’गौ’ / ’The Cow’ -2.
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ऋषि आपस्तम्ब द्वारा कहे गए वचन, स्कन्द-पुराण, आवन्तिका-रेवाखण्ड- अध्याय 13, से श्लोक 62, 63, 64, 65
प्रस्तुत हैं :
गावः प्रदक्षिणी कार्या वन्दनीया हि नित्यशः ।
मङ्गलायतनं दिव्याः सृष्टास्त्वेताः स्वयम्भुवा ॥62
अप्यागाराणि विप्राणां देवतायतनानि च ।
यद्गोमयेन शुद्ध्यन्ति किं ब्रूमो ह्यधिकं ततः ॥63
गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधिसर्पिस्तथैव च ।
गवां पञ्च पवित्राणि पुनन्ति सकलं जगत् ॥64
गावो मे चाग्रतो नित्यं गावः पृष्ठत एव च ।
गावो मे हृदये चैव गवां मध्ये वसाम्यहम् ॥65
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सरल अर्थ:
गौओं की प्रदक्षिणा की जाना पुण्य कार्य है, गौएँ नित्यशः वन्दनीया, स्वस्ति-स्वरूपा, दिव्य, सृष्टा एवं स्वयंभू हैं । साथ ही वे (गौएँ) विप्रों तथा देवों का अधिष्ठान और आवास हैं, जिन विप्रों के गृह गोबर से लिपे होते हैं ऐसे ब्राहमण (और उनके गृह) तो और भी अधिक शुद्ध और पवित्र होते हैं ।गोमूत्र, गोबर, गोदुग्ध, गो-दधि, तथा गो-घृत ये पाँचों सम्पूर्ण जगत् को ही पुण्यता और पवित्रता प्रदान करते हैं । गौएँ नित्य मेरे आगे चलें, अर्थात् मैं उनका अनुसरण करूँ, और गौएँ नित्य मेरे पीछे चलें अर्थात् वे मेरा अनुसरण करें । गौएँ मेरे हृदय में बसें और मैं उनके हृदय में ।
इसे पढ़ते हुए अनायास ऐतरेयोपनिषत् का शान्तिपाठ याद हो आता है :
"ॐ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता । मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि ..."
"मेरी वाचा मन में प्रतिष्ठित हो और मेरा मन वाचा में..."
मेरी व्यक्त वाणी मेरे हृदय की भावनाओं के अनुरूप हो और मेरा हृदय परावाणी के अनुरूप हो..."
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वेदों में व्यक्त वाणी वही परा-वाणी है और परा-वाणी का इन्द्रियों मन-बुद्धि में परावर्तित प्रकाश ही वेद-निहित ज्ञान है ।
इसलिए ऐसा ज्ञान ’श्रुति’-रूप में ही ग्राह्य है न कि स्मृतिरूप में । सत्य तो यह है कि यह ज्ञान स्मृति का विषय है भी नहीं ।
इसलिए यह जानना महत्वपूर्ण है कि आपस्तम्ब-धर्म-सूत्र या मनुस्मृति या याज्ञवल्क्य-स्मृति वेद का विपर्याय भी हो सकता है ।
वेद अनादि और अनंत है और ग्रन्थ-रूप में प्राप्त वेद केवल औपचारिक और प्रासंगिक, तात्कालिक महत्व ही रखते हैं । पुनः वह भी स्थान काल और अधिकारी-भेद से । चूँकि वेद नित्य प्रकाश हैं इसलिए भिन्न-भिन्न ऋषियों द्वारा इन्हें भिन्न-भिन्न समय पर पाया जाता है और उनकी अपनी पात्रता भी इसमें विचारणीय है ।
ऋषि-मुनि भी गौमांस का सेवन करते थे ।
ऐतिहासिक दृष्टि से यह बिल्कुल संभव है । किन्तु यदि वेदों में गौमांस के सेवन को पाप कहा गया है तो वे ऋषि भी अवश्य ही पाप के भागी हैं । और ऋषि होने से उन्हें प्रमाण नहीं माना जा सकता । दूसरी ओर वेदों के ही अनुसार अत्याश्रमी, ब्रह्मर्षि वर्ण-आश्रम-धर्म से परे होता है और उस पर पाप-पुण्य का नियम लागू नहीं होता फिर भी लोकसंग्रह (लोक में अनुकरणीय उदाहरण के रूप में) के उद्देश्य से ऐसे महापुरुष कितने भी पूज्य हों, हमारा आदर्श नहीं हो सकते ।
हो सकता है कि प्रारब्धवश ही उनके द्वारा ऐसे कृत्य किए गए हों जो शास्त्र में निषिद्ध और निन्दित कहे गए हों ।
यहाँ पुनः यह भी इसीलिए दृष्टव्य है कि केवल ’अधिकारी’ अर्थात् पात्र को ही वेद पढ़ने का अधिकार है । अन्य व्यक्ति भले ही पढ़े किन्तु उसे वेद की व्याख्या या आलोचना करना मर्यादा के विपरीत होगा क्योंकि वह वेद के स्वरूप से अनभिज्ञ होता है ।
स्वामी विवेकानन्द का ही एक अन्य उद्धरण इस प्रकार से है :
*...they change in the course of time. This you always have to remember, that because oa little social custom is going to be changed you are not going to lose your religion, not at all. Remember these customs have already been changed. There was a time in this very India when without eating beef, no ब्राह्मण / brahmin could remain a ब्राह्मण / brahmin; you read in the Vedas how, when a संन्यासी / Sannyasin, a king, or a great man came into a house, the best bullock was killed ; how in time it was found that as..
(From the complete works of Swami Vivekananda published by Advaita Ashram, Mayavati Almora, 1932, p.173.)
...nature.
Orthodox ब्राह्मण / brahmins regarded with abhorrence his habit of eating animal food, The Swami courageously told them about the eating of beef by the ब्राह्मण / brahmins in Vedic times. One day, asked about what he considered the most glorious period of Indian history, the Swami mentioned the Vedic period, when "five ब्राह्मण / brahmins used to polish-off one cow." He advocated animal food for the Hindus if they were to cope at all with the rest of the world in the present reign of power and find a place among the other great nations, whether within or outside the British Empire.
(From : Vivekanand. 'A biography
by Swami Nikhilanand,
Published by Ramkrishna Vivekanand Centre 1953.)
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यहाँ दो बातें विचारणीय हैं :
स्वामी विवेकानन्द ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य तक नहीं थे, इसलिए वर्ण के आधार पर वे वेद पढ़ने के अधिकारी तक नहीं थे । और अगर कहा जाए कि वेद पढ़ने में सभी का अधिकार है तो भी उन्हें वेद की व्याख्या आलोचना करने का अधिकार तो था ही नहीं । इस दृष्टि से वे ’अवर्ण’ ही थे । यदि कहा जाए कि ’संस्कार’ से वे ’ब्राह्मण’ या संन्यासी थे, तो ’संन्यासी’ भी वर्ण-आश्रम से परे होता है । शंकराचार्य विवेक-चूड़ामणि में कहते हैं, अष्टावक्र-गीता में भी कहा गया है :
" तुम्हारी न जाति है, न वर्ण है, है, तुम न तो स्त्री हो न पुरुष, न बालक, युवा या वृद्ध... यह देह तक तुम्हारी नहीं, ये अवस्थाएँ देह की हैं, तुम्हारी नहीं । "
और अगर स्वामी विवेकानंद को एक औसत मनुष्य माना जाए तो वे जीवन भर जितने रोगों से जूझते रहे, अल्प आयु में ही उनकी मृत्यु हो गई इस सबके लिए उनके ’मांसाहार’ को कारण समझना गलत नहीं होगा । ’माँस’ यद्यपि ’बल’ प्रदान करता है, किन्तु रजोगुणयुक्त होने से रजोगुण के दोषों को भी पैदा करता है ।
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( *The info has not been verified by myself, please note)
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ऋषि आपस्तम्ब द्वारा कहे गए वचन, स्कन्द-पुराण, आवन्तिका-रेवाखण्ड- अध्याय 13, से श्लोक 62, 63, 64, 65
प्रस्तुत हैं :
गावः प्रदक्षिणी कार्या वन्दनीया हि नित्यशः ।
मङ्गलायतनं दिव्याः सृष्टास्त्वेताः स्वयम्भुवा ॥62
अप्यागाराणि विप्राणां देवतायतनानि च ।
यद्गोमयेन शुद्ध्यन्ति किं ब्रूमो ह्यधिकं ततः ॥63
गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधिसर्पिस्तथैव च ।
गवां पञ्च पवित्राणि पुनन्ति सकलं जगत् ॥64
गावो मे चाग्रतो नित्यं गावः पृष्ठत एव च ।
गावो मे हृदये चैव गवां मध्ये वसाम्यहम् ॥65
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सरल अर्थ:
गौओं की प्रदक्षिणा की जाना पुण्य कार्य है, गौएँ नित्यशः वन्दनीया, स्वस्ति-स्वरूपा, दिव्य, सृष्टा एवं स्वयंभू हैं । साथ ही वे (गौएँ) विप्रों तथा देवों का अधिष्ठान और आवास हैं, जिन विप्रों के गृह गोबर से लिपे होते हैं ऐसे ब्राहमण (और उनके गृह) तो और भी अधिक शुद्ध और पवित्र होते हैं ।गोमूत्र, गोबर, गोदुग्ध, गो-दधि, तथा गो-घृत ये पाँचों सम्पूर्ण जगत् को ही पुण्यता और पवित्रता प्रदान करते हैं । गौएँ नित्य मेरे आगे चलें, अर्थात् मैं उनका अनुसरण करूँ, और गौएँ नित्य मेरे पीछे चलें अर्थात् वे मेरा अनुसरण करें । गौएँ मेरे हृदय में बसें और मैं उनके हृदय में ।
इसे पढ़ते हुए अनायास ऐतरेयोपनिषत् का शान्तिपाठ याद हो आता है :
"ॐ वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता । मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमाविरावीर्म एधि ..."
"मेरी वाचा मन में प्रतिष्ठित हो और मेरा मन वाचा में..."
मेरी व्यक्त वाणी मेरे हृदय की भावनाओं के अनुरूप हो और मेरा हृदय परावाणी के अनुरूप हो..."
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वेदों में व्यक्त वाणी वही परा-वाणी है और परा-वाणी का इन्द्रियों मन-बुद्धि में परावर्तित प्रकाश ही वेद-निहित ज्ञान है ।
इसलिए ऐसा ज्ञान ’श्रुति’-रूप में ही ग्राह्य है न कि स्मृतिरूप में । सत्य तो यह है कि यह ज्ञान स्मृति का विषय है भी नहीं ।
इसलिए यह जानना महत्वपूर्ण है कि आपस्तम्ब-धर्म-सूत्र या मनुस्मृति या याज्ञवल्क्य-स्मृति वेद का विपर्याय भी हो सकता है ।
वेद अनादि और अनंत है और ग्रन्थ-रूप में प्राप्त वेद केवल औपचारिक और प्रासंगिक, तात्कालिक महत्व ही रखते हैं । पुनः वह भी स्थान काल और अधिकारी-भेद से । चूँकि वेद नित्य प्रकाश हैं इसलिए भिन्न-भिन्न ऋषियों द्वारा इन्हें भिन्न-भिन्न समय पर पाया जाता है और उनकी अपनी पात्रता भी इसमें विचारणीय है ।
ऋषि-मुनि भी गौमांस का सेवन करते थे ।
ऐतिहासिक दृष्टि से यह बिल्कुल संभव है । किन्तु यदि वेदों में गौमांस के सेवन को पाप कहा गया है तो वे ऋषि भी अवश्य ही पाप के भागी हैं । और ऋषि होने से उन्हें प्रमाण नहीं माना जा सकता । दूसरी ओर वेदों के ही अनुसार अत्याश्रमी, ब्रह्मर्षि वर्ण-आश्रम-धर्म से परे होता है और उस पर पाप-पुण्य का नियम लागू नहीं होता फिर भी लोकसंग्रह (लोक में अनुकरणीय उदाहरण के रूप में) के उद्देश्य से ऐसे महापुरुष कितने भी पूज्य हों, हमारा आदर्श नहीं हो सकते ।
हो सकता है कि प्रारब्धवश ही उनके द्वारा ऐसे कृत्य किए गए हों जो शास्त्र में निषिद्ध और निन्दित कहे गए हों ।
यहाँ पुनः यह भी इसीलिए दृष्टव्य है कि केवल ’अधिकारी’ अर्थात् पात्र को ही वेद पढ़ने का अधिकार है । अन्य व्यक्ति भले ही पढ़े किन्तु उसे वेद की व्याख्या या आलोचना करना मर्यादा के विपरीत होगा क्योंकि वह वेद के स्वरूप से अनभिज्ञ होता है ।
स्वामी विवेकानन्द का ही एक अन्य उद्धरण इस प्रकार से है :
*...they change in the course of time. This you always have to remember, that because oa little social custom is going to be changed you are not going to lose your religion, not at all. Remember these customs have already been changed. There was a time in this very India when without eating beef, no ब्राह्मण / brahmin could remain a ब्राह्मण / brahmin; you read in the Vedas how, when a संन्यासी / Sannyasin, a king, or a great man came into a house, the best bullock was killed ; how in time it was found that as..
(From the complete works of Swami Vivekananda published by Advaita Ashram, Mayavati Almora, 1932, p.173.)
...nature.
Orthodox ब्राह्मण / brahmins regarded with abhorrence his habit of eating animal food, The Swami courageously told them about the eating of beef by the ब्राह्मण / brahmins in Vedic times. One day, asked about what he considered the most glorious period of Indian history, the Swami mentioned the Vedic period, when "five ब्राह्मण / brahmins used to polish-off one cow." He advocated animal food for the Hindus if they were to cope at all with the rest of the world in the present reign of power and find a place among the other great nations, whether within or outside the British Empire.
(From : Vivekanand. 'A biography
by Swami Nikhilanand,
Published by Ramkrishna Vivekanand Centre 1953.)
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यहाँ दो बातें विचारणीय हैं :
स्वामी विवेकानन्द ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य तक नहीं थे, इसलिए वर्ण के आधार पर वे वेद पढ़ने के अधिकारी तक नहीं थे । और अगर कहा जाए कि वेद पढ़ने में सभी का अधिकार है तो भी उन्हें वेद की व्याख्या आलोचना करने का अधिकार तो था ही नहीं । इस दृष्टि से वे ’अवर्ण’ ही थे । यदि कहा जाए कि ’संस्कार’ से वे ’ब्राह्मण’ या संन्यासी थे, तो ’संन्यासी’ भी वर्ण-आश्रम से परे होता है । शंकराचार्य विवेक-चूड़ामणि में कहते हैं, अष्टावक्र-गीता में भी कहा गया है :
" तुम्हारी न जाति है, न वर्ण है, है, तुम न तो स्त्री हो न पुरुष, न बालक, युवा या वृद्ध... यह देह तक तुम्हारी नहीं, ये अवस्थाएँ देह की हैं, तुम्हारी नहीं । "
और अगर स्वामी विवेकानंद को एक औसत मनुष्य माना जाए तो वे जीवन भर जितने रोगों से जूझते रहे, अल्प आयु में ही उनकी मृत्यु हो गई इस सबके लिए उनके ’मांसाहार’ को कारण समझना गलत नहीं होगा । ’माँस’ यद्यपि ’बल’ प्रदान करता है, किन्तु रजोगुणयुक्त होने से रजोगुण के दोषों को भी पैदा करता है ।
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( *The info has not been verified by myself, please note)
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