 62,

ध्यायतो विषयान्पुन्सः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।
--
(ध्यायतः विषयान् पुन्सः सङ्गः तेषु उपजायते ।
सङ्गात् सञ्जायते कामः कामात् क्रोधः अभिजायते ॥
--
भावार्थ :
जब मनुष्य (का मन) विषयों का चिन्तन करता है तो उसके मन में उन विषयों से आसक्ति (राग-द्वेष की बुद्धि) पैदा होती है, उस आसक्ति के फलस्वरूप उन विषयों से संबंधित विशिष्ट कामनाएँ उत्पन्न होने लगती हैं । और कामनाओं से क्रोध का उद्भव होता है ।
--
दैवी ह्येषा...
--
(अध्याय 7 श्लोक 14

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥
--
(दैवी हि-एषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।
माम् एव ये प्रपद्यन्ते मायाम् एताम् तरन्ति ते ॥)
--
भावार्थ :
तीन गुणों से युक्त इस माया को पार करना निस्सन्देह अत्यन्त ही कठिन है, किन्तु जो केवल मुझको ही भजते हैं वे अवश्य ही इससके परे चले जाते हैं । )
--
धन मूल, जबकि विचार प्रयोजन और अर्थ है ।
इसलिए वस्तु के रूप में धन / संपत्ति का मूल्य और उपयोग है, किंतु धन जब विचार का रूप ले लेता है, तो वह काम / कामना, क्रोध,...   से अंततः बुद्धिनाश तथा विनाश में ही फलित होता है । जो मनुष्य धन का विषय की तरह से ध्यान करते हैं वे विनाश को प्राप्त होते हैं । अतः विचार / विषय मूल अविकारी वस्तु नहीं, बल्कि विकारशील, नाशवान कल्पना मात्र है जिसका तात्कालिक शुभ / अशुभ प्रयोजन, उपयोग, उपभोग, या महत्व भी हो सकता है किंतु उससे किसी स्थिर और नित्य फल, स्थायी शान्ति, सुख अथवा संतोष की आशा नहीं की जा सकती । किंतु हृदय की भावनाओं और संवेदनाओं की अभिव्यक्ति, दूसरों तक उनके संप्रेषण में विचार का सीमित उपयोग, महत्व है इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता । भाषा, कला, साहित्य, विज्ञान (साइंस), परंपरा (रेलिजन), तकनीक (टेक्नीक) विचार के रूप में अवश्य ही इस ध्येय में सहायक होते हैं किंतु जब वे विचार या विचार-विशेष के आग्रह से ग्रस्त हो जाते हैं और जब विचार मनुष्य पर हावी हो जाता है, तो वह राजनीति बन जाता है ।राजनीति, परंपरा, रिलीजन, कला, साहित्य, विज्ञान / साइंस, विचार की ही उपज हैं, किंतु विचार मूलतः उनसे स्वतंत्र है । विचार क्षणिक और अनित्य, जबकि जीवन शाश्वत् है । क्षणिक या शाश्वत् की कल्पना भी विचार मात्र है जो अवधारणा बनकर स्वतंत्र विचार को जक्ड़ लेता प्रतीत होता है । विचार की इस कारा से मुक्त न हो पाने से राजनीति का उदय होता है और तब कोरा बौद्धिक जीवन एक अंतहीन उबाऊ बहस बन जाता है ।
--  

Monday, 29 August 2016

द्राविडा वा संस्कृता

द्राविडा वा संस्कृता
--
कस्मै देवाय हविषा विधेम...
ऋषये वा अनुलग्नाय ।
ऋषय: ऋषयन्ति ऋतम्
लग्नकाः तु भाषायै ॥
भाषाः बहुलाः सन्ति
ऋतमेकमद्वयं ।
भाषाः सर्वानुमानाश्च
ऋतममपरोक्षानुभवम् ॥
अपि ताः भाषाः सर्वाः
कालेजाताः प्रलीयन्ति ।
यद्वाचि ताः प्रवर्तन्ति
कालो हि तस्यामेव ॥
का भाषा स्यात् प्राचीना
तमिलो वा संस्कृता ।
इति विवादो निरर्थो स्यात्
इमे वाचि प्रतिष्ठिते ॥
तर्कदृष्ट्या तु पश्येन
तमिष्-संस्कृताद्वयोः ।
कालः यदि प्रमाणभूतो
तमिष् संस्कृताजाता ॥
द्रविडो वा तमिलोऽपि
व्युत्पन्ने संस्कृतायाः द्वे ।
तमसः तिमिराद्भूतो
तिमिरो काल एव तत् ।
द्रविडापि निःसृता तथा
यथा गङ्गा हिमालयात् ।
द्रवीभूता लोकभाषा
यथा हि संस्कृता अपि ॥
अथ द्वे रूपे भाषायोः
द्राविडा वा संस्कृता ।
वाचि ते परारूपा
व्यक्ते द्वेभाषे लोके ॥
का ज्येष्ठा कनिष्ठा का
इति विवादो त्यक्तव्यः ।
न स्पर्धा भवति ताभ्याम्
वेददृष्ट्या न वर्तते ॥
विवादो जयते  वादैः
वादाः शब्दस्मृत्येव ।
तथा हि  भाषासर्वा
या लोके प्रवर्तिताः ॥
--
Logic or Reason ?
--
Logic follows from preoccupied notion.
From some prognosis.
Which is but elusive by nature.
Reasoning follows from understanding,
What is before the eye.
Reasoning follows from seeing as it is,
-The impermanence of appearances
And searching for their unchanging / essential foundation.
Reasoning leads us to Truth,
Logic keeps us wandering in the dark.
Though Truth is perhaps indescribable,
Logic is hardly of avail.
Though Truth is perhaps indescribable,
Could be sure seen and grasped,
Through the eye of wisdom,
Through Reasoning,
Through discrimination,
Though logic could help as a tool.
--
Note :
You may see some grammatical errors.
The reader is advised to check and correct accordingly.
--

    

वाल्मीकि रामायण-प्रसङ्ग / From vālmīki rāmāyaṇa,


Got this Message from a face-book friend
श्री अनूपकुमार जी,
However, finding out the related references from the text referred to by Sri Vimal Mishra and checking out the correctness of them, will no doubt take a long time, (and because I want to present them in my blog), here I'm posting only the message as it was received by me.
Due Regards and Lots of Thanks to both.
--
                    शब्दों की गणना करना द्रविड़ प्राणायाम की तरह कष्टसाध्य, तथापि निरर्थक है। यह शैली विज्ञान की एक प्रविधि है। इससे मूल और छाया लेखन का अंतर ज्ञात किया जाता है। यदि तुलनात्मक सामग्री नहीं है, तो यह अप्रयोज्य है।
               उपर्युक्त उद्धृत तथ्यों में से अधिकांश श्रीरामचरितमानस में नहीं हैं और त्रुटिपूर्ण भी। कुछ सही तथ्य इस प्रकार हैं:---
(1) सीताजी विवाह के समय नौ वर्ष, वनगमन के समय  सोलह वर्ष और राज्याभिषेक के समय तीस वर्ष की थीं।
(2) श्रीराम वनवास हेतु चैत्रशुक्ल पंचमी, जब चंद्रमा पुष्य नक्षत्र में थे, निकले।
(3) साढ़े बारह वर्षों के बाद हेमंत ऋतु के समय, मार्गशीर्ष महीने में शूर्पणखा उनके जनस्थान में निर्मित पंचवटी आश्रम पहुँची।
(4) तदुपरांत चैत्र शुक्ल अष्टमी को सीताजी का हरण हुआ। वहाँ रावण ने उन्हें बारह मास की अवधि विकल्प चयन के लिए दी।
(5) हनुमान जी पौष शुक्ल प्रतिपदा की संध्यावेला में लंका पहुँचे। वहाँ से तृतीया को उनकी वापसी हुई।
(6) श्रीराम और रावण के बीच कुल साठ दिनों तक युद्ध चला। चैत्र कृष्ण चतुर्दशी को रावणवध हुआ। लंका से भगवान् चैत्रशुक्ल चतुर्थी को पुष्पक से प्रस्थित हुए और पंचमी को अयोध्या पहुँच गए। उसी दिन उनका पुष्यनक्षत्र में राज्याभिषेक हो गया।
(7) दशरथ और सुमंत की आयु गणना मानस या वाल्मीकि जी द्वारा प्रणीत रामायण में नहीं है।
(8) सभी तथ्य वाल्मीकि रामायण से उद्धृत हैं। सीताहरण की तिथि हनुमन्नाटक से ली गई है।
(9) छह वर्ष की आयु में रावण वध का वृत्तांत मुझे कहीं नहीं मिला है।
(10) मेरे पास छोटे-बड़े मिलाकर कुल सोलह रामायण हैं और उन्हें मैं आद्योपांत पढ़ चुका हूँ। इनमें संस्कृत, हिंदी, ओड़िया और असमीभाषा में रचित रामायण सम्मिलित हैं।
                ज्यादातर गड़बड़ियाँ पोंगे या लोभी कथावाचकों, अल्प ज्ञानी शोधकर्ताओं और वामपंथी दुराग्रहियों ने कर रखी है। इनसे तो भगवान् बचाएँ।
विमलमिश्र
27.08.2016
...
...

Anuup Kamal Agrawal
आपके ब्लॉग के माध्यम से और लोगों तक ये जानकारी पहुंचेगी ये तो ख़ुशी का विषय है
Vinay Kumar Vaidya
12:36pm
Vinay Kumar Vaidya
Shall post soon today or tomorrow !
Anuup Kamal Agrawal
12:37pm
Anuup Kamal Agrawal
लींक दिजियेगा, मैं उन्हें भी भेजूंगा

Write a reply...

Sunday, 28 August 2016

क्या संस्कृत मर रही है?

क्या संस्कृत मर रही है?
क्या संस्कृत मर रही है? क्या संस्कृत मर चुकी ’डेड लैंग्वेज’ / dead language है?
कुछ लोग अवश्य ही इस संभावना से बहुत उत्साहित और प्रसन्न हैं जबकि शेष में से कुछ लोग ऐसा प्रदर्शित करते हैं कि मानों यह उनके लिए यह अत्यन्त चिन्ता का विषय है, जबकि मुझे नहीं पता कि वे इस बारे में कितना गंभीर हैं ।
--
इस प्रश्न को हम दूसरी तरह से देखें :
क्या भारतीय भाषाएँ मर रही हैं, ख़त्म हो रही हैं?
हिन्दी का क्रियापद ’मरना’ संस्कृत ’मृ’ धातु से व्युत्पन्न शब्द है । हिन्दी / उर्दू का क्रिया-विशेषण ’ख़त्म / ख़तम’ भी संस्कृत के ’क्षतं’ का अपभ्रंश मात्र है । इसमें सन्देह नहीं कि इसी ’क्षत्’/ ’क्षति’ / ’क्षय’ से ’क्षत्र’ शब्द उपजा है । दूसरी ओर ’क्षिति’, ’क्षितिज’ ’क्षत्र, ’क्षात्र’ ’क्षत्रप’ (नृप की भांति) / satrap भी इसी क्षत् के सगे-संबंधी हैं । ’क्षण’ / बीतना भी इसी मूल शब्द का विवर्तन (ट्रांसफ़ॉर्मेशन) है । यहाँ तक कि ख़तना (क्रिया और संज्ञा) भी इसके दूर के रिश्ते का कोई होगा, यह अनुमान अतिशयोक्ति न होगा ।
--
अब हम इसी प्रश्न पर तमिष् / द्रविड तथा जम्बूद्वीप (हिन्द-महासगर) की अन्य भाषाओं  के सन्दर्भ में विचार करें :
कि (जैसा कि कुछ लोगों का अनुमान है ) आख़िर क्यों तमिष् भी संस्कृत की तरह मरणोन्मुखी है?
मैंने पहले भी अपने कुछ लेखों में इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाया है कि तमिष् मूलतः वैदिक भाषा है और इहिन्द महासागर स्थित इस उप-महाद्वीप / सब-कॉन्टिनेन्ट से लेकर सुदूर मलयेशिया / मलय-द्वीप / बाली / म्लेच्छदेश तथा इंदोनेशिया, सिंगापुर लाओस वियतनाम  कम्बोडिया तक उन वे सभी भाषाओं ने, जिन्हें बाएँ से दाएँ लिखा जाता है, मूलतः देवनागरी को ही अपनी भाषा की लिपि के रूप में अपनाया था, और तिब्बती तथा सिंहल भाषाएँ भी इसका अपवाद नहीं हैं । इसीलिए मेरा मत है कि तिब्बती भाषा एवं तिब्बत संस्कृति और भाषा के आधार पर चीन की अपेक्षा भारत के अधिक निकट हैं । और चीन द्वारा तिब्बत का बलपूर्वक अधिग्रहण किए जाने को मैं हमारे भाग्य-नियंताओं (Those who had a tryst with destiny and their ilk) का प्रमाद या अदूरदर्शिता ही मानता हूँ । इसकी कितनी और कैसी क़ीमत हमें चुकानी होगी यह तो भविष्य में ही पता चल पाएगा । लेकिन वह एक दूसरा विषय है । अभी तो भाषा के प्रश्न पर लौटें  ।  
इन समस्त भाषाओं की लिपि में देवनागरी की छवि स्पष्ट दिखलाई देती है, यहाँ तक कि उनकी वर्णमाला भी संस्कृत / देवनागरी के ’कुचुटुतुपु’ क्रम का पालन करती हैं ।
विगत दो सहस्राब्दियों के विदेशी आधिपत्य और शासन में रहते हुए इन उपरोक्त तथ्यों को हमारी आँखों से छिपाकर हमारे सामने कुत्सित इरादों से जन्मे और रचे-गढ़े गए कुछ अन्य मत जानबूझकर प्रस्तुत किए गए ताकि संस्कृत जो ’अक्षरशः’ इन समस्त भाषाओं की जननी है, को नष्ट किया जा सके ।
अब पुनः ’तमिष्’ की ओर लौटें ।
संस्कृत की ही तरह ’तमिष्’ की उत्पत्ति भी मूलतः वैदिक ज्ञान की परंपरा को अक्षुण्ण बनाए रखने हेतु भगवान् शिव के मुख से हुई, और संस्कृत की ही तरह लोक-प्रचलन से दोनों भाषाओं ने क्रमशः परिवर्तित होते-होते वह वर्तमान स्वरूप ग्रहण किया जो आज दिखाई देता है ।              
इस संक्षिप्त इतिहास के प्रभाव से हम भारतीय तथा अन्य भारतवंशी जिनकी जड़ें संस्कृत में थीं और हैं भी, अपनी जड़ों से विच्छिन्न होते चले गए । यह कहना कि तमिष् भाषा के वर्ण भी देवनागरी / संस्कृत भाषा तथा लिपि के विशिष्ट रूप मात्र हैं न तो दुराग्रह होगा, न तमिष् से द्वेष । किंतु पिछले 2000 वर्षों की दासता ने हममें परस्पर विद्वेष के ऐसे बीज बो दिए हैं कि हर एक भारतीय भाषा शेष भाषाओं को संदेह तथा द्वेष की दृष्टि से देखने लगी और उसे हमने ’अस्मिता’ का प्रश्न बना लिया । तमिष्-भाषी भी इसका अपवाद नहीं हैं । एक ओर अपनी ही भाषा के प्रति हीनता बोध और शासकों (अंग्रेज़ या अन्य) की भाषा का आकर्षण तथा उन भाषाओं के ज्ञान तथा गौरव से जहाँ संस्कृत तथा हिन्दी यहाँ तक कि अपनी समीपवर्ती जैसे कन्नड, मलयालम, तेलुगु आदि के प्रति द्वेष ने ’अस्मिता’ की इस भावना को अनावश्यक रूप से दृढ और जटिल बना दिया, वहीं दूसरी ओर प्राचीन तमिल को समय की आवश्यकता के अनुसार न ढालने की जिद से भी तमिष् धीरे धीरे शक्तिहीन होती चली गई ।
मैं दावा तो नहीं करता और न मेरा आग्रह है किंतु उपरोक्त वर्णित प्रायः सभी भाषाओं (जिनमें सिंहल, तिब्बती, मलय आदि भी हैं) की लिपि और शब्द-व्युत्पत्ति का मैंने जो अध्ययन किया उससे इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि तमिष् की एकमात्र कमज़ोरी मुख्यतः लिखित और ध्वनित शब्द के बीच साम्य न होना रही है । इसकी तुलना में कुछ भाषाओं ने जहाँ देवनागरी लिपि को लगभग यथावत् अपना लिया (जैसे राजस्थानी, नेपाली, भोजपुरी, ब्रज तथा विशेष रूप से मराठी आदि)  वहीं कुछ अन्य (जैसे बाङ्ला, असमिया, उड़िया, गुरमुखी) आदि ने इतिहास के प्रभावों से इस लिपि में क्रमशः घटित हुए परिवर्तित रूप में इसे अपना लिया ।
कन्नड, तेलुगु, तथा मलयालम ने जहाँ भाषा के लिखित और ध्वनित रूप को संरक्षित रखा वहीं तमिष् भाषा ने वैदिक तमिष् के अपने आग्रह के कारण इस ओर ध्यान ही नहीं दिया । यद्यपि संस्कृत और तमिष् के मूल व्याकरण के सिद्धान्तों के अनुसार यह आवश्यक भी था किंतु लौकिक दृष्टि से यह तमिष् के लिए क्षतिकारी ही सिद्ध हुआ । यदि आज तमिष्-प्रेमियों को (जिनमें मैं भी हूँ), तमिष् के विलुप्ति की चिन्ता और भय सता रहा है, तो उन्हें इस ओर यथाशीघ्र ध्यान देना होगा । संस्कृत को बचाने या उसके मृत / विलुप्त होने का प्रश्न मुझे ज़रा भी चिन्तित नहीं करता क्योंकि संस्कृत अजर अमर देवभाषा है इस बारे में मुझे कदापि शंका नहीं । जैसे आज पालि, प्राकृत या पैशाची विलुप्त मृतप्राय हैं, क्योंकि वे समय की उत्पत्ति थीं, संस्कृत उस तरह समय की उत्पत्ति नहीं है ।

--
 टिप्पणी :
यदि किसी को यह पोस्ट अच्छी लगी हो और वह इसका अंग्रेज़ी या किसी अन्य भाषा में भाषांतर करना चाहे तो स्वागत है । क्योंकि मैं नहीं कह सकता मैं कर पाऊँगा या नहीं ... !
--
   


काम, क्रोध, सम्मोहः, हास्यबोध / Lust, Anger, Passion and Humor

काम, क्रोध, सम्मोहः, हास्यबोध  / Lust, Anger, Passion and  Humor . 
--
When I saw this first time, at once the man looked to me like Ashok Kumar The Old Hero of Hindi Films. Because of the humor invoked, this just made me laugh.
And I at once remembered the following stanzas of श्रीमद्भगवद्गीता / ShrimadBhagavadGita.
I remembered how passion (Lust, desire and anger) get entwined because of the attention given to them by 'thought'. 'thought' gets associated wit them, and one causes the another.Unfortunately one is caught into this trap and fails to see the mechanism behind this whole movement of Thought, Lust, Anger, and Passion, where desire lurks underground.
Humor at once frees us from this whole trap and we re-live the pure innocence of a child-mind.
--
I'm convinced there is no other way of freeing the mind from this complex formidable trap of
Lust, Anger, Passion and Desire / Violence within one.
--

अध्याय 3, श्लोक 37,

श्रीभगवानुवाच :
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥
--
(कामः एषः क्रोधः एषः रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनः महापाप्मा विद्धि एनम् इह वैरिणम् ॥)
--
भावार्थ : हास्यबोध
श्रीभगवान् ने कहा :
यह काम, यह क्रोध, यह रजोगुण से उत्पन्न होनेवाला, यह बहुत खाने जिसकी भूख कभी शान्त नहीं होती अर्थात् निरन्तर भोग करनेवाला, महापापी अर्थात् महादुष्ट, इसे ही वैरी अर्थात् शत्रु जानो ।
--
टिप्पणी :
उपरोक्त श्लोक को गत श्लोक 36 के साथ पढ़ा जाना चाहिए  ।

[अध्याय 3, श्लोक 36,
अर्जुन उवाच :
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥
--
(अथ केन प्रयुक्तः अयम् पापम् चरति पूरुषः ।
अनिच्छन् अपि वार्ष्णेय बलात्-इव नियोजितः ॥)
--
भावार्थ :
अर्जुन ने प्रश्न पूछा :
हे वार्ष्णेय (वृष्णिवंशी भगवान् श्रीकृष्ण) ! मनुष्य किसके द्वारा प्रेरित किया जाकर, न चाहता हुआ भी जैसे उसे बल से बाध्य किया जा रहा हो, पाप का आचरण करता है?
--
Chapter 3, śloka 37,

śrībhagavānuvāca :

kāma eṣa krodha eṣa
rajoguṇasamudbhavaḥ |
mahāśano mahāpāpmā
viddhyenamiha vairiṇam ||
--
(kāmaḥ eṣaḥ krodhaḥ eṣaḥ
rajoguṇasamudbhavaḥ |
mahāśanaḥ mahāpāpmā
viddhi enam iha vairiṇam ||)
--
Meaning :
Know this lust, this anger which is ever so hungry and is never satiated, is the great sinner, is the enemy, that arises from rajoguṇa.
--
Chapter 3, śloka 36,

arjuna uvāca :
atha kena prayukto:'yaṃ
pāpaṃ carati pūruṣaḥ |
anicchannapi vārṣṇeya
balādiva niyojitaḥ ||
--
(atha kena prayuktaḥ ayam
pāpam carati pūruṣaḥ |
anicchan api vārṣṇeya
balāt-iva niyojitaḥ ||)
--
arjuna asked :
O vārṣṇeya (bhagavān śrīkṛṣṇa) ! Who tempts man to indulge in committing sin, where-by even though un-willing, one is, as if forced to do the same?  
अध्याय 2, श्लोक 62,

ध्यायतो विषयान्पुन्सः सङ्गस्तेषूपजायते ।
सङ्गात्सञ्जायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ।
--
(ध्यायतः विषयान् पुन्सः सङ्गः तेषु उपजायते ।
सङ्गात् सञ्जायते कामः कामात् क्रोधः अभिजायते ॥
--
भावार्थ :
जब मनुष्य (का मन) विषयों का चिन्तन करता है तो उसके मन में उन विषयों से आसक्ति (राग या द्वेष की बुद्धि) पैदा होती है, उस आसक्ति के फलस्वरूप उन विषयों से संबंधित विशिष्ट कामनाएँ उत्पन्न होने लगती हैं । और कामनाओं से क्रोध का उद्भव होता है ।
--
Chapter 2, śloka 62,

dhyāyato viṣayānpunsaḥ
saṅgasteṣūpajāyate |
saṅgātsañjāyate kāmaḥ
kāmātkrodho:'bhijāyate |
--
(dhyāyataḥ viṣayān punsaḥ
saṅgaḥ teṣu upajāyate |
saṅgāt sañjāyate kāmaḥ
kāmāt krodhaḥ abhijāyate ||
--
Meaning :
When one thinks of the objects (of desires), this causes attachment with them, from the attachment comes the desire for those objects and there-from the anger.
--

अध्याय  2, श्लोक 63, 
--
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥
--
क्रोधात् भवति सम्मोहः सम्मोहात्-स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृति-भ्रंशात्-बुद्धिनाशः बुद्धिनाशात्-प्रणश्यति ॥
--
भावार्थ :
क्रोध से चित्त अत्यन्त मोहाविष्ट हो जाता है, चित्त के  अत्यन्त मूढता से आविष्ट होने पर स्मृति विभ्रमित हो जाती है, स्मृति के विभ्रमित हो जाने पर बुद्धि अर्थात् विवेक-बुद्धि नष्ट हो जाती है, और विवेक-बुद्धि के नष्ट होने पर मनुष्य विनष्ट हो जाता है ।
--
Chapter 2, shloka 63,

krodhādbhavati sammohaḥ
sammohātsmṛtivibhramaḥ |
smṛtibhraṃśādbuddhināśo
buddhināśātpraṇaśyati ||
--
krodhāt bhavati sammohaḥ
sammohāt-smṛtivibhramaḥ |
smṛti-bhraṃśāt-buddhināśaḥ
buddhināśāt-praṇaśyati ||
--

Meaning :
Anger causes the delusion, and delusion results in the confusion of memory. Confusion in memory further causes loss of capacity to distinguish between the right and the wrong, the truth and the false, and once this capacity is lost, one is but ruined.
--

वेताल-कथा / एकस्मिन् कल्पे

वेताल-कथा / एकस्मिन् कल्पे
--
विक्रमार्क ने हठ नहीं छोड़ा ।
वह श्मशान से कुछ आगे गया जहाँ अत्यन्त पुराने वटवृक्ष की जटाओं के बीच फ़ँसे उस शव (नर-कंकाल) को श्रमपूर्वक उस बरगद की जटाओं से निकालकर  उसे कंधे पर रखा और गुरु के आश्रम में ले चला । तब कंकाल में स्थित वेताल ने अपनी उसी चिरपरिचित शैली में कहा :
राजन् ! तुम गुरु की आज्ञा से इस श्रम में निष्ठापूर्वक संलग्न हो क्योंकि तुम्हारे लिए गुरु-निष्ठा और गुरु-आज्ञा का पालन ही एकमात्र आचार और निष्ठा है । तुम्हारे श्रम के निवारण के लिए मैं तुमसे यह कथा कहता हूँ ध्यानपूर्वक सुनो !
ऐसे ही किसी कल्प में राजा शाकल्य के राज्य का विस्तार शर्बरीक नामक राज्य की सीमा तक था किंतु उससे कुछ ही कोस दूर हारीत नामक राज्य की सीमा लगी हुई थी । राजा शाकल्य का राज्य खंडित था क्योंकि उसने पिता की अनुमति न होते हुए भी, अपने भाई से युद्ध कर उसे जीता था ।
एक समय राजा शाकल्य आखेट के लिए वन में गया और अपने राज्य की सीमा न जानने के कारण भूल से शर्बरीक राज्य में प्रविष्ट हो गया । उसके अंगरक्षक तथा सैनिक बहुत दूर पीछे कहीं छूट गए थे । वहाँ के निवासी वेद-धर्म से अनभिज्ञ थे और आजीविका के लिए आखेट या कृषि आदि कार्य कर जीवन-यापन करते थे । वहाँ स्थित एक गाँव में पहुँचते हुए उसे शाम हो गई । अपने घोड़े पर जाते हुए थोड़ी दूर उसे एक घर में दीपक या अग्नि के जलने से उत्पन्न प्रकाश दिखलाई पड़ा और वह उसी दिशा में चल पड़ा । वह घर किसी स्त्री का था, और द्वार पर आए अतिथि का उसने सम्मानपूर्वक स्वागत किया । राजा बहुता थका हुआ भी था । उस स्त्री ने आदरपूर्वक राजा के स्नान, विश्राम आदि का प्रबंध किया । स्वस्थचित्त होने के पश्चात् रात्रि में भोजन के समय राजा को मद्यपान की इच्छा हुई तो उसने इसका भी प्रबंध किया । तब राजा को काम-आवेग हुआ । उस स्त्री ने निःसंकोच राजा के आवेग को शान्त किया और फिर राजा सो गया । सुबह उठकर शौच-स्नान आदि से निवृत्त होकर राजा जब वहाँ से प्रस्थान करने लगा तो उसने उस स्त्री को पाँच स्वर्ण-मुद्राएँ दीं और आगे चला गया ।
उसे उसके सैनिक भी दिखलाई दे गए थे और वह पुनः उनके साथ अपने राज्य में लौट गया ।
अनेक वर्षों बाद इसी प्रकार आखेट के लिए वन में घूमते हुए वह भूलवश हारीत राज्य की सीमा में प्रविष्ट हो गया । शाम हो रही थी उसे थोड़ी दूर एक स्थान पर दीपक या अग्नि के जलने से उत्पन्न प्रकाश दिखलाई पड़ा और वह उसी दिशा में चल पड़ा । वह किसी मुनि का आश्रम था जहाँ उसे भोजन के लिए फल आदि प्राप्त हुए और रात्रि में ठहरने के लिए उत्तम स्थान शैया आदि भी मिल गई । सुबह जब वह नित्य-कर्म से निवृत्त हुआ और प्रस्थान के लिए मुनि की आज्ञा लेने उनके समीप गया तो उन्हें भेंट करने के लिए उसके पास केवल पाँच ही स्वर्ण-मुद्राएँ थीं और उसे वह पुराना प्रसंग याद हो आया ।
मुनि ने स्वर्ण-मुद्राएँ लेना स्वीकार नहीं किया क्योंकि वे स्वर्ण या धन आदि वस्तुएं नहीं रखते थे । और राजा को आशीर्वाद देकर उन्होंने विदा किया ।
जब राजा पुनः अपने राज्य में, अपने महल में पहुँचा और रात्रि में उसने अपनी पतिव्रता रानी से इन दोनों प्रसंगों का वर्णन किया तो उसने अनायास उससे पूछा :
क्या वह स्त्री पतिव्रता नहीं थी?
रानी ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया :
"वह उतनी ही पतिव्रता थी जितनी कि मैं ! वह उतनी ही तत्वदर्शी भी थी जैसे वे मुनि ।"
राजा चौंक गया । तब कंकाल में स्थित वेताल बोला :
"हे राजन् ! मैं ही वह राजा शाकल्य था और मेरी रानी ने मुझसे क्या कहा यह तो मुझे अब स्मरण नहीं किंतु मुझे  रानी के विचार की सत्यता बारे में संशय था । यदि तुम इस विषय में सत्य को जानते हुए भी मेरे इस संशय का निवारण नहीं करोगे तो तुम्हारे सिर के सहस्र टुकड़े हो जाएँगे !"
तब विक्रमार्क ने उसे उत्तर दिया :
"हे राजा ! तुम्हें जिस स्त्री ने उस रात्रि में आश्रय दिया था वह गणिका थी और अपने धर्म का सम्यक् पालन करते हुए उसने अतिथि  तरह पति मानकर निष्ठापूर्वक तुम्हारा सत्कार किया । सुनो राजन् ! वह स्त्री वैसी ही पतिव्रता और पवित्र थी जैसी कि तुम्हारी रानी थी । अन्तर केवल यह है कि तुम्हारी रानी की आचार-निष्ठा उसके पातिव्रत्य के विचार से प्रेरित थी और वह पूर्ण रूप से केवल तुम्हें ही पति मानती थी । जबकि उस स्त्री की आचार-निष्ठा के अनुसार अतिथिमात्र ही उस समय-विशेष पर उसका पति होता था और पति-भाव से उसकी सेवा करना उसका पातिव्रत्य धर्म और आचार था, जिससे उसे इस विषय में विचार करने की आवश्यकता ही नहीं थी ।
इसी प्रकार मुनि ने भी यथासंभव सम्यक् रीति से अतिथि-सत्कार का कर्तव्य पूरा किया । उन्होंने अपरिग्रह के अपने व्रत का निष्ठा से पालन किया इस प्रकार ये तीनों ही सुख या भोग-बुद्धि से रहित रहते हुए अपने धर्म का आचरण करनेवाले पूर्ण तत्वदर्शी थे ।"
राजा का मौन भंग होते ही शव में स्थित वेताल शव को छोड़कर उड़ चला !
--
चलते-चलते, :
टिप्पणी  > वीत > वैत > वैताल /  वेताल, वैताग > वैतागवाड़ी ..  
   
 

Saturday, 27 August 2016

स्वयं से संवाद

स्वयं से संवाद
--
स्वयं से संवाद कितना दुष्कर है,
स्वयं से संवाद कितना है सरल,
स्वयं यदि हो सके भी ’दो’ कभी,
कौन सा है सत्य, कहना है कठिन !
स्वयं तो निर्बाध सतत, है अविकल,
स्वयं की अवधारणा ही मूल विभ्रम,
जिस स्वयं में जन्म लेती और मिटती,
वह स्वयं है सर्वथा निष्कल निश्चल !
स्वयं है, और है स्वयं की कल्पना,
कल्पना बनती है, मिटती भी है,
कल्पना देखेगी कैसे उस स्वयं को?
जिसमें वह उमग विलस खोती भी है ।
’मैं’ तथा यह कल्पना जो 'मैं' की है,
प्रथम तो है अटल, है वह नित्य अविचल,
दूसरी बनती बिगड़ती स्मृति-जनित,
और स्मृति भी वह पुनः पहचाननिर्भर,
स्मृति भी है कल्पना ही, कल्पना पहचान जैसे,
परस्पर आश्रित हैं दोनों दो अनुमान जैसे ।
स्वयं नहीं अनुमान कोई, वह है तथ्य केवल,
जिसकी नहीं बनती स्मृति, निपट वह तो सत्य केवल ।
किंतु स्मृतियों से भरा यह चित्त ही,
कल्पना कर बना लेता है एक ’मैं’ को,
स्मृति-सातत्य से समझता है उसे ’मैं’।
स्मृति-विरहित चित्त के अवकाश के,
आकाश में, जिसको ’मैं’ जाना जाता है,
उसकी नहीं बनती कभी पहचान कोई,
बस यही पहचान उसकी है निरंतर,
और वही बाहर है वही तो है भीतर ।
स्वयं से संवाद तब उस मौन में भी,
कितना सरल है, या कि है इतना कठिन भी ?!
--

Thursday, 25 August 2016

वाल्मीकि रामायणे / vālmīkīrāmāyaṇe

वाल्मीकि रामायण-प्रसङ्ग
--
बालकाण्ड सर्ग 54, 
कामधेनुं वसिष्ठोऽपि यदा न त्यज्यते मुनिः ।
तदास्य शबलां राम विश्वामित्रोऽन्वकर्षतः ॥1
नीयमाना तु शबला राम  राज्ञा महात्मना ।
दुःखिता चिन्तयामास रुदन्ती शोककर्षिता ॥2
परित्यक्ता वसिष्ठेन किमहं सुमहात्मना ।
याहं राजभृतैर्दीना ह्रियेय भृशदुःखिता ॥3
किंमयापकृतं तस्य महर्षेर्भावितात्मनः ।
यन्मामानागसं दृष्ट्वाभक्तां त्यजति धार्मिकः ॥5
निर्धूयतांस्तदा भृत्याञ्शतशः शत्रुसूदन ।
जगामानिलवेगेन तदा वसिष्ठं परमौजसम् ॥6
शबला सा रुदन्ती चक्रोशन्ती चेदमब्रवीत ।
वसिष्ठास्याग्रतः स्थित्वा रुदन्ती मेघनिःस्वना ॥7
भगवन् किं परित्यक्ता त्वयाहं ब्रह्मणः सुत ।
यस्माद् राजभटा मां हि नयन्ते त्वत्सकाशतः ॥8
एवमुक्तस्तु ब्रह्मर्षिरिदं वचनमब्रवीत् ।
शोकसंतप्तहृदयां स्वसारमिव दुःखिताम् ॥9
न त्वां त्यजामि शबले नापि मेऽपकृतं त्वया ।
एष त्वां नयते राजा बलान्मत्तो महाबलः ॥10
नहि तुल्यं बलं मह्यं राजा त्वद्य विशेषतः ।
बली राजा क्षत्रियश्च पृथिव्याः पतिरेव च ॥11
इयमक्षौहिणी पूर्णा गजवाजिरथाकुला ।
हस्तिध्वजसमाकीर्णा तेनासौ बलवत्तरः ॥12
एवमुक्ता वसिष्ठेन प्रत्युवाच विनीतवत् ।
वचनं वचनज्ञा सा ब्रह्मर्षिरतुलप्रभम् ॥13
न बलं क्षत्रियस्याहुर्ब्राह्मणा बलवत्तराः ।
ब्रह्मन् ब्रह्मबलं दिव्यं क्षात्राच्च बलवत्तरम् ॥14
अप्रमेयं बलं तुभ्यं न त्वया बलवत्तरः ।
विश्वामित्रो महावीर्यस्तेजस्तव दुरासदम् ॥15
नियुङ्क्ष्व मां महातेजस्त्वं ब्रह्मबलसम्भृताम् ।
तस्य दर्पं बलं यत्नं नाशयामि दुरात्मनः ॥16
इत्युक्तसु तया राम वसिष्ठस्तु महायशाः ।
सृजस्वेति तदोवाच बलं परबलार्दनम् ॥17
तस्य तद्वचनं सृत्वा सुरभिः सासृजत् तदा ।
तस्या हुंभारवोत्सृष्टाः पह्लवाः शतसो नृप ॥18
नाशयन्ति बलं सर्वं विश्वामित्रस्य पश्यतः
स राजा परमक्रुद्धः क्रोधविस्फारितेक्षणः ॥19
पह्लवान् नाशयामास शस्त्रैरुच्चावचैरपि ।
विश्वामित्रार्दितान् दृष्ट्वा पहल्वाञ्शतशस्तदा ॥20
भूय एवासृजद् घोराञ्छकान् यवनमिश्रितान् ।
तैरासीत् संवृता भूमिः शकैर्यवनमिश्रितैः ॥21
प्रभावद्भिर्महावीर्यैर्हिमकिंजल्कसंनिभैः ।
निर्दग्धं तद्बलं सर्वं प्रदीप्तैरिव पावकैः ॥22
तत्ऽस्त्राणि महातेजा विश्वामित्रो मुमोच ह ।
तैस्ते यवनकाम्बोजा बर्बराश्चाकुलीकृता ॥23
--
इत्यार्षे श्रीमद्रामायणे वाल्मीकीये आदिकाव्ये बालकाण्डे चतुःपञ्चाशः सर्गः ॥
--
vālmīki rāmāyaṇa-prasaṅga
--
bālakāṇḍa sarga 54, 
kāmadhenuṃ vasiṣṭho:'pi yadā na tyajyate muniḥ |
tadāsya śabalāṃ rāma viśvāmitro:'nvakarṣataḥ ||1
nīyamānā tu śabalā rāma  rājñā mahātmanā |
duḥkhitā cintayāmāsa rudantī śokakarṣitā ||2
parityaktā vasiṣṭhena kimahaṃ sumahātmanā |
yāhaṃ rājabhṛtairdīnā hriyeya bhṛśaduḥkhitā ||3
kiṃmayāpakṛtaṃ tasya maharṣerbhāvitātmanaḥ |
yanmāmānāgasaṃ dṛṣṭvābhaktāṃ tyajati dhārmikaḥ ||5
nirdhūyatāṃstadā bhṛtyāñśataśaḥ śatrusūdana |
jagāmānilavegena tadā vasiṣṭhaṃ paramaujasam ||6
śabalā sā rudantī cakrośantī cedamabravīta |
vasiṣṭhāsyāgrataḥ sthitvā rudantī meghaniḥsvanā ||7
bhagavan kiṃ parityaktā tvayāhaṃ brahmaṇaḥ suta |
yasmād rājabhaṭā māṃ hi nayante tvatsakāśataḥ ||8
evamuktastu brahmarṣiridaṃ vacanamabravīt |
śokasaṃtaptahṛdayāṃ svasāramiva duḥkhitām ||9
na tvāṃ tyajāmi śabale nāpi me:'pakṛtaṃ tvayā |
eṣa tvāṃ nayate rājā balānmatto mahābalaḥ ||10
nahi tulyaṃ balaṃ mahyaṃ rājā tvadya viśeṣataḥ |
balī rājā kṣatriyaśca pṛthivyāḥ patireva ca ||11
iyamakṣauhiṇī pūrṇā gajavājirathākulā |
hastidhvajasamākīrṇā tenāsau balavattaraḥ ||12
evamuktā vasiṣṭhena pratyuvāca vinītavat |
vacanaṃ vacanajñā sā brahmarṣiratulaprabham ||13
na balaṃ kṣatriyasyāhurbrāhmaṇā balavattarāḥ |
brahman brahmabalaṃ divyaṃ kṣātrācca balavattaram ||14
aprameyaṃ balaṃ tubhyaṃ na tvayā balavattaraḥ |
viśvāmitro mahāvīryastejastava durāsadam ||15
niyuṅkṣva māṃ mahātejastvaṃ brahmabalasambhṛtām |
tasya darpaṃ balaṃ yatnaṃ nāśayāmi durātmanaḥ ||16
ityuktasu tayā rāma vasiṣṭhastu mahāyaśāḥ |
sṛjasveti tadovāca balaṃ parabalārdanam ||17
tasya tadvacanaṃ sṛtvā surabhiḥ sāsṛjat tadā |
tasyā huṃbhāravotsṛṣṭāḥ pahlavāḥ śataso nṛpa ||18
nāśayanti balaṃ sarvaṃ viśvāmitrasya paśyataḥ
sa rājā paramakruddhaḥ krodhavisphāritekṣaṇaḥ ||19
pahlavān nāśayāmāsa śastrairuccāvacairapi |
viśvāmitrārditān dṛṣṭvā pahalvāñśataśastadā ||20
bhūya evāsṛjad ghorāñchakān yavanamiśritān |
tairāsīt saṃvṛtā bhūmiḥ śakairyavanamiśritaiḥ ||21
prabhāvadbhirmahāvīryairhimakiṃjalkasaṃnibhaiḥ |
nirdagdhaṃ tadbalaṃ sarvaṃ pradīptairiva pāvakaiḥ ||22
tat:'strāṇi mahātejā viśvāmitro mumoca ha |
taiste yavanakāmbojā barbarāścākulīkṛtā ||23
--
ityārṣe śrīmadrāmāyaṇe vālmīkīye ādikāvye bālakāṇḍe catuḥpañcāśaḥ sargaḥ ||
--

Tuesday, 23 August 2016

केवटग्राम और ऋषि मार्कण्डेय

केवटग्राम
--
एक अत्यन्त पवित्र कही जानेवाली नदी के किनारे बसा यह गाँव उतना ही प्राचीन है जितना कि उस नदी का ज्ञात इतिहास !
पुराणों की दृष्टि में तो वह नदी इस अर्थ में शाश्वत् और अविनाशी है कि तीनों कालों का उसमें ही उद्भव, विकास और पुनः लय होता है और महाकाल  के गर्भ से निकली उस नदी को मेकलसुता भी कहा जाता है ।
पुराण उस नदी की महिमा का वर्णन उस स्वेद-बिन्दु की तरह करते हैं जो महाकाल नटराज के ताण्डव नृत्य के बाद उनके शरीर में उत्पन्न हुआ और तत्काल ही इस नदी के रूप में परिणत हो गया । पुराण यद्यपि कहते हैं कि उस बिन्दु ने पहले तो एक सुकुमार सुन्दर बालिका का रूप ग्रहण किया और भगवान् शिव से पूछा :
"तात! मेरा जन्म किस प्रयोजन से हुआ है?
तब शिव ने उससे कहा :
"मैं आध्यात्मिक अर्थों में तो सर्वव्यापी हूँ और सब-कुछ मेरा ही अंश है किंतु पौराणिक और भौतिक-ऐतिहासिक अर्थों में जगत् भी मैं ही हूँ और मैं ही पशुरूप जीव की तरह इस जगत् में संचरित हूँ । वैसे तो मैं एक और अनेक से विलक्षण हूँ किंतु उस रूप में मैं असंख्य हूँ । एक तथा अनेक विचार के उन्मेष के बाद प्रतीत होते हैं विचार का उन्मेष बुद्धि / वृत्ति के उन्मेष के बाद ही हो सकता है । एक और अनेक जीव और जगत् के लक्षण हैं और लिङ्ग मेरा लक्षण है । जैसे तुममें निरन्तर श्वास आती जाती है, वैसे ही जगत् मुझमें और मैं जगत् में नित्य संचाररत हूँ ।  जब तुम्हारी श्वास रुक जाती है तब तुम या तो मृत होते हो या मेरी तरह समाधि में होते हो । जब तुम समाधि में होते हो तो मुझसे अपनी स्वरूपगत अभिन्नता को जान लेते हो किंतु श्वास के पुनः चलते ही अपने आपको पशु मानकर जीवन को  पशु-धर्म अर्थात् आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन तक सीमित समझ बैठते हो । समस्त भयों में मृत्यु-भय सर्वाधिक प्रबल होता है इसलिए इस भय से ग्रस्त रहने तक कभी शान्ति से नहीं रह पाते ।
ऐसे ही किसी कल्प में मृकण्डु नामक एक ऋषि हुए जिनका अन्य नाम कुछ और था किन्तु उन्हें मृकण्डु यह  नाम अपने लिए बहुत उपयुक्त प्रतीत हुआ क्योंकि 'मृ' धातु मृत्यु तथा 'कण्डु' धातु खुजली के अर्थ में ग्रहण की जाती है । उनके ही एक पुत्र थे जिन्हें इस कारण 'मार्कण्डेय' कहा गया ।
ऋषि जानते थे कि मृत्यु-भय ही जीव के चित्त में अपने अमर होने की लालसा उत्पन्न करता है और वह इसलिए पुत्र के रूप में अपने आपको जन्म देकर इस लालसा की पूर्ति कर इस भय से मुक्ति की सांत्वना और अपने अमर होने की संभावना को पाने यत्न करता है ।
प्राणीमात्र वैसे मृकण्डु ही होता है और ऋषि मृकुण्डु की संतान मार्कण्डेय भी इसका अपवाद नहीं थे । उनके और प्राणीमात्र के इस भय के निवारण के लिए मैंने ताण्डव-नृत्य किया जिससे मुझे स्वेद हुआ और वही स्वेदबिंदु तुम हो । इसलिए अब मृत्युलोक में जाओ और प्राणीमात्र के इस भय का निवारण करो !"
अपने जनक से अपने उद्भव का प्रयोजन जानकर उस बालिका ने नदी रूप ग्रहण किया और वह अमरकण्टक नामक स्थान पर धरा पर जल की धारा की तरह अवतरित हुई ।
--
क्रमशः   केवटग्राम और  ऋषि मार्कण्डेय -2       
                     

जीवन और समय का यथार्थ स्वरूप

जीवन और समय का यथार्थ स्वरूप
--
प्रश्न : क्या जीवन समय की विमा से मुक्त है?
... थोड़ा सा ध्यानपूर्वक देखें तो इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर प्राप्त हो जाता है ।
यह प्रश्न कि जिसे हम जीवन कहते हैं, उसका ’समय’ से क्या संबंध है?
जिस तरह हम जीवन को जानते हैं और उसके बारे में हमें जिज्ञासा होती है क्या समय को भी हम उसी तरह से जानते और उसे समझने की चेष्टा करते हैं?
स्पष्ट है कि जीवन को हम जिस प्रकार अनायास जानते हैं किन्तु उसे परिभाषित नहीं कर पाते, वैसा ही समय के संबंध क्यों नहीं करते? क्या हम समय को एक केवल विचार के ही रूप में नहीं जानते? क्या समय, - चाहे भौतिक हो या मानसिक, घटनाओं से ही नहीं जाना जाता? क्या जीवन घटना(ओं) पर आश्रित / अवलंबित है? इसलिए हम समय को वस्तुतः प्रत्यक्ष उस तरह से नहीं जानते / जान सकते जिस तरह से हम और प्रत्येक जीवित कहा जानेवाला प्राणी ’जीवन’ को अनायास और प्रत्यक्ष ही जानता है, यद्यपि ’जीवन’ के यथार्थ स्वरूप का वर्णन कर पाना शायद ही किसी के लिए संभव हो । दूसरी ओर ’समय’ स्वयं जीवन की गतिविधि के असंख्य रूपों में से केवल एक नितान्त वैयक्तिक विचार है । यदि जीवन है तो ही समय हो सकता है, किन्तु समय हो न हो जीवन तो अकाट्य प्रत्यक्ष समक्ष है । जैसे हम ईश्वर, अतीत, भविष्य, किसी वस्तु या व्यक्ति, घटना को उसके विचार से भिन्न एक स्वतन्त्र सत्ता मान बैठते हैं, क्या जीवन के संबंध में ऐसा किया जा सकता है?
जीवन समय (की विमाओं) से नितान्त स्वतन्त्र है और इसी तरह सदा / सर्वत्र से भी मुक्त । किन्तु विचार इस प्रत्यक्ष बोध को हमारी आँखों से छिपा देता है । चित्त जब विचार के स्वरूप / सीमाओं को ध्यान से देख लेता है तो हमें जीवन और समय का  पारस्परिक संबंध क्या है यह स्पष्ट हो जाता है ।
--

Monday, 22 August 2016

’बरसे कंबल भीगे पानी!’

कबीर के बहाने!
--
छादनं > आच्छादनं > छत...!
छज्जा / (balcony), शेड, shade, shadow, shed, चादर...
शुद्ध ज्ञान (जानना) शुद्ध जल की तरह पावन, पवित्र है, ऊर्ध्वमूलम् जलम् > जन्मना लयं गच्छति, गम्यते अवगमयते वा ...
चादर आच्छादन है कृत्रिम ज्ञान / जानकारी का, जो इन्द्रियगम्य ज्ञान की स्मृति और पहचान मात्र है । ऐसा तथाकथित ज्ञान हम पर निरन्तर बरसता है और हमारे स्वाभाविक ज्ञान पर आवरित हो जाता है ।
इस जानकारी को, जो अज्ञान का ही परिष्कृत प्रकार-मात्र है, हम ज्ञान समझ लेते हैं, ऊर्ध्वमूल ज्ञान की तरह यह भी असीम है किन्तु अनित्य भी है ।
जैसे ऊर्ध्वमूल अधःशाख अश्वत्थ है, वैसा ही जल है, वह भी परमात्मा (शिव) की जटाओं से निःसृत होकर नीचे की ओर गतिशील है ताकि इस तरह अधःपतित होता हुआ भी अधम से अधम को पावन् और पवित्र कर सके, उसका उद्धार कर सके ।
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥
--
बरसात हो रही थी, सुबह की सैर पर जाते हुए ’बरसे चादर भीगे पानी!’ ये शब्द मन में ध्वनित हुए तो शेष विचार उसके पीछे आते गये ।
फिर याद आया कबीर ने शायद ’बरसे कंबल भीगे पानी!’ कहा होगा....
या शायद ’बरसे कथरिया, भीगे पानी!’ कहा होगा !
'कथरिया' से 'कंथा' याद आया :
'रथ्याचर्पट विरचित कंथा,
 .. पुण्यापुण्य विवर्जित पंथाः .. ' 
--

Sunday, 21 August 2016

द्वौ सुपर्णौ / a couple of leafs

द्वौ सुपर्णौ
--
(पॄ) / pr̥̄
प्रपूर्णयति पर्णो पालयति पल्यते पलं ।
पल्लवितो पलितमेव जीर्णो जरितमपि तथा ॥
परिपूर्णो च संपूर्णो फलति फल्यते तथा ।
बीजरूपेण शयितं सुप्तं वटस्यपत्रे यथा ॥
सृष्टा सृष्टिः परिपालको संहर्तापि भवेच्च स ।
पुराणो नित्यो अजरः चिरन्तनो सनातनो ॥
--
अर्थ :
पत्ता / पत्ते / पत्तियाँ संपूर्ण अस्तित्व है । सृष्टि के रूप में अभिव्यक्त होकर स्वयं का पालन पोषण करता हुआ पल-पल वर्धमान रहता है, इसलिए ब्रह्म है । फैलता और विस्तार पाता हुआ पककर झर जाता है । वह ’पूर्ण’ ’संपूर्ण’ होते हुए फल के रूप को ग्रहण कर फलित होता हुआ बीज को गर्भ में धारण करता है । बीजरूप में अपने ही गर्भ में पलता हुआ, जैसे वट के पत्र में वासुदेव शयन करते हैं । वही सृष्टा, सृष्टि परिपालक तथा संहारकर्ता है । पुरातन से भी पुरातन, नित्य, जरारहित (अविनाशी) सदा रहनेवाला, सनातन है ।
--
dvau suparṇau
--
(पॄ) / pr̥̄
prapūrṇayati parṇo pālayati palyate palaṃ |
pallavito palitameva jīrṇo jaritamapi tathā ||
paripūrṇo ca saṃpūrṇo phalati phalyate tathā |
bījarūpeṇa śayitaṃ suptaṃ vaṭasyapatre yathā ||
sṛṣṭā sṛṣṭiḥ paripālako saṃhartāpi bhavecca sa |
purāṇo nityo ajaraḥ cirantano sanātano ||
--
Meaning :
The leaf (life), file, filio, feel, is the whole existence in myriad forms. Having manifested oneself as this existence, keeps expanding moment to moment through and within one's own, therefore is known as brahman (ब्रह्म ). Prospers, Grows  and ultimately having grown to the extreme, withers out with grace. The leaf becomes the (flower and) the fruit / pod, and carries the seed of the whole existence within its womb. Jnanin (Wise) know, He is verily वासुदेव vAsudeva lying asleep there in the fold of the leaf of the Vat (वटवृक्ष) / the Indian fig-tree.
He is the Creator, The One Who looks after this Existence and takes back within Himself the same again and again, just for a play of a child. This is His माया mAyA / प्रपञ्च prapancha / प्रप्रगंतः propaganda .... ;)
He is the very Spirit Ancient-most, Eternal, Indestructible, Imperishable, Timelessly as Self.
-- 

Saturday, 20 August 2016

The Seven (7)

The Seven (7)
--
seven (remember September is seventh-month, not the ninth?) symbolizes serpent. Be it कुण्डलिनी / Kundalini, arising of कुण्डलिनी / Kundalini (The Serpent / (सर्पंत > one that slides / moves like snake)  or the seven चक्र chakras. Again there is seven मातृका  / 'MatrikAs' who were mother to 'Lord Skanda' A वैदिक / Vedika / पौराणिक  PaurANika entity. These seven Matrika constitute बीजाक्षर  / 'beejAkShara' This has been borrowed in Mathematics etc. as the 'Matrix'. The word मात्रा / 'Matter' too comes from मातृका  / MatrikA / मृदा mRdA (earth) / मृडा / मृडाणी  / mRDA is another name of the Goddess पार्वती Parvati > the daughter of पर्वत / Mountain. .Serpents on the other hand are the supposed to bear over them the globe / earth. Their abode is called नाग-लोक / 'Naga-loka'. This is also true because Serpents tend to enter and deeper levels of earth. Serpents are the 7 fire-flames said to be सप्त-यह्वी: /  'sapta-yahvIH' (feminine plural form of yahva) in ऋग्वेद / Rgveda, while the same word सप्त-यह्व: / 'sapta-yahvaH' (masculine form of yahva), has been given to 7 horses that drive the chariot of the Sun (God). In the आधिभौतिक / Adhibhautika > strictly physical sense, these are symbolized in this way, while in the आधिदैविक / Adhi-daivika > the subtler plane of consciousness they are treated as the powers that control and govern the आधिभौतिक / Adhibhautika. In the pure Spiritual (आध्यात्मिक / AdhyAtmika) sense, these 7  आधिदैविक / Adhidaivika > Spiritual powers and Strictly Material aspects are manifestations of the same Unique Principle that is named variously according to the respective aspect. Thus, 33 देवता / 'devatA' are but a function of the same Supreme Power that manifests Itself as the existence, seed (बीज) of existence, maintains and dissolves its own creation (सृष्टि / SRShTi). At individual level this appears as a 'world' of 7 dimensions (सप्तलोकाः / sapta-lokAH).. These 7 lokAs  (सप्तलोकाः) again, are categorized in higher lower and the lowest levels / planes according to their characteristic aspects.
--
Again,
Though 7 rays of white light (spectrum) too comes from संस्कृत / sanskrit सप्त-क्रम  / 'sapta-krama' > a sequence / order of 7, The 7 planets are related to each other in a different way in वेद / Veda and पुराण  /PurANa. They don't own the same / equal status as the 7 colors / rays of light hold. Shiva-AtharvasheerSha mentions 8 planets and 8 equals / counterparts of them (grahAH / pratigrahAH ) the 7 colors and the 2 ultra-violet+infrared together are treated as one. You can co-relate them as the planets. Dragon's head (Rahu) and Dragon's tail (Ketu) respectively.
--
Next comes the 7 sound-notes
(सप्त-स्वन / सप्त-स्वर / नुति )
--
 In this way the 7 dimensions of the existence are inter-dependent and mutually related.
~~~~~~~~~~

Thursday, 18 August 2016

शास्त्रमर्यादा / śāstramaryādā

शास्त्रमर्यादा / śāstramaryādā
--
शास्त्राणि सूचयन्ति तत्वं धर्ममधर्मौ तथा ।
फलानि शुभाशुभानि एषा हि शास्त्रमर्यादा ॥1
--
अधिकारी च शास्त्रज्ञः आचार्यशिष्यौ उभौ ।
आचरित्वा विवेकेन निःश्रेयसमाप्नुयात् ॥2
--
śāstrāṇi sūcayanti tatvaṃ dharmamadharmau tathā |
phalāni śubhāśubhāni eṣā hi śāstramaryādā ||1
--
adhikārī ca śāstrajñaḥ ācāryaśiṣyau ubhau |
ācaritvā vivekena niḥśreyasamāpnuyāt ||2
--
अर्थ 1:
वेद (शास्त्र) तत्व धर्म क्या है और अधर्म क्या है, उस धर्म-अधर्म का आचरण करने से कौन से शुभ-अशुभ फल प्राप्त होते हैं इस बारे में शिक्षा देते हैं, यही वेद (शास्त्र) की मर्यादा है ।
अर्थ 2:
(किंतु) आचार्य तथा शिष्य दोनों ही अधिकारी / सुपात्र हों तो तदनुसार अपने विवेक द्वारा धर्म का आचरण और अधर्म का त्याग कर वाञ्छित निःश्रेयस् (परमार्थ) / (धर्म अर्थ काम, मोक्ष) (dharma artha kāma, mokṣa) को
प्राप्त करते हैं ।
--
Meaning 1:
Scriptures (Veda) explain and teach about what is Truth, what is right(eousness) and what is wrong.
What are the good and what are evil consequences that result from of our actions. This much is the duty and limit of  Scriptures (Veda).
--
Meaning 2:
(But) Be he a disciple or the Teacher, only those who deserve and are fit to study and follow Scriptures (Veda) carefully with due attention and discrimination understand the scriptures(Veda), and attain the Supreme Worth (धर्म अर्थ काम, मोक्ष / dharma artha kāma, mokṣa) attainable.
--  




अहसासों की समीक्षा ...

अहसासों की समीक्षा 
--
अहसासों की परिधि लाँघना व्यक्ति मन की सबसे बड़ी ज़रुरत होती है.....वह करना चाहता है अहसासों की समीक्षा उससे परे जाकर...उसकी हदों से बाहर जाकर उस प्रक्रिया को करना चाहता है अनुभूत .....मिल नहीं पाता वो मक़ाम जहाँ आप निर्निमेष भाव से कर सकें अहसासों की वस्तुनिष्ठ समीक्षा.......!
--
विकल्प-1
--
बेहस-बेहिस अहसास, महसूस हुआ करते हैं,
नहीं है मुमक़िन बहस कर सकना उन पर ।
वो जिसके ये अहसास हुआ करते हैं,
नहीं हुआ करता है वह अहसास कोई !
--
विकल्प-2
--
सं ईक्षा > समीक्ष्यते इति अवलोकनम्
(अनुभूति, भावना, चित्त की स्थिति का) सम्यक् अवधान वास्तविक समीक्षा होता है, जिसमें टिप्पणी / प्रतिक्रिया के लिए कोई स्थान नहीं होता, और न किसी सुखद / दुःखद परिणाम की अपेक्षा ... यह संभव है यदि हममें धैर्य है ।
(पुनश्च : और थोड़ा गौर से देखें तो वहाँ  'व्यक्ति मन' जैसी कोई व्यक्ति-सत्ता भी नहीं होती जो 'समीक्षा' करनेवाला / समीक्षक होती हो । समीक्षक का विचार भी आनेजानेवाला ख़याल है, जबकि जिस संवेदन / consciousness में ये विचार आते-जाते हैं वह सदैव, सर्वथा निर्वैयक्तिक अचल अविकारी आधार है  !)

--

विचार का अनुभव और अनुभव का विचार

विचार का अनुभव और अनुभव का विचार
--
प्रायः ऐसा लगता है कि विचार का अनुभव और अनुभव का विचार एक ही स्थिति के दो पक्ष हैं । सीधें कहें तो विचार अनुभव का शब्दीकरण है जबकि अनुभव मूलतः केवल शुद्ध शब्दरहित संवेदन है । शुद्ध शब्दरहित संवेदन पर शब्द / विचार रूपी आवरण चढ़ाए जाते ही वह शुद्ध शब्दरहित संवेदन स्मृति अर्थात् पहचान बन जाता है । न तो स्मृति पहचान से रहित हो सकती है और न पहचान स्मृति से रहित । स्मृति और पहचान दोनों परस्पर आश्रित घटना है । इसलिए विचारों की क़ैद से मुक्त होने का कोई प्रश्न ही नहीं है । एकमात्र महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि शुद्ध शब्दरहित संवेदन को किस प्रकार से विचार से दूषित होने से रोका जा सकता है । विचार अपने या पराए नहीं होते । वे चित्त में आते-जाते रहते हैं और स्पष्ट है कि उनकी भूमिका चाहे-अनचाहे अतिथि से अधिक महत्वपूर्ण नहीं हो सकती । जब तक अपनी उस वास्तविकता पर हमारा ध्यान नहीं जाता जो आतिथेय (host) है, अतिथि (guest) नहीं, तब तक विचारों / विचार से मुक्ति नहीं ।
--
Experience of Thought/ Thought (idea) of Experience.
--  
We usually tend to feel that Experience of Thought and Thought of experience is one and the same thing. Though on examining closely, with due attention, one can see Thought is verbalization of Experience while Experience in its pure form of perception is wordless. So, as soon as this perception is covered-up under the cloak of word(s) / thought, the same gets stained, distorted and becomes 'memory'. 'Memory' is another term for 'Recognition' and 'Recognition for 'Memory'. None of the duo exists independently on its own. So the real question is not :
"How to free oneself from being a prisoner to Thought(s)?".
The real question is rather :
"How to see this nature of Thought as a single movement in the form of either the 'Memory'or the 'Recognition'?".
Thought is never 'my' or 'your' ... Thought(s), following the pattern of Memory / Recognition as is stored in the individual brain, keep appearing and disappearing in brain incessantly. Our liking, dislikes, fears, doubts, too follow the same pattern. So there is no question :
"How to cease to be a prisoner of  Thought(s)?"
The crucial question is :
"Do we see carefully, with keen attention the nature of thought and its movement in the forms of Memory and Recognition?" Thought as guest comes into and goes away from consciousness (neither my nor some-one other's). The consciousness is but the Host. As long as we don't look at the supporting consciousness, where-in all perception takes place, and cling to the idea (Thought again!) that Thought(s) are 'my' and claim authority over them, we can't have hope for freedom from Thought.
--  

Wednesday, 17 August 2016

परंपरा और परिपाटी / धर्म

तूफ़ाँ से गर्दिशों से बच निकल तो आया साबुत,
निकल तो आया साबुत, मगर पहचान खो गई ।
--
परंपरा और परिपाटी बनकर धर्म जब अपनी सरलता और स्वाभाविकता को त्याग देता है, जब परंपरा के रूप में वह दुराग्रह, प्रचार, हठ तथा दंभ बनकर सत्ता की भूख और येन-केन-प्रकारेण शक्ति प्राप्त करने की लालसा हो जाता है, तो भले ही उसके सिद्धान्त, मत, विश्वास या आदर्श कितने ही महान और श्रेष्ठ क्यों न हो, वस्तुतः धर्म के वेश में अधर्म और कपट, छल और पाखंड ही होता है, और तब उसकी दुष्टता छिपाए नहीं छिपती ।
--

Monday, 15 August 2016

The Human-consciousness.

‘What Is’, 
‘What should be’, 
and The Human-consciousness.
--

For me, Here lies the importance of understanding What J.Krishnamurti has tried to draw our attention to. To 'What Is' and this attention should not be in terms of 'What should be'. 'What Is' is Fact. This fact when translated into words is not 'What Is', but only an interpretation of 'What Is' / Fact.. 'Man' / Mankind needs to look at 'What Is' with attention focused with this perspective as the point of reference. 'Politics' is always centered around a 'Thought' about 'What should be'. And there lies the root-cause of fragmentation of human-consciousness in the individual.Many a great thinkers and 'Gurus' / teachers of all kinds have tried to find out and teach in their own way, way of attaining 'enlightenment' which is but in the ambit of 'What should be' and is a diversion from 'What Is'. So long as 'one' seeks one's own enlightenment / Spiritual growth, one can not overcome the obstacle of 'Thought' / the fragmentation of human consciousness . Once this fact enters the perception of the individual, ‘Thought’ comes to end on its own. This is truly, ‘The awakening of Intelligence’. One who has come across this Intelligence is no more an individual but only an Intelligent expression of ‘What Is’. Though one, who has understood 'Thought' / this fragmentation is not in a situation to make 'the world' undergo change. For him, there is no such a world which needs to be ‘reformed’ or transformed. For him, 'our world' / individual-world is a hypothetical entity / myth only.
'What Is' reigns Supreme, as is Timelessly, devoid of any description / interpretation.
--
'जो है',
'जो होना चाहिए',
और मानव-चेतना 
--
लगता है यही ठीक वह बिंदु है, जहाँ उस सन्दर्भ की ओर जे. कृष्णमूर्ति ने हमारा ध्यान आकर्षित करने का प्रयास किया है और उनके वचनों को उस परिप्रेक्ष्य में समझा जाना महत्वपूर्ण और समीचीन है । अर्थात् 'जो है', को सीधे समझा जाना, न कि 'जो होना चाहिए' के विचार, कल्पना या अनुमान को माध्यम बनाकर,  'जो होना चाहिए' के विचार, कल्पना या अनुमान आदि के सहारे विवेचना द्वारा वैचारिक ऊहापोह के माध्यम से समझने का प्रयास करना ।
'जो है' तथ्य है । इस तथ्य को जब शब्द प्रदान किये जाते हैं तो उन शब्दों से तथ्य का, अर्थात् उसका वर्णन संभव नहीं है 'जो है' । तब शब्द 'जो है' की, -तथ्य की व्याख्या भर बनकर रह जाते हैं और तथ्य के / 'जो है' के वास्तविक तत्व का यथावत् सम्प्रेषण हो पाना असंभव नहीं तो कठिन तो हो ही जाता है ।
 ज़रूरत यह है कि आज का मनुष्य अपना ध्यान समुचित रूप से ’जो है’ / ’तथ्य’ के सही सन्दर्भ में इसके तात्पर्य को समझने पर केन्द्रित रखे । राजनीति / राजनीतिक विचार हमेशा ही ’जो होना चाहिए’ / किसी आदर्श किन्तु काल्पनिक स्थिति को केन्द्र में रखकर गतिशील होता है । और यही भूल मनुष्य / व्यक्ति मात्र में विद्यमान सार्वलौकिक सर्वनिष्ठ सामान्य मानव-चेतना के विखण्डन का मूल कारण है ।
अनेक प्रकार के असंख्य महान विचारकों और शिक्षकों ने उनके अपने तरीके से ’आत्म-ज्ञान’ कैसे प्राप्त किया जाए, इस बारे में प्रयास किया है और इसकी शिक्षा भी दी है  किन्तु हम यह भूल जाते हैं कि ऐसा प्रयास ’जो होना चाहिए’ के दायरे में सीमित रह जाता है, उस दायरे को तोड़ नहीं पाता, इसलिए ’जो है’ / तथ्य से भटकाव और उसका विरूपण ही सिद्ध होता है ।
जब तक कोई अपनी ही आध्यात्मिक प्रगति और अपने-आपके ’आत्म-ज्ञान’की खोज में संलग्न रहता है तब तक ’अहं-केन्द्रित’ इस प्रयास का निष्फल होना स्वाभाविक है । और वह इस बुद्धि की बाधा को न तो समझ पाता है, न उसे पार कर पाता है ।  और मनुष्य-मन (चेतना) का मूल विखण्डन इसी तथ्य में   निहित है ।  जब यह तथ्य एक बार मनुष्य के  संवेदन में ग्रहण कर लिया जाता है तो 'विचार' अनायास, स्वतः ही पर्यवसित हो जाता है । वास्तव में यही प्रज्ञा / अंतःप्रज्ञा का प्रस्फुटन (‘The awakening of Intelligence’) भी है ।  जिस मानव (मन) में ऐसा आमूल परिवर्तन घटित हो जाता है वह कोई व्यक्ति-विशेष नहीं रह जाता बल्कि उस अंतःप्रज्ञा (Intelligence Supreme) की ही एक प्रकट अभिव्यक्ति होता है । जिसने विचार के इस अंत को देख लिया होता है, उसके लिए ऐसा कोई संसार कहीँ होता ही नहीं जिसे सुधारने या बदलने बारे में  सोचने की  ज़रूरत उसे महसूस होती हो ।  'हमारा संसार', 'हमारा वैयक्तिक जगत' तो उसकी दृष्टि में हमारा व्यक्तिगत विचार / कल्पना भर होता है जिससे वह नितांत अपरिचित होता है ।
'जो है' का, -तथ्य का, काल से अछूता सदा और सर्वत्र एकछत्र सार्वभौम साम्राज्य है ।
--