अपने-आपको जानना / Knowing one-self.
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प्रश्न :
भला करने या भला चाहने से भला नहीं होता है। भला जब होना होता है तो खुद ही हो जाता है और नहीं होना हो तो मारते रहो तीर ।... आप बहुत बेहतर समझा सकेंगे Vinay ji...
उत्तर :
जो अपने आपको ’जाना’ या ’अनजाना’ मानता है, उसे यह भी पता होता है कि वह वस्तुतः अपने ’होने’ भर को ही जानता है । और इस प्रकार से अपने-आप को जानना ’जानकारी’ / ’इन्फ़ॉर्मेशन’ या मेमोरी, ओपिनिअन, निष्कर्ष, या कॉन्सेप्ट, इन्फ़रेन्स नहीं - बल्कि सहज प्रतीति होती है । यह बोध प्राणीमात्र में होता ही है । एक ’कर्म’ तो घटना के रूप में होता है, दूसरा उसकी 'व्याख्या' के रूप में । किसी एक ही घटना की व्याख्या हर मनुष्य अपने-अपने ढंग से करता है, यह ’व्याख्या’ उस वास्तविक घटना से बिल्कुल भिन्न प्रकार की चीज़ होती है । घटना और उसकी व्याख्या एक-दूसरे के विकल्प नहीं हो सकते (जैसा कि भूल से व्याख्या करनेवाला समझ बैठता है)। इसलिए जिसे हम ’कर्म’ कहते हैं ऐसी कोई वस्तु परिभाषित तक नहीं की जा सकती । किन्तु हम घटनाओं (अपनी या दूसरों के द्वारा की गई व्याख्या की, जिसे इतिहास / अनुभव कहा जाता है,) की स्मृति को आधार मानते हुए ’कर्म’ के अस्तित्व और ’अपने’ (स्वतन्त्र) ’कर्ता’ होने की कल्पना से आदतन / प्रमादवश (अर्थात सतर्क न होने से) इस बुरी तरह ग्रस्त (ऑब्सेस्ड) होते हैं कि फिर इस ग्रस्तता को अतीत और भविष्य (की आधारहीन कल्पना) तक खींच ले जाते हैं, और कहने लगते हैं ’मैंने’ ’यह’ / ’वह’ किया / नहीं किया, अथवा, ’मैं’, ”यह’ / ’वह’ करूँगा / नहीं करूँगा । इसमें अतीत, भविष्य, मैं, मैंने, करना, इन सबसे हम क्या समझते हैं, यह जानना भी हमारे लिए नितांत दुरूह, अनिश्चित और अज्ञातप्राय होता है । इसलिए मुख्य बात यह हो सकती है कि हम अपने विवेक से जो कर सकते हैं उसे ही करने के प्रयास तक ही स्वयं को सीमित रखें और जो होता है वह हमारे नियंत्रण में होगा ही ऐसा न सोचें ।
मुझे लगता है कि अधिकांश लोगों को ’शास्त्र’ (हिन्दू ही नहीं, सभी ) और अधिक भ्रमित कर देते हैं , इसलिए शास्त्र, ’शस्त्र’ से कम खतरनाक नहीं होते । शस्त्रों की भयावहता तो प्रकट है, किन्तु शास्त्रों की भयावहता की ओर हमारा ध्यान तक शायद ही कभी जाता हो । कोई दिलाये भी तो हम उसे महत्व नहीं देते ।
हमारा अपने-आपको जानना न तो किसी ’कर्म’ का परिणाम है, न किसी ’कर्म’ से इस ’जानने’ का अन्त संभव है । हमारा ’होना’ भी न तो किसी ’कर्म’ का परिणाम है, न किसी कर्म से हमारे ’होने’ के तथ्य को मिटाया जा सकता है ।
क्योंकि मान लें यदि ऐसा हो भी जाता है तो ’हमें’ कैसे पता चलेगा? और यदि किसी तल पर हमें पता चलता है, तो हम वहाँ ’होंगे’ ही । अपने होने को जानते हुए ।
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प्रश्न :
भला करने या भला चाहने से भला नहीं होता है। भला जब होना होता है तो खुद ही हो जाता है और नहीं होना हो तो मारते रहो तीर ।... आप बहुत बेहतर समझा सकेंगे Vinay ji...
उत्तर :
जो अपने आपको ’जाना’ या ’अनजाना’ मानता है, उसे यह भी पता होता है कि वह वस्तुतः अपने ’होने’ भर को ही जानता है । और इस प्रकार से अपने-आप को जानना ’जानकारी’ / ’इन्फ़ॉर्मेशन’ या मेमोरी, ओपिनिअन, निष्कर्ष, या कॉन्सेप्ट, इन्फ़रेन्स नहीं - बल्कि सहज प्रतीति होती है । यह बोध प्राणीमात्र में होता ही है । एक ’कर्म’ तो घटना के रूप में होता है, दूसरा उसकी 'व्याख्या' के रूप में । किसी एक ही घटना की व्याख्या हर मनुष्य अपने-अपने ढंग से करता है, यह ’व्याख्या’ उस वास्तविक घटना से बिल्कुल भिन्न प्रकार की चीज़ होती है । घटना और उसकी व्याख्या एक-दूसरे के विकल्प नहीं हो सकते (जैसा कि भूल से व्याख्या करनेवाला समझ बैठता है)। इसलिए जिसे हम ’कर्म’ कहते हैं ऐसी कोई वस्तु परिभाषित तक नहीं की जा सकती । किन्तु हम घटनाओं (अपनी या दूसरों के द्वारा की गई व्याख्या की, जिसे इतिहास / अनुभव कहा जाता है,) की स्मृति को आधार मानते हुए ’कर्म’ के अस्तित्व और ’अपने’ (स्वतन्त्र) ’कर्ता’ होने की कल्पना से आदतन / प्रमादवश (अर्थात सतर्क न होने से) इस बुरी तरह ग्रस्त (ऑब्सेस्ड) होते हैं कि फिर इस ग्रस्तता को अतीत और भविष्य (की आधारहीन कल्पना) तक खींच ले जाते हैं, और कहने लगते हैं ’मैंने’ ’यह’ / ’वह’ किया / नहीं किया, अथवा, ’मैं’, ”यह’ / ’वह’ करूँगा / नहीं करूँगा । इसमें अतीत, भविष्य, मैं, मैंने, करना, इन सबसे हम क्या समझते हैं, यह जानना भी हमारे लिए नितांत दुरूह, अनिश्चित और अज्ञातप्राय होता है । इसलिए मुख्य बात यह हो सकती है कि हम अपने विवेक से जो कर सकते हैं उसे ही करने के प्रयास तक ही स्वयं को सीमित रखें और जो होता है वह हमारे नियंत्रण में होगा ही ऐसा न सोचें ।
मुझे लगता है कि अधिकांश लोगों को ’शास्त्र’ (हिन्दू ही नहीं, सभी ) और अधिक भ्रमित कर देते हैं , इसलिए शास्त्र, ’शस्त्र’ से कम खतरनाक नहीं होते । शस्त्रों की भयावहता तो प्रकट है, किन्तु शास्त्रों की भयावहता की ओर हमारा ध्यान तक शायद ही कभी जाता हो । कोई दिलाये भी तो हम उसे महत्व नहीं देते ।
हमारा अपने-आपको जानना न तो किसी ’कर्म’ का परिणाम है, न किसी ’कर्म’ से इस ’जानने’ का अन्त संभव है । हमारा ’होना’ भी न तो किसी ’कर्म’ का परिणाम है, न किसी कर्म से हमारे ’होने’ के तथ्य को मिटाया जा सकता है ।
क्योंकि मान लें यदि ऐसा हो भी जाता है तो ’हमें’ कैसे पता चलेगा? और यदि किसी तल पर हमें पता चलता है, तो हम वहाँ ’होंगे’ ही । अपने होने को जानते हुए ।
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