Sunday, 22 November 2015

aṣṭāvakra gītā / अष्टावक्र गीता,

आज का श्लोक 
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यः पश्यति इह संसारे
यः दृश्यते तथा अपि ।
भोग-मोक्षनिराकांक्षी
न भुङ्क्ते नैव बध्यते ॥
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जो देखता है, जो दिखाई पड़ता है, ऐसा भोग-मोक्ष की कामना से रहित मनुष्य न तो (कामनाओं का) भोग करता है, न (कामनाओं से) बँधता है, (क्योंकि उसे मोक्ष की भी आवश्यकता नहीं अनुभव होती ) ।
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yaḥ paśyati iha saṃsāre
yaḥ dṛśyate tathā api |
bhoga-mokṣanirākāṃkṣī
na bhuṅkte naiva badhyate ||
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Meaning :
In this world, the one who sees, and the one who is observed as one free from desiring enjoyments or seeking freedom from them, neither experiences those enjoyments, nor gets indulged in them.
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बुभुक्षुरिह संसारे मुमुक्षुरपि दृश्यते ।
भोगमोक्षनिराकांक्षी विरलो हि महाशयः ॥
(अष्टावक्र गीता, अध्याय 17, श्लोक 5)
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इस संसार में भोगों की कामना रखनेवाले और मोक्ष की कामना रखनेवाले भी देखे जाते हैं, किंतु ऐसा कोई महापुरुष बिरले ही दिखाई पड़ता है, जिसे न तो भोगों की कामना हो, न मोक्ष की ।
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bubhukṣuriha saṃsāre mumukṣurapi dṛśyate |
bhogamokṣanirākāṃkṣī viralo hi mahāśayaḥ ||
(aṣṭāvakra gītā 17 śloka 5)
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Meaning :
In this world are seen people who are gripped by desires and those who seek freedom from desire, but rarely we see a great one who seeks neither fulfillment of nor freedom from desire.
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