'गौ' / The 'Cow'
वैदिक ग्रन्थों में गौहत्या और गौमांससेवन की स्वीकृति के प्रमाण हैं, ऐसा कुछ बुद्धिजीवियों का अनुमान / शंका है ।
स्वामी विवेकानन्द ने भी एक बार कहा था :
मैंने सुना है कि "आपस्तम्ब धर्मसूत्र" में कहा गया है कि गाय का मांस अत्यन्त स्वादिष्ट होता है और..."
मुझे दुःख है कि क्या यह सत्य है?
यदि ऐसा है और कोई इसका विपरीत प्रमाण प्रस्तुत करे तो मेरा यह दुःख दूर हो सकेगा ।
बरसों पूर्व इन्दौर (म.प्र.) से प्रकाशित होनेवाले ’नईदुनिया’ में मैंने उपरोक्त उल्लेख पढ़ा था ।
पहला प्रश्न यह है कि वेदों के वे अध्येता जो वेदों का ’अध्ययन’ करते हैं जाति के आधार पर ’सवर्ण’ हैं ? इसी आधार पर वे वेद पढ़ने की पात्रता / अधिकार ही नहीं रखते । यदि वे वर्ण-व्यवस्था की परंपरा से नहीं हैं तो वेदों का उनका अध्ययन ही सर्वथा अप्रामाणिक और अविधिपूर्ण है ।
वेदों का अध्ययन केवल ब्राह्मणों के ही लिए है और ब्राह्मणों में भी वे ही जो विधिपूर्वक यज्ञोपवीत हों ।
पुनः वेद (जो शाश्वत्-वाणी है, ’संस्कृत-भाषा’ जिसका आवश्यकता के अनुसार व्यावहारिक संशोधित व परिमार्जित बस एक रूप ही है,) जैसे कि लिखित रूप में हमें प्राप्त हैं उनमें निहित ज्ञान को केवल वाचिक-परंपरा से ही ’संप्रदाय-विशेष’ के अनुसार कुल, शाखा, गोत्र आदि में पात्र / अधिकारी ब्राह्मण शिष्यों को ही प्रदान किया जाता है ।
दूसरी ओर वेद की ही एक और धारा है ’शैव’ जो अक्षरशः इसी वाचिक-परंपरा का दृढ़ता से पालन करती है ।
वह ’अवर्णों’ के लिए है और सामान्यतः ’सवर्ण’ उसके लिए अनधिकारी हैं ।
’सामान्यतः’ इसलिए क्योंकि कुछ सवर्ण इस नियम के अपवाद भी हैं । इन्हें ’ऋषि’ कहा जाता है ।
वे ’संस्कृत’ की परंपरा से भिन्न परंपरा से संबंधित होते हैं ।
इस प्रकार (मेरे विचार से) वर्तमान में प्रचलित दो ही भाषाएँ हमें प्राप्त हैं जिनके माध्यम से वेद के शुद्ध ज्ञान की धारा को आनेवाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित और संरक्षित रखा गया है ।
जिस प्रकार संस्कृत यद्यपि शुद्धतम ध्वनिगत स्वरूप में लिपिबद्ध की जा सकती है, और इसीलिए केवल कोई अत्यन्त समर्पित अध्येता ही इसे ठीक से समझ सकता है यदि उसे किसी मार्गदर्शक (आचार्य) की सहायता प्राप्त हो, वैसे ही तमिऴ दूसरी ऐसी भाषा है जिसमें बिना वाचिक-परंपरा के तो वेद के ज्ञान को लिपिबद्ध तक नहीं किया जा सकता ।
इस प्रकार इन दोनों भाषाओं का वैदिक-ज्ञान के प्रसार पर इस दृष्टि से एकाधिकार है कि कोई अनधिकारी इस अमूल्य ज्ञान का दुरुपयोग कर अपना व संसार का अहित न कर बैठे ।
वेद के ज्ञान की दूसरी धाराएँ भी हैं जैसे ’श्रीदक्षिणामूर्ति’ या ’वैदिक-तन्त्र’ जो अवर्णों और सवर्णों सभी के लिए हैं ।
किन्तु ’धर्म’ का, (’रिलीजन’ जिसका न केवल त्रुटिपूर्ण बल्कि भ्रामक अनुवाद भी है) भी वर्गीकरण वेद के अनुसार पुनः ’ब्राह्मी’ एवं ’अब्राह्मी’ इन दो विभागों में पाया जाता है ।
पहला है ब्रह्मा के मुख से वर्णित ’वैदिक धर्म’, दूसरा है ब्रह्मा की सृष्टि में मनुष्यों द्वारा अज्ञानपूर्वक निर्धारित व्यवस्था-रूपी धर्म ।
’अब्राहम’ / ’इब्राहीम’ से प्रारंभ हुई परंपरा मूलतः इसी दूसरे ’धर्म’ / ’रिलिजन’ पर आधारित है जिसमें ’विचार’ को ’विश्वास’ के रूप में बलपूर्वक आरोपित किया गया है । इसलिए ’अब्राह्मिक-धर्म’ में परस्पर मतभेद, विवाद और संघर्ष उसकी नियति ही है ।
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भाषा अभिव्यक्ति है, अभिव्यक्ति संकेत, चिह्न या लक्षण होती है, जिसके लिए संस्कृत में एक अन्य शब्द है ’लिंग’ । विचारणीय है कि संस्कृत व्याकरण के अनुसार ’लिंग’ तीन होते हैं ’पुंलिंग’, ’स्त्रीलिंग’, तथा नपुंसकलिंग । तात्पर्य यह कि ’लिंग’ मूलतः इन ’लिंगभेदों’ से परे ’द्योतक’ के अर्थ में ही ग्राह्य है ।
परम-सत्ता के अस्तित्व में कोई सन्देह नहीं कर सकता । क्योंकि तब वह अपनी ही सत्ता तक पर प्रश्न कर रहा होता है । इसलिए परम-सत्ता के द्योतक के रूप ’लिंग’ के चिह्न को मनुष्यमात्र अनायास समझ सकता है । और समस्त जैविक-जगत् (या मनुष्य की भौतिक / सांसारिक / लौकिक अस्तित्व) की सृष्टि ’लिंग’ से होती है इस सरल तथ्य को तो मूढ से मूढ भी अनायास ग्रहण कर सकता है ।
चूँकि वेद / वैदिक ज्ञान काल-स्थान की अपेक्षा नहीं रखता इसलिए संपूर्ण जगत् में उसकी व्याप्ति होना स्वाभाविक है । और उस ज्ञन के चिह्न-स्वरूप उस परम-सत्ता की अभिव्यक्ति ’लिंग-रूप’ में सारे संसार में पाई जाती है । किन्तु वह लिंग मनुष्य के लिंग से इस अर्थ में भिन्न और अत्यन्त विलक्षण है कि वह उस परम-सत्ता के सृष्टि, सृष्टि-संधारण तथा परिरक्षण, संवर्धन एवं संहार का भी द्योतक है, परम पावन और पवित्रकारी है । जीव-सृष्टि में वही प्रजनन का हेतु होने से वह अत्यन्त पूज्य है । पशु इसी काम-वृत्ति कीशक्ति से बाध्य होकर प्रजनन का कार्य करते हैं और कार्य पूर्ण होते ही काम-वृत्ति से निवृत्त हो जाते हैं । वह ’निवृत्ति’ उनके लिए प्रायः ’सुख-भावना’ में नहीं परिणत होती । प्रायः मनुष्य ’कल्पना’ के द्वारा उस सहज-प्राप्त काम-वृत्ति को नासमझी से विकृत कर देता है और ’समाज’ में इसलिए द्वन्द्व उत्पन्न होता है ।’काम’ एक ओर सामाजिक, तो दूसरी ओर वैयक्तिक समस्या बन जाता है । चिन्तन / वर्णन / चित्रण के द्वारा मनुष्य अपनी काम-भावना को कृत्रिम-रूप से उद्दीप्त करता है और फिर व्यक्तिगत और सामाजिक स्तर पर भी एक ऐसे दुष्चक्र में फँस जाता है जिससे कभी मुक्त नहीं हो पाता । समाज या बुद्धिजीवियों के पास इसका कोई समाधान आज तक तो नहीं मिला ।
किन्तु यदि इस ’काम-भाव’ को समझने का यत्न किया जाए और इसे विचार के बजाय विवेचना-पूर्वक समझा जाए, या इसे सहजता से स्वीकार किया जाए तो संभवतः हम इस दुष्चक्र से मुक्त हो सकते हैं । जब ’काम-भावना’ को एक नैसर्गिक प्रक्रिया समझकर उसे कृत्रिम उत्तेजना देकर ’सुख’ प्राप्त करने की मूर्खता समझ ली जाती है तो मनुष्य इस संबंध में सरल-चित्त, अपने मन में दुविधा से रहित हो सकता है । लेकिन एक और बिल्कुल भिन्न मानसिकता भी है जो है ’ऊर्ध्वरेता’ होने की मानसिकता । और किसी किसी बहुत शुचितापूर्ण चित्त-मन वाले मनुष्य में यह जन्मजात भी हो सकती है । ’ब्रह्मचर्य’ आश्रम में यह स्वाभाविक रूप से सभी में प्रायः पाई जा सकती है । यदि ऐसे शिशु को बचपन से ही अनुकूल वातावरण मिले तो उसके मन को दूषित और विकृत होने से बचाया जा सकता है और तब ’युवा’ होने पर उसके द्वारा कामोपभोग ’संतति-प्राप्ति’ के मुख्य प्रयोजन और ’सुख-प्राप्ति’ के गौण प्रयोजन को ध्यान में रखते हुए किया जाएगा । इनमें से भी कोई-कोई बचपन से ही इतने सुस्थिर वैराग्य-बुद्धि युक्त हो सकते हैं कि उन्हें सभी सुखों में अनित्यता के स्थिर तत्व का दर्शन हो जाता है और प्रकृति का उन पर इतना वश नहीं रह जाता कि वे संतानोत्पत्ति के ध्येय तक को महत्व दें । हो सकता है उनमें किसी ’नित्य-तत्व’ (जिसे वेद में ’ब्रह्म’ कहा गया है,) को जानने की इतनी उत्कट आकाँक्षा हो कि वे सभी साँसारिक-सुखों और कामोपभोग के आभासी सुखों तक से उदासीन हो जाएँ ।
गीता
अध्याय 8, श्लोक 11,
यदक्षरं वेदविदो वदन्ति
विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः ।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति
तत्ते पदं सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥
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(यत्-अक्षरम् वेदविदः वदन्ति
विशन्ति यत्-यतयः वीतरागाः ।
यत्-इच्छन्तः ब्रह्मचर्यम् चरन्ति
तत्-ते पदम् सङ्ग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥)
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भावार्थ :
जिस अव्यय अनश्वर तत्व को वेद के विद्वान ’अक्षर’ कहते हैं, और जिसकी उपासना में रत आसक्तिरहित हुए महात्मा जिसमें प्रवेश करते हैं, जिसकी प्राप्ति की आकाँक्षा करते हुए वे ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उस परम पद को मैं तुम्हारे लिए संक्षेप से कहूँगा ।
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तात्पर्य यह कि एक मनुष्य जो ब्रह्मचर्य का अर्थ इन्द्रिय-निग्रह मात्र जानकर उस का ’अभ्यास’ करने के लिए बाध्य है, और दूसरा जिसे ब्रह्मचर्य के आचरण का महत्व अच्छी तरह ज्ञात है, ब्रह्मचर्य का पालन भिन्न-भिन्न उद्देश्य से करते हैं । पहले के लिए इन्द्रिय भोगों के आकर्षण से बचना कठिन होता है, जबकि दूसरे को इन्द्रिय-भोगों की सीमा तथा व्यर्थता का भी ज्ञान है । प्रथम को यह भी नहीं पता कि कब इन्द्रियाँ चित्त को बलपूर्वक भोग की ओर खींचती हैं, और वह उन्हें कैसे रोके, जबकि दूसरे को न केवल यह पता होता है कि इन्द्रियाँ कब और कैसे चित्त को बलपूर्वक भोग के लिए बाध्य करती हैं, बल्कि यह भी कि मन क्यों उनके (इन्द्रियों के) वश में होता है? जैसा कि आगे कहा जा रहा है :
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मुझे नहीं लगता ऐसा धन्यभागी, हममें से कोई होगा । हममें से अधिकाँश तो बचपन पार करते करते इतने जटिल और उलझे हुए हो जाते हैं कि इस संभावना की ओर हमारा ध्यान तक जा सके । बहुत से ’विद्वान’ इस ’ऊर्ध्वरेता’ होने के इतने मनमाने अर्थ गढ़ते हैं कि उनकी बुद्धि पर बस तरस ही किया जा सकता है । ’ब्रह्मचर्य’ की उनकी सारी समझ येन-केन-प्रकारेण ’काम’ के आवेग को नियन्त्रित करने के सामाजिक सन्दर्भ में वाँछित ’नैतिक’मूल्य से सामञ्जस्य स्थापित करने तक ही है ।
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अभी कुछ दिनों पूर्व एक बुद्धिजीवि मित्र ने प्रश्न उठाया था :
"क्या मनुष्य को उसकी यौन-मानसिकता के अनुसार जीने की स्वतन्त्रता नहीं होनी चाहिए? क्या उसे समलैंगिक, विषमलैंगिक या अन्य किसी प्रकार से लैंगिक-व्यवहार करने की स्वतन्त्रता नहीं होनी चाहिए?"
मैंने उत्तर में इतना कहा कि विषम-लैंगिकता के अतिरिक्त अन्य सभी प्रकार विकृत मानसिकता के ही भिन्न-भिन्न रूप हैं ।
"आप ऐसा क्यों कहते हैं ? यह विकृति क्यों है?"
"क्योंकि प्राकृतिक रूप से काम-वृत्ति का एकमात्र प्रयोजन संतान की उत्पत्ति है और वह स्वाभाविक है । और इसीलिए जो काम-वृत्ति इससे भिन्न किसी ’सुख-प्राप्ति’ के प्रयोजन से पैदा होती है वह अस्वाभाविक / विकृत है । मैं नहीं कहता कि वह निंदनीय ही है ।इसे आप तय करें ।"
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पुनः स्वामी विवेकानंदजी के लिए
ऋषि आपस्तम्ब द्वारा कहे गए वचन, स्कन्द-पुराण, आवन्तिका-रेवाखण्ड- अध्याय 13, से श्लोक 62, 63, 64, 65
प्रस्तुत हैं :
गावः प्रदक्षिणी कार्या वन्दनीया हि नित्यशः ।
मङ्गलायतनं दिव्याः सृष्टास्त्वेताः स्वयम्भुवा ॥62
अप्यागाराणि विप्राणां देवतायतनानि च ।
यद्गोमयेन शुद्ध्यन्ति किं ब्रूमो ह्यधिकं ततः ॥63
गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधिसर्पिस्तथैव च ।
गवां पञ्च पवित्राणि पुनन्ति सकलं जगत् ॥64
गावो मे चाग्रतो नित्यं गावः पृष्ठत एव च ।
गावो मे हृदये चैव गवां मध्ये वसाम्यहम् ॥65
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gāvaḥ pradakṣiṇī kāryā vandanīyā hi nityaśaḥ |
maṅgalāyatanaṃ divyāḥ sṛṣṭāstvetāḥ svayambhuvā ||62
apyāgārāṇi viprāṇāṃ devatāyatanāni ca |
yadgomayena śuddhyanti kiṃ brūmo hyadhikaṃ tataḥ ||63
gomūtraṃ gomayaṃ kṣīraṃ dadhisarpistathaiva ca |
gavāṃ pañca pavitrāṇi punanti sakalaṃ jagat ||64
gāvo me cāgrato nityaṃ gāvaḥ pṛṣṭhata eva ca |
gāvo me hṛdaye caiva gavāṃ madhye vasāmyaham ||65
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निष्कर्ष
जिस प्रकार शिवलिंग शिव (परम सत्ता) की अभिव्यक्ति है न कि 'प्रतीक' (symbol), उसी प्रकार 'गौ' (The Cow) सनातन-धर्म का 'अभिव्यक्त' रूप है और जब तक पृथ्वी पर गौहत्या जारी रहेगी, तब तक संसार में मनुष्यों में पारस्परिक सौहार्द्र, शान्ति हो पाना असंभव है । ऋषि आपस्तम्ब ने धर्मसूत्र में गाय के मांस बारे में क्या कहा होगा, और वह कितना प्रामाणिक है, इसका अनुमान लगाने लिए चार श्लोक पर्याप्त हैं ।
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