हिन्दुत्व की चुनौती -3
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भावना और विचार इन दो तत्वों का जीवन में अपना-अपना स्थान है । दोनों अस्थायी होते हैं विचार किसी तथ्य का शब्दीकरण होता है जबकि भावना तथ्य से तादात्म्य । यह तादात्म्य तथ्य को जिस संवेदनशीलता के माध्यम से ग्रहण और अभिव्यक्त किया गया है वह संवेदनशीलता अपने-आप में अपेक्षाकृत अधिक प्रामाणिक और स्वतःप्रमाणित सत्य है । यह संवेदनशीलता न तो तथ्य की भाँति अनित्य और परिवर्तनशील है और न कल्पना की भाँति क्षणिक और व्यक्तिगत । सूर्योदय और सूर्यास्त ’तथ्य’ हैं संवेदनशीलता उन्हें प्रत्यक्ष जानने हेतु माध्यम है, और सूर्योदय तथा सूर्यास्त के आधार पर ’काल’ का निर्धारण करना तथ्य का शब्दीकरण हुआ । इस प्रकार ’शब्दीकरण’ तथ्य को विरूपित कर देता है और हमारा ध्यान इस तथ्य से हटा देता है कि इस प्रकार से निर्धारित ’काल’ की निरंतरता केवल विचार पर ही अवलंबित होती है ।’घटनाएँ’ जो कि ’तथ्य’ हैं, विचार का सहारा लेकर ’काल’ को परिभाषित करने में सहायक प्रतीत होती हैं और ’काल’ के माध्यम से पुनः घटनाओं पर एकरूपता आरोपित कर दी जाती है । इस प्रकार से उस ’भौतिक’ काल की उपलब्धि की जाती है जो सदैव अबूझ बनारहता है । चूँकि
इस काल को नापा भी जा सकता है और विचार-आधारित गणित के नियमों से इसका चरित्र असंदिग्ध रूप से ’खोजा’ जा सकता है और उस चरित्र को ’प्रयोगों’ द्वारा अकाट्य सत्य की तरह सिद्ध भी किया जा सकता है, इसलिए विचार के रूप में ही इस भ्रम का जन्म होता है कि ’काल’ नामक सत्ता शाश्वत् रूप से स्वततन्त्र रूप में विद्यमान है । यदि हम शाश्वत् शब्द के अर्थ पर ध्यान दें तो सरलता से देखा जा सकता है कि तथ्य-रूप में इस ’शाश्वत्’ का ’काल’ से कोई लेना-देना संभव नहीं । शाश्वत् न तो ’काल’ का विरोधी है, न उसका आधार । यह तो ’विचार’ है जो दो तथ्यों ’घटना’/’काल’ नामक तथ्य और ’शाश्वत्’ जैसे सत्य की तुलना करने लगता है । जबकि ये दोनों परस्पर विलक्षण तत्व हैं, और एक दूसरे से इनका कोई संबंध कल्पना के अतिरिक्त और कहीं संभव नहीं ।
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हिन्दुत्व की चुनौती -4
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किन्तु ’विचार’ पर आधारित ’गणित’, ’तर्क’ और ’विज्ञान’ का सम्मोहन हमें यह तक देखने में असमर्थ बना देता है कि इनकी तमाम उपयोगिता, सैद्धान्तिक प्रामाणिकता के बावज़ूद ’काल’ या ’स्थान’, पदार्थ या ऊर्जा की स्वतन्त्र सत्ता हो ही नहीं सकती । वे अवश्य ही ऐसी किसी शाश्वत् सत्ता पर परोक्ष (कल्पना और विचार रूपी) या अपरोक्षतः (स्वप्रमाणित रूप में) आश्रित होते हैं जिसका प्रमाण वह शाश्वत् सत्ता स्वयं ही अपने ही लिए होती है । चूँकि उस शाश्वत् अखण्ड सत्ता से अन्य किसी और की सत्ता विचार पर ही आश्रित होती है ।
इस शाश्वत् सनातन सत्ता को ही ’धर्म’ या सनातन-धर्म कहा जाता है ।
’शाश्वत्’ में गति करता हुआ, गतिशील घटनाक्रम जिस पर ’पहले’ और ’बाद में’ के विचार को आरोपित करने पर ही ’काल’ की आभासी उपलब्धि होती है । इस ’काल’ की निरंतरता विचार के ही आश्रय से, विचार के ही अन्तर्गत होती है । जबकि ’सनातन’ की निरंतरता ’शाश्वत्’ के अन्तर्गत ।
विज्ञान, गणित और तकनीक, राजनीति, मनोविज्ञान, साहित्य और शास्त्र की सारी भाग-दौड़ शब्दीकरण अर्थात् विचार से और विचार तक सीमित है । कला की सारे यत्न कल्पना तक । इतिहास की उन ’घटनाओं’ तक, जिनकी समसामयिक असंख्य दूसरी घटनाओं के सन्दर्भ की झलक तक उसके पास नहीं होती, जिनके ’घटित होने’ / ’न होने’ के तरीके तक के बारे में अनुमान मात्र ही उसके पास होते हैं, किसी ठोस आधार पर असंदिग्ध निष्कर्ष हो भी नहीं सकते ।
इसलिए शाश्वत् ही, जिसमें ’धर्म’ सनातन-भाव से गतिशील है, एकमात्र विकल्प शेष रहता है जिसमें मनुष्य के सुखद भविष्य की आशा देखी जा सकती हो।
अप्रकट और अनुभवगम्य रूप में यही धर्म सर्वहितकारी एक शुभ भावनामात्र है जो विचार और विचारजनित भावुकता से सर्वथा भिन्न एक स्वतंत्र तत्व है ।
’धर्म’ वस्तु-स्वभाव है, विवेक अर्थात् विवेचनापूर्वक पाया जानेवाला आधारभूत समाधान है, जबकि धर्म का विचार शब्दीकरण, विश्वास, मत, शाब्दिक-व्याख्या तक सीमित होता है । सनातन-धर्म एक ऐसा तथ्य है जो स्थिर शाश्वत् में एक निरंतर गतिशीलता है । विचार या विश्वास कल्पना और हठमात्र हैं ।
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हिन्दुत्व की चुनौती -5
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हिन्दुत्व यदि सनातन-धर्म की एक गतिविधि है तो अवश्य ही सार्वकालिक व्यावहारिक, सदा पालन किया जाने योग्य आचरण, संस्कृति है ।
हिन्दुत्व यदि एक विचार है, कोरा बौद्धिक सिद्धान्त या राजनीतिक आदर्श तो वह भी इस्लाम, यहूदी, क्रिश्चियन, कैथोलिक, नास्तिकता या अज्ञेयवाद जैसे दूसरे विश्वासों जैसा ही मनुष्यता के लिए एक और घातक विचार मात्र है । इस रूप में ’विचार’ सदा ही ’तथ्य’ को यथावत् देख पाने की संभावना को ही नष्ट कर देता है । विचार के इस दायरे में आप कितने ही तर्क-वितर्क, वाद-विवाद कर लें ’संशय’ के यथार्थ का निराकरण / समाधान नहीं हो पाता । ’वैचारिक’ या बौद्धिक रूप में प्राप्त ’निष्कर्ष’ उन परिस्थितियों से सीमित होता है । इसलिए भौतिक-शास्त्र के ज्ञान का जितना विस्तार होता है, जानकारी यद्यपि उतनी ही अधिक विस्तृत हो जाती है, किन्तु उससे जीवन के आध्यात्मिक तथ्य की दिशा में कोई ऐसा नया मोड़ नहीं आता जो ’विश्वास’ के औचित्य की पुष्टि कर सके ।
दूसरी ओर ’विवेचना’ यद्यपि ’सत्य’ को जान लेने का दावा नहीं करती, तथापि त्रुटिपूर्ण विश्वासों और विचारों की सीमा और औचित्य को स्पष्ट कर देती है । सनातन-धर्म की विवेचना करनेवाले ग्रन्थ सदा से जीवन के गूढ, अज्ञातप्राय और अनिर्वचनीय आधारभूत सत्य को चिन्तन मनन और निदिध्यासन के द्वारा समझे जाने पर बल देते हैं, वे भय या लोभ पर आधारित किसी विचार-विशेष को ’सत्य’ स्वीकार कर लेने का आग्रह नहीं करते, बल्कि उसे तो सत्य के आविष्कार में एक बाधा हो सकने की ओर भी संकेत करते हैं । हिन्दुत्व, जो कि सनातन-धर्म की नींव पर खड़ी संस्कृतिरूपी इमारत है, इसलिए स्वाभाविक रूप से ’सहिष्णुता’ को महत्व देता है क्योंकि सहिष्णुता के अभाव में कोई भी विश्वास अंततः दम तोड़ देता है । विवेचना के माध्यम से सत्य के प्रति जिज्ञासा की जाने पर जिज्ञासु अवश्य ही उस तत्व के दर्शन कर सकते हैं जो विचार का अतिक्रमण करने पर ही समझ में आता है । गीता का अध्याय 4 श्लोक 34 स्पष्ट कर देता है कि बुद्धि की सीमा में उस तत्व की अभिज्ञा नहीं हो सकती, इसके लिए विवेचन अर्थात् विवेकपूर्ण अन्वेषण ही एकमात्र संभावित उपाय है । दर्शन ’उपाय’ है न कि विचार-प्रणाली । इसलिए सनातन-धर्म प्रधानतः छः उपायों को स्वीकार करता है । वे हैं साँख्य, मीमांसा, न्याय, वैशेषिक, योग और वेदान्त । और वे परस्पर विपरीत नहीं सहयोगी हैं । सनातन-धर्म इन्हें स्वीकार न करनेवालों पर इन्हें बलपूर्वक आरोपित करने के पक्ष में भी नहीं है, क्योंकि सनातन धर्म सभी के स्वाभाविक मार्गों को उनके लिए उचित मानता है । सनातन-धर्म तो यहाँ तक कहता है कि अपने स्वाभाविक धर्म का आचरण ही मनुष्यमात्र को श्रेयस्कर की प्राप्ति में सहायक है, (गीता अध्याय 3, श्लोक 35, तथा अध्याय 18 श्लोक 47) ’सहिष्णुता’ का इससे अच्छा और क्या तरीका हो सकता है ? वर्ण-आश्रम की व्यवस्था को सनातन-धर्म मानव-समाज के लिए सर्वाधिक स्थायी और अनुकूल घोषित करता है और गीता अध्याय 4 श्लोक 13 की विवेचना करते हुए भगवान् शंकर आचार्य तो सचेत करते हैं :
"मानुषे एव लोके वर्णाश्रमादिकर्माधिकारो न अन्येषु लोकेषु इति नियमः किंनिमित्त इति ...।"
तात्पर्य यह कि मनुष्यमात्र का ही वर्णाश्रम आदि के कर्मों के अनुष्ठान में उनकी पात्रता के अनुसार अधिकार है, और ये वर्ण-आश्रम यद्यपि मनुष्य को जन्म से प्राप्त होते हैं किन्तु जाति-आधारित नहीं हो सकते । जाति एक प्राथमिक संभावना के रूप में अवश्य विचारणिय है, किन्तु गुण तथा कर्म मनुष्य के वर्ण को निर्धारित करते हैं । इसलिए यदि ब्राह्मण-कुल में उत्पन्न हुआ मनुष्य ऐसे कर्म करता है जो ब्राह्मणवर्ण के लिए निषिद्ध हैं तो वह स्वयं को ब्राह्मण नहीं कह सकता । इसलिए स्त्री अथवा अब्राह्मण को वेद पढ़ने-पढ़ाने का अधिकार ही नहीं हो सकता । इसका तात्पर्य यह नहीं कि सनातन-धर्म को उनसे द्वेष है, बल्कि इसके पीछे केवल इतनी सावधानी है कि वेद का पठन-पाठन स्त्री अथवा अब्राह्मण की प्रकृति के अनुकूल नहीं है । यदि कोई पूछे कि पुरुष को गर्भ-धारण का अधिकार क्यों नहीं है, तो हम उसकी नासमझी पर शायद हँस पड़ेंगे, किन्तु चूँकि विधाता ने इसके लिए पुरुष के शरीर को अनुकूल बनाया ही नहीं है इसलिए यह प्रश्न ही तर्क-असंगत है । फिर अध्यात्म या धर्म जैसे कठिन विषय को ग्रहण करना ब्राह्मण के लिए ही सर्वाधिक अनुकूल है इसलिए उसे ही वेद के पठन-पाठन का अधिकारी कहा गया । ब्राह्मण दूसरे वर्णों के धर्म का पालन करे, यह तो उसके और सभी के लिए अत्यन्त क्षतिकारक है, इसी प्रकार मनुष्य को चाहिए कि अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार अनुकूल वर्णाश्रम धर्म का आचरण करे । किन्तु सनातन-धर्म उन विरोधियों पर भी बलपूर्वक अपना मत नहीं थोपता जो वर्णाश्रम की व्यवस्था को अस्वीकार करते हैं । क्या सनातन-धर्म को न माननेवाले भी यही दृष्टि रखते हैं ? सनातन-धर्म तो प्रचार तक का विरोधी है । दूसरों को बलपूर्वक अपने मत को मानने के लिए बाध्य करना तो सनातन-धर्म की दृष्टि में सरासर अधर्म ही है ।
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भावना और विचार इन दो तत्वों का जीवन में अपना-अपना स्थान है । दोनों अस्थायी होते हैं विचार किसी तथ्य का शब्दीकरण होता है जबकि भावना तथ्य से तादात्म्य । यह तादात्म्य तथ्य को जिस संवेदनशीलता के माध्यम से ग्रहण और अभिव्यक्त किया गया है वह संवेदनशीलता अपने-आप में अपेक्षाकृत अधिक प्रामाणिक और स्वतःप्रमाणित सत्य है । यह संवेदनशीलता न तो तथ्य की भाँति अनित्य और परिवर्तनशील है और न कल्पना की भाँति क्षणिक और व्यक्तिगत । सूर्योदय और सूर्यास्त ’तथ्य’ हैं संवेदनशीलता उन्हें प्रत्यक्ष जानने हेतु माध्यम है, और सूर्योदय तथा सूर्यास्त के आधार पर ’काल’ का निर्धारण करना तथ्य का शब्दीकरण हुआ । इस प्रकार ’शब्दीकरण’ तथ्य को विरूपित कर देता है और हमारा ध्यान इस तथ्य से हटा देता है कि इस प्रकार से निर्धारित ’काल’ की निरंतरता केवल विचार पर ही अवलंबित होती है ।’घटनाएँ’ जो कि ’तथ्य’ हैं, विचार का सहारा लेकर ’काल’ को परिभाषित करने में सहायक प्रतीत होती हैं और ’काल’ के माध्यम से पुनः घटनाओं पर एकरूपता आरोपित कर दी जाती है । इस प्रकार से उस ’भौतिक’ काल की उपलब्धि की जाती है जो सदैव अबूझ बनारहता है । चूँकि
इस काल को नापा भी जा सकता है और विचार-आधारित गणित के नियमों से इसका चरित्र असंदिग्ध रूप से ’खोजा’ जा सकता है और उस चरित्र को ’प्रयोगों’ द्वारा अकाट्य सत्य की तरह सिद्ध भी किया जा सकता है, इसलिए विचार के रूप में ही इस भ्रम का जन्म होता है कि ’काल’ नामक सत्ता शाश्वत् रूप से स्वततन्त्र रूप में विद्यमान है । यदि हम शाश्वत् शब्द के अर्थ पर ध्यान दें तो सरलता से देखा जा सकता है कि तथ्य-रूप में इस ’शाश्वत्’ का ’काल’ से कोई लेना-देना संभव नहीं । शाश्वत् न तो ’काल’ का विरोधी है, न उसका आधार । यह तो ’विचार’ है जो दो तथ्यों ’घटना’/’काल’ नामक तथ्य और ’शाश्वत्’ जैसे सत्य की तुलना करने लगता है । जबकि ये दोनों परस्पर विलक्षण तत्व हैं, और एक दूसरे से इनका कोई संबंध कल्पना के अतिरिक्त और कहीं संभव नहीं ।
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हिन्दुत्व की चुनौती -4
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किन्तु ’विचार’ पर आधारित ’गणित’, ’तर्क’ और ’विज्ञान’ का सम्मोहन हमें यह तक देखने में असमर्थ बना देता है कि इनकी तमाम उपयोगिता, सैद्धान्तिक प्रामाणिकता के बावज़ूद ’काल’ या ’स्थान’, पदार्थ या ऊर्जा की स्वतन्त्र सत्ता हो ही नहीं सकती । वे अवश्य ही ऐसी किसी शाश्वत् सत्ता पर परोक्ष (कल्पना और विचार रूपी) या अपरोक्षतः (स्वप्रमाणित रूप में) आश्रित होते हैं जिसका प्रमाण वह शाश्वत् सत्ता स्वयं ही अपने ही लिए होती है । चूँकि उस शाश्वत् अखण्ड सत्ता से अन्य किसी और की सत्ता विचार पर ही आश्रित होती है ।
इस शाश्वत् सनातन सत्ता को ही ’धर्म’ या सनातन-धर्म कहा जाता है ।
’शाश्वत्’ में गति करता हुआ, गतिशील घटनाक्रम जिस पर ’पहले’ और ’बाद में’ के विचार को आरोपित करने पर ही ’काल’ की आभासी उपलब्धि होती है । इस ’काल’ की निरंतरता विचार के ही आश्रय से, विचार के ही अन्तर्गत होती है । जबकि ’सनातन’ की निरंतरता ’शाश्वत्’ के अन्तर्गत ।
विज्ञान, गणित और तकनीक, राजनीति, मनोविज्ञान, साहित्य और शास्त्र की सारी भाग-दौड़ शब्दीकरण अर्थात् विचार से और विचार तक सीमित है । कला की सारे यत्न कल्पना तक । इतिहास की उन ’घटनाओं’ तक, जिनकी समसामयिक असंख्य दूसरी घटनाओं के सन्दर्भ की झलक तक उसके पास नहीं होती, जिनके ’घटित होने’ / ’न होने’ के तरीके तक के बारे में अनुमान मात्र ही उसके पास होते हैं, किसी ठोस आधार पर असंदिग्ध निष्कर्ष हो भी नहीं सकते ।
इसलिए शाश्वत् ही, जिसमें ’धर्म’ सनातन-भाव से गतिशील है, एकमात्र विकल्प शेष रहता है जिसमें मनुष्य के सुखद भविष्य की आशा देखी जा सकती हो।
अप्रकट और अनुभवगम्य रूप में यही धर्म सर्वहितकारी एक शुभ भावनामात्र है जो विचार और विचारजनित भावुकता से सर्वथा भिन्न एक स्वतंत्र तत्व है ।
’धर्म’ वस्तु-स्वभाव है, विवेक अर्थात् विवेचनापूर्वक पाया जानेवाला आधारभूत समाधान है, जबकि धर्म का विचार शब्दीकरण, विश्वास, मत, शाब्दिक-व्याख्या तक सीमित होता है । सनातन-धर्म एक ऐसा तथ्य है जो स्थिर शाश्वत् में एक निरंतर गतिशीलता है । विचार या विश्वास कल्पना और हठमात्र हैं ।
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हिन्दुत्व की चुनौती -5
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हिन्दुत्व यदि सनातन-धर्म की एक गतिविधि है तो अवश्य ही सार्वकालिक व्यावहारिक, सदा पालन किया जाने योग्य आचरण, संस्कृति है ।
हिन्दुत्व यदि एक विचार है, कोरा बौद्धिक सिद्धान्त या राजनीतिक आदर्श तो वह भी इस्लाम, यहूदी, क्रिश्चियन, कैथोलिक, नास्तिकता या अज्ञेयवाद जैसे दूसरे विश्वासों जैसा ही मनुष्यता के लिए एक और घातक विचार मात्र है । इस रूप में ’विचार’ सदा ही ’तथ्य’ को यथावत् देख पाने की संभावना को ही नष्ट कर देता है । विचार के इस दायरे में आप कितने ही तर्क-वितर्क, वाद-विवाद कर लें ’संशय’ के यथार्थ का निराकरण / समाधान नहीं हो पाता । ’वैचारिक’ या बौद्धिक रूप में प्राप्त ’निष्कर्ष’ उन परिस्थितियों से सीमित होता है । इसलिए भौतिक-शास्त्र के ज्ञान का जितना विस्तार होता है, जानकारी यद्यपि उतनी ही अधिक विस्तृत हो जाती है, किन्तु उससे जीवन के आध्यात्मिक तथ्य की दिशा में कोई ऐसा नया मोड़ नहीं आता जो ’विश्वास’ के औचित्य की पुष्टि कर सके ।
दूसरी ओर ’विवेचना’ यद्यपि ’सत्य’ को जान लेने का दावा नहीं करती, तथापि त्रुटिपूर्ण विश्वासों और विचारों की सीमा और औचित्य को स्पष्ट कर देती है । सनातन-धर्म की विवेचना करनेवाले ग्रन्थ सदा से जीवन के गूढ, अज्ञातप्राय और अनिर्वचनीय आधारभूत सत्य को चिन्तन मनन और निदिध्यासन के द्वारा समझे जाने पर बल देते हैं, वे भय या लोभ पर आधारित किसी विचार-विशेष को ’सत्य’ स्वीकार कर लेने का आग्रह नहीं करते, बल्कि उसे तो सत्य के आविष्कार में एक बाधा हो सकने की ओर भी संकेत करते हैं । हिन्दुत्व, जो कि सनातन-धर्म की नींव पर खड़ी संस्कृतिरूपी इमारत है, इसलिए स्वाभाविक रूप से ’सहिष्णुता’ को महत्व देता है क्योंकि सहिष्णुता के अभाव में कोई भी विश्वास अंततः दम तोड़ देता है । विवेचना के माध्यम से सत्य के प्रति जिज्ञासा की जाने पर जिज्ञासु अवश्य ही उस तत्व के दर्शन कर सकते हैं जो विचार का अतिक्रमण करने पर ही समझ में आता है । गीता का अध्याय 4 श्लोक 34 स्पष्ट कर देता है कि बुद्धि की सीमा में उस तत्व की अभिज्ञा नहीं हो सकती, इसके लिए विवेचन अर्थात् विवेकपूर्ण अन्वेषण ही एकमात्र संभावित उपाय है । दर्शन ’उपाय’ है न कि विचार-प्रणाली । इसलिए सनातन-धर्म प्रधानतः छः उपायों को स्वीकार करता है । वे हैं साँख्य, मीमांसा, न्याय, वैशेषिक, योग और वेदान्त । और वे परस्पर विपरीत नहीं सहयोगी हैं । सनातन-धर्म इन्हें स्वीकार न करनेवालों पर इन्हें बलपूर्वक आरोपित करने के पक्ष में भी नहीं है, क्योंकि सनातन धर्म सभी के स्वाभाविक मार्गों को उनके लिए उचित मानता है । सनातन-धर्म तो यहाँ तक कहता है कि अपने स्वाभाविक धर्म का आचरण ही मनुष्यमात्र को श्रेयस्कर की प्राप्ति में सहायक है, (गीता अध्याय 3, श्लोक 35, तथा अध्याय 18 श्लोक 47) ’सहिष्णुता’ का इससे अच्छा और क्या तरीका हो सकता है ? वर्ण-आश्रम की व्यवस्था को सनातन-धर्म मानव-समाज के लिए सर्वाधिक स्थायी और अनुकूल घोषित करता है और गीता अध्याय 4 श्लोक 13 की विवेचना करते हुए भगवान् शंकर आचार्य तो सचेत करते हैं :
"मानुषे एव लोके वर्णाश्रमादिकर्माधिकारो न अन्येषु लोकेषु इति नियमः किंनिमित्त इति ...।"
तात्पर्य यह कि मनुष्यमात्र का ही वर्णाश्रम आदि के कर्मों के अनुष्ठान में उनकी पात्रता के अनुसार अधिकार है, और ये वर्ण-आश्रम यद्यपि मनुष्य को जन्म से प्राप्त होते हैं किन्तु जाति-आधारित नहीं हो सकते । जाति एक प्राथमिक संभावना के रूप में अवश्य विचारणिय है, किन्तु गुण तथा कर्म मनुष्य के वर्ण को निर्धारित करते हैं । इसलिए यदि ब्राह्मण-कुल में उत्पन्न हुआ मनुष्य ऐसे कर्म करता है जो ब्राह्मणवर्ण के लिए निषिद्ध हैं तो वह स्वयं को ब्राह्मण नहीं कह सकता । इसलिए स्त्री अथवा अब्राह्मण को वेद पढ़ने-पढ़ाने का अधिकार ही नहीं हो सकता । इसका तात्पर्य यह नहीं कि सनातन-धर्म को उनसे द्वेष है, बल्कि इसके पीछे केवल इतनी सावधानी है कि वेद का पठन-पाठन स्त्री अथवा अब्राह्मण की प्रकृति के अनुकूल नहीं है । यदि कोई पूछे कि पुरुष को गर्भ-धारण का अधिकार क्यों नहीं है, तो हम उसकी नासमझी पर शायद हँस पड़ेंगे, किन्तु चूँकि विधाता ने इसके लिए पुरुष के शरीर को अनुकूल बनाया ही नहीं है इसलिए यह प्रश्न ही तर्क-असंगत है । फिर अध्यात्म या धर्म जैसे कठिन विषय को ग्रहण करना ब्राह्मण के लिए ही सर्वाधिक अनुकूल है इसलिए उसे ही वेद के पठन-पाठन का अधिकारी कहा गया । ब्राह्मण दूसरे वर्णों के धर्म का पालन करे, यह तो उसके और सभी के लिए अत्यन्त क्षतिकारक है, इसी प्रकार मनुष्य को चाहिए कि अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार अनुकूल वर्णाश्रम धर्म का आचरण करे । किन्तु सनातन-धर्म उन विरोधियों पर भी बलपूर्वक अपना मत नहीं थोपता जो वर्णाश्रम की व्यवस्था को अस्वीकार करते हैं । क्या सनातन-धर्म को न माननेवाले भी यही दृष्टि रखते हैं ? सनातन-धर्म तो प्रचार तक का विरोधी है । दूसरों को बलपूर्वक अपने मत को मानने के लिए बाध्य करना तो सनातन-धर्म की दृष्टि में सरासर अधर्म ही है ।
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