क्या ईश्वर अनश्वर है?
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नश् > नश्यते नश्वर > नाम-रूप,
न नश्यते > अनश्वर > नाम-रूप जिस पर आरोपित किए जाते हैं,
ईश् > ईशते > शासन करना > ईश्वर ।
नाम रूप किसी चेतन तत्व द्वारा आरोपित किए जाते हैं ।
जिस पर नाम-रूप आरोपित किए जाते हैं वह दृश्य हुआ ।
जिसे दृश्य का संवेदन / प्रतीति होती है वह चेतन हुआ ।
इस चेतन के अस्तित्व को जागृति के ही समय ’मन’ के रूप में स्वीकार किया जाता है । अन्य समय वह (मन) होता है इसका अनुमान या कल्पना भी जागृति के ही समय होती है । जिसकी कल्पना या अनुमान जागृति के समय की जाती है, वह दृश्य हुआ । जिस चेतना में यह अनुमान / कल्पना घटित होते हैं, वह स्वयं अनुमान या कल्पना नहीं है । भूल से उसे भी मन कह दिया जाता है । इस प्रकार चेतना के दो प्रकार कहे जा सकते हैं एक आधारभूत अविकारी (परिवर्तन से रहित) तथा दूसरी परिवर्तनशील । बुद्धि के कार्यशील होने पर स्मृति से विचारों का आगमन और ’पहचान’ का अनुमान किया जाता है । इस प्रकार से अविकारी पर विकारशील (नाम-रूप) आरोपित कर दिया जाता है । इसके फलस्वरूप जगत् और स्व इन दो सत्ताओं का अनुमान बुद्धि के ही अन्तर्गत होता है । स्वयं बुद्धि (के कार्य) का भी आगमन और प्रस्थान सतत होने से उसे भी एक स्वतन्त्र तत्व (बुद्धि में ही) समझ लिया जाता है ।
अविकारी चेतना सबको सक्रिय बनाते हुए भी नित्य असंसक्त, निर्लिप्त और अप्रभावित रहती है । उस अविकारी चेतना को जाननेवाला कोई उससे अन्य नहीं है । इसलिए व्यवहार में उसे ईश्वर कहा जा सकता है । उसका जन्म नहीं और इसलिए उसके नश्वर या अनश्वर होने का प्रश्न ही नहीं उठता । बुद्धि-रूपी जीव का ही सतत् जन्म और नाश होता रहता है । नाम-रूप का आश्रय बुद्धि ही है । इसलिए नाम-रूप के भी नश्वर या अनश्वर होने का प्रश्न नहीं उठ सकता । इसलिए न तो ’कर्ता’ है, न ’कर्म’ केवल एक ही सत्ता है जिसमें जीव और उसके जगत् के बीच मायारूपी क्रीडा हुआ करती है । माया का भी जन्म और मृत्यु से कोई संबंध नहीं क्योंकि माया भी मूलतः एक धारणा मात्र है । यह धारणा विलीन हो जाए तो जो पहले था वही पुनः प्राप्त हुआ जान पड़ता है ।
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नश् > नश्यते नश्वर > नाम-रूप,
न नश्यते > अनश्वर > नाम-रूप जिस पर आरोपित किए जाते हैं,
ईश् > ईशते > शासन करना > ईश्वर ।
नाम रूप किसी चेतन तत्व द्वारा आरोपित किए जाते हैं ।
जिस पर नाम-रूप आरोपित किए जाते हैं वह दृश्य हुआ ।
जिसे दृश्य का संवेदन / प्रतीति होती है वह चेतन हुआ ।
इस चेतन के अस्तित्व को जागृति के ही समय ’मन’ के रूप में स्वीकार किया जाता है । अन्य समय वह (मन) होता है इसका अनुमान या कल्पना भी जागृति के ही समय होती है । जिसकी कल्पना या अनुमान जागृति के समय की जाती है, वह दृश्य हुआ । जिस चेतना में यह अनुमान / कल्पना घटित होते हैं, वह स्वयं अनुमान या कल्पना नहीं है । भूल से उसे भी मन कह दिया जाता है । इस प्रकार चेतना के दो प्रकार कहे जा सकते हैं एक आधारभूत अविकारी (परिवर्तन से रहित) तथा दूसरी परिवर्तनशील । बुद्धि के कार्यशील होने पर स्मृति से विचारों का आगमन और ’पहचान’ का अनुमान किया जाता है । इस प्रकार से अविकारी पर विकारशील (नाम-रूप) आरोपित कर दिया जाता है । इसके फलस्वरूप जगत् और स्व इन दो सत्ताओं का अनुमान बुद्धि के ही अन्तर्गत होता है । स्वयं बुद्धि (के कार्य) का भी आगमन और प्रस्थान सतत होने से उसे भी एक स्वतन्त्र तत्व (बुद्धि में ही) समझ लिया जाता है ।
अविकारी चेतना सबको सक्रिय बनाते हुए भी नित्य असंसक्त, निर्लिप्त और अप्रभावित रहती है । उस अविकारी चेतना को जाननेवाला कोई उससे अन्य नहीं है । इसलिए व्यवहार में उसे ईश्वर कहा जा सकता है । उसका जन्म नहीं और इसलिए उसके नश्वर या अनश्वर होने का प्रश्न ही नहीं उठता । बुद्धि-रूपी जीव का ही सतत् जन्म और नाश होता रहता है । नाम-रूप का आश्रय बुद्धि ही है । इसलिए नाम-रूप के भी नश्वर या अनश्वर होने का प्रश्न नहीं उठ सकता । इसलिए न तो ’कर्ता’ है, न ’कर्म’ केवल एक ही सत्ता है जिसमें जीव और उसके जगत् के बीच मायारूपी क्रीडा हुआ करती है । माया का भी जन्म और मृत्यु से कोई संबंध नहीं क्योंकि माया भी मूलतः एक धारणा मात्र है । यह धारणा विलीन हो जाए तो जो पहले था वही पुनः प्राप्त हुआ जान पड़ता है ।
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